इलाहाबाद : ताप विद्युत घरों के खिलाफ निर्णायक संघर्ष शुरू

किसानों, मज़दूरों ने झूठे विकास को एक स्वर से नकार दिया


राज्य सरकार, प्रशासन, जनता के प्रतिनिधि, सरकारी दलाल व ठेकेदार यह कहते नहीं थकते कि किसानों ने तो स्वयं ही मुआवजा लिया। किसानों ने अपनी ज़मीन छोड़ी। गांव से हट गए। लेकिन जिला प्रशासन क्या इस बात का वास्तविक प्रमाण दे सकता है कि किसानों ने अपनी सहमति, समझ से ज़मीन दी और मुआवजा लिया, सिवाय प्रशासन के इस दावे के कि कुछ किसानों ने करार पत्र पर हस्ताक्षर किया है और उन्होंने मुआवज़े का चेक प्राप्त कर लिया है। क्या एसडीएम व लेखपाल द्वारा फार्म नम्बर 11 करार पत्र पर हस्ताक्षर होना किसानों की सहमति का आधार है?इलाहाबाद के किसानों व मज़दूरों ने यमुनापार में स्थापित होने जा रहे तीन दैत्याकार ताप विद्युत घरों को सर्वसम्मति से नकारकर निर्णायक संघर्ष प्रारंभ कर दिया है। किसानों द्वारा जोरदार आन्दोलन व न्याय की फरियाद पर करछना में जहां हाईकोर्ट ने भूमि अधिग्रहण रद्द कर दिया है, वहीं मेजा तहसील के कोहड़ार में एनटीपीसी का दृढ़ता के साथ विरोध किया जा रहा है। मेजा ऊर्जा निगम प्रा.लि. (संयुक्त उपक्रम एनटीपीसी) के नाम से लग रही इस ताप विद्युत उत्पादक कंपनी के खिलाफ भी बड़ा आन्दोलन शुरू हो गया है। यहां पर प्रभावित सात ग्राम सभाओं ने सर्वसम्मति से विस्थापन विरोधी मंच गठित कर न केवल आन्दोलन का आगाज कर दिया है, बल्कि उन्होंने अपनी ज़मीन को अधिग्रहण से मुक्त करने का मजबूत दावा भी प्रस्तुत किया है। इनका आधार बन रहा है, उत्तर प्रदेश लैण्ड एक्यूजन (डिटरमिनेशन ऑफ कम्पंसेशन एण्ड डेक्लरेशन ऑफ अवार्ड बाई एग्रीमेंट) रूल्स 1997, जिसका कलेक्टर द्वारा खुलेआम उल्लंघन किया गया है।रूल्स की धारा 2, 3 व 4(1)ए जिसमें करार के द्वारा मुआवजा तय किए जाने की कठोर शर्तें होती हैं का समुचित पालन नहीं किया गया है। भूमि अधिग्रहण के समय प्रयोग किए गए इस ‘रूल्स’ के विषय में जानबूझकर किसानों को नहीं बताया गया और अंधेरे में रखकर उन्हें विविध प्रकार से ठगा गया। इस रूल्स के मुताबिक करार से पूर्व कंपनी के अनुरोध पत्र पर डीएम के संतुष्ट होने, तत्पश्चात किसानों की सहमति लेने का स्पष्ट प्रावधान है।

जिसके बाद ही सभी हितबद्ध लोगों को रजिस्टर्ड डाक से सूचित कर व फिर एक निश्चित स्थान पर बैठकर सरकारी नियमों-क़ानूनों के मुताबिक मुआवज़े की राशि तय की जानी चाहिए थी। लेकिन भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया को ज्यादा पारदर्शी व न्यायसंगत बनाने की बजाय प्रशासन व शासक वर्गों द्वारा ताप विद्युत घरों की स्थापना से क्षेत्र में तथाकथित विकास होने के दावे को बड़े जोर-शोर से प्रचारित किया गया, जिससे इन कंपनियों की काली करतूतों पर आसानी से पर्दा डाला जा सके। नतीजा यह हुआ कि बिजली उत्पादक कंपनियों से लाभ लेने वाले भू-माफियाओं, ठेकेदारों, छुटभैये नेताओं, सरकारी दलालों व शासन-सत्ता में बैठे धनपशुओं ने गठजोड़ बनाकर किसानों को भ्रमित कर दिया तथा भोलेभाले गरीब लोगों के विरोध के स्वर को सुनियोजित ढंग से दबा दिया गया। प्रभावित ग्राम सभाओं ने जब तक विरोध के स्वर को उंचा करने की कोशिश की, ताप विद्युत उत्पादक कंपनियों व शासक वर्गों के दबाव में कलेक्टर ने भूमि अधिग्रहण कानून 1894 की अर्जेंसी धारा 17 लागू कर ज़मीन अधिग्रहीत करवा लिया और फटाफट कंपनियों के नाम ट्रान्सफर भी कर दिया।

