छत्तीसगढ़ का बस्तर क्षेत्र भी छोटी-बड़ी अनेक नदियों का गुम्फन है। इन्द्रावती नदी यहाँ की प्रमुख नदी है और इसे बस्तर की जीवन-रेखा माना जाता है। बस्तर की इन्द्रावती नदी कोसल के दक्षिण पूर्वांचल में उत्कल प्रदेश के कालाहांडी मंडल के धुआसल रामपुर पर्वत से निकलती है। पुराणों में तीन मन्दाकिनी का उल्लेख मिलता है। पहली स्वर्ग की गंगा, दूसरी चित्रकूट की मन्दाकिनी और तीसरी इन्द्रावती नदी के रूप में। स्वच्छ निर्मल और विपुल जल प्रदायनी इन्द्रावती बस्तर में कई मनोरम जलप्रपातों एवं नयनाभिराम दृश्यों का निर्माण करती हुई भोपाल पट्टनम से लेकर कोन्टा तक बहते हुए और अपनी अन्य सहायक नदियों को स्वयं में समाहित करते हुए अन्ततः गोदावरी नदी में विलीन हो जाती है।
इन्द्रावती नदी माड़पाल जगदलपुर, कालीपुर, भानपुरी और रतेंगा से होती हुई चित्रकोट नामक स्थान पर एक रौद्र जल-प्रपात का निर्माण करती है, जो चित्रकोट जल प्रपात के नाम से विख्यात है। चित्रकोट, वन से आच्छादित एक रमणीक और आकर्षक स्थल होने के साथ-साथ बड़ा जल प्रपात भी है। बस्तर के इतिहास में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखने वाले नलवंश के राजाओं के समय चित्रकोट क्षेत्र को महाकान्तर और उसके बाद छिन्दक नागवंश के शासन काल में इसे चक्रकोट एवं भ्रमरकोट कहा जाता था। नलवंशीय शासन काल में यहाँ चीनी यात्री ह्वेनसाँग आये थे। वे बस्तर होते हुए आँध्र प्रदेश पहुँचे थे। ह्वेनसाँग ने अपने यात्रा- वर्णन में बस्तर की तत्कालीन स्थापत्य एवं मूर्तिकला का उल्लेख किया है। बल्तर का शिव मन्दिर नलवंशीय राजाओं के समय का एक उत्कृष्ट मन्दिर है। नलवंशीय शासन के बाद यहाँ छिन्दक नागों का साम्राज्य हुआ। नागों ने बस्तर में आर्य-अनार्य एवं द्रविड़ संस्कृति की एक मिश्रित त्रिवेणी संस्कृति प्रवाहित की और इन्द्रावती नदी अपने पावन जल से इस मिश्रित संस्कृति को परिपुष्ट बनाती रही और आज भी बस्तर में मिश्रित संस्कृति के दर्शन होते हैं। नागों के 400 साल के शासनकाल में बस्तर के बहुमुखी विकास के साथ-साथ यहां की स्थापत्य एवं मूर्तिकला का भी विकास हुआ। बारसूर ब भौमगढ़ के पुरावशेष तत्कालीन समय की स्थापत्य एवं मूर्तिकला के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। दन्तेवाड़ा में मिले शिलालेख के अनुसार 1324 ई. में वारंगल के काकतीय वंश के राजा अन्नमदेव ने अपने नये राजवंश की स्थापना बस्तर में की तथा बस्तर से निर्वासित नागवंश के राजा उड़ीसा के कालाहाँडी में जा बसे। अन्नमदेव से प्रारम्भ काकतीय वंश शासन सन् 1947 तक चला और बस्तर के प्रवीरचंद भंजदेव इसके अन्तिम शासक थे।
इन्द्रावती नदी पर्वत-श्रृँखलाओं, कन्दराओं, सघन वनों की घाटियों के बीच से कलकल करती हुई, बलखाती हुई और वक्राकृति रूप लेते हुए भेजा, तुमड़ीगुड़ा, तारलापात, बेदरे होते हुए डुमरीगुड़ा के समीप तुकनार के पास पश्चिम-दक्षिण की ओर अधोगामी होकर अंचल की भूमि को सींचती हुई पुसवाड़ा होते हुए संकलनपल्ली के पास भद्रकाली पहुँचती है। अपनी प्रवाह यात्रा में अपनी अन्य अनेक सहायक नदियों को साथ लेकर आगे बढ़ी है। पूर्व उत्कल में इंद्रावती नदी दो धाराओं में विभक्त हो जाती है। दूसरी धारा भाषकेल नदी कहलाती है। इसी धारा पर तीरथगढ़ जलप्रपात है जो तीन खण्डों में ऊपर से नीचे की ओर प्रवाहित होता है। इन्द्रावती स्वयं में नारंगी, भंवरडीह और कोलरी नदी को स्वयं में समाहित कर लेती है। बस्तर की नारंगी नदी उड़ीसा के रायगढ़ा ग्राम से निकलकर बस्तर के देव-स्थल पौदागढ़ के आगे माकड़ी में प्रवेश कर काँटागाँव, डंडवन, करमरी, शामपुर, केरावाही, गिरोला, मस्सेटर, कोंडागाँव, संबलपुर, बम्हनी, कुसुमा, बनियागाँव, सोनापाल से आगे चौड़ी होकर इन्द्रावती नदी में मिल जाती है।
