भारत में अनियोजित शहरीकरण ने नए तरह का संकट पैदा कर दिया है। रोजगार और जीविका की तलाश में गांवों की आबादी तेजी से पलायन कर रही है। नतीजतन शहरी जीवन प्रदूषण, गंदगी, जाम जैसी समस्याओं से बदरंग होता जा रहा है। क्या इसे रोका जा सकता है? जायजा ले रहे हैं प्रदीप सिंह।
शहरीकरण से कृषि और जंगलों पर संकट बढ़ रहा है। नए-नए शहरों के बसने के कारण खेती की जमीन खत्म हो रही है। जिससे सदियों से कृषि आधारित जीवनचर्या खत्म होती जा रही है। वनों के कटने से पर्यावरण का नुकसान हो रहा है। शहरीकरण से विश्व में प्रति वर्ष 1.1 करोड़ हेक्टेयर वन काटा जाता है। अकेले भारत में 10 लाख हेक्टेयर वन काटा जा रहा है। वनों के विनाश के कारण हमारे देश का आदिवासी समाज खतरे में हैं और तमाम वन्यजीव लुप्त हो रहे हैं। वनों के क्षेत्रफल में लगातार होती कमी के कारण भूमि का कटाव और रेगिस्तान का फैलाव बड़े पैमाने पर होने लगा है। गांव उजाड़ हो रहे हैं और शहरों में इंसानी भीड़ बढ़ती जा रही है। भारतमाता ग्रामवासिनी से शहरवासिनी होती जा रही हैं। यह बदलाव इस मायने में घातक है कि सब कुछ अंधाधुंध और अनियोजित है। शहरों के भीतर ऐसे गांव पनप रहे हैं जो परंपरागत गांवों की तुलना में कई गुना बदतर हैं। मलिन बस्तियों और अवैध बस्तियों में इंसानी जीवन जैसे सड़ांध मार रहा हो। नब्बे के दशक में शुरू हुए आर्थिक उदारीकरण और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आगमन ने देश में ऐसे वातावरण बनाना शुरू किया मानों शहरीकरण ही सारे रोगों का इलाज हो। शहरीकरण के साथ ही सत्ता से लेकर रोजगार तक के केंद्रीयकरण ने हर किसी को शहर भागने के लिए उकसा दिया। आज हालत यह है कि मुंबई हो या दिल्ली, तमाम बड़े शहरों से लोगों को मारपीट कर भगाया जा रहा है। कहीं कानून बनाकर, कहीं डंडा लेकर। अब गांवों में रोजगार के साधन कम हो गए हैं। परंपरागत काम धंधे भी बंद हो चुके हैं। किसी जमाने में खेती-किसानी के काम आने वाले छोटे-मोटे औजार गांव के कारीगरों द्वारा तैयार किए जाते थे। उनका एक बड़ा बाजार था। तमाम लोगों को इससे रोजी-रोटी मिलती थी। ये सब खत्म हो गया है।
सरकारों के लिए लघु और कुटीर उद्योग पिछले जमाने की बात हो गई है। नए-नए शहर सिल्क सिटी, साइबर सिटी और कंप्यूटर सिटी बन रहे हैं। शहरों की तरफ रोजगार के लिए पलायन बढ़ा और ग्रामवासिनी भारत को शहरवासिनी बनाने की प्रक्रिया बड़ी तेजी से चली। आज एक तिहाई आबादी शहरों में सिमट चुकी है। एक आंकड़े के मुताबिक लगभग चालीस करोड़ से अधिक जनसंख्या शहरों में निवास कर रही है।
शहरीकरण के आंकड़े को अगर विश्व के स्तर पर देखें तो दुनिया की पचास फीसद से अधिक आबादी शहरों और कस्बों में निवास कर रही है। शहरीकरण के पैरोकार भारत में जल्द ही इस लक्ष्य को पा लेना चाहते हैं। भारत के जनसंख्या आयोग ने पंद्रहवीं जनगणना के दूसरे दौर के जो आंकड़े जारी किए, उसके मुताबिक देश तेजी से शहरीकरण की ओर बढ़ रहा है। देश में शहरीकरण दो तरीके से हो रहा है। एक तो बड़े महानगरों में आबादी का जमाव हो रहा है। दूसरा देश के विभिन्न स्थानों पर कस्बों और शहरों का विकास हो रहा है। लेकिन हमारे देश में शहरीकरण का जो सबसे नकारात्मक पहलू है, वह यह कि दोनों जगह नियोजित और दीर्घकालीन विकास नहीं हो रहा है। इस फटाफट शहरीकरण ने आज जाम, प्रदूषण और कानून व्यवस्था के सामने संकट खड़ा कर दिया है। विकास को पैमाना बनाते हुए विशेषज्ञों का मानना है कि शहरीकरण अर्थव्यवस्था के लिए अच्छा संकेत हैं। लेकिन बढ़ते शहरीकरण की वजह से उत्पन्न समस्याएं पर वे बहस नहीं करना चाहते। इसमें पलायन और गांवों में बुनियादी सुविधाओं की कमी की तरफ उनका ध्यान नहीं है।
