इकोलॉजी यानी पारिस्थितिकी अध्ययन की संकल्पना

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इकोलॉजी और पर्यावरण आज बहुचर्चित एवं  बहु प्रचलित शब्द हैं। पर्यावरण प्रदूषण, जलवायु परिवर्तन और ओजोन क्षरण जैसी समस्याओं  ने विश्व भर में गंभीर चिंताओं को जन्म दिया है। असल में, पर्यावरण शब्द ‘परि’ और ‘आवरण’ के मेल से बना है। ‘परि’ का अर्थ होता है चारों ओर तथा ‘आवरण’ का अर्थ होता है ढका हुआ। यानी पर्यावरण वह सब कुछ है जो हमें चारों ओर से ढके हुए है। यही हमारे दिनोंदिन के जीवन को प्रभावित करता है। सरल शब्दों में कह सकते हैं कि जिस वातावरण में हम रहते हैं, जिस मिट्टी में खेलते-बढ़ते हैं, जिस हवा में सांस लेते हैं तथा जिस पानी को हम पीते हैं, प्रकृति की वह संपूर्ण व्यवस्था ही पर्यावरण है। जैसा कि सी.सी. पार्क ने 1980 में पर्यावरण की परिभाषा देते हुए कहा था, ”व्यक्ति के चारों ओर की जैविक एवं अजैविक समस्त दशाओं को ही हम पर्यावरण का नाम दे सकते हैं’।

क्या है इकोलॉजी

इकोलॉजी यानी पारिस्थितिकी का अर्थ है जीवित प्राणियों के आपसी तथा पर्यावरण के साथ उनके संबंधों का वैज्ञानिक अध्ययन। पेड़-पौधे, जंतु और सूक्ष्म जीवाणु अपने चारों ओर के पर्यावरण के साथ अन्योन्यक्रिया करते हैं। पर्यावरण के साथ मिलकर वे एक स्वतंत्र इकाई की सृष्टि करते हैं जिसे पारिस्थितिकी तंत्र या पारितंत्र (इकोसिस्टम) का नाम दिया जाता है। वन, पहाड़, मरुस्थल, सागर आदि पारितंत्रों के उदाहरण हैं। 

आज प्रदूषित पर्यावरण की बात सभी करते हैं। असल में, हमारे पर्यावरण यानी हवा, पानी, मिट्टी आदि में अनचाहे या हानिकारक तत्वों के प्रवेश को ही प्रदूषण का नाम दिया जाता है। ये हानिकारक तत्व हवा, पानी एवं मिट्टी आदि में इस तरह के हानिकारक परिवर्तन उत्पन्न करते हैं जो मनुष्यों और जीव-जंतुओं के स्वास्थ्य और सुरक्षा के लिए घातक होते हैं। प्रदूषण नाना प्रकार के होते हैं। इनमें वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, मृदा प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण, तापीय प्रदूषण, विद्युत-चुंबकीय प्रदूषण, रेडियोधर्मी प्रदूषण आदि शामिल हैं। इसके अलावा साधारण कचरे, पॉलिथीन तथा इलेक्ट्रोंनिक कचरे से भी प्रदूषण फैलता है। ये तमाम तरह के प्रदूषण पर्यावरण के संतुलन को बिगाड़ने का काम करते हैं। इस तरह पर्यावरण में उत्पन्न होने वाले असंतुलन के कारण ही आज तरह-तरह के कुप्रभाव हमें देखने को मिल रहे हैं, जैसे ओजोन क्षरण, ग्लोबल वार्मिंग, अम्ल वर्षा आदि। ग्लोबल वार्मिंग के चलते आज विश्व के सामने जलवायु परिवर्तन की समस्या आन खड़ी हुई है।

