होली पर विशेष
होली के करीब महीने भर पहले से ही इंदौर के करीब पचास से ज्यादा कारोबारियों ने इस पहल के लिये काम करना शुरू कर दिया था। वे इसके लिये घर और चौराहों सहित युवाओं की टोलियों से बात कर उन्हें लकड़ी और कंडे के बीच के फर्क को नफा-नुकसान के गणित से समझा रहे हैं। उनकी बात का शहर के लोगों पर गहरा असर हो रहा है। वे बताते हैं कि किस तरह लकड़ियाँ जलाने से पर्यावरण को नुकसान होता है और कंडे जलाने से पर्यावरण शुद्ध होता है। वे संस्कृति की बात भी जोड़ते हैं और बताते हैं कि हमारी परम्परा में हमेशा से गाय के गोबर से बने कंडों की होली सजाने और जलाने का ही उल्लेख है। मध्य प्रदेश के इन्दौर शहर से पर्यावरण के हित में होली पर लकड़ियों की जगह कंडे से होलिका दहन की पहल शुरू हो रही है। इसके लिये शहर के कई जनसंगठन, सामाजिक संस्थाएँ, मीडिया समूह, पर्यावरण हितैषी और आम लोगों के साथ अब सरकार भी इस पहल को अमल में लाने और इसे पूरे प्रदेश में आगे बढ़ाने की दिशा में प्रयासरत है। इसके लिये विशेषतौर पर जन जागरूकता अभियान भी चलाया जा रहा है। होलिका दहन में बड़ी तादाद में लकड़ियाँ जलाने से जंगल खत्म हो रहे हैं, वहीं इसका धुआँ पर्यावरण को भी प्रदूषित कर रहा है।
इंदौर शहर के लोगों ने इस बार एक अभिनव पहल शुरू की है। उन्होंने तय किया है कि शहर भर में करीब बीस हजार से ज्यादा स्थानों पर होने वाले होलिका दहन स्थलों पर लकड़ियों की होली नहीं जलाई जाएगी। यहाँ परम्परागत तरीके से गाय के गोबर से बने कंडों से ही होली जलाई जाएगी। इंदौर की इस पहल का आसपास के इलाके पर भी बड़ा असर हुआ है। आसपास के कई शहरों और कस्बों-गाँवों से भी अब लकड़ियों की जगह कंडो की ही होली जलाने की बात हो रही है।
होली के करीब महीने भर पहले से ही इंदौर के करीब पचास से ज्यादा कारोबारियों ने इस पहल के लिये काम करना शुरू कर दिया था। वे इसके लिये घर और चौराहों सहित युवाओं की टोलियों से बात कर उन्हें लकड़ी और कंडे के बीच के फर्क को नफा-नुकसान के गणित से समझा रहे हैं। उनकी बात का शहर के लोगों पर गहरा असर हो रहा है। वे बताते हैं कि किस तरह लकड़ियाँ जलाने से पर्यावरण को नुकसान होता है और कंडे जलाने से पर्यावरण शुद्ध होता है। वे संस्कृति की बात भी जोड़ते हैं और बताते हैं कि हमारी परम्परा में हमेशा से गाय के गोबर से बने कंडों की होली सजाने और जलाने का ही उल्लेख है। कहीं भी लकड़ी जलाने का उल्लेख नहीं है। वे बताते हैं कि ऐसा करके हम गौवंश का भी हित कर सकेंगे। होली के लिये कंडे बेचकर गौशालाएँ आत्मनिर्भर बन सकती हैं। इससे उन्हें लाखों रुपए की आमदनी हो सकेगी।
नागपुर के गौविज्ञान अनुसन्धान केन्द्र के सुनील मानसिंघा बताते हैं कि कंडे जलाने से आसपास के वातावरण में फैले विषाणु और कीटाणु खत्म हो जाते हैं। इससे 80 फीसदी तक वातावरण शुद्ध हो जाता है। इसीलिये वेद-पुराणों में भी यज्ञ, हवन और अग्निहोत्र का उल्लेख मिलता है। उधर एक टन लकड़ी जलाने पर करीब 85 किलो प्रदूषित तत्व निकलते हैं, जिनमें कार्बन डाइऑक्साइड और कार्बन मोनो ऑक्साइड गैसों सहित अन्य हानिकारक तत्व मिलते हैं।
मप्र टिम्बर फेडरेशन अध्यक्ष दानबीरसिंह छाबड़ा कहते हैं कि बीते पाँच सालों में इंदौर और उसके आसपास के जंगलों में लकड़ी की तादाद पचास फीसदी तक कम हुई है। इसका मतलब है जंगलों में भी लकड़ी की तादाद आधी रह गई है। इसलिये इसके व्यर्थ जलाने के मुद्दे पर अब गम्भीर होकर कुछ नया करने की जरूरत है। खुद लकड़ी के व्यापारी होने के बाद भी वे अपने परिवार के साथ कंडों की होली जलाएँगे।
