इसे आवंटन नहीं, बढ़ी हुई जवाबदेही समझें पंचायतें

सरकार किसी भी स्तर की हो, सुराज यानी अच्छे अभिशासन का रास्ता, ‘स्वराज्य’ और ‘स्वराज’ से होकर ही गुजरता है। ‘स्वराज्य’ यानी अपना राज और ‘स्वराज’ यानी अपने ऊपर खुद का राज यानी स्वानुशासन। ‘स्वराज्य’ और ‘स्वराज’ को हासिल किये बगैर, सुराज हासिल करना सर्वथा असम्भव होता है। इसे यूँ समझें कि अच्छे अभिशासन के लिये सबसे पहली जरूरत होती है - स्वराज्य यानी आजादी। इसी की चर्चा करते हुए महात्मा गाँधी ने अपनी अन्तिम वसीयत में लिखा था कि जब तक इन सात लाख गाँवों को सामाजिक, आर्थिक और नैतिक आजादी नहीं मिल जाती, तब तक भारत की आजादी अधूरी है।

इस नए वित्त की एक खुशखबरी यह है कि हर ग्रामपंचायत के हाथों में औसतन 80 लाख रुपए का वार्षिक आवंटन होगा और सामने होगी आवंटित धनराशि का सही उपयोग करके अपने सपने का गाँव बनाने की चुनौती।

यदि इस चुनौती को पूरा करने की पुरजोर कोशिश नहीं हुई, तो बढ़ा हुआ आवंटन पंचायतों और स्थानीय निकायों को और अधिक भ्रष्ट तथा आगामी स्थानीय चुनावों को और अधिक अनैतिक व आपराधिक बनाने वाला साबित होगा। कहना न होगा कि आवंटन बढ़ा है, निस्सन्देह चुनौती भी कम नहीं बढ़ी।

गौरतलब है कि वित्त वर्ष 2016-17 में ग्राम पंचायतों और नगर निकायों हेतु 2.87 लाख करोड़ रुपए का आवंटन किया गया है। बजट घोषणा के अनुसार, इस आवंटन में से प्रत्येक ग्राम पंचायत को औसतन 80 लाख रुपए और प्रत्येक शहरी स्थानीय निकाय को औसतन 21 करोड़ रुपए मिलेंगे।

गत पाँच वर्षों के दौरान किये गए आवंटन की तुलना में 228 फीसदी अधिक होने के कारण यह आवंटन, निश्चित रूप से विशेष है। यह विशेष आवंटन, निश्चित रूप से ग्राम पंचायतों को अपनी मर्जी के मुताबिक कार्य करने की थोड़ी और आजादी देगा; थोड़े और हाथ खोलेगा। 14वें वित्त आयोग ने भी ग्राम पंचायतों और स्थानीय निकायों के लिये आर्थिक आजादी चाही थी और राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने भी।

अधिक आवंटन : अधिक आर्थिक आजादी


दरअसल, सरकार किसी भी स्तर की हो, सुराज यानी अच्छे अभिशासन (गुड गवर्नेन्स) का रास्ता, ‘स्वराज्य’ और ‘स्वराज’ से होकर ही गुजरता है। ‘स्वराज्य’ यानी अपना राज और ‘स्वराज’ यानी अपने ऊपर खुद का राज यानी स्वानुशासन। ‘स्वराज्य’ और ‘स्वराज’ को हासिल किये बगैर, सुराज हासिल करना सर्वथा असम्भव होता है। इसे यूँ समझें कि अच्छे अभिशासन के लिये सबसे पहली जरूरत होती है - स्वराज्य यानी आजादी।

इसी की चर्चा करते हुए महात्मा गाँधी ने अपनी अन्तिम वसीयत (29 जनवरी,1948) में लिखा था कि जब तक इन सात लाख गाँवों को सामाजिक, आर्थिक और नैतिक आजादी नहीं मिल जाती, तब तक भारत की आजादी अधूरी है। गाँधी जी, गाँवों की आजादी के अपने सपने की पूर्ति के लिये पंचायतों को ही माध्यम बनाना चाहते थे।

गाँधी जी के सपने की ग्रामीण आर्थिक आजादी का आर्थिक स्रोत भले ही पंचायतों को केन्द्रीय आवंटन न रहा हो, फिर भी हम इसे भारत के केन्द्र में बैठी ‘पहली सरकार’ द्वारा गाँवों में मौजूद ‘तीसरी सरकार’ को आर्थिक आजादी देने की एक कवायद तो मान ही सकते हैं। क्यों नहीं?

