इन्दौर - रोजाना 7.5 करोड़ लीटर पानी की बर्बादी (Water Crisis Indore )

उल्लास की ऊँचाई को दर्शन की गहराई से जोड़ने वाले लोग पूरे जीवन को बस पानी का एक बुलबुला मानते हैं और इस संसार को एक विशाल सागर। इसमें पीढ़ियाँ आती हैं, पीढ़ियाँ जाती हैं, युग आते हैं, युग जाते हैं, ठीक लहरों की तरह...अनुपम मिश्र



इन्दौर में पीने के पानी के नाम पर इसके करीब 32 वर्ष बाद सन 2015 में तीसरा चरण भी आ गया। इसके बाद इन्दौर को करीब 300 मिलियन लीटर (30 करोड़ ली.) पानी सिर्फ नर्मदा नदी से मिल जाता है और बाकी का 150 मिलियन लीटर अन्य स्रोतों से आ रहा है। तीसरे चरण के माध्यम से इन्दौर तक पानी पहुँचाने का कुल खर्च करीब 670 करोड़ रु. आया है। इसके रखरखाव व बिजली का खर्च भी नगर निगम के लिये वहन कर पाना कठिन हो जाता है।

पिछले कुछ अर्से से पानी उल्लास नहीं बल्कि तनाव का कारण बनता जा रहा है। भारत का सम्भवतः प्रत्येक अंचल इस वक्त किसी-न-किसी स्वरूप में जलसंकट का साक्षी बना हुआ है। हाँ राजस्थान के जैसलेमर जिले के रामगढ़ जैसे क्षेत्र जहाँ पर हिन्दुस्तान में सबसे कम पानी, औसतन करीब 4 इंच पानी वर्ष भर में बरसता है, इसके अपवाद हैं। वहाँ साल भर पीने के पानी का संकट नहीं होता।

फसलों की स्थिति ऐसी है कि मालवा जिसके बारे में कभी कहा जाता था ‘डग डग रोटी पग पग नीर’ से मजदूर अब यहाँ फसल काटने आते हैं। परन्तु सीखने की प्रकृति को तो अधिकांश भारतीय समाज बिदाई दे चुका है और वैसे भी समझदारी में तो उसकी कोई सानी ही नहीं है।

ऐसे ही समझदारों की एक फौज अब माँग कर रही है कि देश का पूरा पानी केन्द्र सरकार के अधीन कर दिया जाये। राज्यों से पानी सम्बन्धित सभी अधिकार वापस ले लिये जाएँ। इसे राष्ट्रीय सम्पत्ति घोषित कर दिया जाये। परन्तु स्थितियाँ इसके ठीक उलट होना चाहिए। माँग की जानी चाहिए कि पानी को पूरी तरह से पंचायत और स्थानीय समुदाय को सौंप दिया जाये।

अपनी स्मृति को थोड़ा पीछे ले जाइए। बीसवीं शताब्दी की शुरुआत तक खनन के तमाम अधिकार वहाँ बसने वाले समुदायों के पास थे। धीरे-धीरे उनका अतिक्रमण होता गया। पहले राज्य और बाद में केंद्र ने जमीन के नीचे मौजूद सभी संसाधनों में से अधिकांश को अपने कब्जे में लेकर राज्यों को रायल्टी देने और समुदायों को ठेंगा दिखाना प्रारम्भ कर दिया।

अब पारदर्शिता के नाम पर खनिज संसाधनों की खदानों की नीलामी हो रही है और भारत की अमूल्य सम्पदा गिने-चुने निजी हाथों में चली जा रही है। ऐसा ही अब पानी के साथ होने की आशंका है वर्तमान केन्द्र सरकार पारदर्शिता की आड़ में पानी के स्रोतों की नीलमी से शायद ही हिचकिचाए। वैसे प्रायोगिक तौर पर छतीसगढ़ सरकार शिवनाथ नदी को निजी हाथों में सौंपकर मुसीबत मोल ले चुकी है। लेकिन हमारी नई संघीय सरकार पिछली गलतियों से सबक लेकर कोई असाधारण फार्मूला लाकर पानी की नीलामी को कानूनी और व्यावहारिक जामा पहना सकती है।