अपनी बहुमूल्य जमीन, घर व बाग-बगीचों को औने-पौने दाम में गंवाने वाले किसानों ने शुरुआत में ही जब उचित मुआवज़े की मांग उठाई तो उन पर पुलिसिया दमन प्रारंभ हो गया। जेपी एसोसिएट्स की कंपनी प्रयागराज पॉवर जनरेशन प्रा. लि. खानसेमरा, बेमरा तहसील बारा के अधिकारियों ने न्याय की मांग करने वाले दो दर्जन से अधिक किसानों के खिलाफ झूठी एफआईआर दर्ज कराई। उचित मांग रखने पर उन्हें बर्बाद करने की धमकी दी गई। किसानों, मजदूरों व समाज के अन्य प्रभावित मेहनतकश जनता के द्वारा पॉवर प्लांटों के विरोध को लेकर शांतिपूर्ण प्रदर्शन या हड़ताल, जो कि उनका लोकतांत्रिक हक है, प्रारंभ हुआ तो स्थानीय प्रशासन ने तानाशाहपूर्ण रवैया दिखाया और ठेकेदारों, गुन्डों के पक्ष में खड़ा हो गया जिससे जेपी एसोसिएट्स व एनटीपीसी ने सत्ता के दलालों, बड़े-बड़़े नेताओं व पुलिस प्रशासन का भरपूर सहयोग पाकर जुल्म व जोर-ज़बरदस्ती से अति उपजाऊ जमीनों, बेशकीमती खनिजों को कौड़ियों के दाम तथा गंगा-यमुना का पानी मुफ्त में ले लिया।

बारा में किसान संघर्ष में शामिल होने वालों का पुलिसिया दमन जारी है। अधिग्रहण से पूर्व नौकरी देने के वायदे पर अमल करने की मांग करने पर किसानों व मज़दूरों पर लाठियां बरसाई गईं। आन्दोलन के नेताओं को दर्जनों मुकदमों में फंसाने की धमकी मिली। विरोध-प्रदर्शन की तैयारी के पहले ही फरियादी किसानों, मज़दूरों के आस-पास खुफिया पुलिस लग गई। जेपी एसोसिएट्स ने पुलिस को अपना एजेंट बना लिया है। हालात ऐसे हो गए कि जब कभी किसान-मज़दूर बैठक करने की रणनीति बनाते हैं, वहां एक-दो गाड़ी पीएसी पहुँचकर डंडा पटकने लगती है। ताप विद्युत घरों के अधिकारियों ने प्रभावित किसानों-मज़दूरों के बीच डर पैदा करने के लिए सभी तरह की ताकतों को सक्रिय कर दिया है। इस तरह से किसानों से उनकी ज़मीन लेने, गरीब लोगों, भूमिहीनों से उनके हिस्से के खनिज संसाधन-पत्थर, गिट्टी तथा मोरंग की सैकड़ों खदानों पर कब्ज़ा कर लिया गया। गंगा-यमुना से भारी मात्रा में पानी लेकर लाखों मल्लाहों, बालू मज़दूरों व नदी उतरवाई का पुश्तैनी कार्य करने वाले समुदायों की आजीविका नष्ट की जा रही है। इन तबकों से ताप विद्युत घर बनाने के संबंध में कोई राय नहीं ली गई।

जबकि मेजा, बारा तथा करछना के किसानों, मज़दूरों की बड़ी स्पष्ट मांग थी कि ज़मीन लेने से पहले संगठित रूप से बैठकें आयोजित की जाएं, जिसमें बिजली उत्पादक कंपनियों के आने से होने वाले नफा-नुकसान के बारे में विधिवत चर्चा हो जाए और तब ज़मीन के बाजार रेट मिलने, प्रभावित किसान-मज़दूरों को समुचित नौकरी देने, गृहविस्थापितों को रहने के लिए कालोनी व अन्य सुविधाओं के मद्देनज़र ज़मीन-जायदाद देने पर सोचा जाए। लेकिन राज्य सरकार, उसकी पूरी की पूरी प्रशासनिक मशीनरी, छोटे-बड़े जनता के प्रतिनिधि, दलाल चरित्र वाले जमींदार तथा दूरदर्शी किस्म के ठेकेदार, जेपी एसोसिएट्स व एनटीपीसी के एजेंट के रूप में काम करते रहे। इन लोगों के आपसी गठबंधन से जेपी एसोसिएट्स, एनटीपीसी व स्थानीय तहसील प्रशासन ने भरपूर फायदा उठाया व सुनियोजित षडयंत्र के तहत किसानों, ग़रीबों को छलने का काम किया।