पर्यावरण इकोलॉजी का ही हिस्सा है। हमारे देश में प्राचीन काल से ही पर्यावरण संरक्षण संबंधी अवधारणा एवं जनजागरूकता रही है। हमारे सभी प्राचीन ग्रंथों में पर्यावरण के प्रति जागरूकता की बातें भरी पड़ी हैं। हमारी लोक परंपराओं और लोक गीतों में भी पर्यावरण के प्रति जागरूकता दिखाई पड़ती है। पंचतंत्र की कथाओं में भी प्रकृति की रक्षा और उसके साथ एक गहन आत्मीयता स्थापित करने के संदेश के रूप में पर्यावरण संचेतना की भावना निहित दिखाई देती है।

प्राचीन भारतीय संस्कृति में वृक्षों और नदियों की पूजा के माध्यम से उनके संरक्षण की बात जन-जन तक पहुंचाई गई है। यही कारण है कि हम तुलसी और पीपल की पूजा करते हैं तथा गंगा और यमुना जैसी नदियों की स्तुति करते हैं। हमारे वेदों, पुराणों और उपनिषदों में नदी, पर्वत, वायु, जल, सूर्य, चंद्र और पेड़-पौधों सभी को पूजनीय माना गया है। आकाश को पिता तथा धरती को माता का दर्जा दिया गया है। इसी तरह जीव-जंतुओं को देवताओं का वाहन बनाकर उनके संरक्षण का संदेश जन-जन तक पहुंचाया जाता रहा है। पर्यावरण और जीव-जंतुओं के संरक्षण की बात हमारी प्राचीन संस्कृति में रची-बसी रही है। भारत में प्राचीन संस्कृति आश्रम और अरण्य संस्कृति थी। ऋषि-मुनियों के आश्रम वन में ही हुआ करते थे। वहां अध्ययन करने वाले छात्र आश्रम के चारों और वृक्षारोपण के पुनीत कार्य को अंजाम देते थे। इस तरह प्रकृति के साहचर्य से पेड़-पौधों, जीव-जंतुओं और पर्यावरण के प्रति एक संवेदनशीलता का भाव उत्पन्न होता था।
 
इकोलॉजी और पर्यावरण को बचाने की आंतरिक संवेदना के दर्शन कला, साहित्य, नृत्य, संगीत सभी में होते हैं। इस तरह इकोलॉजी महज एक वैज्ञानिक अध्ययन मात्र न रहकर एक व्यापक रूप धारण कर लेता है। कला, साहित्य, नृत्य, संगीत आदि के साथ यह अनन्य रूप से जुड़ जाता है। आइए, इस पर बारी-बारी से विवेचना करें। 

साहित्य में इकोलॉजी 

साहित्य समाज का दर्पण है। साहित्य का केंद्र बिंदु है लोक मंगल। साहित्य का सारा ताना-बाना लोकहित के आधार पर ही खड़ा है। ‘सर्वजन हिताय’ की भावना से ही साहित्य आगे बढ़ता है। पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों और पर्यावरण के प्रति संवेदनशीलता का भाव साहित्य में स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। पर्यावरण, पशु-पक्षियों और मानव जाति पर होने वाले कीटनाशकों के खतरनाक प्रभावों ने राशेल कार्सन को हिला दिया। तभी समस्त विश्व को कीटनाशकों के नुकसानदायक प्रभावों की जानकारी देने के लिए उन्होंने ‘साइलेंट स्प्रिंग’ नामक पुस्तक लिखी। 

