बाढ़ के कारणों पर चर्चा के शुरू में ही एक बात साफ कर देनी जरूरी है कि बाढ़ बुरी नहीं होती; बुरी होती है एक सीमा से अधिक उसकी तीव्रता तथा उसका जरूरत से ज्यादा दिनों तक टिक जाना। बाढ़, नुकसान से ज्यादा नफा देती है। बाढ़ की एक सीमा से अधिक तीव्रता व टिकाऊपन, नफे से ज्यादा नुकसान देते हैं।
एक सीमा से अधिक वेग मिट्टी, पानी और खेती के लिहाज से बाढ़ वरदान होती हैै। प्राकृतिक बाढ़ अपने साथ उपजाऊ मिट्टी, मछलियाँ और अगली फसल में अधिक उत्पादन लाती है। यह बाढ़ ही होती है कि जो नदी और उसके बाढ़ क्षेत्र के जल व मिट्टी का शोधन करती है। बाढ़ ही भूजल भण्डारों को उपयोेगी जल से भर देती है। इस नाते बाढ़, जलचक्र के सन्तुलन की एक प्राकृतिक और जरूरी प्रक्रिया है। इसे आना ही चाहिए।
बाढ़ के कारण ही आज गंगा का उपजाऊ मैदान है। बंगाल का माछ-भात है। बिहार के कितने इलाकों में बिना सिंचाई के खेती है। जाहिर है कि हमें बाढ़ नहीं, बाढ़ के वेग और टिकने के दिनों के कारणों की तलाश करनी चाहिए। बारिश के दिनों में नगरों में जलभराव के कारण, तलाश का एक भिन्न विषय है।
बाढ़ नहीं, इसकी तीव्रता व टिकाऊपन से डरें
बमुश्किल दो महीने पहले तक हम सूखे को लेकर परेशान थे, अब बाढ़ को लेकर। जो 13 प्रदेश सूखाग्रस्त प्रदेशों की सूची में शामिल थे, उनमें से कई अब बाढ़ की सूची में भी शामिल हैं। असम, पश्चिम बंगााल, उड़ीसा, बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और उत्तराखण्ड में बाढ़ ने ज्यादा प्रभावित किया है।
बाढ़ प्रभवितों की इस सूची में सूखे के कारण आत्महत्या के लिये मजबूर हुए इलाकों में से एक बुन्देलखण्ड का चित्रकूट भी है। गुजरात के मेहसाणा के अलावा न्यूनतम वर्षा वाले राजस्थान तथा गुजरात के बारां, चित्तौड़गढ़, बीकानेर आदि नगरों में पानी घुसने की खबरें पढ़ी होंगी। कोई ताज्जुब नहीं कि अगला अप्रैल आते-आते फिर सूखे को लेकर हाय-तौबा सुनाई दे।
यह सब इसके बावजूद है कि जिन तारीखों में बाढ़ के समाचार ज्यादा आये, उन तारीखों में लगभग सभी सम्बधित राज्यों के वर्षा औसत में कमी दर्ज की गई है। ऐसा क्यों है? इस क्यों के उत्तर में बाढ़ और सुखाड़ के कारण और निवारण के बुनियादी सूत्र छिपे हैं।
वर्षा औसत में अधिकता नहीं है कारण
इस दिशा में सबसे गौरतलब तथ्य यह है कि इस वर्ष जिन तारीखों में बाढ़ व नगरों में जलभराव के समाचार सबसे ज्यादा आये, उन तारीखों में लगभग सभी सम्बन्धित राज्यों के वर्षा औसत में बढ़ोत्तरी की बजाय, कमी के आँकड़े हैं। आगे 30 अगस्त से 3 सितम्बर तक अधिक बारिश के आसार हैं, तो क्या होगा? यह सोचने और ज्यादा सतर्कता व इन्तजाम करने की अपेक्षा करता सवाल है। मूल तथ्य से यह निष्कर्ष स्पष्ट है कि अगस्त, 2016 में आई इस बाढ़ का कारण वर्षा औसत की अधिकता तो कतई नहीं है।
साधारणतया बाढ़ में आई अप्रत्याशित तीव्रता के असल कारण पाँच ही हैं: बादलों का फटना, नदियों में अधिक कटाव, अधिक गाद जमाव, नदी भूमि पर अतिक्रमण तथा बाँध-बैराज व उनका कुप्रबन्धन। बाढ़ के अधिक टिक जाने के दो कारण है : मानव द्वारा नदियों को रास्ता बदलने को विवश करना तथा जलनिकासी मार्गों को अवरुद्ध किया जाना। आइए समझें कि कैसे?