इस बीच दुनिया में तेजी से हो रहे शहरीकरण के बारे में संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट ने कहा है कि 2050 तक हिंदुस्तान की आधी आबादी महानगरों, नगरों और कस्बों में निवास करेगी और तब तक विश्व स्तर पर शहरीकरण का आंकड़ा सत्तर फीसद हो जाएगा।
तेजी से हो रहे शहरीकरण का देश में एक बड़ा वर्ग इसका तीखा विरोध कर रहा है। ऐसे लोग पर्यावरण, रोजगार और नियोजन को जरूरी मानते हैं। महानगरों में बढ़ रही बेतरतीब जनसंख्या ने कई सवाल खड़े किए हैं। रोजगार के लिए शहरों में पलायन कर रहे लोगों को दिल्ली, मुंबई, चेन्नई और कोलकाता जैसे शहर में भी शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास और सुरक्षा की गारंटी नहीं मिल पा रही है। कहने को तो गांव से आया यह वर्ग दिल्ली और मुंबई में रह रहा है, लेकिन वास्तविकता यह है कि महानगरों में जिस तरह से अनधिकृत और अनियोजित कॉलोनियां बस रही हैं, उसमें मानव सम्मान सुरक्षित नहीं है। हालत यह है कि शहरों में बस रही इन मलिन और गंदी बस्तियों में गांवों से भी बदतर सुविधाएं हैं। गांवों में कम से कम पर्यावरण और सफाई की कठिनाइयां नहीं होती। वहां बेकारी और गरीबी ही ज्यादा हावी है। लेकिन, गांव से पलायन करके शहर में आया मजदूर तबका चारों तरफ से पिस रहा है। इसके पास कमाई के कोई बेहतर मौके नहीं हैं और रहन-सहन गांवों की तुलना में कई गुना नारकीय हो चुका है।
विकास का जो मॉडल पूरी दुनिया में इस समय चल रहा है, उसमें शहरीकरण को तरजीह दी गई है। भारत में बढ़ता शहरीकरण भी इसी का प्रतिफल है। आंकड़ों के लिहाज से देखें तो भारत में शहरीकरण की गति बहुत धीमी रही। लेकिन आर्थिक उदारीकरण के बाद जैसे इसे पंख लग गए। 1961 में देश की 17.97 फीसद जनता शहरों में रहती थी। 1971 में मामूली बढ़त लेकर 19.91 फीसद तक पहुंची। 1981 में यह आंकड़ा 23.34 फीसद तो 1991 में 25.71 फीसद, 2001 में27.81 फीसद और 2011 में 31.16 फीसद तक आकर एक तिहाई के आंकड़े के समीप आ गया। इस दौरान देश में 2775 शहर और कस्बे और बसे। 2001 की जनगणना में शहर-कस्बे और कुल संख्या 5,161 थी, जो अब बढ़ कर 7,936 हो गई है। इसके बाद शहरीकरण की गति और तेज हो गई है।
आज देश का हर आदमी शहरों में रहने के लिए जितना लालायति है, उससे ज्यादा अभिशप्त। भारत में हो रहे शहरीकरण को अमेरिका के एक राजनेता ने इसे ‘अमेरिकी हित’ में बताया है। अमेरिका के वाणिज्य और अंतरराष्ट्रीय व्यापार उपमंत्री फ्रांसिस्को सांचेज का कहना है कि भारत में नगरीकरण की तेज रफ्तार के कारण वहां आबादी में इजाफा और लोगों की आय में बढ़ोतरी अमेरिका के हित में है। उनका कहना है कि बढ़ते शहरीकरण की वजह से आधारभूत ढांचे और वास्तविक जरूरतों की पूर्ति में अंतर बना रहेगा। इस अंतर को पाटने में अमेरिका मददगार साबित हो सकता है। कुछ महीने पहले भारत यात्रा पर आए सांचेज ने कहा कि 2030 तक भारत में छासठ शहर ऐसे होंगे, जिनकी आबादी दस लाख से ज्यादा होगी। शहरी इलाकों के परिवारों की कुल आय अगले बीस साल में चालीस खरब डॉलर होगी, जो अमेरिकी निर्यात के लिए महत्वपूर्ण है।