नदियों के अलावा आज समुद्र भी प्रदूषण का शिकार हैं। राशेल कार्सन की निगाह ठाठें मारते समुद्र की ओर भी पड़ीं। समुद्र के उद्भव एवं उसके भूवैज्ञानिक पहलुओं को लेकर उन्होंने एक पुस्तक लिखी। इस पुस्तक के अंशों को लेखमाला के रूप में प्रकाशित करने के लिए राशेल ने विभिन्न पत्रिकाओं को भेजा। लेकिन ‘नेशनल जियोग्राफिक’ समेत करीब पंद्रह पत्रिकाओं ने उनके लेखों को छापने से मना कर दिया। जब राशेल के ये लेख अमेरिका की ‘न्यूयार्कर’ पत्रिका के एडिथ ऑलिवर के पास पहुंचे तो उन्होंने तुरंत ही लेखों को स्वीकृत कर उन्हें ‘ए प्रोफाइल ऑफ द सी’ शीर्षक से प्रकाशित किया। इन लेखों पर आधारित ‘द सी अराउंड अस’ शीर्षक से एक पुस्तक जुलाई 1951 में प्रकाशित हुई। पुस्तक को कई पदक, पुरस्कार आदि भी मिले तथा एक साल के अंदर इसकी करीब दो लाख प्रतियां बिक गईं। ‘साइलेंट स्प्रिंग’ तथा ‘द सी अराउंड अस’ नामक पुस्तकों के कारण राशेल का नाम एक प्रकृतिविद् एवं पर्यावरणविद् के रूप में सदा याद रखा जाएगा।

प्रकृति और पर्यावरण के सरोकरों से कभी भी अछूता नहीं रहा है साहित्य, चाहे वह कालिदास का अभिज्ञान शाकुंतलम हो या मेघदूत या फिर जायसी का पद्मावत। प्रकृति की अराधना, उसका सौंदर्य बोध तथा प्रकृति के उपादानों का वर्णन आधुनिक काल में भी रवीन्द्र नाथ टैगोर से लेकर निराला तक के काव्य में देखने को मिलता है। सुमित्रानंदन पंत को तो ‘प्रकृति का सुकुमार कवि’ ही कहा गया है। विद्यापति के काव्य में भी प्रकृति के चित्राण का बाहुल्य देखने को मिलता है। नीचे की पंक्तियों पर गौर करें:

नव नव विकसित फूल
नवल बसंत नवल मलयानिक 
मातल नव अलिकूल 

सचमुच जब सब कुछ ‘नव’ अथवा नवल है तो प्रकृति की छटा में कोई दोष होने का प्रश्न ही नहीं उठता। सब कुछ स्वच्छ, स्निग्ध एवं सुवासमय है। प्रकृति का ऐसा ही परिवेश मानव मन को सुकून दिया करता है। साहित्य में प्रकृति और इकोलॉजी के वर्णन तथा पर्यावरण के सरोकारों की बात चल रही है तो कुछ समकालीन चर्चा भी समीचीन होगी। इकोलॉजी और पर्यावरण को होने वाले नुकसान के प्रति हमें अभी से ही सावधान और जागरूक होना होगा अन्यथा महाविनाश और प्रलय के सिवा और कुछ भी मानव जाति के हाथ नहीं आएगा। इसी को प्रतिबिंबित करता तेलंगाना प्रांत के एक कवि का स्वर मुखरित हो उठता है -

इस नहर का पानी पीने वाली ओ मेरी मैना
नहर सूख जाने पर जिरह क्यों करती है रे!

यह धरती, हवा, पानी सभी आज प्रदूषण की चपेट में हैं। और कुछ नहीं तो आने वाली पीढ़ियों के लिए इनको बचाना जरूरी है। ऐसे में प्रदूषणरहित धरती और स्वच्छ हवा-पानी की मांग करना क्या गलत है? इसी तेवर को निम्न पंक्तियों में देखिए:

अब मुझे अपनी धरती चाहिए, 
मुझे अपनी हवा चाहिए
मुझे अपना पानी चाहिए, 

विज्ञान कथाओं में इकोलॉजी 

विशुद्ध साहित्य के अलावा विज्ञान कथा साहित्य में भी इकोलॉजी और पर्यावरण के सरोकारों की बात उठाई जाती है। इन कथाओं में यह बात उठाई जाती है कि अगर धरती का तापमान इसी तरह बढ़ता रहा तो एक दिन इसका हाल भी शुक्र ग्रह जैसा हो जाएगा। इन कथाओं में यह चिंता भी उठाई जाती है कि अगर धरती पर प्रदूषण इसी तरह बढ़ता रहा तो एक दिन वायु इतनी प्रदूषित हो जाएगी कि हमें सांस लेने के लिए मास्क पहनने पड़ेंगे। 