कुप्रबन्धन का परिणाम
कायदा यह है कि बारिश से पहले हर बाँध के जलाशय को खाली कर दिया जाना चाहिए। बारिश के दौरान लगातार थोड़ा-थोड़ा पानी छोड़ते रहना चाहिए। बीते जून तक मध्य प्रदेश के लोग जलापूर्ति न होने से परेशान थे, जलाशय खाली कर उन्हें पानी पहुँचाया जा सकता था। लेकिन मध्य प्रदेश के बाणसागर बाँध प्रबन्धकों ने ऐसा नहीं किया।
जलाशय में 33.3 प्रतिशत से अधिक पानी को रोक कर रखा। 19 अगस्त की सुबह तक बाणसागर बाँध में उसकी क्षमता का 96 प्रतिशत भरने की गलती की। फिर 19 अगस्त के दिन में दो घंटे में इतना पानी छोड़ दिया कि उसने उत्तर प्रदेश-बिहार तक को दुष्प्रभावित किया। ऐसी गलतियों के उदाहरण कई हैं।
बनबासा बैराज से एक साथ पानी छोड़ने से उत्तराखण्ड में इन दिनों फिर बाढ़ के नजारें हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश में भी हथिनीकुण्ड बैराज, नरोरा बैराज, अरैल बाँध, रिहंद बाँध आदि से छोड़े गए पानी को मुख्य कारण के तौर पर चिन्हित किया गया है। यही स्थिति टोंक जिले में स्थित बीसलपुर बाँध आदि से एक साथ छोड़े पानी के कारण राजस्थान के इलाकों ने भी देखी।
बाढ़ के दुष्प्रभाव बढ़ाने में बाँध-बैराजों की अन्य भूमिका
होता यह है कि बाँध-बैराजों से पानी धीरे-धीरे छोड़ने की स्थिति में पानी आगे बढ़ जाता है और उसमें मौजूद गाद नीचे बैठकर पीछे छूट जाती है। छूटी गाद, जगह-जगह एकत्र होकर नदी के बीच टापू का रूप ले लेती है। ये टापू, नदी का मार्ग बदलकर उसे विवश कर देते हैं कि पीछे से अधिक पानी आने पर वह नए क्षेत्र की यात्रा पर निकल जाये।
हिमालयी नदियाँ अपने साथ ज्यादा गाद लेकर चलती हैं; लिहाजा, कुछ वर्ष पूर्व कोसी ने अपना रास्ता 200 किलोमीटर तक बदला। नया मार्ग इसके लिये तैयार नहीं होता। नया इलाका होने के कारण जलनिकासी में वक्त लगता है। जलनिकासी मार्गों में अवरोधों के कारण भी बाढ़ टिकाऊ हो जाती है।
यही कारण है कि पहले तीन दिन टिकने वाली बाढ़, अब पूरे पखवाड़े कहर बरपाती है; सम्पत्ति विनाश के अलावा बीमारी का कारण बनती है। दूसरी तरफ बाँध-बैराजों से एक साथ छोड़ा पानी नदी किनारों के कटान का कारण बनता है। अचानक और बिना सूचना छोड़े अधिक पानी के लिये लोग तैयार नहीं होते। वे अनायास बाढ़ का शिकार बन जाते हैं। मध्य प्रदेश के तवा बाँध ने भी कुछ वर्ष पूर्व यही किया।
यहाँ यह याद करना जरूरी है कि कभी कोलकाता बन्दरगाह को गाद भराव से बचाने के नाम पर फरक्का बाँध और बाढ़ मुक्ति के नाम पर कोसी तटबन्ध का निर्माण किया गया था। आज ये दोनों ही निर्माण बाढ़ की तीव्रता बढ़ाने वाले साबित हो रहे हैं।
जिस गाद को समुद्र के करीब पहुँचकर डेल्टा बनाने थे, बाँध-बैराजों में फँसने के कारण वह डेल्टा क्षेत्र में कमी और उनके डूब का कारण बन रही है। इसीलिये कोसी के तटबन्ध में फँसे गाँव आज भी दुआ करते हैं कि तटबन्ध टूटे और उन्हें राहत मिले। इसीलिये बिहार के मुख्यमंत्री ने स्वयं फरक्का बाँध को तोड़े जाने की माँग की है।
इसीलिये नदी के निचले तट की ओर औद्योगिक काॅरीडोर, एक्सप्रेस-वे आदि निर्माण परियोजनाओं का विरोध किया जाता रहा है। इसीलिये अब बाँध, बैराज और गाद को लेकर राष्ट्रीय नीति बनाने की माँग की जा रही है।
किसे ना कहें?