बस्तर की नदी भंवरदीग यहाँ की सबसे लम्बी नदी है और इसका प्रादुर्भाव उड़ीसा के ग्राम बिरगुड़ा से हुआ है। यह नदि अनेक ग्राम, नगर आदि को जीवनदान देती हुई मर्दापाल के ऊपर से प्रवाहित होती हुई भेजा के पास इन्द्रावती में नदी में समा जाती है।
बस्तर की कोतरी नदी छोटे डोंगरगढ़ से होती हुई सम्पू्र्ण उत्तर-पश्चिम बस्तर को सींचते हुए हलजुट, ढोरकट्टा, बाड़े, दमकसा, भानगढ़, पंखाजूर, कापसी, झींगादार, डोढ़ामेंटा, घोड़ागाँव, करकेट्टा होते हुए कन्दारी के नीचे इन्द्रावती में समाहित हो जाती है।
इन्द्रावती के जल प्रपातों में चित्रकोट, तीरथगढ़, मेंदरीघूमर, चित्रधारा, कुकुरघूमर, हाँदाबाड़ा, गुप्तेस्वर झरना, चर्रे-मुर्रे, मलाजकुंडम जलप्रपात, पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र हैं। लौह अयस्क से परिपूर्ण बैलाडीला पर्वत से नन्दीराज शिखर से शंखनी नदी का उद्गम हुआ है। दूसरी एक और नदी डंकनी का उद्गम उसी क्षेत्र की टाँगरी डोंगरी पहाड़ी से हुआ। शंखनी और डंकनी नदियों का महत्व इन दोनों नदियों के संगम पर मां दन्तेश्वरी का मन्दिर होने से बढ़ गया है। शंखनी और डंकनी नदियों के संगम पर दन्तेवाड़ा की सुप्रसिद्ध दन्तेश्वरी माई का शक्ति-पीठ अवस्थित है। बस्तर के नामकरण के साथ भी माँ दन्तेश्वरी का संबंध जुड़ा हुआ है। कहा जाता है कि जब वारंगल से राजा अन्नमदेव अपने राज्य के विस्तार के लिए आगे बढ़े तो उनके पीछे-पीछे उनकी कुलदेवी भी चल पड़ीं। देवी के पाँव में घँघुरू बंधे हुए थे। देवी ने अन्नदेव से कहा कि वे सीधे-सीधे चलें और पिछे मुड़कर न देखें। इस तरह से अन्नदेव शंखनी-डंकनी के संगम तक पहुँच गये, किन्तु रेत में देवी के पाँव धस जाने से घुँघरूओं की आवाज बन्द हो गई। अतः देवी आ रही हैं या पीछे रह गई हैं, यह देखने के लिए अन्तमदेव ने पीछे मुड़कर देखा। उनका पीछे मुड़कर देखना था कि देवी अन्तर्ध्यान हो गईं और भविष्यवाणी हुई कि राजा अन्नमदेव तुम्हारा राज्य उस सीमा तक होगा, जहाँ तक तुम्हें मेरा वस्त्र फैला मिले। तब से इस क्षेत्र का नाम बस्तर पड़ गया और शंखनी-डंकनी नदियों के संगम का महात्म्य स्थापित हो गया। पूर्वकाल में बस्तर का बारसूर नामक स्थान गंगवंशीय राजाओं की राजधानी था। बारसूर से लगभग 5 किमी की दूरी पर गहन पर्वत श्रृंखला के बीच खूबसूरत सा जलप्रपात ‘हाँदाबाड़ा’ है। यह ‘हाँदाबाड़ा’ जल प्रपात जबलपुर के भेड़ाघाट से भी अधिक सुन्दर जलप्रपात है। इन्द्रावती व नारंगी नदी का संगम नारायणपाल नामक स्थान पर है। नागवंशी राजा सोमेश्वर ने संगम स्थल पर विष्णु जी का भव्य मन्दिर अपनी माता गंगमहादेवी की स्मृति में बनवाया था।
बस्तर के अन्तागढ़ में आमाबेड़ा मार्ग पर ‘चर्रे-मुर्रे’ जल प्रपात है। वर्षा ऋतु में यह जलप्रपात अपने रौद्र रूप में रहता है और इसकी गर्जना भरी निनाद 12 किमी दूर अन्तागढ़ तक सुनाई देती है। चर्रे-मुर्रे जलप्रपात तक पहुँचने के लिए घाटी से लगभग 400 फीट नीचे उतरना पड़ता है।
गोदावरी नदी देश की महान नदियों में से एक है और इस नदी के साथ अनेक पौराणिक संदर्भ जुड़े हुए हैं। बस्तर की इन्द्रावती नदी इस महान गोदावरी नदी की एक प्रमुख सहायक नदी है।
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