ग्लोबल वार्मिंग के कारण महाप्रलय होने का चित्राण भी कुछ विज्ञान कथाओं में किया जाता है। भविष्य में जमीन के नीचे बस्तियां बसाए जाने की बात भी कुछ विज्ञान कथाओं में की जाती है। अगर धरती पर इसी तरह जनंसख्या बढ़ती रही तो एक दिन यह धरती हम सबके लिए छोटी पड़ जाएगी। ऐसी हालत में हमें दूसरे ग्रहों पर जाकर बसना पड़ सकता है। स्टीफेन हॉकिंग जैसे वैज्ञानिक ऐसे भविष्यपरक बातों से हमें अवगत और सचेत करते रहते हैं। विज्ञान कथा साहित्य में भी परग्रहों और चांद पर बस्तियां बसाए जाने की कल्पना की जाती है। 

जैसा कि हम पहले उल्लेख कर चुके हैं इकोलॉजी और पर्यावरण के लिए सरोकार उनके प्रति संवेदना में ही उत्पन्न होते हैं। कोई भी संवेदनशील व्यक्ति, चाहे वह साहित्यकार हो, संगीतज्ञ हो, फिल्मकार हो या चित्रकार, इकोलॉजी और पर्यावरण के प्रति सरोकारों को अपने साहित्य, संगीत या कृतियों द्वारा उजागर कर सकता है। इस तरह के साहित्य, संगीत, कला कृति या फिल्म का उद्देश्य लोगों के अंदर इकोलॉजी और पर्यावरण के प्रति जागरूकता उत्पन्न करना होता है। यह जागरूकता पैदा होने के बाद ही लोगों के अंदर इकोलॉजी और पर्यावरण के लिए संवेदना उत्पन्न की जा सकती है। इस तरह साहित्य, संगीत, कला, फिल्म आदि मानव संवेदना के सम्प्रेषण के महज माध्यम हैं। पेड़-पौधों और जीव-जंतुओं के प्रति दया भाव और संवेदना से ही ‘चिपको’ और ‘अपिक्को’ जैसे आंदोलन जन्म लेते हैं।

बांधों के पर्यावरण पर पड़ने वाले संभावित प्रभाव का मुद्दा भी अति महत्वपूर्ण है। दरअसल, औद्योगीकरण, जनसंख्या वृद्धि और भौतिकतावादी विकास की अंधी दौड़ ही इकोलॉजी और पर्यावरण के बिगड़ते संतुलन के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार हैं। विकास से किसे इन्कार हो सकता है। लेकिन ध्यान देने की बात यह है कि विकास के साथ-साथपर्यावरण की रक्षा भी तो आवश्यक है। इस तरह के विकास को पर्यावरणविद्, अर्थशास्त्री तथा नीति निर्धारक सतत या धारणीय विकास (सस्टेनेबिल डेवलपमेंट) का नाम देते हैं। अतः विकास और पर्यावरण के बीच तालमेल बहुत जरूरी है। साहित्य, कला, संगीत, फिल्म द्वारा इकोलॉजी और पर्यावरण के प्रति संवेदना का सम्प्रेषण होता है जिसका उद्देश्य लोगों में जागरूकता उत्पन्न करना होता है ताकि वे भी संवेदनशील बनें। इकोलॉजी और पर्यावरण के प्रति जागरूकता फैलाने में मीडिया की भी महत्वपूर्ण भूमिका है। चाहे प्रिंट मीडिया हो या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, दोनों अपनी-अपनी तरह से इस कार्य को अंजाम दे रहे हैं। 

