दोनों जीवों का जीवन आराम से चलता रहा, परन्तु यूरोपीय लोगोंं के यहाॅं आते ही स्थितियाॅं बदलीं और पेड़ और पक्षी के इस जोड़े का दुर्भाग्य शुरू हो गया। अतिदोहन के कारण इस सुंदर पक्षी की 32 प्रजातियों में से सोलह पूर्णत: लुप्त हो गईं, शेष 16 संकटग्रस्त हैं। पक्षी के लुप्त होने से पेड़ों का परागण प्रभावित हुआ है। फलस्वरूप हाउकुवा हीवी की पांच प्रजातियों में से दो लुप्त हो गई हैं। शेष तीन गंभीर रूप से संकटग्रस्त हैं। जाहिर है, इन दोनों पर आए हुए संकट के लिए मानव ही जिम्मेदार है। जैव विविधता प्रकृति की अमूल्य निधि है। जैव विविधता से आशय पृथ्वी पर पाए जाने वाले समस्त जंतुओं, पेड़-पौधों, फफूंदों और सूक्ष्म जीवों की जातियों, प्रजातियों और किस्मों से है। इस शब्द प्रयोग सर्वप्रथम डब्ल्यू.जी. रासन ने 1986 में किया था। तब से आज तक यह शब्द काफी महत्वपूर्ण और प्रसिद्ध हो चुका है।
अनुमान है कि पृथ्वी पर पेड़-पौधों एवं जीव जंतुओं की लगभग 50 लाख से 10 करोड़ तक किस्में हैं। अब तक खोजे गए 50 लाख जीव - जंतुओं में से केवल 20 लाख ही ठीक से पहचाने गए हैं। इसके लिए विशिष्ट वैज्ञानिकों की जरूरत होती है, जो वर्गीकरणवेत्ता कहे जाते हैं। खेद का विषय है कि आनुवांशिकी अभियांत्रिकी और जैव टेक्नोलाॅजी जैसे अत्याधुनिक भारी-भरकम विषयों के चलते इन वैज्ञानिकों की जमात भी कम होती जा रही है। वर्तमान में जीव-जंतु तो बड़ी तेजी से विलुप्त हो रहे हैं, लेकिन इन्हेंं खोजने व पहचानने वाले वैज्ञानिक भी लुप्तप्राय की श्रेणी में आ चुके हैं।
कोई नहींं जानता कि पिछले तीन-चार सौ वर्षों में कितने जीव-जंतु विलुप्त हो गए हैं। अनुमान है कि यह संख्या हजारों में है। आज स्थिति यह है कि अकेले पौधों की लगभग 20 हजार प्रजातियाॅं विभिन्न कारणों से अपने अस्तित्व के संकट से जूझ रही हैं।
पृथ्वी पर विभिन्न प्रजातियों की अनुमानित संख्या में रीढ़ की हड्डी वाले जंतुओं की संख्या में 23 हजार मछलियाॅं, 8600 विभिन्न प्रकार के पक्षी, 7700 रेंगने वाले व 4200 स्तनधारी हैं। इसी तरह हमारे देश में लगभग 45000 विभिन्न प्रकार की वनस्पतियाॅं पाई जाती हैं। इनमें से तीन हजार संकटग्रस्त घोषित की जा चुकी हैं। देश में खोजे गए पंद्रह हजार पौधों में से पाॅंच हजार से अधिक तो केवल केरल और पश्चिमी घाट में ही मिलते हैं। इनमें से 235 प्रजातियाॅं इस क्षेत्र के अलावा कहीं और नहींं मिलती।
जैव विविधता की दृष्टि से शीतोष्ण और गर्म वर्षा वन सर्वाधिक संपन्न पाए जाते हैं। दुर्भाग्य से ये ही वे इलाके हैं जहाॅं वनों का विनाश सबसे ज्यादा हुआ है। मोटे तौर पर एक पौधे के साथ 19 जंतु जातियों का अस्तित्व जुड़ा होता है। जब एक पौधे के अस्तित्व पर खतरा मंडराता है तो उसके साथ कई जंतुओं के नष्ट होने का भय पैदा हो जाता है। यह भी एक तथ्य है कि पौधों की विलुप्तीकरण की दर उच्च श्रेणी के जंतुओं से ज्यादा है और यही बात हमारी चिंता का विषय है, क्योंकि पृथ्वी पर अन्य सभी जीव प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से पौधों पर आश्रित हैं।