आखिरकार, संविधान ने भी पंचायतों व शहरी स्थानीय निकायों को ‘सेल्फ गवर्नमेंट’ यानी ‘अपनी सरकार’ कहकर सम्बोधित किया है।

स्वानुशासन बगैर, सुराज नहीं देती आर्थिक आजादी


पंचायतों और स्थानीय निकायों को हासिल होती आर्थिक आजादी गाँवों और छोटे नगरों में सुराज ला पाएगी या नहीं, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि हमारी पंचायतें और शहरी स्थानीय निकाय ‘स्वराज’ यानी स्वानुशासन के लिये किस हद तक संकल्पित हैं। स्वानुशासन के बिना यह आर्थिक आजादी सुराज की बजाय, कुराज लाने वाली भी साबित हो सकती है।

जैसे ज्यादा जेब खर्च.... ज्यादा सुविधाएँ मिलने से विद्यार्थी उम्र के बिगड़ने की सम्भावना ज्यादा रहती है, उसी तरह स्वानुशासन का अभाव हो, तो अधिक आवंटन होने सेे पंचायत प्रतिनिधियों के अधिक भ्रष्ट हो जाने की सम्भावना भी कम नहीं है।

प्रमाण के तौर पर यह भूलने की बात भी नहीं है कि स्वानुशासन में कमी के कारण ही हमारी सरकारों की बनाई अच्छी-से-अच्छी से योजना भी भ्रष्टाचार की शिकार होती रही हैं। स्वानुशासन की कमी के कारण ही ‘मनरेगा’ के तहत आवंटित धनराशि, पंचायत व प्रशासन ही नहीं, गाँव के अन्तिम जन तक को भ्रष्ट बनाने वाली साबित हुई है।

इस वित्त वर्ष में आवंटित धनराशि का परिणाम ऐसा न हो; यह सचमुच एक बड़ी चुनौती है।


भारत सरकार के केन्द्रीय वित्त मंत्री श्री अरुण जेटली ने अपनी बजट घोषणा में इस चुनौती को इस सैद्धान्तिक विश्वास के रूप में भी प्रकट किया है कि सरकार के पास जो पैसा है, वह जनता का है और हमारा यह परम कर्तव्य है कि हम इसे अपने लोगों, विशेषकर निर्धन और दलितों के कल्याण के लिये विवेक और समझदारी से खर्च करें।

तीसरी चुनौती के रूप में आप पंचायती कामकाज में पारदर्शिता की कमी कह सकते हैं। यदि इन चुनौतियों में उचित नीयत और उचित नीतियों के अभाव को शामिल कर लिया जाये, तो ‘न्यूनतम सरकार - अधिकतम अभिशासन’ ( मिनिमम गवर्नमेंट: मैक्सिमम गवर्नेन्स) के मार्ग की सबसे अधिक बाधाएँ यही हैं। यही बाधाएँ, सरकारी धन को निर्धनों और पात्र व्यक्तियों तक पहुँचाने में असल अड़चने हैं। इन्हीं बाधाओं के कारण, वास्तविक लाभार्थियों को सरकारी सब्सिडी और वित्तीय सहायता के लक्ष्यबद्ध संवितरण सुनिश्चित नहीं हो पाता।

सुधार के प्रस्ताविक कदम


इन बाधाओं से निपटने की दृष्टि से अपने बजट भाषण में वित्त मंत्री श्री जेटली ने प्रक्रियागत सुधारों तथा सूचना प्रौद्योगिकी समर्थित सरकारी प्रक्रियाओं पर विशेष ध्यान देने का विचार प्रस्तुत किया है। इन सुधारों को ‘न्यूनतम सरकार: आधिकतम अभिशासन’ का अति महत्त्वपूर्ण घटक बताते हुए श्री जेटली ने दो महत्त्वपूर्ण कदम प्रस्तुत किये हैं:

पात्रता व वितरण में पारदर्शिता हेतु ‘आधार’ मंच


प्रथम कदम के रूप में श्री जेटली ने ऐसे महत्त्वपूर्ण सुधार करने की बात कही है, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि सरकारी लाभ उन्हीं को मिले, जो उसके पात्र हैं। उन्होंने कहा कि ‘आधार’ मंच को सांविधिक समर्थन देकर यह सुनिश्चित किया जाएगा। इसके लिये बजट सत्र में विधेयक भी लाया गया। श्री जेटली ने इस विधेयक को गरीब व कमजोर के लाभ का कानून व सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित करने वाला परिवर्तनकारी कानून घोषित किया है।

