इंजीनियरिंग में हमेशा विकल्प है : स्वामी सानंद


‘स्वामी सानंद गंगा संकल्प संवाद’ का 13वाँ कथन आपके समक्ष पठन, पाठन और प्रतिक्रिया के लिये प्रस्तुत है:

.गंगा पर टेस्टिंग के लिये मनेरी-भाली पर पहली परियोजना बनाना तय हुआ। आईआईटी, कानपुर की तरफ से मैं भी 15 दिन के लिये ट्रेनिंग पर गया था। तकनीक ट्रेनी के तौर पर मेरा नाम था। प्रबन्धन प्रशिक्षु के तौर पर जेएल बत्रा और अशोक मित्तल गए थे। जेएल बत्रा तब कानपुर आईआईटी में थे। वह आईआईएम, लखनऊ के पहले डायरेक्टर बने।

1978-79 में मैंने मनेरी-भाली का पर्यावरण देखा है। मेरे मन में प्रश्न उठता है कि तब मैंने विरोध क्यों नहीं किया? दरअसल, तब मुझे यह एहसास ही नहीं हुआ कि इससे गंगा सूख जाएगी। तब तक मैंने टनल प्रोजेक्ट नहीं देखा था। मैंने डैम प्रोजेक्ट देखे थे; भाखड़ा..रिहन्द देखे थे। मुझे लगता था कि पढ़ाई-वढ़ाई से ज्यादा, अनुभूति होती है। वह अनुभूति तब नहीं थी।

 

कांग्रेस शासन में मिली मंजूरियाँ


1980 से 2000 के काल की बात करूँ, तो इस काल के मजे की बात यह है 2000 के बाद जो प्रोजेक्ट बन रहे हैं, उनकी एन्वायरन्मेंटल क्लियरेंस तो 1980 से 1990 के बीच ही हो गई थी। यह राजीव-इन्दिरा का काल था। उसी समय सिर्फ मंजूरी हुई; तब काम शुरू नहीं हुआ था। मनमोहन सिंह जी वित्त मंत्री बने, तब काम शुरू हुआ था। अधिकतर प्रोजेक्ट की एन्वायरन्मेंटल क्लियरेंस, डिजाइन की क्लियरेंस होती है। सैंक्शन, कांग्रेस सरकारों ने की। सेंट्रल इलेक्ट्रिीसिटी अथॉरिटी की मंजूरी चाहिए थी। वे सब कांग्रेस शासन में मिली। 1980 में जब मैंने सेंट्रल पॉल्युशन कंट्रोल बोर्ड ज्वाइन किया, तो वह सेंट्रल वर्क्स एंड हाउसिंग के अन्तर्गत आता था; तब पर्यावरण मंत्रालय नहीं था।

 

कंक्रीट प्रयोग ने बढ़ाया गंगाजी में खनन


आप आकलन करें, तो पता चलेगा कि 1980 से 2000 के दौर में खनन का काम भी बहुत तेज हुआ। 1950 से 1953 में जब मैं पढ़ रहा था, तब कंक्रीट का प्रयोग कम था। हमें पढ़ाया गया था कि समय बढ़ने के साथ सीमेंट की स्ट्रेंथ कम होती जाती है और चूना-सुर्खी के मसाले की स्ट्रेंथ समय के साथ बढ़ती जाती है। चूना-सुर्खी के मसाले की स्ट्रेंथ एक हजार साल तक भी बढ़ती रहती है।

सीमेंट के मसाले की उम्र 100 साल होती है। पुराने पुल, चूना-सुर्खी के बने हैं। आप देखेंगे कि वे आज भी ठीक हैं। मोरंग, गंगाजी में भी मिलती है। हमें पढ़ाया जाता था कि गंगाजी का बालू तो प्लास्टर तक ठीक है, छत के लिये ठीक नहीं है। कंक्रीट का बालू तो दक्षिण का अच्छा है। गिट्टी, बुन्देलखण्ड की अच्छी है। यह पहाड़ी इलाका है। सीमेंट भी मध्य प्रदेश से आता है।