मीडिया और इकोलॉजी 

सन् 1984 में भोपाल में हुए त्रासदायक गैस कांड की खबर मीडिया ने ही लोगों तक पहुंचाई थी। भोपाल की उस भयानक रात को आज भी जब कोई याद करता है तो उसके रोंगटे खड़े हो जाते हैं, दहशत से उसका खून सूखने लगता है। मिथाइल आइसोसायनेट या मिक गैस (जिसका रासायनिक सूत्र CH3NO है) के रिसाव ने सैंकड़ों-हजारों लोगों की जान ले ली थी, हजारों को विकलांग कर दिया था और जनजीवन को घोर संकट में डाल दिया था। आज भी आशंका बनी रहती है कि पता नहीं कब दूसरा भोपाल कांड हो जाए। दरअसल, जिन्न जब तक बोतल में बंद रहता है तब तक ही गनीमत रहती है। बोतल से बाहर निकल कर जिन्न तबाही ही मचाएगा। यह बात परमाणु रिएक्टरों के लिए भी लागू है। रेडियोधर्मी विकिरण न केवल लाखों लोगों की जान ले सकता है बल्कि उनके आनुवंशिक पदार्थ डीएनए में उत्परिवर्तन लाकर उनमें आनुवंशिक विकृतियां भी उत्पन्न कर सकता है। विकिरण के असर से लोगों में तरह-तरह के कैंसर भी पैदा हो सकते हैं। अतः ये खतरनाक रसायन और विकिरण बोतल में बंद जिन्न की तरह हैं जो बाहर निकलने पर अत्यधिक तबाही मचा सकते हैं। अमेरिका की ‘थ्री माइल आइलैंड’ परमाणु दुर्घटना हो या 1986 में तत्कालीन सोवियत संघ के अंतर्गत आने वाले यूक्रेन की चेर्नोबिल दुर्घटना हो - इनसे फैलने वाला रेडियोधर्मी विकिरण इकोलॉजी और पर्यावरण के लिए अति विनाशकारी होता है। चेर्नोबिल दुर्घटना 26 अप्रैल 1986 को घटित हुई थी। दरअसल परमाणु रिएक्टर में विस्फोट हो जाने से उसमें आग लग गई थी जो दस दिन तक जलती रही। इस आग से निकलने वाले धुएं से बड़ी मात्रा में रेडियोधर्मी तत्व तत्कालीन सोवियत संघ के दक्षिण भाग और समीप के यूरोपीय देशों के वातावरण में जा फैले थे। 

11 मार्च 2011 को जापान के फुकुशिमा दायची परमाणु ऊर्जा संयंत्रा के एक रिएक्टर से रिसाव की खबरें मीडिया में छाने लगीं। देखते-देखते यह रिएक्टर पूरी तरह से ध्वस्त हो गया। केवल इतना ही नहीं, बल्कि कुछ दूसरे रिएक्टरों से भी रेडियोधर्मी तत्वों का रिसाव होने लगा। जापान में हुई इस परमाणु दुर्घटना के कारण दुनिया भर में परमाणु ऊर्जा की सुरक्षा को लेकर एक बार फिर से सवाल उठने लगे। 12 सितम्बर 2011 को दक्षिणी फ्रांस के मार्कोल नाभिकीय पुनर्सन्साधन संयंत्र में विस्फोट हुआ।इस विस्फोट से एक व्यक्ति की मृत्यु हुई और चार गंभीर रूप से घायल हुए। इस तरह की दुर्घटनाएं परमाणु ऊर्जा को लेकर सवालिया निशान खड़ा करती हैं। 

जापान में हुई परमाणु दुर्घटना के बाद भारत में परमाणु संयंत्रों की सुरक्षा व्यवस्था को लेकर नए सिरे से सवाल उठ रहे हैं। भारत के परमाणु संयंत्रों को अधिक निरापद बनाने के लिए नए उपायों का सहारा लेने की बात सरकार ने  कही है। निश्चित तौर पर एक सार्वजनिक राय बनाने में इसमें मीडिया की बहुत बड़ी भूमिका है। 