व्यापारियों के मुताबिक इंदौर की बीस हजार होलिका दहन में करीब 300 टन लकड़ियों की जरूरत होती है, जो करीब चार हजार पेड़ों से निकलती है। इंदौर के आसपास करीब डेढ़ सौ से ज्यादा गौशालाएँ हैं, जिनमें पचास हजार से ज्यादा गाएँ हैं और इनके गोबर से हर दिन हजारों कंडे बनते हैं। मध्य प्रदेश गौपालन और पशु संवर्धन बोर्ड के एमडी डॉ. आरके रोकड़े के मुताबिक शासन स्तर से फिलहाल गौशालाओं को प्रति गाय 6 रुपए रोज मिलते हैं, लेकिन हर दिन का खर्च करीब 40 से 50 रुपए तक होता है। ऐसे में यदि होली पर इनके कंडों की बिक्री बढ़ने लगे तो ये गौशालाएँ आत्मनिर्भर बन सकती हैं। इससे गौशालाओं को लाखों रुपए की आय होगी। उन्होंने लोगों से भी आग्रह किया कि यदि कोई होली का चंदा माँगने आये तो उन्हें नगदी की जगह कंडे दान करें ताकि आपके पैसों का सदुपयोग हो सके।
पशुपालन मंत्री अंतरसिंह आर्य ने भी इस पहल का स्वागत करते हुए कहा– 'कंडों की होली जलाने की पहल बेमिसाल है। मैं इसका समर्थन करता हूँ। इससे पर्यावरण का संरक्षण हो सकेगा।'
इस नई पहल को सबसे पहले इंदौर की सरकारी होली कही जाने वाली रियासतकालीन होलकर वंश की राजबाड़े पर होने वाली होलिका दहन का समर्थन भी मिल गया है। होलकर वंश के उत्तराधिकारी उदयराव होलकर ने इसके लिये सहर्ष सहमती दे दी है। उन्होंने बताया कि अब तक यहाँ आधी लकड़ी और आधे कंडे का उपयोग होता था। अब पूरी होलिका कंडों से ही बनाएँगे। महज प्रतीक स्वरूप एक लकड़ी रखी जाएगी। इसे पहले कोलकाता में भी ऐसा ही नवाचार हो चुका है। इसी तरह चार बड़े मन्दिरों और चार सौ अन्य स्थानों पर भी सहमति बन चुकी है। पंचकुइयाँ मठ में अभी से बारह हजार कंडों की व्यवस्था की गई है। इसमें करीब सात हजार कंडे अन्य होलिका दहन स्थानों पर ले जाये जाएँगे। इसे प्रोत्साहित करने के लिये कुछ गौशालाएँ सस्ती दरो पर कंडे दे रही है। सेंधवा, देवास, धार, महू, उज्जैन और शाजापुर में भी अब कंडे की होली जलाने की पहल शुरू हो रही है।
खुद मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने इसके लिये पत्र लिखकर समर्थन दिया है। उन्होंने अपने पत्र में कहा है कि आज समूचा विश्व ग्लोबल वार्मिंग जैसी पर्यावरणीय चुनौतियों का सामना कर रहा है। ऐसी चुनौतियों के बीच हमारा दायित्व है कि हम आने वाली पीढ़ियों के लिये अपनी धरा को सुरक्षित रखने के सभी प्रयास करें। इस जिम्मेदारी को पूरा करने के लिये किसी के भी द्वारा उठाए गए इस तरह कदम का मैं स्वागत एवं समर्थन करता हूँ।
उन्होंने आगे लिखा है कि भारतीय संस्कृति में होलिका दहन की परम्परा बहुत पुरानी है। प्राचीन समय में जब आबादी कम थी, जंगल घने थे और समाज के लोगों में जंगलों में गिरी हुई सूखी लकड़ियों को बीन कर होलिका दहन किया जाता था। तब पर्यावरण की चुनौती हमारे सामने नहीं थी। आज जब जंगलों में पेड़ों की संख्या में बहुत कमी आई है और बढ़ती आबादी के कारण हरे-भरे वनों को काटा जा रहा है, ऐसी स्थिति में लकड़ियों से होलिका दहन हमारे पर्यावरण संकट को बढ़ाता है। इस संकट से बचने के लिये गोबर के कंडों की होली एक सार्थक पहल है। इससे गौवंश का सम्मान बढ़ेगा और देश में समाज द्वारा संचालित गौशालाओं को अतिरिक्त आय का साधन भी मिलेगा।
