इस प्यास की पड़ताल जरूरी है

22 अप्रैल 2016, पृथ्वी दिवस पर विशेष


आज 22 अप्रैल है; अन्तरराष्ट्रीय माँ पृथ्वी का दिन। यह सच है कि 1960 के दशक में अमेरिका की औद्योगिक चिमनियों से उठते गन्दे धुएँ के खिलाफ आई जन-जागृति ही एक दिन ‘अन्तरराष्ट्रीय पृथ्वी दिवस’ की नींव बनी। यह भी सच है कि धरती को आये बुखार और परिणामस्वरूप बदलते मौसम में हरित गैसों के उत्सर्जन में हुई बेतहाशा बढ़ोत्तरी का बड़ा योगदान है।

इस बढ़ोत्तरी को घटोत्तरी में बदलने के लिये दिसम्बर, 2015 के पहले पखवाड़े में दुनिया के देश पेरिस में जुटे और एक समझौता हुआ। आज पेरिस जलवायु समझौते पर हस्ताक्षर करने का भी दिन है। हस्ताक्षर होते ही यह समझौता सभी सम्बन्धित देशों पर लागू हो जाएगा।

इस मौके पर गौर करने की बात यह है कि पेरिस जलवायु समझौता कार्बन व अन्य हरित गैसों के उत्सर्जन तथा अवशोषण की चिन्ता तो करता है, किन्तु धरती के बढ़ते तापमान, बदलती जलवायु और इसके बढ़ते दुष्प्रभाव में बढ़ती जलनिकासी, घटते वर्षाजल संचयन, मिट्टी की घटती नमी, बढ़ते रेगिस्तान और इन सभी में खेती व सिंचाई के तौर-तरीकों व प्राकृतिक संसाधनों को लेकर व्यावसायिक हुए नजरिए की चिन्ता व चर्चा... दोनों ही नहीं करता।

हमें चर्चा करनी चाहिए कि भारत के 11 राज्यों में सुखाड़ को लेकर आज जो कुछ हाय तौबा सुनाई दे रही है, क्या उसका एकमेव कारण वैश्विक तापमान में वृद्धि अथवा परिणामस्वरूप बदली जलवायु ही है अथवा दुष्प्रभावों को बढ़ाने में स्थानीय कारकों की भी कुछ भूमिका है?

इस चर्चा के लिये आज हमारे सामने दो चित्र हैं:


पहला चित्र भारत में पानी की सबसे कम वर्षा औसत (50 मिलीमीटर) वाले जिला जैसलमेर का है; जहाँ गत वर्षों में चार मिलीमीटर के निचले स्तर तक जा पहुँची वार्षिक बारिश के बावजूद न आत्महत्याएँ हुईं, न पानी को लेकर कोई चीख-पुकार मची और न ही किसी आर्थिक पैकेज की माँग की गई।

1100 मिलीमीटर के हमारे राष्ट्रीय वार्षिक वर्षा औसत की तुलना में पश्चिमी राजस्थान का वार्षिक वर्षा औसत मात्र 313 तथा पूर्वी राजस्थान में 675 है। वार्षिक वर्षा गिरावट में राष्ट्रीय और राजस्थान राज्य स्तरीय औसत (राष्ट्रीय: 42 फीसदी, राजस्थान: 40.19 फीसदी) में मामूली ही अन्तर है। इस दृष्टि से देखें तो देश के अन्य राज्यों की तरह राजस्थान के भी कई जिलों को भी तीन साल से सूखाड़ग्रस्त कहा जा सकता है। किन्तु यहाँ सूखाड़ में भी खेती है, पीने के पानी का इन्तजाम है और शान्ति है।

दूसरा चित्र मराठवाड़ा, मध्य महाराष्ट्र और विदर्भ का है, जहाँ के वार्षिक वर्षा औसत क्रमशः 882, 901 और 1,034 मिलीमीटर हैं। सबसे ज्यादा चीख-पुकार वाले जिला लातूर का वार्षिक वर्षा औसत 723 मिलीमीटर है। 50 फीसदी गिरावट के बाद लातूर में हुई 361 मिलीमीटर वर्षा का आँकड़ा देखें। यह आँकड़ा भी जैसलमेर की सामान्य वर्षा से सात गुना है।