वैसे तो विलुप्तीकरण के कई कारण हैं। प्राकृतिक कारणों से भी अतीत में जीवों का विलुप्तीकरण होता रहा है। जीवाश्मीय रिकार्ड से पता चलता है कि पूर्व में यह दर प्रतिवर्ष लगभग चार थी और वर्तमान में मानवीय हस्ताक्षेप के चलते यह लगभग प्रतिदिन एक प्रजाति है। कुछ वैज्ञानिकों का तो मानना है कि जिस रफ्तार से दुनिया में वनों का विनाश हो रहा है, प्राकृतिक आवास नष्ट किए जा रहे हैं, इस हिसाब से विलुप्तीकरण की यह दर सौ प्रजातियाॅं प्रतिदिन होनी चाहिए, जो प्राकृतिक दर से एक हजार गुना ज्यादा है।
विलुप्तीकरण का एक कारण कुछ जीव-जंतुओं का अधिक खूबसूरत होना भी है। तितलियाॅं-आर्किड ऐसे ही जीव हैं, जिन्हें अपनी सुंदरता की कीमत चुकानी पड़ी है। हालात ये हैं कि जंतुओं और पौधों की 1,35,000 की हमारी संपदा में से लगभग 90 प्रतिशत संकटग्रस्त हैं। इनमें से कुछ तो हाल में ही लुप्त हुई हैं। जैसे चीता हमारे देखते-देखते गायब हो गया है। जिसके लिए हम किसी और को दोषी नहींं ठहरा सकते।
जीवों का संरक्षण केवल हमारे लाभ के लिए ही किया जाना चाहिए, ऐसा नहीं है। प्रकृति में जीवों के बीच ऐसे आश्चर्यजनक आपसी संबंध हैं कि लगता है, जैसे वह एक दूजे के लिए ही बने हों। एक के बिना दूसरे का जीवन संकट में पड़ जाता है। एक जमाने में हवाई द्वीप में हाउकुवा हीवी के फूलदार पेड़ बहुतायत में मिलते थे। इन्हें 1992 से ही लुप्त घोषित किया जा चुका है। ऐसा क्यों हुआ? जांच करने पर पता चला कि हनीफीशर नामक पक्षी इसकी ठीक उसी प्रकार सेवा करते थे जैसे मधुमक्खियां व तितलियाॅं अन्य पुष्पीय पौधों की करती हैं यानी परागण में सहायता। बदले में हनीफीशर को मधु मिलता था।
दोनों जीवों का जीवन आराम से चलता रहा, परन्तु यूरोपीय लोगोंं के यहाॅं आते ही स्थितियाॅं बदलीं और पेड़ और पक्षी के इस जोड़े का दुर्भाग्य शुरू हो गया। अतिदोहन के कारण इस सुंदर पक्षी की 32 प्रजातियों में से सोलह पूर्णत: लुप्त हो गईं, शेष 16 संकटग्रस्त हैं। पक्षी के लुप्त होने से पेड़ों का परागण प्रभावित हुआ है। फलस्वरूप हाउकुवा हीवी की पांच प्रजातियों में से दो लुप्त हो गई हैं। शेष तीन गंभीर रूप से संकटग्रस्त हैं। जाहिर है, इन दोनों पर आए हुए संकट के लिए मानव ही जिम्मेदार है।
दूसरा उदाहरण भी मानवीय कारगुजारी का शर्मनाक नमूना हैै। ये रिश्ता था डोडो पक्षी और डोडो पेड़ का।’ इसलिए कि माॅरीशस में पाए पाए जाने वाले इस पेड़ के नए पौधे नहीं उगते। वास्तविकता यह है कि 1680 में डोडो पक्षी के पूर्णतः लुप्त हो जाने के बाद से डोडो का एक भी नया पेड़ नहीं उगा। अत्यधिक शिकार के कारण पृथ्वी से डोडो का वंश ही समाप्त हो गया ओर फिर कहावत बनी डेड एज डोडो। दोनों माॅरीशस के स्थानीय जीव थे, जो दुनिया के किसी अन्य भाग में नहींं मिलते। वर्तमान में डोडो पक्षी इस पेड़ के बीजों के अंकुरण में मददगार था। न रहा डोडो पक्षी, न उगे नए डोडो पेड़।