अभी जोर-शोर से यह प्रचार किया जा रहा है कि राजस्थान के कोटा से पानी की रेल लातूर जा रही है और शीघ्र ऐसी ही एक रेल बुन्देलखण्ड के लिये भी रवाना होगी। अनुपम मिश्र ने ‘आज भी खरे हैं तालाब’ में जिक्र किया है, “25 अप्रैल 1990 को इन्दौर (मध्य प्रदेश) से 50 टैंकर पानी लेकर रेलगाड़ी देवास आई। स्थानीय शासन मंत्री की उपस्थिति में ढोल नगाड़े बजाकर पानी की रेल का स्वागत हुआ। मंत्रीजी ने रेलवे स्टेशन आई ‘नर्मदा’ का पानी पीकर इस योजना का उद्घाटन किया।’’

गौरतलब है इन्दौर से देवास की दूरी करीब 40 किलोमीटर है और तब इस पानी का रेलभाड़ा प्रतिदिन 40 हजार रु. था। तो सोचिए कोटा से लातूर करीब 700 कि.मी. है तो आज 5 लाख लीटर पानी पर कितना रेलभाड़ा लग रहा होगा? परन्तु परिस्थितियाँ दिनों दिन और भी जटिल होती जा रही हैं। उपरोक्त घटना के 36 वर्ष बाद भी देवास की स्थिति में ज्यादा सुधार नहीं हुआ। फर्क सिर्फ इतना पड़ा कि जो पानी रेल से जाता था अब पाइप से जा रहा है।

आज शहरों में खासकर दिल्ली, मुम्बई, चेन्नई जैसे महानगरों में पानी 100 से 300 कि.मी की दूरी से आ रहा है। इसी पुस्तक में अनुपम जी इन्दौर का ही एक और उदाहरण देते हैं “कुछ शहरों ने दूर बहने वाली किसी नदी से पानी उठाकर लाने के बेहद खर्चीले और अव्यावहारिक तरीके अपनाएँ हैं। इन्दौर का ऐसा ही उदाहरण आँख खोल सकता है। यहाँ दूर बह रही नर्मदा (करीब 100 किमी.) का पानी लाया गया है। योजना का पहला चरण छोटा पड़ा तो एक स्वर से दूसरे चरण की माँग भी उठी और सन 1993 में तीसरे चरण के लिये भी आन्दोलन चल रहा है।’’

इन्दौर में पीने के पानी के नाम पर इसके करीब 32 वर्ष बाद सन 2015 में तीसरा चरण भी आ गया। इसके बाद इन्दौर को करीब 300 मिलियन लीटर (30 करोड़ ली.) पानी सिर्फ नर्मदा नदी से मिल जाता है और बाकी का 150 मिलियन लीटर अन्य स्रोतों से आ रहा है। तीसरे चरण के माध्यम से इन्दौर तक पानी पहुँचाने का कुल खर्च करीब 670 करोड़ रु. आया है। इसके रखरखाव व बिजली का खर्च भी नगर निगम के लिये वहन कर पाना कठिन हो जाता है।

यदि विद्युत नियामक आयोग बिजली दरों में 20 पैसे प्रति यूनिट की वृद्धि कर देता है तो नगर निगम की साँस ऊपर नीचे होने लगती है। सबसे विचित्र तथ्य यह है कि 24x7 की बात करने वाला इन्दौर नगर निगम पानी की इतनी आवक के बावजूद शहर को दो दिन में सिर्फ एक बार मात्र एक घंटे पानी दे पा रहा है, वह भी बिना किसी तेज दबाव के।

परन्तु बात यहीं खत्म नहीं होती। पिछले दिनों जिला योजना समिति की बैठक में शहर की मेयर ने पानी के वितरण सम्बन्धी सूचनाएँ देते अथवा देते धीरे से बतलाया कि नर्मदा नदी से जो पानी आ रहा है उसमें से 20 से 25 प्रतिशत का वितरण के दौरान और टंकियों तक पहुँचाने के दौरान अपव्यय साधारण भाषा में कहें तो लीकेज में नष्ट हो जाता है। इस रहस्योद्घाटन पर किसी भी दल या गैरसरकारी संगठनों की कोई प्रतिक्रिया न आना वास्तव में अत्यन्त आश्चर्य का विषय है।