होली के करीब महीने भर पहले से ही इंदौर के करीब पचास से ज्यादा कारोबारियों ने इस पहल के लिये काम करना शुरू कर दिया था। वे इसके लिये घर और चौराहों सहित युवाओं की टोलियों से बात कर उन्हें लकड़ी और कंडे के बीच के फर्क को नफा-नुकसान के गणित से समझा रहे हैं। उनकी बात का शहर के लोगों पर गहरा असर हो रहा है। वे बताते हैं कि किस तरह लकड़ियाँ जलाने से पर्यावरण को नुकसान होता है और कंडे जलाने से पर्यावरण शुद्ध होता है। वे संस्कृति की बात भी जोड़ते हैं और बताते हैं कि हमारी परम्परा में हमेशा से गाय के गोबर से बने कंडों की होली सजाने और जलाने का ही उल्लेख है। मध्य प्रदेश के इन्दौर शहर से पर्यावरण के हित में होली पर लकड़ियों की जगह कंडे से होलिका दहन की पहल शुरू हो रही है। इसके लिये शहर के कई जनसंगठन, सामाजिक संस्थाएँ, मीडिया समूह, पर्यावरण हितैषी और आम लोगों के साथ अब सरकार भी इस पहल को अमल में लाने और इसे पूरे प्रदेश में आगे बढ़ाने की दिशा में प्रयासरत है। इसके लिये विशेषतौर पर जन जागरूकता अभियान भी चलाया जा रहा है। होलिका दहन में बड़ी तादाद में लकड़ियाँ जलाने से जंगल खत्म हो रहे हैं, वहीं इसका धुआँ पर्यावरण को भी प्रदूषित कर रहा है।
इंदौर शहर के लोगों ने इस बार एक अभिनव पहल शुरू की है। उन्होंने तय किया है कि शहर भर में करीब बीस हजार से ज्यादा स्थानों पर होने वाले होलिका दहन स्थलों पर लकड़ियों की होली नहीं जलाई जाएगी। यहाँ परम्परागत तरीके से गाय के गोबर से बने कंडों से ही होली जलाई जाएगी। इंदौर की इस पहल का आसपास के इलाके पर भी बड़ा असर हुआ है। आसपास के कई शहरों और कस्बों-गाँवों से भी अब लकड़ियों की जगह कंडो की ही होली जलाने की बात हो रही है।
होली के करीब महीने भर पहले से ही इंदौर के करीब पचास से ज्यादा कारोबारियों ने इस पहल के लिये काम करना शुरू कर दिया था। वे इसके लिये घर और चौराहों सहित युवाओं की टोलियों से बात कर उन्हें लकड़ी और कंडे के बीच के फर्क को नफा-नुकसान के गणित से समझा रहे हैं। उनकी बात का शहर के लोगों पर गहरा असर हो रहा है। वे बताते हैं कि किस तरह लकड़ियाँ जलाने से पर्यावरण को नुकसान होता है और कंडे जलाने से पर्यावरण शुद्ध होता है। वे संस्कृति की बात भी जोड़ते हैं और बताते हैं कि हमारी परम्परा में हमेशा से गाय के गोबर से बने कंडों की होली सजाने और जलाने का ही उल्लेख है। कहीं भी लकड़ी जलाने का उल्लेख नहीं है। वे बताते हैं कि ऐसा करके हम गौवंश का भी हित कर सकेंगे। होली के लिये कंडे बेचकर गौशालाएँ आत्मनिर्भर बन सकती हैं। इससे उन्हें लाखों रुपए की आमदनी हो सकेगी।
नागपुर के गौविज्ञान अनुसन्धान केन्द्र के सुनील मानसिंघा बताते हैं कि कंडे जलाने से आसपास के वातावरण में फैले विषाणु और कीटाणु खत्म हो जाते हैं। इससे 80 फीसदी तक वातावरण शुद्ध हो जाता है। इसीलिये वेद-पुराणों में भी यज्ञ, हवन और अग्निहोत्र का उल्लेख मिलता है। उधर एक टन लकड़ी जलाने पर करीब 85 किलो प्रदूषित तत्व निकलते हैं, जिनमें कार्बन डाइऑक्साइड और कार्बन मोनो ऑक्साइड गैसों सहित अन्य हानिकारक तत्व मिलते हैं।
मप्र टिम्बर फेडरेशन अध्यक्ष दानबीरसिंह छाबड़ा कहते हैं कि बीते पाँच सालों में इंदौर और उसके आसपास के जंगलों में लकड़ी की तादाद पचास फीसदी तक कम हुई है। इसका मतलब है जंगलों में भी लकड़ी की तादाद आधी रह गई है। इसलिये इसके व्यर्थ जलाने के मुद्दे पर अब गम्भीर होकर कुछ नया करने की जरूरत है। खुद लकड़ी के व्यापारी होने के बाद भी वे अपने परिवार के साथ कंडों की होली जलाएँगे।