उधर, भारत में हो रहे शहरीकरण और इससे परिवर्तित हो रहे संबंधों पर भी अमेरिकी बौद्धिक और शासक वर्ग निगाह लगाए हुए है। सांचेज ने कहा कि भारतीय शहरों में लोगों की जरूरतों को पूरा करने में अमेरिका महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकता है। इसलिए भारत और अमेरिका को आपस में आयात-निर्यात संबंधों को मजबूत बनाना होगा। भारत के केंद्रीय शहरी विकास मंत्री कमलनाथ ने अपने एक बयान में कहा कि तीव्र शहरीकरण के मुद्दे से निपटने के लिए एक मजबूत योजना की जरूरत है। उन्होंने तेजी से बढ़ते शहरीकरण को एक बड़ी चुनौती बताया। केंद्रीय मंत्री ने बीस लाख से अधिक आबादीवाले शहरों से मेट्रो रेल के लिए विस्तृत परियोजना रिपोर्ट तैयार करने की अपील की। उन्होंने कहाकि कुछ ही साल बाद भारत में 38.2 करोड़ कारें हो जाएंगी। कमलनाथ ने कहा कि भविष्य के यातायात को देखते हुए उनके मंत्रालय को सेटेलाइट शहरों के विकास पर काम करना होगा।
शहरीकरण की एक बड़ी पर्यावरणीय समस्या वनों की कटाई है। शहरीकरण से कृषि और जंगलों पर संकट बढ़ रहा है। नए-नए शहरों के बसने के कारण खेती की जमीन खत्म हो रही है। जिससे सदियों से कृषि आधारित जीवनचर्या खत्म होती जा रही है। वनों के कटने से पर्यावरण का नुकसान हो रहा है। शहरीकरण से विश्व में प्रति वर्ष 1.1 करोड़ हेक्टेयर वन काटा जाता है। अकेले भारत में 10 लाख हेक्टेयर वन काटा जा रहा है। वनों के विनाश के कारण हमारे देश का आदिवासी समाज खतरे में हैं और तमाम वन्यजीव लुप्त हो रहे हैं। वनों के क्षेत्रफल में लगातार होती कमी के कारण भूमि का कटाव और रेगिस्तान का फैलाव बड़े पैमाने पर होने लगा है। खेती योग्य जमीन खत्म हो रही है और कम जमीन पर अधिक उत्पादन लेने का दबाव बढ़ गया है। रासायनिक उर्वरकों का खेती में अधिक उत्पादन लेने के लिए और फसल को नुकसान पहुंचाने वाले कीटों को मारने के लिए कीटनाशकों का उपयोग किया जाता है। अधिक मात्रा में उपयोग से ये ही कीटनाशक अब जमीन के जैविक चक्र और मनुष्य के स्वास्थ्य को क्षति पहुंचा रहे हैं। हानिकारक कीटों के साथ मकड़ी, केंचुए, मधुमक्खी जैसे फसल के लिए उपयोगी कीट भी उनसे मर जाते हैं। इससे भी अधिक चिंतनीय बात यह है कि फल, सब्जी और अनाज में कीटनाशकों का जहर भर रहा है और मनुष्य और पशु इन खाद्य पदार्थों को खा रहे हैं, जिससे उनके सामने सेहत संबंधी तमाम कठिनाइयां आ रही हैं। आज ये सब पर्यावरणीय समस्याएं मुंह बाए खड़ी हैं। विकास की अंधी दौड़ के पीछे हम प्रकृति का नाश करने लगे हैं। प्रकृति तभी तक साथ देती है, जब तक उसके नियमों के मुताबिक उससे लिया जाए। हमारे देश में शहरीकरण से जहां जल, जंगल और जमीन को खत्म किया जा रहा है, वहीं पर कृषि भी संकट में है। बढ़ते शहरीकरण ने कृषि को लीलना शुरू कर दिया है, जिससे हमारे देश की कृषि संस्कृति खतरे में है।