गौर कीजिए कि महाराष्ट्र में पानी को लेकर चीख-पुकार इस सबके बावजूद है कि पिछले 68 वर्षों में सिंचाई व बाढ़ नियंत्रण के नाम पर देश के कुल बजट का सबसे ज्यादा हिस्सा महाराष्ट्र को हासिल हुआ है। सिंचाई बाँध परियोजनाओं की सबसे ज्यादा संख्या भी महाराष्ट्र के ही नाम दर्ज है। वर्ष 2012 में केन्द्रीय जल आयोग द्वारा जारी आँकड़ों के मुताबिक भारत में कुल जमा निर्मित और निर्माणाधीन बाँधों की संख्या 5187 है, जिसमें से 1845 अकेले महाराष्ट्र में है।

विरोधाभास यह है कि सबसे बड़े बजट और ढेर सारी परियोजनाओं के बावजूद अंगूर और काजू छोड़कर एक फसल ऐसी नहीं, जिसके उत्पादन में महाराष्ट्र आज देश में नम्बर एक हो। कुल कृषि क्षेत्र की तुलना में सिंचित क्षेत्र प्रतिशत के मामले में भी महाराष्ट्र (मात्र 8.8 प्रतिशत) देश में सबसे पीछे है।

सिंचाई क्षमता के मामले में महाराष्ट्र का नम्बर आन्ध्र प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के बाद में ही आता है। विचारणीय प्रश्न है कि पानी के नाम का इतना पैसा खाने के बावजूद, यदि आज महाराष्ट्र के कुल 43,000 गाँवों में से 27,723 को सूखाग्रस्त घोषित करने की बेबसी है तो आखिर क्यों? महाराष्ट्र के अधिकांश बाँधों के जलाशयों में पानी क्यों नहीं है? आखिर यह नौबत क्यों आई कि महाराष्ट्र सरकार को 200 फुट से गहरे बोरवेल पर पाबन्दी का आदेश जारी करना पड़ा है।

इसका एक उत्तर यह है कि महाराष्ट्र सरकार ने सूखे में भी इंसान से ज्यादा फैक्टरियों की चिन्ता की। महाराष्ट्र में लगभग 200 चीनी फैक्टरियाँ हैं। उसने अकेले एक चीनी फैक्टरी को देने के लिये लातूर के निकट उस्मानाबाद के तेरना जलाशय का पाँच लाख क्युबिक मीटर पानी जैकवेल में रिजर्व कर दिया गया। उसने एक बॉटलिंग संयंत्र को अनुमति दी कि वह इन सूखे दिनों में भी मांजरा बाँध से 20 हजार लीटर पानी निकाल रहा है। दूसरा उत्तर है कि अकेले लातूर जिले में 90,000 गहरे बोरवेल हैं। लातूर ने इनसे इतना पानी खींचा कि वहाँ भूजल स्तर में गिरावट रफ्तार तीन मीटर प्रति वर्ष का आँकड़ा पार कर गई है। तीसरा उत्तर है कि बगल में स्थित जिला सोलापुर में भूजल पुनर्भरण के अच्छे प्रयासों से लातूर ने कुछ नहीं सीखा।

सिंचाई क्षमता के मामले में महाराष्ट्र का नम्बर आन्ध्र प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के बाद में ही आता है। विचारणीय प्रश्न है कि पानी के नाम का इतना पैसा खाने के बावजूद, यदि आज महाराष्ट्र के कुल 43,000 गाँवों में से 27,723 को सूखाग्रस्त घोषित करने की बेबसी है तो आखिर क्यों? महाराष्ट्र के अधिकांश बाँधों के जलाशयों में पानी क्यों नहीं है? आखिर यह नौबत क्यों आई कि महाराष्ट्र सरकार को 200 फुट से गहरे बोरवेल पर पाबन्दी का आदेश जारी करना पड़ा है। चौथा उत्तर वह लालच है कि जो लातूर को गन्ने के लिये 6,90,000 लाख लीटर यानी प्रतिदिन 1890 लाख लीटर पानी निकाल लेने की बेसमझी देती है; जबकि परम्परागत तौर पर लातूर मूलतः दलहन और तिलहन का काफी मजबूत उत्पादक और विपणन क्षेत्र रहा है। दलहन-तिलहन को तो गन्ने से बीस हिस्से कम पानी चाहिए; फिर भी लातूर को गन्ने का लालच है।

कहना न होगा कि लातूर, को जैसलमेर से बहुत कुछ सीखने की जरूरत है। हकीकत यह है कि यदि लातूर अकेले गन्ने का लालच छोड़ दे, तो ही लातूर शहर और गाँव दोनों की प्रतिदिन की आवश्यकताओं हेतु पानी की पूर्ति हो जाएगी। लातूर शहर को दैनिक आवश्यकताओं के लिये प्रतिदिन कुल 400 से 500 लाख लीटर और गाँव को प्रतिदिन 200 से 300 लाख लीटर पानी चाहिए।

तो संकट कहाँ है, आसमान में या दिमाग में?


