ऋग्वेद के दशम मंडल में नदी सूक्त के तहत भारत में नदियों की महिमा का विस्तार से वर्णन मिलता है। इससे पता चलता है कि नदियाँ किस तरह आदिकाल से हमारी जीवनधारा रही हैं।
प्र तेंऽरदद्वरूणो यातवे पथः सिन्धो यद्वाजौ अभ्यद्रवस्त्वम्।
भूम्या अधिं प्रवता यासि सानुना यदेषामग्र जगतमिरज्यसि।।
अर्थात- अति बहाव वाली नदी के जाने - बहने के लिए आदित्य ने मार्ग बना रखा है जिससे वह अन्न आदि को लक्ष्य में रखकर बहती है। भूमि के ऊँचे मार्ग से यह बहती है। जिस उन्नत मार्ग से यह बहती है वह इन प्राणियों को प्रत्यक्ष होता है और वह प्रत्यक्ष प्रभाव दिखाती हैं।
दिवि स्वनो यतते भूम्योपर्यनन्तं शुष्म मुर्दियर्ति भानुना।
अभ्रादिव प्र स्तनयन्ति वृष्टयः सिन्धुर्यदेतिं वृषभो न रोरूयत्।।
अर्थात- जब यह वेग वाली नदी सांड की तरह शब्द करती हुई बहती है तब मेघ से होने वाली वृष्टि के समान शब्द होता है। इसके बहाव का शब्द पृथ्वी पर होता हुआ आकाश में पहुँचता है। सूर्य की किरणाों से इसकी उर्मियाँ युक्त होती हैं और यह नदी अपने वेग को और भी बढ़ा लेती है।
अभि त्वां सिन्धो शिशुमिन्न मातरो वाश्रा अर्षन्ति पयसेव धेनवः।
राजेव युध्वां नयसि त्वमित्सिचौ यदासामग्रं प्रवतामिनक्षसि।।
अर्थात- जिस प्रकार माताएं शिशुओं को मिलती हैं और जिस प्रकार दूध से भरी हुई नव प्रसूता गाय आती है उसी प्रकार शब्द करती हुई दूसरी नदियाँ इसमें (सिंधु में) मिलती हैं। युद्ध करने वाले राजा के समान यह जब इसमें मिली नदियों से आगे रहती है और बाढ़ आती है तो तटों को भी बहाती है।
इमं में गंगे यमुने सरस्वति शुतुद्रि स्तोमै सचता परूष्ण्या।
असिवक्न्या मरूद्वृधे वितस्तयार्जीकीये श्रणुह्या सुषोमया।।
अर्थात- मेरे इस प्रशंसा वचन को ये नदियाँ सब प्रकार से सेवित कराती हैं, सुनवाती हैं। (गंगे) अति वेगशील नदी, (यमुने) मिलकर भी और अधिक जल वाली नदी, (सरस्वति) अधिक जल वाली नदी, (शुतुद्रि) शीघ्र बहने वाली नदी, (परूष्ण्या) पर्व वाली कुटिल गामिनी नदी, (असिवन्या) जो नीले पानी वाली है, (मरुद्वधे) मरूतों से बढ़ने वाली, (वितस्तया) विस्तार वाली नदी के साथ, (आर्जिकीये) सीधे बहने वाली नदी, (सुषोमया) जिसके किनारे पर सोमलता आदि हों। ये भिन्न-भिन्न प्रकारों के बहावों और जलों से युक्त नदियाँ हैं जिनका परिज्ञान करना चाहिए।
स्वश्वा सिन्धु: सुरथा सुवासा हिरण्ययी सुकृता वाजिनीवती।
ऊर्णावती युवतिः सीलमावत्युताधि वस्ते सुभगा मधुवृधम्।।
अर्थात- ऐसी स्पंदनशील नदी के किनारे के प्रदेशों में घोड़े, रथ निर्माण, वस्त्रोपादन, स्वर्ण आदि धातुओं की खानें, ऊनकी पैदावार, औषधियाँ आदि अधिकतर होती हैं।