शहरीकरण से सबसे ज्यादा नुकसान पर्यावरण और मानव स्वास्थ्य का हुआ है। गांवों से शहरों की तरफ पलायन से केवल आबादी ही स्थानांतरित नहीं हो रही है, बल्कि गरीबी भी जमा हो रही है। भारत के शहरों में 20 से 25 फीसद लोग गरीबी रेखा से नीचे रहते हैं। ऐसे लोगों के पास मूलभूत सुविधाएं नहीं हैं। पीने के पानी से लेकर शिक्षा, स्वास्थ्य तक का इंतजाम नहीं है। भारत में पानी के लिए संघर्ष करने वाले संगठनों का कहना है कि बढ़ते हुए शहरीकरण और उद्योग क्षेत्र के विस्तार से पानी की समस्या गंभीर हो रही है। इससे शहरों में निवास करने वाले गरीब और प्रवासी प्रदेश के लोगों को पीने का साफ पानी नहीं मिलता है। लोग धूप के लिए मोहताज हो रहे हैं। एक अध्ययन में से यह बात सामने आई है कि दिन-प्रतिदिन बढ़ते शहरीकरण के कारण लोगों तक सूरज की रोशनी पर्याप्त मात्रा में नहीं पहुंच पा रही है। इस रोशनी से इंसान के शरीर को प्राकृतिक रूप से विटामिन डी मिलता है, जो शरीर में कैल्शियम के अवशोषण में सहायक होता है। लगातार प्रकाशहीन या नमीदार घरों या इमारतों के अंदर रहने वीलों में लगातार त्वचा द्वारा विटामिन डी के निर्माण की क्षमता घटती जा रही है. घनी आबादी वाले स्थानों पर कार्बन उत्सर्जन बढ़ता जा रहा है। पृथ्वी को बचाने की दिशा में काम कर रहे विशेषज्ञों ने एक अध्ययन में कहा है कि कार्बन उत्सर्जन बढ़ता जा रहा है। पृथ्वी को बचाने की दिशा में काम कर रहे विशेषज्ञों ने एक अध्ययन में कहा है कि कार्बन उत्सर्जन की दर कम करने के लिए सिर्फ जनसंख्या नियंत्रण ही काफी नहीं है, बढ़ता शहरीकरण भी इसके लिए जिम्मेदार है। इसे नियंत्रित करने के लिए दुनिया के सभी देशों को कदम उठाने की जरूरत है। लेकिन भारत, चीन, अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देशों को इस ओर विशेष ध्यान देने की जरूरत है। 21वीं सदी भारत के लिए शहरीकरण की सदी होगी। आने वाले बरसों में ज्यादासे ज्यादा लोग गांवों से निकलकर शहरों में पहुंच जाएंगे। 2020 तक 17 करोड़ से ज्यादा लोग गांव से शहर पहुंच चुके होंगे। वहीं 2050 तक यह आंकड़ा 70 करोड़ तक पहुंच जाएगा।
हालांकि दूसरे एशियाई देशों के मुकाबले भारत में अब भी शहरीकरण की दर बहुत कम है। शहरीकरण बढ़ने से पर्यावरण पर दबाव बढ़ता जा रहा है। पर्यावरण भौतिक वातावरण का द्योतक है। आजकल के यांत्रिक और औद्योगिक युग में इसको दूषण से बचाना अनिवार्य है। सामान्य जीवन प्रक्रिया में जब अवरोध होता है तब पर्यावरण की समस्या जन्म लेती है। यह अवरोध प्रकृति के कुछ तत्वों के अपनी मौलिक अवस्था में न रहने और विकृत हो जाने से प्रकट होता है। इन तत्वों में प्रमुख हैं जल, वायु, मिट्टी वगैरह। पर्यावरणीय समस्याओं से मनुष्य और अन्य जीवधारियों को अपना सामान्य जीवन जीने में कठिनाई होने लगती है और कई बार जीवन-मरण का सवाल पैदा हो जाता है। प्रदूषक गैसें मनुष्य और जीवधारियों में अनेक जानलेवा बीमारियों का कारण बन सकती हैं। एक अध्ययन से ज्ञात हुआ है कि वायु प्रदूषण से केवल 36 शहरों में प्रतिवर्ष 51,779 लोगों की अकाल मृत्यु हो जाती है। कोलकाता, कानपुर और हैदराबाद में वायु प्रदूषण से होने वाली मृत्युदर पिछले 3-4 सालों में दोगुनी हो गई है। एक अनुमान के अनुसार हमारे देश में प्रदूषण के कारण सैकड़ों लोगों को फेफड़े और हृदय की जानलेवा बीमारियां हैं।
औद्योगिकीकरण और शहरीकरण से जुड़ी एक दूसरी समस्या है जल प्रदूषण। बहुत बार उद्योगों का रासायनिक कचरा और प्रदूषित पानी और शहरी कूड़ा-करकट नदियों में छोड़ दिया जाता है। इससे नदियां अत्यधिक प्रदूषित होने लगी हैं। भारत में ऐसी कई नदियां हैं, जिनका जल अब अशुद्ध हो गया है। इनमें पवित्र गंगा भी शामिल है।