इससे एक बात और स्पष्ट है कि बाँध, बैराज, तटबन्ध और नहरों का निर्माण बाढ़ दुष्प्रभाव से मुक्ति के उपाय नहीं हैं। नदी को नहर या नाले का स्वरूप देने की गलती भी नहीं की जानी चाहिए। ‘रिवर फ्रंट डेवलपमेंट’ के नाम पर कुछ दीवारें और चमकदार इमारतें खड़ी कर लेना बाढ़ को विनाश के लिये खुद आमंत्रित करना है।
बाँध-बैराजों की उपस्थिति तथा नदी को उसके प्राकृतिक मार्ग से अलग कृत्रिम मार्ग पर ले जाने के कारण राष्ट्रीय नदी जोड़ परियोजना भी इसका उपाय नहीं है।
किसे हाँ कहें?
उपाय है, बरसे पानी को नदी में आने से पहले ही अधिक-से-अधिक संचित कर धरती के पेट में बिठा देना। मिट्टी कटान को नियंत्रित करना और जलनिकासी मार्गों को अवरोधमुक्त बनाये रखना अन्य जरूरी सावधानियाँ हैं। खाली भूमि, उबड़-खाबड़-ढालदार भूमि, जंगल, छोटी वनस्पतियाँ, खेतों की ऊँची मजबूत मेड़बन्दियाँ, तालाब-झील जैसे जल संचयन ढाँचे यही काम करते हैं।
बादल फटे या कम समय में ढेर सारा पानी बरस जाये, बाढ़ की तीव्रता कम करने की तकनीक भी यही है और सूखे के संकट से निजात पाने की तकनीक भी यही। हमें यह सदैव याद रखना होगा।
बमुश्किल दो महीने पहले तक हम सूखे को लेकर परेशान थे, अब बाढ़ को लेकर। कोई ताज्जुब नहीं कि अगला अप्रैल आते-आते फिर सूखे को लेकर हाय-तौबा सुनाई दे। ऐसा न हो, इसके लिये भी जरूरी है कि हम ऊपर सुझाये उपायों को विकेन्द्रित और जनसहभागिता के आधार पर आगे बढ़ाएँ।
नगरीय जलभराव के कारण
आइए, अब जरा नगरों के बाढ़ व जलजमाव की चपेट में आने के कारणों पर गौर करें। इसका एक कारण यह है कि नगरों के जलनिकासी तंत्र पहले एक बार में अधिकतम 12 से 20 मिलीमीटर वर्षा के हिसाब से डिजाइन किये जाते रहे हैं; जबकि पिछले पाँच दशक के दौरान मुम्बई, चेन्नई, दिल्ली जैसे नगरों में एक बार में 125 मिलीमीटर से अधिक तक वर्षा दर्ज करने के मौके देखने को मिले।
राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन प्राधिकरण स्वयं मानता है कि भारतीय नगरों की जलनिकासी क्षमता औसत वर्षा से बहुत अधिक कम है। देखरेख में कमी से यह क्षमता और कम हुई है। ठोस व पाॅली कचरे के निष्पादन तथा मलबे को डम्प करने के अवैज्ञानिक चाल-चलन तथा नदियों-तालाबों-झीलों के बाढ़ क्षेत्र में अतिक्रमण के कारण भी भूमि के ऊपर व नीचे के जलनिकासी मार्ग अवरुद्ध हुए हैं। दूसरी तरफ हर इंच को पक्का करने की बढ़ती प्रवृत्ति के कारण बरसे पानी को सोखने की नगरीय क्षमता घटी है।
मार्गदर्शी निर्देश हैं कि नगरों के निचले इलाकों के पार्कों, पार्किंग क्षेत्रों तथा अन्य खुले क्षेत्र के लिये आरक्षित किया जाना चाहिए। हमने इससे उलट श्रीनगर की डल व वूलर झील के बाढ़ क्षेत्र में काॅलोनियाँ बसा दी हैं। चेन्नई के 5000 हेक्टेयर से अधिक के मार्शलैंड को सिकोड़कर 500 हेक्टेयर में समेट दिया गया?