व्यापारियों के मुताबिक इंदौर की बीस हजार होलिका दहन में करीब 300 टन लकड़ियों की जरूरत होती है, जो करीब चार हजार पेड़ों से निकलती है। इंदौर के आसपास करीब डेढ़ सौ से ज्यादा गौशालाएँ हैं, जिनमें पचास हजार से ज्यादा गाएँ हैं और इनके गोबर से हर दिन हजारों कंडे बनते हैं। मध्य प्रदेश गौपालन और पशु संवर्धन बोर्ड के एमडी डॉ. आरके रोकड़े के मुताबिक शासन स्तर से फिलहाल गौशालाओं को प्रति गाय 6 रुपए रोज मिलते हैं, लेकिन हर दिन का खर्च करीब 40 से 50 रुपए तक होता है। ऐसे में यदि होली पर इनके कंडों की बिक्री बढ़ने लगे तो ये गौशालाएँ आत्मनिर्भर बन सकती हैं। इससे गौशालाओं को लाखों रुपए की आय होगी। उन्होंने लोगों से भी आग्रह किया कि यदि कोई होली का चंदा माँगने आये तो उन्हें नगदी की जगह कंडे दान करें ताकि आपके पैसों का सदुपयोग हो सके।
पशुपालन मंत्री अंतरसिंह आर्य ने भी इस पहल का स्वागत करते हुए कहा– 'कंडों की होली जलाने की पहल बेमिसाल है। मैं इसका समर्थन करता हूँ। इससे पर्यावरण का संरक्षण हो सकेगा।'
इस नई पहल को सबसे पहले इंदौर की सरकारी होली कही जाने वाली रियासतकालीन होलकर वंश की राजबाड़े पर होने वाली होलिका दहन का समर्थन भी मिल गया है। होलकर वंश के उत्तराधिकारी उदयराव होलकर ने इसके लिये सहर्ष सहमती दे दी है। उन्होंने बताया कि अब तक यहाँ आधी लकड़ी और आधे कंडे का उपयोग होता था। अब पूरी होलिका कंडों से ही बनाएँगे। महज प्रतीक स्वरूप एक लकड़ी रखी जाएगी। इसे पहले कोलकाता में भी ऐसा ही नवाचार हो चुका है। इसी तरह चार बड़े मन्दिरों और चार सौ अन्य स्थानों पर भी सहमति बन चुकी है। पंचकुइयाँ मठ में अभी से बारह हजार कंडों की व्यवस्था की गई है। इसमें करीब सात हजार कंडे अन्य होलिका दहन स्थानों पर ले जाये जाएँगे। इसे प्रोत्साहित करने के लिये कुछ गौशालाएँ सस्ती दरो पर कंडे दे रही है। सेंधवा, देवास, धार, महू, उज्जैन और शाजापुर में भी अब कंडे की होली जलाने की पहल शुरू हो रही है।
खुद मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने इसके लिये पत्र लिखकर समर्थन दिया है। उन्होंने अपने पत्र में कहा है कि आज समूचा विश्व ग्लोबल वार्मिंग जैसी पर्यावरणीय चुनौतियों का सामना कर रहा है। ऐसी चुनौतियों के बीच हमारा दायित्व है कि हम आने वाली पीढ़ियों के लिये अपनी धरा को सुरक्षित रखने के सभी प्रयास करें। इस जिम्मेदारी को पूरा करने के लिये किसी के भी द्वारा उठाए गए इस तरह कदम का मैं स्वागत एवं समर्थन करता हूँ।
उन्होंने आगे लिखा है कि भारतीय संस्कृति में होलिका दहन की परम्परा बहुत पुरानी है। प्राचीन समय में जब आबादी कम थी, जंगल घने थे और समाज के लोगों में जंगलों में गिरी हुई सूखी लकड़ियों को बीन कर होलिका दहन किया जाता था। तब पर्यावरण की चुनौती हमारे सामने नहीं थी। आज जब जंगलों में पेड़ों की संख्या में बहुत कमी आई है और बढ़ती आबादी के कारण हरे-भरे वनों को काटा जा रहा है, ऐसी स्थिति में लकड़ियों से होलिका दहन हमारे पर्यावरण संकट को बढ़ाता है। इस संकट से बचने के लिये गोबर के कंडों की होली एक सार्थक पहल है। इससे गौवंश का सम्मान बढ़ेगा और देश में समाज द्वारा संचालित गौशालाओं को अतिरिक्त आय का साधन भी मिलेगा।
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Post By: Editorial Team