महाराष्ट्र में गत 60 वर्षों का सिंचाई पैटर्न देखिए: सिंचित क्षेत्र में बाजरा, ज्वार, अन्य अनाज, दाल, तिलहन और कपास की फसल करने की प्रवृत्ति घटी है; धान, गेहूँ और गन्ना की बढ़ी है। फसल चयन की उलटबाँसी देखिए कि सिंचित क्षेत्र में इन फसलों को प्राथमिकता इसके बावजूद है कि महाराष्ट्र में इन फसलों का सिंचाई खर्च अन्य राज्यों की तुलना में काफी अधिक है।

उदाहरण के तौर पर उत्तर प्रदेश की तुलना में महाराष्ट्र में गन्ना उत्पादन में पानी खर्च साढ़े नौ गुना तक, धान-गेहूँ में सवा गुना तक, कपास में दस गुना तक और सब्जियों में सवा सात गुना तक अधिक है। सब जानते हैं कि ‘हरित क्रांति’ का ढोल बजाने में जो-जो राज्य आगे रहे, आज उनके पानी का ढोल फूट चुका है; फिर भी व्यावसायिक खेती की जिद क्यों? पानी नहीं है तो किसने कहा कि महाराष्ट्र के किसान केला, अंगूर, गन्ना, चावल और प्याज जैसी अधिक पानी वाली फसलों को अपनी प्राथमिक फसल बनाएँ?

यही हाल जिलावार 153 मिलीमीटर से लेकर 644 मिलीमीटर वार्षिक वर्षा औसत वाले बुन्देलखण्ड का है। चन्देलकालीन तालाबों के मशहूर बुन्देलखण्ड आज खदान, जंगल कटान और जमीन हड़पो अभियान का शिकार है।

समाधान के रूप में वहाँ नदी जोड़, बोरवेल और पैकेज जा रहे हैं। उत्तर प्रदेश सरकार 80,000 करोड़ का पैकेज माँग रही है।

यह समाधान नहीं है। कम बारिश हो, तो खेती सिर्फ आजीविका का साधन हो सकती है, सारी सुविधाएँ और सपने पूरे करने का नहीं। अतः जैसलमेर ने अपने को खेती पर कम, मवेशी और कारीगरी पर अधिक निर्भर बनाया है। यही रास्ता है। यदि जैसलमेर यह कर सकता है, तो मराठवाड़ा और बुन्देलखण्ड क्यों नहीं कर सकते? वे क्यों नहीं कम अवधि व कम पानी वाली फसलों को अपनी प्राथमिक फसल बना सकते? महाराष्ट्र शासन को किसने बताया कि जल के दुरुपयोग को बढ़ावा देने वाली नहरी सिंचाई को बढ़ावा दे? उसे किसने रोका कि वह बूँद-बूँद सिंचाई व फव्वारे जैसी अनुशासित सिंचाई पद्धतियों को न अपनाए? कम पानी की फसलों को बढ़ावा देने के लिये उनके न्यूनतम समर्थन मूल्य में वृद्धि जरूरी है। इसे लेकर महाराष्ट्र सरकार के हाथ किसने बाँधे हैं? ‘खेत का पानी खेत में’ और ; बारिश का पानी धरती के पेट में’ जैसे नारों पर कहाँ किसी और का एकाधिकार है?

सूखे में भी लबालब भरे तालाबसब जानते हैं कि रासायनिक खाद, मिट्टी कणों को बिखेरकर उसकी ऊपरी परत की जल संग्रहण क्षमता घटा देती है। गोबर आदि की देसी खाद, मिट्टी कणों को बाँधकर ऊपरी परत में नमी रोककर रखती है। इससे सिंचाई में कम पानी लगता है। खेत समतल हो, तो भी कम सिंचाई में पानी पूरे खेत में पहुँच जाता है। ग्रीन हाउस, पॉली हाउस, पक्की मेड़बन्दी, आदि क्रमशः कम सिंचाई, कम पानी में खेती की ही जुगत हैं। इन्हें अपनाने की रोक कहाँ हैं?

कहना न होगा कि वैश्विक तापमान और जलवायु परिवर्तन को दोष देने से पहले, हमें अपनी स्थानीय कारगुजारियों को सुधारना होगा। वर्षाजल संचयन और उपयोग में अनुशासन का कोई विकल्प नहीं है। उपयोग योग्य उपलब्ध कुल जल में से 80 प्रतिशत का उपयोग करने वाले किसान पर इसकी जिम्मेदारी, निस्सन्देह सबसे अधिक है। जैसलमेर की सीख यही है। क्या हम सीखेंगे?

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