इस तरह तब तक बिल्डिंग मैटिरियल के लिये गंगाजी में खनन नहीं था। सड़कें भी ईंटों को तोड़कर तारकोल से बनती थीं। सीमेंट-कंक्रीट की सड़कें नहीं बनती थीं। बाद में कंक्रीट से निर्माण होने लगा, तो गंगाजी से खनन भी होने लगा। इस तरह गंगाजी की अधिकतर समस्याएँ 1975 के बाद बढ़ीं।

 

नहर को माने पहली समस्या


एक अकेली हाइड्रो इलेक्ट्रिीसिटी से सब समस्याएँ हल नहीं होंगी। नहर को पहली समस्या मानकर समाधान सोचें। आप कहेंगे कि नहर का क्या करें? 1840 में नहर का विस्तार हुआ। हरिद्वार की नहर की कैपिसिटी 12000 हो गई। पहले यह 7000 क्षमता की बनाई गई थी। नहर से कृषि में परिवर्तन आता है। सिंचाई में जलोपयोग का अनुशासन टूटता है। अन्ततः इससे खाद्य सुरक्षा प्रभावित होती है। हमें मिनिमम यूज की तरफ जाना होगा। ग्राउंड वाटर के लिये वर्षाजल के अधिकतम संचयन के बारे में ठोस काम करना होगा।

 

सामाजिक विविधता में निहित पर्यावरण सुरक्षा


वे बच्चों को कह रहे हैं कि स्कूल में, गाँवों में.. घर-घर में शौचालय हो। आप कहें कि हर व्यक्ति को हर सुविधा दे दो। ऐसा समाजवाद होगा, तो पर्यावरण नष्ट होगा। प्रकृति की गुणवत्ता, डाइवर्सिटी (विविधता) के साथ ही सम्भव है। रेगिस्तान है, तो रेगिस्तान के साथ जीना आना चाहिए। विविधता हमेशा रहेगी। छोटे-बड़े भी हमेशा रहेंगे।

 

विस्थापन की वजह से है बाँध विरोध


हाइड्रो पावर की बात करते हैं। यदि हम कहें कि ‘रन ऑफ रिवर’ की जगह डैम आधारित डिजाइन बदलकर हो सकेगा। दूसरे विकल्प हो सकते हैं। यदि उनसे गंगाजी को कोई हानि न हो, तो मुझे कोई आपत्ति नहीं है। बिजली के दूसरे स्त्रोतों के बारे में भी विचार करें।

दरअसल, बड़े बाँधों का विरोध विस्थापन की वजह से भी है। अकेले रिहन्द बाँध में डेढ़ लाख से अधिक लोग विस्थापित हुए। टिहरी बाँध का विरोध भी विस्थापन को लेकर ही था। भूकम्प को लेकर कहा गया कि बाँध टूटा तो मेरठ तक डूब जाएगा।

साइलेंट वैली प्रोजेक्ट में विशेषकर वनों के विस्थापन का प्रश्न था। ‘रन ऑफ रिवर’ में लोगों का विस्थापन नहीं होता, लेकिन ब्लास्टिंग होती है। इस ब्लास्टिंग की वजह से टनल का विरोध होता है। जाहिर है कि ज्यादातर विरोध स्थानीय लोगों पर दुष्प्रभाव के कारण है। मैं मानता हूँ कि मैं स्थानीय लोगों की लड़ाई नहीं लड़ रहा हूँ। मैं गंगाजी की लड़ाई लड़ रहा हूँ।

(स्वामी श्री सानंद की बात से स्पष्ट था कि वह बाँध नहीं, बाँध के लिये जगह के चयन, आकार-प्रकार, तकनीक, डिजाइन, कायदों के उल्लंघन व प्रबन्धन में श्रेष्ठता के अभाव के विरोधी हैं। अतः मैंने बाँधों के रहते हुए समाधान की जिज्ञासा पेश कर दी। स्वामी जी का उत्तर देखिए - प्रस्तोता)

 