इन सारी कठिनाइयों से बचने के लिए जरूरी है कि भारत के योजनाकारों को अपनी विकास नीति, आवास नीति और शहरीकरण की नीति पर दोबारा विचार करना चाहिए।
शहरीकरण से कृषि और जंगलों पर संकट बढ़ रहा है। नए-नए शहरों के बसने के कारण खेती की जमीन खत्म हो रही है। जिससे सदियों से कृषि आधारित जीवनचर्या खत्म होती जा रही है। वनों के कटने से पर्यावरण का नुकसान हो रहा है। शहरीकरण से विश्व में प्रति वर्ष 1.1 करोड़ हेक्टेयर वन काटा जाता है। अकेले भारत में 10 लाख हेक्टेयर वन काटा जा रहा है। वनों के विनाश के कारण हमारे देश का आदिवासी समाज खतरे में हैं और तमाम वन्यजीव लुप्त हो रहे हैं। वनों के क्षेत्रफल में लगातार होती कमी के कारण भूमि का कटाव और रेगिस्तान का फैलाव बड़े पैमाने पर होने लगा है। गांव उजाड़ हो रहे हैं और शहरों में इंसानी भीड़ बढ़ती जा रही है। भारतमाता ग्रामवासिनी से शहरवासिनी होती जा रही हैं। यह बदलाव इस मायने में घातक है कि सब कुछ अंधाधुंध और अनियोजित है। शहरों के भीतर ऐसे गांव पनप रहे हैं जो परंपरागत गांवों की तुलना में कई गुना बदतर हैं। मलिन बस्तियों और अवैध बस्तियों में इंसानी जीवन जैसे सड़ांध मार रहा हो। नब्बे के दशक में शुरू हुए आर्थिक उदारीकरण और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आगमन ने देश में ऐसे वातावरण बनाना शुरू किया मानों शहरीकरण ही सारे रोगों का इलाज हो। शहरीकरण के साथ ही सत्ता से लेकर रोजगार तक के केंद्रीयकरण ने हर किसी को शहर भागने के लिए उकसा दिया। आज हालत यह है कि मुंबई हो या दिल्ली, तमाम बड़े शहरों से लोगों को मारपीट कर भगाया जा रहा है। कहीं कानून बनाकर, कहीं डंडा लेकर। अब गांवों में रोजगार के साधन कम हो गए हैं। परंपरागत काम धंधे भी बंद हो चुके हैं। किसी जमाने में खेती-किसानी के काम आने वाले छोटे-मोटे औजार गांव के कारीगरों द्वारा तैयार किए जाते थे। उनका एक बड़ा बाजार था। तमाम लोगों को इससे रोजी-रोटी मिलती थी। ये सब खत्म हो गया है।
सरकारों के लिए लघु और कुटीर उद्योग पिछले जमाने की बात हो गई है। नए-नए शहर सिल्क सिटी, साइबर सिटी और कंप्यूटर सिटी बन रहे हैं। शहरों की तरफ रोजगार के लिए पलायन बढ़ा और ग्रामवासिनी भारत को शहरवासिनी बनाने की प्रक्रिया बड़ी तेजी से चली। आज एक तिहाई आबादी शहरों में सिमट चुकी है। एक आंकड़े के मुताबिक लगभग चालीस करोड़ से अधिक जनसंख्या शहरों में निवास कर रही है।
शहरीकरण के आंकड़े को अगर विश्व के स्तर पर देखें तो दुनिया की पचास फीसद से अधिक आबादी शहरों और कस्बों में निवास कर रही है। शहरीकरण के पैरोकार भारत में जल्द ही इस लक्ष्य को पा लेना चाहते हैं। भारत के जनसंख्या आयोग ने पंद्रहवीं जनगणना के दूसरे दौर के जो आंकड़े जारी किए, उसके मुताबिक देश तेजी से शहरीकरण की ओर बढ़ रहा है। देश में शहरीकरण दो तरीके से हो रहा है। एक तो बड़े महानगरों में आबादी का जमाव हो रहा है। दूसरा देश के विभिन्न स्थानों पर कस्बों और शहरों का विकास हो रहा है। लेकिन हमारे देश में शहरीकरण का जो सबसे नकारात्मक पहलू है, वह यह कि दोनों जगह नियोजित और दीर्घकालीन विकास नहीं हो रहा है। इस फटाफट शहरीकरण ने आज जाम, प्रदूषण और कानून व्यवस्था के सामने संकट खड़ा कर दिया है। विकास को पैमाना बनाते हुए विशेषज्ञों का मानना है कि शहरीकरण अर्थव्यवस्था के लिए अच्छा संकेत हैं। लेकिन बढ़ते शहरीकरण की वजह से उत्पन्न समस्याएं पर वे बहस नहीं करना चाहते। इसमें पलायन और गांवों में बुनियादी सुविधाओं की कमी की तरफ उनका ध्यान नहीं है।
