इंजीनियरों की भूमिका-गंगा किनारे गंगा राम, जमुना किनारे जमुना दास

आज हमारी बाढ़ नियंत्रण की परियोजनाएं अपने बताये गये लक्ष्यों से दूर-दूर भटक रही हैं और हालात पहले से कहीं ज्यादा बदतर होते जा रहे है। जहाँ तक बाढ़ की उच्चस्तरीय समिति की सिफारिशों का सवाल है उसने तो तब तक की बाढ़ की बहस पर गाज ही गिरा ही। उसके बाद तो राजनीतिज्ञों और इंजीनियरों ने खुल कर और मिल कर अपना खेल खेला और शायद किसी भी परियोजना को लेकर आम जनता में कोई बहस हुई ही नहीं जिनके फायदे के लिये यह योजनाऐं बन रही थीं।

हमने केवल पाँच राज्यों का उदाहरण इसलिए दिया है कि यही पाँच राज्य आज पूरे देश में सबसे ज्यादा बाढ़ का प्रकोप भोगते हैं। पहली, यानी 1930 के दशक की, राय भी विशेषज्ञों की थी और 1957 वाली राय भी विशेषज्ञों की ही है। अब यहाँ हमारा सीधा सवाल खड़ा होता है उन लोगों से जो यह कहते हैं कि सारा मसला टेकनिकल है और इसके बारे में गैर-तकनीकी लोग चुप ही रहें तो बेहतर है। यहाँ तक कि रजनीतिज्ञ भी यही कहते हैं कि तकनीकी मसलों पर वह विशेषज्ञों की बात को सबसे ऊपर रखते हैं और किसी भी सन्देह के निवारण के लिये विशेषज्ञों की ओर इशारा करते हैं। तो अब कोई विशेषज्ञों से कोई यह पूछे कि हुजूर! आपकी राय, आपके विज्ञान, आपके विश्लेषण या आपके विवेक को क्या हुआ? कुछ दिनों पहले जो आप एक कि़स्म की बात करते थे मगर आज उसके एकदम खिलाफ बोल रहे हैं? न तो इस दौरान हमारी नदियाँ बदलीं, न बाढ़ों में कोई खास फर्क आया, न वर्षापात बदला, न ही नदियों में सिल्ट के परिमाण में कोई आश्चर्यजनक कमी आई और न ही किसी जादू के असर से लोगों की बाढ़ समस्या के प्रति उनकी समझ में कोई जमीन-आसमान का अन्तर आया। फिर यह एकाएक आप को क्या हुआ? आपने उलटी कवायद कैसे शुरू कर दी?

सच शायद यह है कि ब्रिटिश हुकूमत नदियों के किनारे तटबंध बना कर अपनी जान सांसत में नहीं डालना चाहती थी जो उन्हें बाढ़ से हुये नुकसान का मुआवजा देना पड़े या कम से कम राहत कार्यों के खर्चे तो उठाने ही पड़ें। अगर किसी तटबंध से नौ साल तक फायदा होता है और दसवें साल में वह कहीं टूट जाता है तब उसकी मरम्मत, मुआवजों का भुगतान और राहत कार्यों पर होने वाले खर्च सब मिल कर पिछले 9 साल में हुये फायदे पर भारी पड़ते थे, इसलिए साम्राज्यवादी सरकार तटबंध बनाने के हक में नहीं थी और इसलिए उनके इंजीनियर भी वही भाषा बोलते थे। आजाद भारत में नेताओं और सरकार के सामने एक राजनीतिक बाध्यता थी कि वह तुरन्त लोक-कल्याण के लिए कुछ करते हुये दिखाई पड़ें-इसलिए बहुत से जरूरी और गैर-जरूरी कामों के साथ-साथ नदियों पर तटबंध भी बने। शायद सही वजह थी कि इंजीनियरों ने राजनीतिज्ञों के हितों के साथ अपने हितों को जोड़ कर देखा और उस प्रक्रिया में तकनीकी मानकों को भी ताक में रख दिया जबकि यह उनका हक बनता था कि तकनीकी मसलों पर सचमुच उनकी राय सबके ऊपर होती।

यह सारी बातें तो अब केवल अनुमान के आधार पर ही कही जा सकती हैं मगर इनमें सच्चाई न हो यह कहना भी मुश्किल ही है क्योंकि उसके बिना बिहार में बाढ़ की रोक-थाम के लिये जो फैसले किये गये उनकी समीक्षा करना एकदम नामुमकिन हो जायेगा। चीन और अमेरिका दोनों ही देशों में तटबन्धों के जरिये नदी की बाढ़ को रोकने के अनुभव एकदम अलग और प्रारम्भिक अनुमानों के ठीक उलटे थे और उनका टूटते रहना एक सालाना वारदात के अलावा कुछ भी नहीं था मगर उन पर हमारे विशेषज्ञों की राय क्या थी? कँवर सेन और डॉ. के. एल. राव ने अपनी 1954 वाली रिपोर्ट में लिखा है कि 12-15 साल के अन्तराल पर चीन में ह्नांग हो घाटी में लोगों को कुछ मामूली परेशानियाँ होती हैं। अगर 18,000 या 8,90,000 हजार लोगों का मारा जाना ‘मामूली परेशानी’ है तो कितने लोग मारे जायँ कि हमारे विशेषज्ञों को तसल्ली हो सके कि कोई बड़ी दुर्घटना हुई है ? यह तकनीकी अदूरदर्शिता का ही परिणाम है कि आज हमारी बाढ़ नियंत्रण की परियोजनाएं अपने बताये गये लक्ष्यों से दूर-दूर भटक रही हैं और हालात पहले से कहीं ज्यादा बदतर होते जा रहे है।

जहाँ तक बाढ़ की उच्चस्तरीय समिति की सिफारिशों का सवाल है उसने तो तब तक की बाढ़ की बहस पर गाज ही गिरा ही। उसके बाद तो राजनीतिज्ञों और इंजीनियरों ने खुल कर और मिल कर अपना खेल खेला और शायद किसी भी परियोजना को लेकर आम जनता में कोई बहस हुई ही नहीं जिनके फायदे के लिये यह योजनाऐं बन रही थीं। एक दफे कोसी पर प्रस्तावित तटबंध को स्वीकृति मिली नहीं कि आने वाले दो वर्षों में, 1956 तक, घाघरा, बूढ़ी गंडक, बागमती, बलान और खिरोई जैसी नदियों पर 770 किलोमीटर लम्बे तटबंध बन कर तैयार हो चुके थे। तब किसी को फुर्सत ही नहीं थी कि वह इन तटबन्धों के निर्माण की वजह से होने वाले जल-जमाव और पानी के सहज बहाव के रास्ते में आने वाली रुकावटों के बारे में सोचता।

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Post By: tridmin
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