डिजायन अपने-आप में एक विकल्प


जब मैं अमेरिका में था, तब मेरे थिसिस टीचर कहते थे कि विकल्प है। इंजीनियरिंग में डिजाइन अपने आप में एक विकल्प होता है। उन्होंने गर्मी की छुट्टियों में मुझे एक कम्पनी में भेजा। कम्पनी जिस नगर में काम कर रही थी, उसकी आबादी 80 हजार थी। इलाका डेजर्ट का था। वहाँ सीवेज का काम होना था, तो उस अनुसार डिजाइन का विकल्प था। हमारे यहाँ क्या है कि एक प्रोजेक्ट में एक प्रोजेक्ट बनता है और एक डिजाइन; तो समझें कि इंजीनियरिंग में हमेशा विकल्प होते हैं। बिजली बनानी है, तो कौन सी धारा पर बनाएँ? मेगावाट, कम हो कि ज्यादा हो? यह तो तय करने की बात है कि हम फलाँ धारा पर बनाएँगे, फलाँ पर नहीं बनाएँगे। घर में अलग-अलग कमरों में हम अलग-अलग काम करते हैं कि नहीं?

 

प्रवाह से जलनिकासी की बने सीमा


स्पष्ट है कि हमें तय करना चाहिए कि किन धाराओं पर प्रोजेक्ट बनाएँगे। अलकनंदा, भागीरथी और मन्दाकिनी- मैं इन तीन धाराओं पर अपनी माँग से सन्तुष्ट हूँ। हम इन्हें अपने घर के पूजास्थल की भाँति रखें, पाखानाघर की भाँति नहीं। खेती, खनन और निर्माण के लिये गंगाजी की जमीन पर अतिक्रमण है, वह रुके। अविरलता से गुणवत्ता का सम्बन्ध है। अतः जरूरी है कि इसकी सीमा तय हो कि इससे ज्यादा जल गंगाजी के प्रवाह से न निकाला जाये। अविमुक्तेश्वरानंद जी से भी यह बात हुई थी। उनका कहना था कि 51 प्रतिशत हो। जेपी विष्णुप्रयाग को देखकर कहा। परियोजना के ऊपर और नीचे माप हो। एक गेज नीचे लगा दो और एक गेज ऊपर लगा दो। बस, हो गया।

 

क्या लेटरल कन्टीन्युटी पूरी तरह सम्भव?


वैसेे अविरलता सही मायने में तब मानी जाती है कि जब प्रवाहित जल का सम्पर्क न लम्बाई में टूटे, न चौड़ाई में और न ही ऊँचाई में। अविरलता की यही वैज्ञानिक परिभाषा है। लॉगीट्युडनल, लेटरल और वर्टिकल..तीनों तरह से फ्लो की कन्टीन्युटी बनी रहनी चाहिए। लेटरल में कटाव पक्का नहीं होना चाहिए। तटबन्ध में पक्की निर्माण सामग्री नहीं होना चाहिए। टनल में प्रवाह का मिट्टी से सम्पर्क टूट जाता है। गेट से पानी छोड़ रहे हैं। इससे अविरलता बाधित होती है। अब घाट बनेंगे, तो कुछ दूरी तक के लिये लेटरल कन्टीन्युटी टूटेगी। बाँध बनेंगे, तो भी कन्टीन्युटी टूटेगी। अब प्रश्न है कि क्या लेटरल कन्टीन्युटी पूरी तरह सम्भव है? स्वरूपानंद जी ने कहा - “भगीरथ जी की रथ की कितनी चौड़ाई में गंगाजी चली।’’ कहते हैं कि राजगीर (तत्कालीन मगध की राजधानी) में पहिए के कारण लीक है। चार-पाँच मीटर की इस चौड़ाई को यदि मान लें और यदि हम इतना हिस्सा पूरी तरह छोड़ दें; बाकि के हिसाब से डिजाइन करें, तो लेटरल कन्टीन्युटी पूरी तरह सम्भव है।

अगले सप्ताह दिनांक 17 अप्रैल, 2016 दिन रविवार को पढ़िए स्वामी सानंद गंगा संकल्प संवाद शृंखला का 14वाँ कथन

इस बातचीत की शृंखला में पूर्व प्रकाशित कथनों कोे पढ़ने के लिये यहाँ क्लिक करें।

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प्रस्तोता सम्पर्क:
ईमेल : amethiarun@gmail.com
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