श्री जेटली का विश्वास है कि ‘आधार’ को सब्सिडी वाली योजनाओं से सम्बद्ध करने से पारदर्शिता आएगी और योजनाओं में भ्रष्टाचार कम करने में मदद मिलेगी; ‘ट्रांसफार्म इण्डिया’ का बजट एजेण्डा पूरा होगा। इसी दृष्टि से एलपीजी गैस की तर्ज पर उन्होंने प्रायोगिक रूप में रासायनिक उर्वरकों पर दी जाने वाली सब्सिडी को ‘आधार’ कार्ड व बैंक खातों से जोड़ने की बात कही है।

भारत की 5.35 लाख उचित दर दुकानों में से तीन लाख उचित दर दुकानों को मार्च, 2017 से स्वचालन सुविधाएँ प्रदान को भी इसी दिशा में प्रस्तावित कदम माना जा रहा है।

हालांकि सर्वोच्च न्यायालय ने ‘आधार’ की अनिवार्यता पर रोक लगाई है, किन्तु ‘आधार’ प्रणाली के सब्सिडी जोड़ के कारण आधार कार्ड एक तरह से हर ग्रामवासी की मजबूरी ही हो जाएगा। आधार से जुड़ी सूचनाओं की साइबर सुरक्षा करने में हम कितने सक्षम? यह एक अलग प्रश्न है। गौर करने की बात है कि एक सर्वे के मुताबिक गाँवों की वोटर सूची में 15 प्रतिशत और राशन कार्डों में करीब 30 प्रतिशत लोग ऐसे हैं, जो अपने पैतृक पते पर नहीं रहते। निस्सन्देह, ‘आधार’ कार्ड के सब्सिडी जोड़ के कारण, ऐसे लोगों की न सिर्फ पहचान सम्भव होगी, बल्कि अपात्रता के बावजूद लाभ लेने की उनकी प्रवृत्ति पर कुछ लगाम सम्भव होगी।

पंचायती प्रशिक्षण व क्षमता विकास को 655 करोड़


गौरतलब है कि हमारे पंचायतीराज संस्थान की एक भूमिका केन्द्र और राज्य प्रायोजित ग्राम्य योजनाओं की क्रियान्वयन एजेंसी के रूप में है। इन योजनाओं में आवंटित धन के सर्वश्रेष्ठ उपयोग के लिये विवेक, समझदारी, पारदर्शिता के अलावा उचित कौशल, अच्छी क्रियान्वयन सक्षमता और जानकारी की जरूरत भी कम नहीं। इस दृष्टि से एक महत्त्वपूर्ण कदम के रूप में इस बजट में ‘राष्ट्रीय ग्राम स्वराज अभियान’ की घोषणा की गई है। इस अभियान के लिये 655 करोड़ रुपए के बजट का भी प्रावधान किया गया है।

यह अभियान अभी प्रस्ताव के स्तर पर है। जानकारी के मुताबिक, केन्द्र सरकार का पंचायतीराज विभाग शीघ्र ही राज्य सरकारों के साथ मिलकर ‘राष्ट्रीय ग्राम स्वराज अभियान’ का रूप-स्वरूप व दिशा-निर्देश तय करेगी। इस दृष्टि से इस अभियान का विश्लेषण भले ही सम्भव न हो, किन्तु इतना स्पष्ट है कि यह अभियान का लक्ष्य पंचायतीराज संस्थाओं की अभिशासन (गर्वनेन्स) क्षमता का विकास करना है। प्रशिक्षण प्रक्रिया का सातत्य और पंचायत घरों की ढाँचागत बेहतरी इसमें स्वयं ही शामिल है।

स्वराज योजना के आकलन पर अभियान की नींव


यदि पूर्व संचालित ‘राष्ट्रीय ग्राम स्वराज योजना’ के आलोक में निगाह में नजर डालें, तो कहना न होगा कि पंचायतीराज प्रणाली के सशक्तिकरण में ‘राष्ट्रीय ग्राम स्वराज अभियान’ को अत्यन्त अहम भूमिका अदा करनी है। हालांकि न यह अभियान नया है न इसका लक्ष्य; 11वीं पंचवर्षीय योजना (2007-2012) के दौरान पेश ‘राष्ट्रीय न्यूनतम साझा कार्यक्रम’ का लक्ष्य भी ग्रामसभा को पंचायतीराज की बुनियाद को उभारना का लक्ष्य था।