बोतलबंद पानी में अनुमत स्तर से अधिक कीटनाशकों के पाए जाने की खबर भी मीडिया ने लोगों तक पहुंचाई थी। इस तरह इकोलॉजी और पर्यावरण के सरकारों को लोगों तक पहुंचाने में मीडिया की भी सकारात्मक भूमिका है। जलवायु परिवर्तन के कारण हिमनदों का पिघलना हो, कैनकून समझौता हो या नवंबर-दिसम्बर, 2011 में डरबन में आयोजित जलवायु परिवर्तन पर सम्मेलन की बात हो, मीडिया के माध्यम से ही लोगों तक इन सबकी जानकारी पहुंचती है। 

मीडिया की भूमिका के बाद आइए अब चित्रकार और संगीतज्ञ की भूमिका की चर्चा की जाए। एक चित्राकार अपने कैनवास पर प्रकृति के अनेक रूपों को उकेरता है। मूर्त रूप से वह ग्लोबल वार्मिंग, ज्वालामुखी के फटने तथा सुनामी आदि को भी अपने कैनवास पर चित्रित करता है। इस तरह चित्रकला प्रेमियों तक इकोलॉजी और पर्यावरण के प्रति संवेदना का भाव पहुंचा कर उनमें जाने-अनजाने जागरूकता उत्पन्न करने का वह कार्य करता है। इससे कलाप्रेमियों में इकोलॉजी और पर्यावरण के प्रति संवेदनशीलता का बीज वपन होता है। संगीतज्ञ के लिए भी यही बात लागू होती है क्योंकि कोई भी ललित कला अपने अंदर संवेदनशीलता लिए होती है। 

आजकल इको-फ्रेंडली, इको टूरिज्म आदि की बात भी की जा रही है। इको-फ्रेंडली का अर्थ है  पर्यावरण अनुकूल या पर्यावरण सम्मत यानी जो इकोलॉजी और पर्यावरण के लिए हितकारी हो उसे हम इको-फ्रेंडली कह सकते हैं। इको-फ्रेंडली को ‘ग्रीन’ भी कहा जाता है। जैसे इको-फ्रेंडली बिल्डिंग यानी ग्रीन बिल्डिंग, इको-फ्रेंडली टेक्नोलॉजी यानी ग्रीन टेक्नोलॉजी, इको-फ्रेंडली केमिस्ट्री यानी ग्रीन केमिस्ट्री आदि। ‘ग्रीन’ प्रकृति की हरितमा या हरियाली का सूचक है। तभी तो पेड़-पौधों को पर्यावरण की आत्मा माना जाता है, वनों को प्रकृति का श्रृंगार माना जाता है।

पेड़-पौधे कार्बन डाइऑक्साइड को सोखकर ऑक्सीजन छोड़ते हैं। लेकिन औद्योगीकरण और शहरीकरण के चलते वृक्ष धड़ाधड़ कट रहे हैं और वन उजड़ रहे हैं। पर्यावरण को बचाने के लिए प्रकृति के हरित आवरण (ग्रीन कवर) यानी वृक्षों को बचाना बहुत आवश्यक है। इसके साथ ही वृक्षारोपण भी किए जाने की महती आवश्यकता है। वन महोत्सव नए वृक्षों को लगाने का उत्सव है। इस तरह की संस्कृति को बढ़ावा मिलना चाहिए।

इको टूरिज्म इको टूरिज्म का अर्थ है ऐसा पर्यटन जो पर्यावरण हितकारी हो। यानी पर्यटन वाले स्थान में कम से कम
पर्यावरण का नुकसान हो तथा पॉलिथीन आदि कचरे की भी कम से कम सृष्टि हो। इको-टूरिज्म शब्द का प्रयोग पहले-पहल मैक्सिकोवासी इंजीनियर एवं पर्यावरणविद् हेक्टर सेबेलॉस-लेस्कुरेन ने 1983 में किया था।  पर्यटन उद्योग की यह नई संकल्पना अब विकसित देशों के अलावा विकासशील देशों में भी लोकप्रिय हो रही है।

