भारत में खेती-किसानी लगातार घाटे का सौदा साबित हो रही है। कर्ज और गरीबी से तंग होकर पिछले छह साल में छियासठ हजार से ज्यादा किसान अधिकृत तौर पर आत्महत्या कर चुके हैं। बावन फीसद किसान अब भी कर्ज में डूबे हैं और बदहाली का जीवन जी रहे हैं। ऐसे में सरकार की क्या जिम्मेदारी बनती है? जायजा ले रहे हैं रविशंकर।
बीज और खाद वगैरह के नाम पर छिटपुट सब्सिडी और कृषि ऋण के अलावा किसानों के लिए आज ऐसी कोई सरकारी सुविधा नहीं है जहाँ अतिवर्षा, सूखा या दूसरी प्राकृतिक आपदाओं की वजह से तबाह हो गई फसल की भरपाई हो पाए। संकर (हाइब्रिड) फसलों के नाम पर किसानों के सामने महँगे बीज का संकट उनकी पारम्परिक किसानी की राह का बहुत बड़ा रोड़ा है। किसानों के सामने इधर खाई-उधर खन्दक जैसा संकट है। एक ऐसे देश में यहाँ साठ फीसद से अधिक आबादी खेती-किसानी पर निर्भर हो, क्या यह सोचा जा सकता है कि उस देश की हुक़ूमत इतनी क्रूर और गैर जिम्मेदार हो जो अपने ही किसानों को खुदकुशी करने के लिए छोड़ दे। लेकिन, दुनिया के महान लोकतन्त्र भारत में यही हो रहा है। बीते छह सालों में छियासठ हजार से अधिक किसान अधिकृत तौर पर खुदकुशी कर चुके हैं, जबकि गैरसरकारी आँकड़ा इससे कहीं ज्यादा है। क्या मरते हुए किसानों के बारे में इसी तरह विचार करना चाहिए मानों कुआँ खोदने और खड़ंजा लगाने के फैसले हो रहे हों?
भारत जैसे कृषि प्रधान देश में जब किसान ने केवल बदहाली का जीवन जीने को मजबूर हो, बल्कि आत्महत्या जैसा भयावह कदम उठाने तक को मजबूर हो तो देश के विकास का सपना बेमानी लगने लगता है। दरअसल, देश में किसान की बदहाली को बयान करता राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन का एक सर्वे सामने आया है।
इस ताजा सर्वे के अनुसार देश के किसानों की हालत बदतर होती जा रही है और लोगों का खेतीबाड़ी से रुझान घट रहा है। यह सर्वे देश में अन्न की पैदावार पर सवालिया निशान लगा रहा है कि अगर इस कदर चलता रहा तो आने वाले समय में देश में कृषि उत्पादन न के बराबर न रह जाएँ। इसका एक कारण सरकार द्वारा किसानों की सुध न लेना और दूसरा गाँवों में विकास कार्य न होना है।
कृषि मन्त्रालय और राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो सत्तरवीं रिपोर्ट (एनएसएसओ) के नए आँकड़े बताते हैं कि खेती-किसानी के कारण कर्ज के जाल में फँसे किसान न सिर्फ बदहाली का जीवन जी रहे हैं बल्कि आत्मघाती कदम भी उठा रहे हैं। आँकड़ों के मुताबिक 2009 में सत्रह हजार, 2010 में साढ़े पन्द्रह हजार, 2011 में चौदह हजार और 2013 में साढ़े ग्यारह हजार से अधिक किसानों ने कृषि क्षेत्र की तमाम् समस्याओं की वजह से आत्महत्या की राह चुनी, जबकि सरकारी आँकड़ों के मुताबिक कृषि सम्बन्धी समस्याओं के चलते इस साल आठ सौ से अधिक किसानों के आत्महत्या की सूचना है और ऐसे मामलों की ज्यादातर खबरें महाराष्ट्र से हैं।
राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण की ताजा रिपोर्ट यह भी बताती है कि देश के नौ करोड़ किसान परिवारों में से बावन फीसद कर्ज में डूबे हैं और हर किसान पर औसतन सैंतालीस हजार रुपए का कर्ज है। देश के लगभग चौवालीस फीसद किसानों के पास मनरेगा का जॉब कार्ड है लेकिन जिन लोगों को इसकी सबसे अधिक जरूरत है यानी जिनके पास 0.01 हेक्टेयर से भी कम जमीन है, उनमें केवल अड़तीस प्रतिशत लोगों के पास ही कार्ड है।
सबसे बुरी बात यह है कि इन अत्यन्त कम जमीन वाले परिवारों में से तेरह फीसद के पास तो राशन कार्ड तक नहीं है और वे सब्सिडी आधारित खाद्यान्न तक नहीं ले सकते। देश का अन्नदाता किसान अगर अपने जीवनयापन के लिए मनरेगा और बीपीएल कार्ड की बाट जोहता दिखे तो भारत जैसे कृषि प्रधान देश के लिए यह स्थिति शर्मनाक और विडम्बना से भरी है।
एनएसएसओ ने सर्वे में इस बात का भी जिक्र किया है कि बहुत कम किसान हैं जिन्हें सरकार द्वारा दिए जाने वाले न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की जानकारी है। भारत में पिछले तीन साल से एमएसपी प्रति क्विंटल महज् पचास रुपए बढ़ाया गया है। यह किसानों को दिए जाने वाले प्रति क्विंटल न्यूनतम समर्थन मूल्य का महज तीन फीसद है।
यह बात लम्बे समय से उठ रही है कि हमारे देश में अब कृषि की औसत जो इतनी कम हो गई है कि इससे भरण-पोषण नहीं हो सकता। हालांकि, सरकारी कर्मचारियों के वेतन में महँगाई भत्ता ही 107 फीसद हो गया है। छठा वेतन आयोग आया, अब सातवें वेतन आयोग की तैयारी है।
लेकिन सत्तरवें राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के अनुसार लगभग नब्बे प्रतिशत किसानों के पास दो हेक्टेयर से भी कम भूमि है। अगर यही स्थिति रही तो हालात बद-से-बदतर होते जाएँगे। इस स्थिति से निकलने के लिए सरकार को कृषि निर्भर आबादी का अनुपात कम करने के साथ ही उत्पादन बढ़ाना चाहिए। कृषि निर्भर आबादी का अनुपात कम करने के लिए सबसे जरूरी बात यह होगी कि वर्तमान में कृषि पर निर्भर इन लोगों को वैकल्पिक और पूरक रोजगार उपलब्ध कराया जाए।
यह तभी सम्भव है जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में उद्योग-धन्धे हों। सरकारें कृषि का ढोल तो बहुत पीटती हैं पर उसकी बेहतरी के लिए जो उनके वश में है वह भी नहीं करती। भारत में कुल 1440 लाख हेक्टेयर क्षेत्र पर खेती होती है। इसमें 60 प्रतिशत क्षेत्र ऐसा है जो अब भी सिंचाई के लिए वर्षा पर आधारित है।
सरकार को सबसे पहले सिंचाई सुविधा उपलब्ध कराने की दिशा में प्रयास करना चाहिए। यह किया जाए तो कृषि और उद्योग दोनों का भला होगा। सरकार को अपनी विपणन और वितरण प्रणाली को सुधारना और नई तकनीक, शोधों और जानकारियों को किसानों तक पहुँचाना होगा, ताकि किसानों का ध्यान अधिक-से-अधिक कृषि करने में लगाया जा सके।