(ऋग्वेद दशम मंडल, नदी सूक्त)
प्र तेंऽरदद्वरूणो यातवे पथः सिन्धो यद्वाजौ अभ्यद्रवस्त्वम्।
भूम्या अधिं प्रवता यासि सानुना यदेषामग्र जगतमिरज्यसि।।
अर्थात- अति बहाव वाली नदी के जाने - बहने के लिए आदित्य ने मार्ग बना रखा है जिससे वह अन्न आदि को लक्ष्य में रखकर बहती है। भूमि के ऊँचे मार्ग से यह बहती है। जिस उन्नत मार्ग से यह बहती है वह इन प्राणियों को प्रत्यक्ष होता है और वह प्रत्यक्ष प्रभाव दिखाती हैं।
दिवि स्वनो यतते भूम्योपर्यनन्तं शुष्म मुर्दियर्ति भानुना।
अभ्रादिव प्र स्तनयन्ति वृष्टयः सिन्धुर्यदेतिं वृषभो न रोरूयत्।।
अर्थात- जब यह वेग वाली नदी सांड की तरह शब्द करती हुई बहती है तब मेघ से होने वाली वृष्टि के समान शब्द होता है। इसके बहाव का शब्द पृथ्वी पर होता हुआ आकाश में पहुँचता है। सूर्य की किरणाों से इसकी उर्मियाँ युक्त होती हैं और यह नदी अपने वेग को और भी बढ़ा लेती है।
अभि त्वां सिन्धो शिशुमिन्न मातरो वाश्रा अर्षन्ति पयसेव धेनवः।
राजेव युध्वां नयसि त्वमित्सिचौ यदासामग्रं प्रवतामिनक्षसि।।
अर्थात- जिस प्रकार माताएं शिशुओं को मिलती हैं और जिस प्रकार दूध से भरी हुई नव प्रसूता गाय आती है उसी प्रकार शब्द करती हुई दूसरी नदियाँ इसमें (सिंधु में) मिलती हैं। युद्ध करने वाले राजा के समान यह जब इसमें मिली नदियों से आगे रहती है और बाढ़ आती है तो तटों को भी बहाती है।
इमं में गंगे यमुने सरस्वति शुतुद्रि स्तोमै सचता परूष्ण्या।
असिवक्न्या मरूद्वृधे वितस्तयार्जीकीये श्रणुह्या सुषोमया।।
अर्थात- मेरे इस प्रशंसा वचन को ये नदियाँ सब प्रकार से सेवित कराती हैं, सुनवाती हैं। (गंगे) अति वेगशील नदी, (यमुने) मिलकर भी और अधिक जल वाली नदी, (सरस्वति) अधिक जल वाली नदी, (शुतुद्रि) शीघ्र बहने वाली नदी, (परूष्ण्या) पर्व वाली कुटिल गामिनी नदी, (असिवन्या) जो नीले पानी वाली है, (मरुद्वधे) मरूतों से बढ़ने वाली, (वितस्तया) विस्तार वाली नदी के साथ, (आर्जिकीये) सीधे बहने वाली नदी, (सुषोमया) जिसके किनारे पर सोमलता आदि हों। ये भिन्न-भिन्न प्रकारों के बहावों और जलों से युक्त नदियाँ हैं जिनका परिज्ञान करना चाहिए।
स्वश्वा सिन्धु: सुरथा सुवासा हिरण्ययी सुकृता वाजिनीवती।
ऊर्णावती युवतिः सीलमावत्युताधि वस्ते सुभगा मधुवृधम्।।
अर्थात- ऐसी स्पंदनशील नदी के किनारे के प्रदेशों में घोड़े, रथ निर्माण, वस्त्रोपादन, स्वर्ण आदि धातुओं की खानें, ऊनकी पैदावार, औषधियाँ आदि अधिकतर होती हैं।
(ऋग्वेद दशम मंडल, नदी सूक्त)
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