बुनियादी स्तर पर लोकतंत्र की स्थापना में ग्रामसभा की भूमिका सबसे प्रभावी बनाने की बात थी। उस योजना की भी मंशा थी कि पंचायतों को ‘अपनी सरकार’ के रूप में कार्य करने हेतु सशक्त किया जाये। केन्द्र और राज्य के बीच में कोष अनुपात 75ः25 तय किया गया था। प्रशिक्षण के 55 बिन्दु भी तय थे।

मुझे यह पढ़कर खुशी हुई कि ‘ग्राम संसाधन केन्द्र’ और ‘जन सहायता केन्द्र’ की अवधारणा को जमीन पर उतारने का सुन्दर सपना भी ‘राष्ट्रीय ग्राम स्वराज योजना’ में शामिल था। उत्तर प्रदेश, जिला प्रतापगढ़ के भयहरणनाथ धाम पर मैंने गाँववासियों द्वारा ‘जन सहायता केन्द्र’ के सफल संचालन की चर्चा अवश्य सुनी है, किन्तु पूर्व संचालित ‘राष्ट्रीय ग्राम स्वराज योजना’ अपने मकसद में कितनी सफल रही? क्या कमियाँ रही कि वर्तमान वित्त वर्ष में उसे पुरर्संरचित करने की आवश्यकता महसूस की गई? यह आकलन का भी विषय है और नूतन ‘राष्ट्रीय ग्राम स्वराज अभियान’ की रूप-रेखा तैयार करने से पहले चिन्तन और मन्थन का भी।

तीसरी सरकार पर असल दारोमदार


आगे महत्त्वपूर्ण यह रहेगा कि पंचायती क्षमता विकास नूतन अभियान, किन मानकों और संकल्पों के साथ अपने दिशा-निर्देशों को अंजाम देगा। महत्त्वपूर्ण यह भी होगा कि खासकर, पंचायत प्रतिनिधि और हमारी ग्रामसभाएँ इस अभियान और बजट का सदुपयोग करने के लिये स्वयं को कितना सतर्क, संवेदनशील और सक्षम बनाने की अभिलाषी होंगी।

यदि हम वर्तमान वित्त वर्ष (2016-17) में कृषि और ग्रामीण क्षेत्र हेतु वित्तीय आवंटन के उक्त आँकड़ों, योजनाओं और लक्ष्यों को हम सामने रखें, तो एक बात तो साफ है कि कमी धन की नहीं, गाँव विकास के लिये असल धुन की है। यह धुन खेती-किसानी और ग्राम विकास से सम्बद्ध प्रशासनिक तंत्र अकेले के बूते नहीं बजाई जा सकती; ग्रामसभा और चुने हुए पंचायत प्रतिनिधियों को भी अपनी भूमिका के लिये जागना होगा; सक्षम बनना होगा। आज भारत में चुने हुए पंचायत प्रतिनिधियों की संख्या 28 लाख, 18 हजार, 290 हैं। यह दुनिया में किसी भी सरकार के चुने हुए प्रतिनिधियों की संख्या से बड़ा आँकड़ा है। इस आँकड़े का सम्मान करते हुए ग्राम स्तर की ‘तीसरी सरकार’ को समझना होगा कि ‘पहली सरकार’ ने उसे संवैधानिक अधिकार भी दिये हैं और धन भी; बावजूद इसके यदि हम ‘तीसरी सरकार’, अपने गाँव के विकास की योजना खुद न बनाएँ, अपने साझा संसाधनों की रखवाली खुद न करें और फिर अपनी हालत के लिये व्यवस्था का रोना रोएँ, तो यह कहाँ तक उचित है? कहना न होगा कि बढ़े हुए वित्तीय आवंटन की अच्छाई-बुराई सुनिश्चित करने का दारोमदार फिलहाल 2,39,491 ग्रामसभाओं पर आ टिका है। क्यों? क्योंकि संविधान के अनुसार, ग्राम स्तर की असली सरकार तो ‘ग्रामसभा’ ही है, पंचायत तो ‘ग्रामसभा’ द्वारा चुना हुआ एक मंत्रिमण्डल मात्र है।

पूर्व संचालित राष्ट्रीय ग्राम स्वराज योजना
गौर करें, तो पूर्व संचालित ‘राष्ट्रीय ग्राम स्वराज योजना’ की पंचायतीराज प्रशिक्षण एवं क्षमता विकास हेतु राज्यों को मदद करना था। तय कार्ययोजना में तीनों स्तर के पंचायत प्रतिनिधियों के अलावा पंचायतीराज से सम्बद्ध सभी स्तर की स्थायी समितियों व अधिकारियों का प्रशिक्षण, क्षमता विकास व सतत संवाद भी शामिल था।