माना तो यही जा रहा है कि सरकार की तमाम कोशिशों और दावों के बावजूद देश के किसानों की हालत में कोई सुधार नहीं दिख रहा है। उनकी इस बदहाली के पीछे सीधे तौर पर सरकार की नीतियाँ ही जिम्मेदार हैं, जहाँ कृषि को कभी भी देश के विकास की मुख्यधारा का मानक समझा ही नहीं गया। उलटे उनकी खेती योग्य भूमि को तमाम् तरह की विकास योजनाओं के नाम पर औने-पौने दामों में खरीदकर उन्हें दर-दर की ठोकर खाने को मजबूर किया जाता रहा है।
बीज और खाद वगैरह के नाम पर छिटपुट सब्सिडी और कृषि ऋण के अलावा किसानों के लिए आज ऐसी कोई सरकारी सुविधा नहीं है जहाँ अतिवर्षा, सूखा या दूसरी प्राकृतिक आपदाओं की वजह से तबाह हो गई फसल की भरपाई हो पाए। संकर (हाइब्रिड) फसलों के नाम पर किसानों के सामने महँगे बीज का संकट उनकी पारम्परिक किसानी की राह का बहुत बड़ा रोड़ा है। किसानों के सामने इधर खाई-उधर खन्दक जैसा संकट है।
प्राकृतिक आपदा या अन्य किसी कारण से फसल बर्बाद हो गई तो खेती के लिए लिया गया कर्ज न चुका पाने के कारण रोटी के भी लाले पड़ जाते हैं और निराशा आत्महत्या तक ले जाती है, लेकिन जरूरत से ज्यादा उत्पादन भी आफत ही होता है, क्योंकि उसे उसकी फसल का उचित मूल्य नहीं मिल पाता है और उसे उन्हें औने-पौने दामों में बेचना पड़ता है। अगर किसान का उत्पादन अधिक हो जाए तो भी सरकार अफना हाथ खींच लेती है और कम रहे तो भी।
गौरतलब है कि भारत में तकरीबन साठ फीसद आबादी कृषि से जुड़ी है। फिर भी यह रिपोर्ट बताती है कि सरकार द्वारा किसानों की आय बढ़ाने के लिए तमाम् योजनाएँ चलाए जाने के बावजूद उनकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं हो पाई। यकीनन सर्वेक्षण ने बहुत लोगों को नहीं चौंकाया है क्योंकि किसानों की खराब आर्थिक स्थिति के बारे में इसके द्वारा पुष्ट हुई कुछ बातें पहले से लोगों के जेहन में थीं। ये आँकड़ें सरकार द्वारा कृषि विकास और समाज कल्याण के लिए तैयार की गई योजनाओं के क्रियान्वयन सम्बन्धी चूक उजागर करते हैं।
कृषि जिंसों की ऊँची कीमत ने पिछले कुछ सालों में खाद्य महँगाई को दो अंकों में बनाए रखा लेकिन किसानों को इससे कोई खास फायदा नहीं मिला। ऐसा शायद इसलिए क्योंकि सरकार की न्यूनतम समर्थन मूल्य और सरकारी खरीद प्रक्रिया में भारी खामियाँ हैं। न केवल एमएसपी और सरकारी खरीद को लेकर जागरुकता की कमी है बल्कि इनके बारे में जानकारी रखने वाले किसान भी अपनी उपज सरकारी एजेंसियों को नहीं बेच पाते हैं। 2000 के दशक के मध्य में राष्ट्रीय किसान आयोग ने कहा था कि देश के किसान सरकारी कार्यालयों के चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों की तुलना में भी कम कमाते हैं।