इको-म्यूजिक

इको-टूरिज्म की तर्ज पर इको-म्यूजिक की संकल्पना भी विकसित की जा सकती है। कर्णप्रिय संगीत को ही हम इको-संगीत कह सकते हैं। कानफाड़ू रॉक आदि संगीत को इको-संगीत की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता क्योंकि इस तरह के संगीत से ध्वनि प्रदूषण उत्पन्न होता है। रॉक म्यूजिक सुनते रहने से व्यक्ति बहरा भी हो सकता है और इससे उसका केंद्रीय तंत्रिका तंत्र (सेंटंल नवर्स सिस्टम) भी प्रभावित हो सकता है। नतीजतन व्यक्ति चिड़चिड़ा भी हो सकता है। अद्यतन शोधों द्वारा यह सामने आया है कि कानफाड़ू या तेज संगीत सुनने से व्यक्ति अवसाद का भी शिकार हो सकता है। ऐसा व्यक्ति आत्महत्या की प्रवृत्ति से भी ग्रसित हो सकता है। अतः संगीत में भी इको-संगीत ही मन-मस्तिष्क को सुकून दे सकता है। 

ग्रीन केमिस्ट्री 

पिछले कुछ वर्षों से ग्रीन केमिस्ट्री यानी हरित रसायन विज्ञान की संकल्पना उभर कर आई है। ‘ग्रीन केमिस्टीं’ शब्द को, पहले-पहल डॉ. पॉल एनास्टास ने 1991 में गढ़ा था। जॉन सी वार्नर के साथ मिलकर एनास्टास ने ‘ग्रीन केमिस्ट्री: थ्योरी एंड प्रैक्टिस’ शीर्षक पुस्तक लिखी है। इस पुस्तक में हरित रसायन विज्ञान के बारह सिद्धांतों को शामिल किया गया है। दरअसल, हरित रसायन विज्ञान का लक्ष्य पर्यावरण प्रदूषण को कम करने के साथ-साथ आम लोगों पर उससे होने वाले हानिकारक प्रभावों को भी कम करता है। हानिकारक रसायनों के विकल्प ढूंढ़े जाना भी ग्रीन केमिस्ट्री की संकल्पना में शामिल है जैसे, पेंट में आविषालु यानी टॉक्सिक लेड की जगह पर निराविष यानी नॉन-टॉक्सिक टाइरेनियम का उपयोग किया जाना। जीवाश्म ईंधनों की जगह जैव ईंधन का प्रयोग, रासायनिक रंगों की जगह प्राकृतिक फूलों के रंगों का प्रयोग ऐसे ही कुछ अन्य विकल्प हैं। हरित रसायन विज्ञान के अंतर्गत बनने वाले उत्पाद उपयोगी होने चाहिए यानी अनुपयोगी पदार्थ या तो बने ही न या फिर वे इतनी कम मात्रा में हों कि उनसे पर्यावरण कम से कम प्रदूषण हो। इस तरह हम देखते हैं कि इकोलॉजी की संकल्पना अति विस्तृत है। हमारी इस धरती को हरा-भरा और प्रदूषण रहित रखने में इकोलॉजी की व्यापकता को हमें समझना होगा। हमारी सोच, विचारधारा और क्रियाकलापों सभी का इकोलॉजी के साथ हमें तालमेल बिठाना होगा। यानी इको-थिंकिंग, इको-आइडियोलॉजी, इको-एक्शनप्लान आदि को हमें बढ़ावा देना होगा। दरअसल, संपूर्ण विश्व को हमें एक इकाई मानकर ही चलना होगा। इसके लिए हम सभी को एक समग्र दृष्टि विकसित करनी होगी यानी ‘बसुधैव कुटुम्बकम्’ की भावना मन में जगानी होगी।

संपर्क सूत्र: डा. प्रदीप कुमार मुखर्जी, 43, देशबंध सोसाइटी, 15, पटपड़गंज, दिल्ली-110 092

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Post By: Kesar Singh
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