एक तरफ तो इस गिरोह ने इस बात के लिए झूठे प्रचार में ताकत झोंकी कि ताप विद्युत घर बनने से होने वाले महानगरीय मॉडल पर विकास से किसान तथा गरीब जनता बहुत खुश है और वह अपनी ज़मीन देने को राजी है। दूसरी ओर एक-एक किसान को अलग-अलग जगहों पर ले जाकर उन्हें नाना प्रकार से समझाने की कोशिश की। किसानों द्वारा विरोध जताने पर उन्हें मुकदमें में फंसाने की धमकी दी गई। बहुत ही चालाकी के साथ और डरा-धमकाकर कानूनी औपचारिकताएं पूरी कराने में लेखपाल, तहसीलदार, एसडीएम, जिले के कलेक्टर, एडीएम व उनके भ्रष्ट मातहतों ने सतरंगी चाल चली व अधिग्रहण कराने में कामयाब रहे।

यहां गौर करने की बात यह है कि राज्य सरकार, प्रशासन, जनता के प्रतिनिधि, सरकारी दलाल व ठेकेदार यह कहते नहीं थकते कि किसानों ने तो स्वयं ही मुआवजा लिया। किसानों ने अपनी ज़मीन छोड़ी। गांव से हट गए। लेकिन जिला प्रशासन क्या इस बात का वास्तविक प्रमाण दे सकता है कि किसानों ने अपनी सहमति, समझ से ज़मीन दी और मुआवजा लिया, सिवाय प्रशासन के इस दावे के कि कुछ किसानों ने करार पत्र पर हस्ताक्षर किया है और उन्होंने मुआवज़े का चेक प्राप्त कर लिया है। क्या एसडीएम व लेखपाल द्वारा फार्म नम्बर 11 करार पत्र पर हस्ताक्षर होना किसानों की सहमति का आधार है? यदि हां, तो जिन किसानों ने आज तक इस करार पत्र पर हस्ताक्षर नहीं किए, मुआवज़े का चेक प्राप्त नहीं किया तो भी उनकी जमीन जिला प्रशासन ने कैसे मेजा ऊर्जा निगम प्रा. लि. (संयुक्त उपक्रम एनटीपीसी) व बारा में प्रयाग राज पॉवर जनरेशन व करछना में संगम पॉवर जनरेशन प्रा. लि. (जेपी एसोसिएट्स) के नाम ट्रांसफर कर दी? इससे साफ जाहिर होता है कि भूमि अधिग्रहण की धारा 11 (2) करार नियमावली या पत्र, जिसमें किसानों का हस्ताक्षर है, वह इस बात का आधार कतई नहीं हो सकता कि कोई इस बात का प्रचार-प्रसार करे कि किसानों ने अपनी ज़मीन स्वेच्छा से दी है। इससे तो ऐसा लगता है कि मुआवज़े का चेक लेने के लिए की गईं औपचारिकताएं ही किसानों की सहमति का प्रमाणपत्र हैं। लेकिन क्या हकीक़त में ऐसा है? बिल्कुल नहीं। तब असली बात क्या है? यमुनापार में तीनों पॉवर प्लांटों के लिए की गई ज़मीन अधिग्रहण की पूरी की पूरी प्रक्रिया ही संदेहास्पद है। विधि विरुद्ध है। भोले-भाले किसानों, गरीब लोगों व निरीह मज़दूरों के साथ बहुत बड़ा धोखा है। क्योंकि कंपनियों के दबाव में आकर तत्कालीन कलेक्टर (डी.एम.) राजीव अग्रवाल ने अपने सर्वाधिकार का जमकर दुरुपयोग किया है जो कि एक गंभीर कदाचार है।

कलेक्टर ने भूमि अधिग्रहण कानून 1894 की धारा 4 व 4 (1) यानि नोटिफिकेशन जारी करने के बाद सीधे अर्जेंसी की धारा 17 व 17 (4) लगाकर योजनाओं से प्रभावित किसानों की पूरी ज़मीन अधिग्रहीत करा ली। जमीन कंपनियों के नाम हस्तान्तरित करने की सभी कागजी कार्रवाई पूरी करा दी। ज़मीन के मुआवज़े की राशि भी स्वयं कलेक्टर व कंपनियों के अधिकारियों ने मिलकर तय कर लिया। इन प्रक्रियाओं के मध्य इस बारे में किसानों को कोई जानकारी नहीं दी गई। किसान यह जानने के लिए छटपटाते रहे, तहसील, कचहरी व कलेक्ट्रेट का चक्कर लगाते रहे कि कोई तो यह बताए कि आखिर उनकी ज़मीन, जिसका नोटिफिकेशन जारी हो चुका है, को किस रेट पर लिया जा रहा है? लेकिन कंपनी, जिला प्रशासन के आला अफ़सर व उनके प्यादे चुप्पी साधे रहे। जमीनों के रेट का खुलासा तब हुआ जब किसानों को अचानक करार पत्र देखने को मिला जिसमें उनकी अधिग्रहीत जमीन की कीमत लिखी हुई थी। इसके बाद उन्हें भू-अध्याप्ति अधिकारी के दफ्तर से मुआवजा राशि के चेक प्राप्त करने को कहा गया।