भारतीय कृषि मानसून पर निर्भर है। इसी कारण भारतीय कृषि को ‘मानसून का जुआ’ कहा गया है। अब भी कुल कृषि योग्य भूमि के 41 प्रतिशत ही सिंचित है। मानसून पर इतनी अधिक निर्भरता का प्रभाव यह होता है कि देश के अधिकांश भाग की कृषि प्रकृति की दया पर निर्भर है। भारत में बीते 130 साल में 60 फीसद सूखे की घटनाएँ एल नीनो से कहीं-न-कहीं जुड़ी हुई हैं। अगर मानसून सहीं वक्त पर और सही मात्रा में आ जाता है तो कृषि उत्पादन भी ठीक होता है जिससे देश में खाद्यान्नों की आवश्यकता की पूर्ति हो जाती है और उद्योगों को भी पर्याप्त कच्चा माल मिल जाता है।हालांकि, सरकार मानती है कि बीज, खाद, सिंचाई से लेकर मजदूरी तक महँगी हुई है। खेत से मण्डी तक के बीच बिचौलियों की भूमिका बढ़ी है। मण्डी से गोदाम तक के बीच जमाखोरों की तादाद बढ़ी है तो फिर सरकार करे क्या? क्योंकि मजूदा वक्त में देश में आठ करोड़ किसान हैं तो पच्चीस करोड़ खेत मजदूर है। यानी सरकार के सिर्फ समर्थन मूल्य से काम नहीं चलेगा बल्कि खेती में सरकार को निवेश करना होगा।
और देश का आलम यह है कि चौथी से बारहवीं पंचवर्षीय योजना में राष्ट्रीय आय का 1.3 फीसदी से भी कम कृषि में निवेश हुआ। यानी जिस देश की बासठ फीसद आबादी खेती पर आश्रित हो, पचास से बावन फीसद मजदूर खेत से जुड़े हों, वहाँ सिर्फ 1.3 फीसद खर्च से सरकार किसानों का क्या भला कर सकती है। उसका भी अन्दरूनी सच यही है कि निजी निवेश को इसमें से निकाल दें तो राष्ट्रीय आय का सरकार सिर्फ 0.3 फीसद निवेश कर रही है। यानी देश में जो भी हो रहा है वह किसान अपनी बदौलत कर रहा है।
2011 की जनगणना के अनुसार देश की 58.2 प्रतिशत आबादी खेती पर निर्भर थी, जबकि सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का योगदान महज 14.1 प्रतिशत था। इसका यह भी अर्थ है कि आधी से अधिक जनसंख्या की आमदनी बहुत कम है, इतनी कम की दो जून की रोटी का जुगाड़ करना भी कठिन होता है। दूसरी तरफ शहरों में रहने वाले चन्द लोगों ने सारी आय और सम्पत्ति पर कब्जा जमा रखा है। कहने को सरकार ने गरीब जनता के फायदे के लिए अनेक कल्याणकारी योजनाएँ चला रखी हैं।
खाद्य, खाद, ऊर्जा, शिक्षा और स्वास्थ्य पर हर साल अरबों रुपए खर्च किए जाते हैं, लेकिन इसमें भी बन्दरबाँट है। पिछले एक दशक में सरकार ने जनकल्याणकारी योजनाओं को एक सौ दस खरब रुपए की सब्सिडी दी। अकेले ईंधन पर 2013 में 1.30 लाख करोड़ रुपए की सब्सिडी दी गई। लेकिन सम्पन्न बीस फीसद तबके को गरीब बीस प्रतिशत आबादी के मुकाबले छह गुना ज्यादा सब्सिडी मिली। सरकार एक लीटर डीजल पर नौ रुपए की देती है, लेकिन इस सस्ते डीजल की चालीस प्रतिशत खपत महँगी निजी कारों, उद्योगों, जेनरेटरों वगैरह में होता है। गरीब किसान के हिस्से बहुत कम डीजल आता है।
सब्सिडी में भारी भ्रष्टाचार है। इसलिए माना जाता है कि इसके एक रुपए में से लगभग दस पैसे ही जरूरतमन्द गरीब जनता तक पहुँच पाते हैं।