ये दोनों उदाहरण इस बात के स्पष्ट प्रमाण हैं कि प्रकृति में जीवों के बीच आपसी रिश्ते बड़े विलक्षण और नाजुक हैं। एक के साथ खिलवाड़ दूसरे के जीवन के लिए खतरा बन सकता है। अतः जीवों का संरक्षण जरूरी है।
अनुमान है कि पृथ्वी पर पेड़-पौधों एवं जीव जंतुओं की लगभग 50 लाख से 10 करोड़ तक किस्में हैं। अब तक खोजे गए 50 लाख जीव - जंतुओं में से केवल 20 लाख ही ठीक से पहचाने गए हैं। इसके लिए विशिष्ट वैज्ञानिकों की जरूरत होती है, जो वर्गीकरणवेत्ता कहे जाते हैं। खेद का विषय है कि आनुवांशिकी अभियांत्रिकी और जैव टेक्नोलाॅजी जैसे अत्याधुनिक भारी-भरकम विषयों के चलते इन वैज्ञानिकों की जमात भी कम होती जा रही है। वर्तमान में जीव-जंतु तो बड़ी तेजी से विलुप्त हो रहे हैं, लेकिन इन्हेंं खोजने व पहचानने वाले वैज्ञानिक भी लुप्तप्राय की श्रेणी में आ चुके हैं।
कोई नहींं जानता कि पिछले तीन-चार सौ वर्षों में कितने जीव-जंतु विलुप्त हो गए हैं। अनुमान है कि यह संख्या हजारों में है। आज स्थिति यह है कि अकेले पौधों की लगभग 20 हजार प्रजातियाॅं विभिन्न कारणों से अपने अस्तित्व के संकट से जूझ रही हैं।
पृथ्वी पर विभिन्न प्रजातियों की अनुमानित संख्या में रीढ़ की हड्डी वाले जंतुओं की संख्या में 23 हजार मछलियाॅं, 8600 विभिन्न प्रकार के पक्षी, 7700 रेंगने वाले व 4200 स्तनधारी हैं। इसी तरह हमारे देश में लगभग 45000 विभिन्न प्रकार की वनस्पतियाॅं पाई जाती हैं। इनमें से तीन हजार संकटग्रस्त घोषित की जा चुकी हैं। देश में खोजे गए पंद्रह हजार पौधों में से पाॅंच हजार से अधिक तो केवल केरल और पश्चिमी घाट में ही मिलते हैं। इनमें से 235 प्रजातियाॅं इस क्षेत्र के अलावा कहीं और नहींं मिलती।
जैव विविधता की दृष्टि से शीतोष्ण और गर्म वर्षा वन सर्वाधिक संपन्न पाए जाते हैं। दुर्भाग्य से ये ही वे इलाके हैं जहाॅं वनों का विनाश सबसे ज्यादा हुआ है। मोटे तौर पर एक पौधे के साथ 19 जंतु जातियों का अस्तित्व जुड़ा होता है। जब एक पौधे के अस्तित्व पर खतरा मंडराता है तो उसके साथ कई जंतुओं के नष्ट होने का भय पैदा हो जाता है। यह भी एक तथ्य है कि पौधों की विलुप्तीकरण की दर उच्च श्रेणी के जंतुओं से ज्यादा है और यही बात हमारी चिंता का विषय है, क्योंकि पृथ्वी पर अन्य सभी जीव प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से पौधों पर आश्रित हैं।
वैसे तो विलुप्तीकरण के कई कारण हैं। प्राकृतिक कारणों से भी अतीत में जीवों का विलुप्तीकरण होता रहा है। जीवाश्मीय रिकार्ड से पता चलता है कि पूर्व में यह दर प्रतिवर्ष लगभग चार थी और वर्तमान में मानवीय हस्ताक्षेप के चलते यह लगभग प्रतिदिन एक प्रजाति है। कुछ वैज्ञानिकों का तो मानना है कि जिस रफ्तार से दुनिया में वनों का विनाश हो रहा है, प्राकृतिक आवास नष्ट किए जा रहे हैं, इस हिसाब से विलुप्तीकरण की यह दर सौ प्रजातियाॅं प्रतिदिन होनी चाहिए, जो प्राकृतिक दर से एक हजार गुना ज्यादा है।
