बाढ़ और जल-जमाव वाले क्षेत्रों में पीने के पानी की समस्या सचमुच विकट हो जाती है। कूएँ समाप्त हो चुके हैं और हैण्डपम्प अक्सर बाढ़ के पानी में डूब जाते हैं। अगर यह हैण्डपम्प न डूबें तब भी इनके पानी की गुणवत्ता पर हमेशा सन्देह बना रहता है। जाहिर है, लोग बहता हुआ गन्दा पानी ही पीने को मजबूर होते हैं। रसायनों की मदद से पानी की शुद्धता बढ़ाई जा सकती है मगर एक तो इसे खरीदना पड़ता है जिसके लिए पैसा चाहिये और दूसरे इसके समुचित उपयोग की समझ होनी चाहिये वरना परिणाम घातक भी हो सकते हैं।
सेनिटेशन के क्षेत्र में आज तक जो भी ज्ञान उपलब्ध है उसमें बाढ़-ग्रस्त या जल-जमाव वाले क्षेत्रों में मानव मल का समुचित निस्तार नहीं किया जा सकता। जहाँ पूरा का पूरा इलाका ही डूबा हो वहाँ पानी के प्रदूषण से बचना नामुमकिन है। यह काम अगर सस्ते दर पर करना हो जिसका बोझ आम आदमी उठा सके तब तो यह और भी मुश्किल हो जाता है। हमारे गाँवों में तमाम प्रचार-प्रसार के बावजूद शौचालयों का उपयोग अभी तक समस्या ही बना हुआ है। कुछ विशेषज्ञ ऐसा मानते हैं कि शौचालयों के निर्माण में बहुत पैसा लगता है जिसकी वजह से बहुत लोग चाहते हुये भी उनका निर्माण नहीं करवा पाते हैं। यह केवल आंशिक रूप से सच है क्योंकि बहुत से घरों में शौचालय होने के बावजूद उनका इस्तेमाल नहीं होता। हमारा ग्रामीण परिवेश अभी भी खुले आकाश की आशा रखता है। बाढ़ के समय उपलब्ध जमीन सिमट जाती है और आकाश से वर्षा होती है। ऐसे में सुरक्षित जगहों पर, जहाँ लोग आश्रय लेने आते हैं, अगर शौचालयों की व्यवस्था हो तो कम से कम महिलाओं के लिए एक बड़ी सुविधा होती। उड़ीसा और महाराष्ट्र की बहुत सी संस्थाओं ने इस उद्देश्य से मिट्टी के गमले नुमा पात्रा बनाये हैं।यह बहुत सस्ते होते हैं और आम आदमी इसकी कीमत अदा कर सकता है। दुर्भाग्यवश बिहार में इस तरह का कोई प्रयास सम्भवतः नहीं हुआ है। इतना जरूर है कि आपातस्थिति के लिए इस तरह के शौचालय अगर बना भी लिए जायें तो भी उनसे केवल पर्देदारी की समस्या का समाधान होता है, मानव-मल के सुरक्षित निस्तारण का नहीं। बाढ़ वाले इलाकों में वह समस्या तो अपनी जगह बनी ही रहती है क्योंकि यहाँ भूमिगत जल की सतह वैसे भी ऊँची है और बरसात के मौसम तो चारों तरफ पानी ही पानी रहता है। इसके अलावा सारे नाले, शौचालयों की खड्डियाँ, सेप्टिक टैंक और सिवरेज लाइन आदि सभी एकाकार हो जाते हैं। ऐसी परिस्थिति में शौचालयों की व्यवस्था करना, उनकी लोकमान्य डिजाइन तैयार करना तथा सस्ते दर पर उसे आम जनता को उपलब्ध करवाना इंजीनियरों के लिए चुनौती है। दुर्भाग्यवश, इस समस्या की ओर उनका ध्यान अभी तक गया ही नहीं है। इस समस्या से निपटने का कोई समाधान नजर नहीं आता मगर यदि सुरक्षित पीने के पानी की व्यवस्था की जा सके तो भी एक हद तक इस विपत्ति के समय मानव स्वास्थ्य को बचाया जा सकता है।
बाढ़ और जल-जमाव वाले क्षेत्रों में पीने के पानी की समस्या सचमुच विकट हो जाती है। कूएँ समाप्त हो चुके हैं और हैण्डपम्प अक्सर बाढ़ के पानी में डूब जाते हैं। अगर यह हैण्डपम्प न डूबें तब भी इनके पानी की गुणवत्ता पर हमेशा सन्देह बना रहता है। जाहिर है, लोग बहता हुआ गन्दा पानी ही पीने को मजबूर होते हैं। रसायनों की मदद से पानी की शुद्धता बढ़ाई जा सकती है मगर एक तो इसे खरीदना पड़ता है जिसके लिए पैसा चाहिये और दूसरे इसके समुचित उपयोग की समझ होनी चाहिये वरना परिणाम घातक भी हो सकते हैं। पानी का उबालना भी बाढ़ के समय मुमकिन नहीं होता क्योंकि उसके लिए ईंधन चाहिये जो कि बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में सहज रूप से उपलब्ध नहीं होता।
एक रास्ता जो इन सब के बीच दिखाई पड़ता है वह यह कि वर्षा के पानी को ही इकट्ठा कर लिया जाये क्योंकि यह पानी पीने की दृष्टि से एक दम शुद्ध होता है। क्या हमारे इंजीनियर वर्षा के पानी को आसानी से इकट्ठा करने का कोई आसान और बहुत सस्ता सा तरीका निकाल सकते हैं? क्या इसके लिए इंजीनियरों की जरूरत है भी या नहीं? जो साफ दिखता है वह यह कि तेल के कनस्तर या जानवरों को सानी-पानी चलाने वाली नाँद में इस तरह का पानी इकट्ठा कर के रखा जा सकता है। दो झोपड़ियों के बीच पॉलीथीन टाँग करके भी पानी इकट्ठा किया जा सकता है जिसे बाद में किसी बरतन में रख लें। पॉलीथीन एक आम राहत सामग्री है जो लोगों को मिल जाया करती है। अगर बाढ़ के समय लोगों के आश्रय स्थल पहले से निर्धारित हों तो इस तरह के प्रयास आसानी से किये जा सकते हैं। अगर इस तरह से पानी इकट्ठा कर लिया जाये तो बाकी काम आसान हो जाता है। इस पानी का उपयोग कर के बाढ़ के समय होने वाली बीमारियों से भी बचा जा सकेगा और हैण्डपम्प के प्रदूषित पानी से भी मुक्ति मिल सकेगी।
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