पंचायत से जुड़े सचिवालय व तकनीकी कर्मचारियों के लिये विशेष प्रशिक्षण की बात थी। मीडिया, राजनैतिक दलों, सांसदों, विधायकों, नागरिक संगठनों तथा नागरिकों को इस मसले पर संवेदनशील बनाना भी इस कार्ययोजना का हिस्सा था। कार्ययोजना थी कि ग्रामसभा सदस्यों को सक्रिय करने के लिये विशेष अभियान चलाए जाएँगे। महिलाओं, अनुसूचित जाति/जनजाति प्रतिनिधियों और पहली बार पंचायत प्रतिनिधि बने व्यक्तियों को चुने जाने के तीन माह के भीतर विशेष प्रशिक्षण दिया जाएगा।

सुनिश्चित किया गया था कि प्रशिक्षण को सांस्कृतिक परम्पराओं तथा आदिवासी जरूरतों के हिसाब से आकार दिया जाए। चुनाव से पहले और बाद के समय में प्रशिक्षण आयोजित हों। बुनियादी प्रशिक्षण को एक साल के भीतर सभी चुने हुए प्रतिनिधियों को दे दिया जाये। जिन्हें आवश्यकता हो, उनके लिये चुनाव के तुरन्त बाद कार्य साक्षरता प्रशिक्षण चलाया जाये। प्रशिक्षण व संवाद को कोई कार्यक्रम न मानकर, एक सतत प्रक्रिया माना जाये। इसके लिये राज्य, जिला व ब्लॉक स्तर तक समुदाय आधारित संगठनों को भी जोड़ने के लिये प्रदेश सरकारों को स्वतंत्रता हासिल थी।

पूर्व संचालित ‘राष्ट्रीय ग्राम स्वराज योजना’ में स्पष्ट निर्देश था कि प्रशिक्षणों को विश्लेषण होता रहे। ग्राम स्वराज के जरिए पुराना स्वराज, धर्मनिरपेक्षता, समानता और मानवाधिकार सिद्धान्त और उनके संवैधानिक पहलू, लिंग समानता, सामाजिक न्याय, मानव विकास की स्थिति, गरीबी उन्मूलन, नियोजन, क्रियान्वयन और निगरानी में भागीदारी, सूचना और पारदर्शिता की भूमिका, सामाजिक अंकेक्षण और पंचायतीराज के नियम और कानूनों को पूरे भारत में संचालित पंचायती प्रशिक्षण पाठ्यक्रमों में शामिल किया जाये। गाँव विकास की योजना कैसे बनाएँ?

जन भागीदारी व सकारात्मक सोच को आगे रखते हुए गाँव की स्थानीय समस्याओं का निदान खुद अपने स्तर पर कैसे करें? विकास जरूरतों के प्रति जवाबदेही कैसे सुनिश्चित करें? ग्राम नियोजन में विशेषकर गरीब की भागीदारी हेतु जगह कैसे बने? इस पर जोर देने की बात थी। स्थानीय जरूरत और तथ्यों के अनुसार मानव संसाधन प्रबन्धन, प्राकृति संसाधन प्रबन्धन, आपदा प्रबन्धन, स्व संसाधन प्रबन्धन और लेखा के साथ-साथ वित्त प्रबन्धन की समझ विकसित करने को भी उस योजना में महत्त्वपूर्ण कार्य के तौर पर लिया गया था।

मानव जरूरतों के प्रति आंचलिक सोच की दृष्टि से आमने-सामने प्रशिक्षण के अलावा, रेडियो, फिल्म, कैसेट, समाचार पत्र, पत्रिकाओं का उपयोग करने का निर्देश था। ‘सूचना का अधिकार’ तथा ‘सामाजिक अंकेक्षण’ के जरिए लाभार्थियों द्वारा अपने लाभ के लिये लाई गई योजनाओं की खुद निगरानी हेतु जननिगरानी का सक्षम तंत्र विकसित करना भी ‘राष्ट्रीय ग्राम स्वराज योजना’ का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य था। देखना है कि प्रस्तावित ‘राष्ट्रीय ग्राम स्वराज अभियान’ पूर्व योजना से किस मायने में कितना भिन्न और कितना बेहतर होगा।



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Post By: RuralWater
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