इस बीच दुनिया में तेजी से हो रहे शहरीकरण के बारे में संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट ने कहा है कि 2050 तक हिंदुस्तान की आधी आबादी महानगरों, नगरों और कस्बों में निवास करेगी और तब तक विश्व स्तर पर शहरीकरण का आंकड़ा सत्तर फीसद हो जाएगा।
तेजी से हो रहे शहरीकरण का देश में एक बड़ा वर्ग इसका तीखा विरोध कर रहा है। ऐसे लोग पर्यावरण, रोजगार और नियोजन को जरूरी मानते हैं। महानगरों में बढ़ रही बेतरतीब जनसंख्या ने कई सवाल खड़े किए हैं। रोजगार के लिए शहरों में पलायन कर रहे लोगों को दिल्ली, मुंबई, चेन्नई और कोलकाता जैसे शहर में भी शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास और सुरक्षा की गारंटी नहीं मिल पा रही है। कहने को तो गांव से आया यह वर्ग दिल्ली और मुंबई में रह रहा है, लेकिन वास्तविकता यह है कि महानगरों में जिस तरह से अनधिकृत और अनियोजित कॉलोनियां बस रही हैं, उसमें मानव सम्मान सुरक्षित नहीं है। हालत यह है कि शहरों में बस रही इन मलिन और गंदी बस्तियों में गांवों से भी बदतर सुविधाएं हैं। गांवों में कम से कम पर्यावरण और सफाई की कठिनाइयां नहीं होती। वहां बेकारी और गरीबी ही ज्यादा हावी है। लेकिन, गांव से पलायन करके शहर में आया मजदूर तबका चारों तरफ से पिस रहा है। इसके पास कमाई के कोई बेहतर मौके नहीं हैं और रहन-सहन गांवों की तुलना में कई गुना नारकीय हो चुका है।
विकास का जो मॉडल पूरी दुनिया में इस समय चल रहा है, उसमें शहरीकरण को तरजीह दी गई है। भारत में बढ़ता शहरीकरण भी इसी का प्रतिफल है। आंकड़ों के लिहाज से देखें तो भारत में शहरीकरण की गति बहुत धीमी रही। लेकिन आर्थिक उदारीकरण के बाद जैसे इसे पंख लग गए। 1961 में देश की 17.97 फीसद जनता शहरों में रहती थी। 1971 में मामूली बढ़त लेकर 19.91 फीसद तक पहुंची। 1981 में यह आंकड़ा 23.34 फीसद तो 1991 में 25.71 फीसद, 2001 में27.81 फीसद और 2011 में 31.16 फीसद तक आकर एक तिहाई के आंकड़े के समीप आ गया। इस दौरान देश में 2775 शहर और कस्बे और बसे। 2001 की जनगणना में शहर-कस्बे और कुल संख्या 5,161 थी, जो अब बढ़ कर 7,936 हो गई है। इसके बाद शहरीकरण की गति और तेज हो गई है।
आज देश का हर आदमी शहरों में रहने के लिए जितना लालायति है, उससे ज्यादा अभिशप्त। भारत में हो रहे शहरीकरण को अमेरिका के एक राजनेता ने इसे ‘अमेरिकी हित’ में बताया है। अमेरिका के वाणिज्य और अंतरराष्ट्रीय व्यापार उपमंत्री फ्रांसिस्को सांचेज का कहना है कि भारत में नगरीकरण की तेज रफ्तार के कारण वहां आबादी में इजाफा और लोगों की आय में बढ़ोतरी अमेरिका के हित में है। उनका कहना है कि बढ़ते शहरीकरण की वजह से आधारभूत ढांचे और वास्तविक जरूरतों की पूर्ति में अंतर बना रहेगा। इस अंतर को पाटने में अमेरिका मददगार साबित हो सकता है। कुछ महीने पहले भारत यात्रा पर आए सांचेज ने कहा कि 2030 तक भारत में छासठ शहर ऐसे होंगे, जिनकी आबादी दस लाख से ज्यादा होगी। शहरी इलाकों के परिवारों की कुल आय अगले बीस साल में चालीस खरब डॉलर होगी, जो अमेरिकी निर्यात के लिए महत्वपूर्ण है।