महापौर के हिसाब से इन्दौर में प्रतिदिन करीब 7.5 करोड़ लीटर पानी व्यर्थ बह जाता है। यानी प्रति माह करीब 225 करोड़ लीटर पानी और वर्ष भर में करीब 2700 करोड़ लीटर पानी व्यर्थ बह रहा है। क्या हम इससे बर्बादी की भयावहता का अन्दाज लगा सकते हैं। लातूर में 5 लाख लीटर पानी लेकर रेलगाड़ी प्रति सप्ताह पहुँच रही है।

इस हिसाब से इन्दौर में प्रतिदिन जितना पानी व्यर्थ बह रहा है उससे लातूर को करीब145 हफ्ते तक पानी मिल सकता है। क्या पानी की कमी से जूझ रहा एक देश इतने पानी की बर्बादी को झेल सकता है? परन्तु आज किसी पर कोई जवाबदेही नहीं है और हम अपनी स्थानीय स्वशासन संस्थाओं को उनकी बची खुची जवाबदारी से भी छुटकारा दिलवा देना चाहते हैं।

पानी को लेकर कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर भी बात करना आवश्यक है। प्रसिद्ध पर्यावरणविद वंदना शिवा ने एक रिपोर्ट में बताया है कि एक ग्रामीण महिला को सिर्फ पानी लाने के लिये एक वर्ष में औसतन 14000 किलोमीटर पैदल चलना पड़ता है। अब आप इससे पानी की अनुपलब्धता की त्रासदी का अन्दाजा लगा सकते हैं। यह दूरी औसतन 38 किलोमीटर प्रतिदिन पड़ती है। (इसे इस तरह समझिए कि पानी के स्रोत के पास कितने चक्कर लगाना पड़ते हैं।

अनुमान है कि सुदूर ग्रामीण अंचलों में यह दूरी प्रति चक्कर 2.5 किलोमीटर पड़ती है।) यह तो हुई महिलाओं की बात। अर्थात अपने घर में पानी लाने के लिये एक भारतीय महिला प्रतिवर्ष पूरी धरती का परिक्रमा कर लेती है। केन्द्र सरकार ने बताया है कि देश में कुल 33 करोड़ 60 लाख नागरिक अकाल से प्रभावित हैं और इसमें से 16.40 करोड़ बच्चे हैं।

इस परिस्थिति के चलते बच्चों की स्थिति दिनोंदिन दयनीय होती जा रही है। उन्हें मानव तस्करी, जबरन या बंधुआ मजदूरी, बाल मृत्यु, स्वास्थ्य पर बुरे प्रभाव, बालविवाह का सामना और पलायन की स्थिति में शिक्षा से वंचित होना पड़ रहा है। यह बात भी सामने आई है कि बाल विवाह में से आधे से भी ज्यादा इन्हीं 10 अकाल प्रभावित प्रदेशों से हैं।

आज उत्तराखण्ड के आग प्रभावित जंगल पानी की कमी से झुलस रहे हैं। हिमाचल के जंगल भी आग की चपेट में है और इन दोनों प्रदेशों से पानी दिल्ली के शौचालयों के लिये जा रहा है। जंगलों की आग बुझाने के लिये भी पानी दूर-दराज से हेलिकाप्टरों से आ रहा है। क्या हम अभी भी अपनी प्राथामिकताओं पर ध्यान नहीं देंगे। सिर्फ वर्तमान में जीने वाला समाज अपना भविष्य अन्धकार में डाल देता है। नरेश सक्सेना लिखते हैं,

पानी के प्राण मछलियों में बसते हैं
आदमी के प्राण कहाँ बसते हैं, दोस्तों
इस वक्त कोई कुछ बचा नहीं पा रहा
किसान बचा नहीं पा रहा अन्न को
अपने हाथों से फसल को आग लगाए दे रहा है
माताएँ बचा नहीं पा रहीं बच्चों को
उन्हें गोद में ले कुएँ में छलागें लगा रही है
अब और क्या लिखें?

 

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