पिछले डेढ़-दो दशक में जो भी सरकारें बनी, उसने कृषि क्षेत्र की उपेक्षा की। बेशक कृषि क्षेत्र के लिए कई परियोजनाएँ शुरू की गईं, लेकिन उसका क्रियान्वयन ठीक ढंग से नहीं किया गया। राष्ट्रीय कृषि विकास योजना, राष्ट्रीय खाद्यन्न सुरक्षा मिशन, राष्ट्रीय बागवानी मिशन जैसी कई योजनाएँ चल रही हैं। इसके अलावा भारत निर्माण, त्वरित सिंचाई लाभ कार्यक्रम, वर्षा आधारित क्षेत्र विकास कार्यक्रम के तहत् काफी क्षेत्रों को सिंचित करने का प्रस्ताव भी है, लेकिन सही तरीके से क्रियान्वयन न होने की वजह से इसका अपेक्षित लाभ नहीं मिल पा रहा है। अक्सर यह बात कही जाता है कि हमारी अर्थव्यवस्था सबसे चमकदार अर्थव्यवस्थाओं में एक है। लेकिन चमकदार अर्थव्यवस्था में इस दाग को सरकार नहीं मिटा पाती कि दुनिया में सबसे अदिक कुपोषण से मरने वाले बच्चों की संख्या भारत में ही है। यह एक सच्चाई है जिसे कोई सरकार स्वीकार करना नहीं चाहेगी।
भले, ऊँची विकास दर अर्थव्यवस्था की गतिशीलता का पैमाना हो, मगर खाद्य असुरक्षा को लेकर कृषि प्रधान देश की ऐसी दुर्दशा निश्चित ही गम्भीर बात है। वहीं भारत की आबादी एक अरब पच्चीस करोड़ से ऊपर जा चुकी है। ‘द मिलेनियम प्रोजेक्ट’ की रिपोर्ट में कहा गया है कि 2020 में भारत की आबादी लगभग एक अरब तैंतीस करोड़ और 2040 तक एक अरब सत्तावन करोड़ हो जाएगी। ऐसे में, सभी लोगों को भोजन मुहैया करना एक बड़ी चुनौती होगी।
हकीकत यह है कि अगर इस देश में सभी लोग दो जून भरपेट भोजन करने लगें तो देश में अनाज की भारी किल्लत पैदा हो जाएगी। भुखमरी की यह तस्वीर कृषि संकट का ही एक चेहरा है। असल में कृषि क्षेत्र जिस घोर संकट में फँसा हुआ है, उसका एक बड़ा कारण किसानों की आत्महत्याओं में दिखाई पड़ रहा है।
केन्द्र में राजग सरकार को सत्ता पर आसीन हुए अभी आठ महीने ही हुए हैं। नीतिगत परिवर्तन के लिए यह अवधि शायद पर्याप्त नहीं कही जा सकती। लेकिन कृषि प्रधान देश भारत में कृषि और किसान कितनी मुश्किलों से गुजर रहे हैं, यह जानने के लिए तो किसी अध्ययन या शोध की जरूरत सरकार को नहीं होनी चाहिए।
बरसों से देश के विभिन्न हिस्सों से किसानों के आत्महत्या करने की खबरें आ रही हैं तो तेजी से खेती से विमुख हो रहे लोगों की संख्या भी लगातार बढ़ रही है। खासकर तब, एक और हरित क्रान्ति पर जोर दिया जा रहा हो। अगर भारत राष्ट्रीय कृषि और किसान को गहरे संकट से उबारना है तो कुछ बड़े और कड़े फैसले सरकार को करने पड़ेंगे। भले पिछले दशक में कृषि क्षेत्र के लिए ऋण में चाहे जितना इजाफा किया गया हो लेकिन आज भी छोटे और सीमान्त किसान अपनी जरूरतों की पूर्ति के लिए सेठ-साहूकारों की ही मदद लेते हैं।
ऐसा लगता है कि बैंकों की ऋण सुविधाओं का अधिकतर लाभ वही किसान उठा रहे हैं जो कर्ज चुकाने की स्थिति में हैं। अगर किसानों को खेती से लाभ दिलाने के लिए दीर्घकालिक उपायों पर गम्भीरता से विचार नहीं किया गया तो स्थिति और विस्फोटक हो सकती है। सम्भव है कि किसान रोजी-रोटी के लिए अन्य क्षेत्रों की ओर रुख कर जाएँ। ऐसे में हमें गम्भीर खाद्यान्न संकट का भी सामना करना पड़ सकता है। जरूरत है इसकी महत्ता को कागजों से निकाल कर किसानों के बीच ले जाने की।
साफ है, लागत खर्च बढ़ने से देश के किसानों की स्थिति दिन-ब-दिन बदतर होती जा रही है। यहाँ तक कि उन्हें अपनी फसल का उचित मूल्य नहीं मिल पा रहा है। यही वजह है कि अब किसानों के लिए खेती लाभप्रद व्यवसाय नहीं रह गई है और खेती से मोहभंग के कारण वे लगातार रोजगार के वैकल्पिक उपायों को अपना रहे हैं।