विस्थापन के बाद उजड़ा गांवसवाल उठता है कि जब किसानों को यह बताया ही नहीं गया कि आपकी ज़मीन फला रेट पर कंपनी को दी जा रही है। जब उनसे यह पूछा ही नहीं गया कि आप इस रेट पर अपनी ज़मीन देने को राजी हैं कि नहीं और विभाग द्वारा उन्हें सीधे करार पत्र दे दिया गया। उनसे कहा गया कि आप अपनी ज़मीन का मुआवजा जाकर चेक से प्राप्त कर लें। अब किसान क्या करे? करार पत्र उसके घर देकर कह रहे हो कि किसान-सहमत हैं। एक तरफ तो पूरी प्रशासनिक मशीनरी व दलालों, ठेकेदारों, बड़े जमींदारों को एजेंट बनाकर इस अभियान में लगा दिया कि किसी भी तरह से किसानों को समझाओ, कान फूंको, बार-बार यही कहो कि कंपनी लगेगी तो अपरम्पार विकास होगा, ज़मीन देकर धंधा-बिज़नेस करोगे, मालामाल हो जाओगे, कंपनी अपने यहां नौकरी पर रखेगी, चाय-पान की दुकान खोलने की जगह दे देगी, रुपए बरसने लगेंगे।

इस प्रचार-प्रसार के बाद दलाल किस्म के जमींदारों को सबसे पहले करार पर हस्ताक्षर कराकर चेक दिया गया और यह साबित करने की कोशिश की गई कि किसान ज़मीन देने पर राजी हो गए हैं। इससे भूमि अधिग्रहण का विरोध कर रहे किसानों का मनोबल गिरने लगा। एक-एक कर किसानों को हतोत्साहित किया गया और अंततः कंपनी के अधिकारी अपने मिशन में सफल हो गए। अधिग्रहीत ज़मीन के थोड़े से हिस्से में निर्माण कार्य प्रारंभ हो गया। इधर ज़मीन व मकान न देने वाले किसानों व मज़दूरों को धमकाया जाने लगा। जिससे विरोध का स्वर आन्दोलन का रूप नहीं ले सका और कम्पनी की मनमानी बदस्तूर जारी रही।

फिर ऐसे शुरू हुआ विरोध, बना विस्थापन विरोधी मंच


माफ़िया किस्म के ठेकेदारों, गुन्डों, सरकारी दलालों व स्थानीय पुलिस के सहयोग से जब किसानों, मज़दूरों व डेलीवेज श्रमिकों पर कंपनी का अत्याचार बढ़ने लगा तो इसके खिलाफ लड़ाई का माहौल बना। प्रभावित गाँवों के किसान व मज़दूर एकत्रित हुए और विस्थापन विरोधी मंच का गठन किया। बीते 10 अगस्त को कोहड़ार में इसी मंच के माध्यम से किसानों ने विशाल जनसभा आयोजित की। जिसमें कई सामाजिक संगठनों के बुद्धिजीवियों ने शिरकत की। जनसभा में पहली बार किसानों ने ऐलान किया कि ताप विद्युत घर बनाने के नाम पर वह अब अपनी ज़मीन किसी भी कीमत पर नहीं देंगे, क्योंकि सरकार व कंपनी ने मिलकर उनके साथ धोखा किया है। सस्ते में ज़मीन छीन ली और उन्हें सुनवाई तक का मौका नहीं दिया गया। कंपनी के अधिकारियों और जिलाधिकारी से फरियाद करने के बाद भी जब कोई सुनवाई नहीं हुई तो मेजा ऊर्जा निगम प्रा. लि. संयुक्त उपक्रम एनटीपीसी के विरोध में प्रभावित सातों गाँवों के किसान व मज़दूर लामबंद हुए।

किसानों व मज़दूरों ने बैठकें आयोजित की। कंपनी के खिलाफ न्याय की लड़ाई के लिये सातों गाँवों में कमेटी गठित करने के बाद अब अधिग्रहीत ज़मीन को वापस कराने के लिए आन्दोलन जारी है। उधर बारा जेपी प्लांट पॉवर व लोहगरा में ऑयल रिफायनरी प्लांट के खिलाफ प्रभावित किसान लामबंद हो गए हैं। यहां पर भी लगातार विरोध-प्रदर्शन हो रहा है।

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