विलुप्तीकरण का एक कारण कुछ जीव-जंतुओं का अधिक खूबसूरत होना भी है। तितलियाॅं-आर्किड ऐसे ही जीव हैं, जिन्हें अपनी सुंदरता की कीमत चुकानी पड़ी है। हालात ये हैं कि जंतुओं और पौधों की 1,35,000 की हमारी संपदा में से लगभग 90 प्रतिशत संकटग्रस्त हैं। इनमें से कुछ तो हाल में ही लुप्त हुई हैं। जैसे चीता हमारे देखते-देखते गायब हो गया है। जिसके लिए हम किसी और को दोषी नहींं ठहरा सकते।
जीवों का संरक्षण केवल हमारे लाभ के लिए ही किया जाना चाहिए, ऐसा नहीं है। प्रकृति में जीवों के बीच ऐसे आश्चर्यजनक आपसी संबंध हैं कि लगता है, जैसे वह एक दूजे के लिए ही बने हों। एक के बिना दूसरे का जीवन संकट में पड़ जाता है। एक जमाने में हवाई द्वीप में हाउकुवा हीवी के फूलदार पेड़ बहुतायत में मिलते थे। इन्हें 1992 से ही लुप्त घोषित किया जा चुका है। ऐसा क्यों हुआ? जांच करने पर पता चला कि हनीफीशर नामक पक्षी इसकी ठीक उसी प्रकार सेवा करते थे जैसे मधुमक्खियां व तितलियाॅं अन्य पुष्पीय पौधों की करती हैं यानी परागण में सहायता। बदले में हनीफीशर को मधु मिलता था।
दोनों जीवों का जीवन आराम से चलता रहा, परन्तु यूरोपीय लोगोंं के यहाॅं आते ही स्थितियाॅं बदलीं और पेड़ और पक्षी के इस जोड़े का दुर्भाग्य शुरू हो गया। अतिदोहन के कारण इस सुंदर पक्षी की 32 प्रजातियों में से सोलह पूर्णत: लुप्त हो गईं, शेष 16 संकटग्रस्त हैं। पक्षी के लुप्त होने से पेड़ों का परागण प्रभावित हुआ है। फलस्वरूप हाउकुवा हीवी की पांच प्रजातियों में से दो लुप्त हो गई हैं। शेष तीन गंभीर रूप से संकटग्रस्त हैं। जाहिर है, इन दोनों पर आए हुए संकट के लिए मानव ही जिम्मेदार है।
दूसरा उदाहरण भी मानवीय कारगुजारी का शर्मनाक नमूना हैै। ये रिश्ता था डोडो पक्षी और डोडो पेड़ का।’ इसलिए कि माॅरीशस में पाए पाए जाने वाले इस पेड़ के नए पौधे नहीं उगते। वास्तविकता यह है कि 1680 में डोडो पक्षी के पूर्णतः लुप्त हो जाने के बाद से डोडो का एक भी नया पेड़ नहीं उगा। अत्यधिक शिकार के कारण पृथ्वी से डोडो का वंश ही समाप्त हो गया ओर फिर कहावत बनी डेड एज डोडो। दोनों माॅरीशस के स्थानीय जीव थे, जो दुनिया के किसी अन्य भाग में नहींं मिलते। वर्तमान में डोडो पक्षी इस पेड़ के बीजों के अंकुरण में मददगार था। न रहा डोडो पक्षी, न उगे नए डोडो पेड़।
ये दोनों उदाहरण इस बात के स्पष्ट प्रमाण हैं कि प्रकृति में जीवों के बीच आपसी रिश्ते बड़े विलक्षण और नाजुक हैं। एक के साथ खिलवाड़ दूसरे के जीवन के लिए खतरा बन सकता है। अतः जीवों का संरक्षण जरूरी है।
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