जैसी नीयत-वैसी बरक्कत

बिना राजनैतिक इच्छा शक्ति और बिना आम जनता की ईमानदार भागीदारी के इस तरह के प्रयास हमेशा असफल होते रहेंगे। यह विषय सभी के लिए चिन्ताजनक है क्योंकि जन-सहयोग या जनता की भागीदारी का प्रश्न आज भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है जितना कि आज से 50 साल पहले था। उस समय स्वयं सेवी प्रयासों का तर्पण करने में सभी सम्बद्ध पक्षों ने अपनी-अपनी भूमिका निभाई थी।भारत सेवक समाज की स्थापना के पीछे आजादी के तुरंत बाद के समय में सदियों की गुलामी के बाद मिली आजादी का उत्साह झलकता था। एक ओर नेतृत्व में कुछ कर गुजरने की ललक थी तो दूसरी ओर आम जनता में इन नेताओं के प्रति अटूट आस्था। नेतृत्व की एक चाहत थी कि आम जनता की भगीदारी उनकी विकास की योजनाओं में हो तो जनता सरकार के साथ एक नजदीकी रिश्ता बनाने की ख्वाहिश रखती थी। भारत सेवक समाज की कल्पना इन दोनों के बीच एक कड़ी के रूप में की गई थी।

भारत सेवक समाज को एक संस्थागत शक्ल देने में गुलजारी लाल नन्दा का बहुत बड़ा योगदान था। उनका मानना था कि आजादी एक शुरुआत करने का मौका दे सकती है क्योंकि बहुत से क्षेत्रों में बहुत से काम बाकी पड़े थे। स्वास्थ्य, गृह-निर्माण, रोजगार, पुनर्वास, उत्पादन, बचत और सामजिक अध्ययन तथा अन्वेषण के बहुत से क्षेत्र ऐसे थे जिनमें काम करने की जरूरत थी। हमारे जो प्राकृतिक तथा मानव संसाधन थे वह सभी इन विकास की प्रक्रियाओं और समस्याओं से पूरी तरह निबटने में सक्षम नहीं थे जिनसे कुछ न कुछ व्यवधान पड़ता था और लोगों में हताशा फैलती थी। वहीं दूसरी तरफ ज्ञान, अनुभव, हुनर और शक्ति का एक अकूत भण्डार मौजूद था जिसका राष्ट्र निर्माण में उपयोग होना था। इस संसाधन और ऊर्जा का सक्षम उपयोग करने के लिए नन्दा ने भारत सेवक समाज की कल्पना की थी।

भारत सेवक समाज की स्थापना के समय और उसके बाद कम से कम दो नेताओं ने साफगोई से अपना सन्देह व्यक्त किया था। पहले थे श्यामा प्रसाद मुखर्जी जिन्होंने आगाह किया था कि अगर सावधानी नहीं बरती गई तो इस संस्था का राजनैतिक दुरुपयोग हो सकता है। दूसरे नेता थे एच.एन.मुखर्जी जिन्होंने लोकसभा के अन्दर इस पूरी प्रक्रिया के परिणामों के प्रति सन्देह व्यक्त किया था। उनका कहना था कि, “...चीन का सबक यही है। जब आप लोगों को इकट्ठा कर लेते हैं, उनके दिलों के तार को छूते हैं, जब आप उन्हें बताते हैं कि वह लोग जो कि पीढ़ियों से उन्हें आतंकित करते रहे हैं वह अब और ज्यादा उनकी जमीन और श्रम का फायदा नहीं उठा पायेंगे, जब आप उनको यह अनुभव करा पाते हैं कि देश उनका होता है जो इसके लिए काम करते हैं तब उनमें एक मनोवैज्ञानिक परिवर्तन आता है और यही वह परिवर्तन है जो हम इस देश में चाहते हैं। लेकिन बदनसीबी से यह सरकार उस परिवर्तन के लिए काम नहीं कर रही है। इसलिए जो कुछ भविष्य में होगा उससे मुझे बहुत उम्मीदें नहीं हैं।”