उधर, भारत में हो रहे शहरीकरण और इससे परिवर्तित हो रहे संबंधों पर भी अमेरिकी बौद्धिक और शासक वर्ग निगाह लगाए हुए है। सांचेज ने कहा कि भारतीय शहरों में लोगों की जरूरतों को पूरा करने में अमेरिका महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकता है। इसलिए भारत और अमेरिका को आपस में आयात-निर्यात संबंधों को मजबूत बनाना होगा। भारत के केंद्रीय शहरी विकास मंत्री कमलनाथ ने अपने एक बयान में कहा कि तीव्र शहरीकरण के मुद्दे से निपटने के लिए एक मजबूत योजना की जरूरत है। उन्होंने तेजी से बढ़ते शहरीकरण को एक बड़ी चुनौती बताया। केंद्रीय मंत्री ने बीस लाख से अधिक आबादीवाले शहरों से मेट्रो रेल के लिए विस्तृत परियोजना रिपोर्ट तैयार करने की अपील की। उन्होंने कहाकि कुछ ही साल बाद भारत में 38.2 करोड़ कारें हो जाएंगी। कमलनाथ ने कहा कि भविष्य के यातायात को देखते हुए उनके मंत्रालय को सेटेलाइट शहरों के विकास पर काम करना होगा।
शहरीकरण की एक बड़ी पर्यावरणीय समस्या वनों की कटाई है। शहरीकरण से कृषि और जंगलों पर संकट बढ़ रहा है। नए-नए शहरों के बसने के कारण खेती की जमीन खत्म हो रही है। जिससे सदियों से कृषि आधारित जीवनचर्या खत्म होती जा रही है। वनों के कटने से पर्यावरण का नुकसान हो रहा है। शहरीकरण से विश्व में प्रति वर्ष 1.1 करोड़ हेक्टेयर वन काटा जाता है। अकेले भारत में 10 लाख हेक्टेयर वन काटा जा रहा है। वनों के विनाश के कारण हमारे देश का आदिवासी समाज खतरे में हैं और तमाम वन्यजीव लुप्त हो रहे हैं। वनों के क्षेत्रफल में लगातार होती कमी के कारण भूमि का कटाव और रेगिस्तान का फैलाव बड़े पैमाने पर होने लगा है। खेती योग्य जमीन खत्म हो रही है और कम जमीन पर अधिक उत्पादन लेने का दबाव बढ़ गया है। रासायनिक उर्वरकों का खेती में अधिक उत्पादन लेने के लिए और फसल को नुकसान पहुंचाने वाले कीटों को मारने के लिए कीटनाशकों का उपयोग किया जाता है। अधिक मात्रा में उपयोग से ये ही कीटनाशक अब जमीन के जैविक चक्र और मनुष्य के स्वास्थ्य को क्षति पहुंचा रहे हैं। हानिकारक कीटों के साथ मकड़ी, केंचुए, मधुमक्खी जैसे फसल के लिए उपयोगी कीट भी उनसे मर जाते हैं। इससे भी अधिक चिंतनीय बात यह है कि फल, सब्जी और अनाज में कीटनाशकों का जहर भर रहा है और मनुष्य और पशु इन खाद्य पदार्थों को खा रहे हैं, जिससे उनके सामने सेहत संबंधी तमाम कठिनाइयां आ रही हैं। आज ये सब पर्यावरणीय समस्याएं मुंह बाए खड़ी हैं। विकास की अंधी दौड़ के पीछे हम प्रकृति का नाश करने लगे हैं। प्रकृति तभी तक साथ देती है, जब तक उसके नियमों के मुताबिक उससे लिया जाए। हमारे देश में शहरीकरण से जहां जल, जंगल और जमीन को खत्म किया जा रहा है, वहीं पर कृषि भी संकट में है। बढ़ते शहरीकरण ने कृषि को लीलना शुरू कर दिया है, जिससे हमारे देश की कृषि संस्कृति खतरे में है।
शहरीकरण से सबसे ज्यादा नुकसान पर्यावरण और मानव स्वास्थ्य का हुआ है। गांवों से शहरों की तरफ पलायन से केवल आबादी ही स्थानांतरित नहीं हो रही है, बल्कि गरीबी भी जमा हो रही है। भारत के शहरों में 20 से 25 फीसद लोग गरीबी रेखा से नीचे रहते हैं। ऐसे लोगों के पास मूलभूत सुविधाएं नहीं हैं। पीने के पानी से लेकर शिक्षा, स्वास्थ्य तक का इंतजाम नहीं है। भारत में पानी के लिए संघर्ष करने वाले संगठनों का कहना है कि बढ़ते हुए शहरीकरण और उद्योग क्षेत्र के विस्तार से पानी की समस्या गंभीर हो रही है। इससे