मुम्बई के सिवरी के निकट स्थित दलदली क्षेत्र को ठोस कचरे से भर दिया गया। गौर कीजिए कि जयपुर का अमानीशाह नाला, कभी एक नदी थी। हमने पहले उसका नाम बदला और फिर उसके भीतर तक पक्की बसावट होने दी है। जयपुर विकास प्राधिकरण ने खुद इस नदी भूमि में आवंटन किया। अलवर से निकलने वाली साबी नदी के साथ हरियाणा और दिल्ली ने यही किया।
एक उद्धहरण गुड़गाँव
गुडगाँव की भू-आकार देखिए। गुड़गाँव एक ऐसा कटोरा है, जिसकी जलनिकासी को सबसे ज्यादा साबी नदी का सहारा था। हरियाणा ने साबी का नाम बदलकर बादशाहपुर नाला और दिल्ली ने नजफगढ़ नाला लिखकर नदी को नदी रूप में बनाए रखने की जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लिया। तिस पर गलती यह कि बादशाहपुर नाले को कंक्रीट का बना दिया गया है।
बसावट के कारण वह भी अतिक्रमण की चपेट में है। 1958 में नजफगढ़ झील की बाढ़ ने 145 वर्ग किलोमीटर का क्षेत्रफल घेरा था। अभी झील चार वर्ग किलोमीटर में समेट दी गई है। नजफगढ़ झील से 100 साला बाढ़ के आधार पर गुड़गाँव के नगर नियोजन विभाग ने सेक्टर 36बी, 101 आदि को बाढ़ के उच्चतम क्षेत्र में स्थित घोषित किया हुआ है।
राज्य की पर्यावरण प्रभाव आकलन प्राधिकरण ने इन सेक्टरों में नींव का स्तर नजफगढ़ झील के उच्चतम बाढ़ स्तर से ऊँचा रखने की हिदायत दी थी। ऐसा नहीं हुआ। परिणाम यह है कि मात्र चार घंटे की बारिश में ही हम सभी ने गुड़गाँव को जल भराव से त्राहि-त्राहि देखा। हमें इन सभी गलतियों से सीखना और तद्नुसार नियोजन करना होगा।
दुष्प्रभाव घटोत्तरी के उपाय
बाढ़ नुकसान कम करें; इसके लिये परम्परागत बाढ़ क्षेत्रों व हिमालय जैसे संवेदनशील होते नए इलाकों में समय से पूर्व सूचना का तकनीकी तंत्र विकसित करना जरूरी है। बाढ़ के परम्परागत क्षेत्रों में लोग जानते हैं कि बाढ़ कब आएगी। वहाँ जरूरत बाढ़ आने से पहले सुरक्षा व सुविधा के लिये एहतियाती कदमों की हैं: पेयजल हेतु सुनिश्चित हैण्डपम्पों को ऊँचा करना।
जहाँ अत्यन्त आवश्यक हो, पाइपलाइनों से साफ पानी की आपूर्ति करना। मकानों के निर्माण में आपदा निवारण मानकों की पालना। इसके लिये सरकार द्वारा जरूरतमन्दों को जरूरी आर्थिक व तकनीकी मदद। मोबाइल बैंक, स्कूल, चिकित्सा सुविधा व अनुकूल खानपान सामग्री सुविधा। ऊँचा स्थान देखकर वहाँ हर साल के लिये अस्थायी रिहायशी व प्रशासनिक कैम्प सुविधा।
मवेशियों के लिये चारे-पानी का इन्तजाम। ऊँचे स्थानों पर चारागाह क्षेत्रों का विकास। देसी दवाइयों का ज्ञान। कैसी आपदा आने पर क्या करें? इसके लिये सम्भावित सभी इलाकों में निःशुल्क प्रशिक्षण देकर आपदा प्रबन्धकों और स्वयंसेवकों की कुशल टीमें बनाईं जाएँ व संसाधन दिये जाएँ। परम्परागत बाढ़ क्षेत्रों में बाढ़ अनुकूल फसलों का ज्ञान व उपजाने में सहयोग देना। बादल फटने की घटना वाले सम्भावित इलाकों में जल संरचना ढाँचों को पूरी तरह पुख्ता बनाना। यही उपाय हैं।
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