बिहार में भारत सेवक समाज के सन्दर्भ में जो कुछ भी हुआ उसमें यह दोनों शक सच साबित हुये। संस्था का राजनैतिक दुरुपयोग भी हुआ और जिस परिवर्तन की अपेक्षा थी वह तो हरगिज नहीं हुआ। यहाँ जो कुछ हुआ उसकी अभिव्यक्ति बैद्यनाथ मेहता के उस बयान से होती है जो उन्होंने बिहार विधान सभा में दिया था। उन्होंने कहा था कि, “...भारत सेवक समाज ने जो काम किया और उससे जो नफा का रुपया मिला उसको उन्होंने ले लिया। ...इन लोगों ने जन सहयोग की हत्या की है ...जनता के रुपये का दुरुपयोग हुआ है। कोसी डैम के बनने में करप्शन के अलावे, दे हैव एक्सप्लॉइटेड दिस स्टेट इन दि नेम ऑफ पब्लिक अण्डरटेकिंग (उन्होंने जन-सहयोग के नाम पर इस राज्य का शोषण किया है)।” अगर हम भ्रष्टाचार, गोलमाल, लूटपाट, हिसाब न देना, रकम डूबना या ऑडिट न करवाना आदि जैसी बातों को एक बार भूल जायें तो भी इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता है कि संस्था का राजनीतिज्ञों ने दुरुपयोग किया। और क्योंकि चीन की नदी घाटी योजनाओं में जन-सहयोग प्राप्त करने के लिए जिस राजनैतिक परिवेश या दायित्व शील समाज की जरूरत पड़ती है वह हमारे पास नहीं था इसलिए हमारी सारी कोशिशें केवल सतही थीं और उसमें जवाबदारी का अभाव था। इसके लिए किसी खास व्यक्ति या किसी राजनैतिक पार्टी को दोष नहीं दिया जा सकता। बिना राजनैतिक इच्छा शक्ति और बिना आम जनता की ईमानदार भागीदारी के इस तरह के प्रयास हमेशा असफल होते रहेंगे।

यह विषय सभी के लिए चिन्ताजनक है क्योंकि जन-सहयोग या जनता की भागीदारी का प्रश्न आज भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है जितना कि आज से 50 साल पहले था। उस समय स्वयं सेवी प्रयासों का तर्पण करने में सभी सम्बद्ध पक्षों ने अपनी-अपनी भूमिका निभाई थी। एक आम आदमी की नजर से देखने पर ऐसा अनुमान होता है कि हमारे राजनीतिज्ञ एक ऐसे यश की कामना करते थे जिससे उनके राजनैतिक भविष्य पर कोई आंच न आये मगर वह इसके साथ-साथ वह अपने तरीके से कोसी परियोजना में अपने हिस्से पर लाभांश भी चाहते थे जिसकी पूर्ति उनकी यश की इच्छा के उलटे पड़ती थी। अमला तंत्र की भूमिका थोड़ी अलग होती है। उसको यश से कोई मतलब तब भी नहीं था और न आज है। बस नौकरी सलामत रहे तो बाकी इज्जत-बेइज्जत सब ठीक है। अमला तंत्र की भूमिका पर आचार्य कृपलानी की लोकसभा में एक बड़ी दिलचस्प टिप्पणी की थी। उन्होंने बताया कि जब पाकिस्तान से आने वाले विस्थापितों का पुनर्वास एक आकस्मिक और जरूरी तौर पर सामने आया तो गाँधीजी के दो अनुयायी इस काम के लिए आगे आये कि वह इन विस्थापितों के पुनर्वास में सरकार का हाथ बटायेंगे।

इनमें से एक थे आचार्य विनोबा भावे और दूसरे थे जाजू जी। तीन-चार महीने के अन्दर दोनों का मोह-भंग हो गया कि इस व्यवस्था में अमला तंत्र की मदद से कुछ भी नहीं किया जा सकता है। विनोबा जी सरकार की मदद के प्रति इतने ज्यादा मायूस हो गये थे कि उन्होंने वापस जाकर भूदान आन्दोलन की शुरुआत की जिसमें सरकार की मदद या सहयोग की जरूरत नहीं पड़ती... ऐसा लगता है कि इस तरह की पहल और जोश चीन जैसी सरकारी व्यवस्था में तो सम्भव है मगर लोकतांत्रिक व्यव्स्था में यह सब मुमकिन नहीं है। भ्रष्टाचारियों की बलिहारी है कि उन्होंने विनोबा भावे जैसे सन्त से विस्थापितों में पुनर्वास पर काम करने की जगह भूदान आन्दोलन शुरू करवाया।

इसके अलावा अगर यूनिट लीडरों का व्यवहार किसी भी प्रकार से हमारी सामाजिक परिस्थिति का द्योतक है तो यह समाज के ऊपर ही एक तमाचा है जिससे हमारा, आपका और सबका किसी भी प्रकार की आलोचना का हक छिन जाता है। तब किसी भी राजनीतिज्ञ को यह कहना बहुत आसान हो जाता है कि नेता कोई आसमान से थोड़े ही टपकता है, वह भी तो इसी समाज का हिस्सा है और अगर कूएं में ही भांग पड़ी हो तो फिर कौन किससे कहेगा कि तुम नशे में हो।

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Post By: tridmin
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