शहरों में निवास करने वाले गरीब और प्रवासी प्रदेश के लोगों को पीने का साफ पानी नहीं मिलता है। लोग धूप के लिए मोहताज हो रहे हैं। एक अध्ययन में से यह बात सामने आई है कि दिन-प्रतिदिन बढ़ते शहरीकरण के कारण लोगों तक सूरज की रोशनी पर्याप्त मात्रा में नहीं पहुंच पा रही है। इस रोशनी से इंसान के शरीर को प्राकृतिक रूप से विटामिन डी मिलता है, जो शरीर में कैल्शियम के अवशोषण में सहायक होता है। लगातार प्रकाशहीन या नमीदार घरों या इमारतों के अंदर रहने वीलों में लगातार त्वचा द्वारा विटामिन डी के निर्माण की क्षमता घटती जा रही है. घनी आबादी वाले स्थानों पर कार्बन उत्सर्जन बढ़ता जा रहा है। पृथ्वी को बचाने की दिशा में काम कर रहे विशेषज्ञों ने एक अध्ययन में कहा है कि कार्बन उत्सर्जन बढ़ता जा रहा है। पृथ्वी को बचाने की दिशा में काम कर रहे विशेषज्ञों ने एक अध्ययन में कहा है कि कार्बन उत्सर्जन की दर कम करने के लिए सिर्फ जनसंख्या नियंत्रण ही काफी नहीं है, बढ़ता शहरीकरण भी इसके लिए जिम्मेदार है। इसे नियंत्रित करने के लिए दुनिया के सभी देशों को कदम उठाने की जरूरत है। लेकिन भारत, चीन, अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देशों को इस ओर विशेष ध्यान देने की जरूरत है। 21वीं सदी भारत के लिए शहरीकरण की सदी होगी। आने वाले बरसों में ज्यादासे ज्यादा लोग गांवों से निकलकर शहरों में पहुंच जाएंगे। 2020 तक 17 करोड़ से ज्यादा लोग गांव से शहर पहुंच चुके होंगे। वहीं 2050 तक यह आंकड़ा 70 करोड़ तक पहुंच जाएगा।
हालांकि दूसरे एशियाई देशों के मुकाबले भारत में अब भी शहरीकरण की दर बहुत कम है। शहरीकरण बढ़ने से पर्यावरण पर दबाव बढ़ता जा रहा है। पर्यावरण भौतिक वातावरण का द्योतक है। आजकल के यांत्रिक और औद्योगिक युग में इसको दूषण से बचाना अनिवार्य है। सामान्य जीवन प्रक्रिया में जब अवरोध होता है तब पर्यावरण की समस्या जन्म लेती है। यह अवरोध प्रकृति के कुछ तत्वों के अपनी मौलिक अवस्था में न रहने और विकृत हो जाने से प्रकट होता है। इन तत्वों में प्रमुख हैं जल, वायु, मिट्टी वगैरह। पर्यावरणीय समस्याओं से मनुष्य और अन्य जीवधारियों को अपना सामान्य जीवन जीने में कठिनाई होने लगती है और कई बार जीवन-मरण का सवाल पैदा हो जाता है। प्रदूषक गैसें मनुष्य और जीवधारियों में अनेक जानलेवा बीमारियों का कारण बन सकती हैं। एक अध्ययन से ज्ञात हुआ है कि वायु प्रदूषण से केवल 36 शहरों में प्रतिवर्ष 51,779 लोगों की अकाल मृत्यु हो जाती है। कोलकाता, कानपुर और हैदराबाद में वायु प्रदूषण से होने वाली मृत्युदर पिछले 3-4 सालों में दोगुनी हो गई है। एक अनुमान के अनुसार हमारे देश में प्रदूषण के कारण सैकड़ों लोगों को फेफड़े और हृदय की जानलेवा बीमारियां हैं।
औद्योगिकीकरण और शहरीकरण से जुड़ी एक दूसरी समस्या है जल प्रदूषण। बहुत बार उद्योगों का रासायनिक कचरा और प्रदूषित पानी और शहरी कूड़ा-करकट नदियों में छोड़ दिया जाता है। इससे नदियां अत्यधिक प्रदूषित होने लगी हैं। भारत में ऐसी कई नदियां हैं, जिनका जल अब अशुद्ध हो गया है। इनमें पवित्र गंगा भी शामिल है।
इन सारी कठिनाइयों से बचने के लिए जरूरी है कि भारत के योजनाकारों को अपनी विकास नीति, आवास नीति और शहरीकरण की नीति पर दोबारा विचार करना चाहिए।
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