अगर किसानों और कृषि के प्रति यही बेरुखी रही, तो वह दिन दूर नहीं, जब हम खाद्य असुरक्षा की तरफ तेजी से बढ़ जाएँगे। जोकि देश की खाद्य सुरक्षा के लिए खतरे का संकेत है। खाद्य पदार्थों की लगातार बढ़ती कीमत हमारे लिए खतरे की घण्टी हैं।
आयातित अनाज के भरोसे खाद्य सुरक्षा की गारण्टी नहीं दी जा सकती। इस देश के किसानों को आर्थिक उदारवाद के समर्थकों की सहानुभूति की जरूरत नहीं है। अगर देश की हालत सुधारनी है और गरीबी मिटानी है तो कृषि क्षेत्र की हालत सुधारना सबसे जरूरी है। देश की आधी से अधिक आबादी की स्थिति सुधारे बिना देश का विकास नहीं हो सकता है।
देश की जीडीपी में कृषि का योगदान 13.6 फीसद है। कृषि उद्योग भारत की अधिकांश जनता को रोजगार मुहैया कराता है। इस देश की बावन प्रतिशत आबादी प्रत्यक्ष रूप से कृषि पर निर्भर है। आज एक किसान दिन भर में सिर्फ पच्चीस रुपए ही कमा पाता है।
भारत में पशुओं के गोबर और मूत्र से हर साल 2.89 करोड़ टन खाद प्राप्त की जा सकती है। इसके अलावा कम्पोस्ट और दूसरी बेकार वस्तुओं से लगभग 93 लाख टन खाद बनाई जा सकती है। लेकिन गोबर का अधिकांश भाग ईंधन के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है। क्योंकि ग्रामीण क्षेत्र में अन्य सस्ते ईंधन का अभाव है। खेतों को पर्याप्त मात्रा में खाद नहीं मिल पाती, जिससे उत्पादन की स्थिति अच्छी नहीं है।
भारतीय कृषि मानसून पर निर्भर है। इसी कारण भारतीय कृषि को ‘मानसून का जुआ’ कहा गया है। अब भी कुल कृषि योग्य भूमि के 41 प्रतिशत ही सिंचित है। मानसून पर इतनी अधिक निर्भरता का प्रभाव यह होता है कि देश के अधिकांश भाग की कृषि प्रकृति की दया पर निर्भर है। भारत में बीते 130 साल में 60 फीसद सूखे की घटनाएँ एल नीनो से कहीं-न-कहीं जुड़ी हुई हैं। अगर मानसून सहीं वक्त पर और सही मात्रा में आ जाता है तो कृषि उत्पादन भी ठीक होता है जिससे देश में खाद्यान्नों की आवश्यकता की पूर्ति हो जाती है और उद्योगों को भी पर्याप्त कच्चा माल मिल जाता है।
किसानों के लिए उच्च गुणवत्ता वाले बीजों की अक्सर कमी बनी रहती है। उसे बाजार से सस्ता और घटिया बीज मिलता है। इससे भी किसानों की आय में कमी आ जाती है। इसके लिए सरकारी मशीनरी की कार्यप्रणाली और लालफीताशाही समान रूप से दोषी है। भारत में नब्बे प्रतिशत किसानों के पास कुल भूमि का 38 प्रतिशत भाग है। इसका अर्थ यह है कि एक किसान के पास औसतन तीन एकड़ जमीन है।
ravishankar.5107@gmail.com
बीज और खाद वगैरह के नाम पर छिटपुट सब्सिडी और कृषि ऋण के अलावा किसानों के लिए आज ऐसी कोई सरकारी सुविधा नहीं है जहाँ अतिवर्षा, सूखा या दूसरी प्राकृतिक आपदाओं की वजह से तबाह हो गई फसल की भरपाई हो पाए। संकर (हाइब्रिड) फसलों के नाम पर किसानों के सामने महँगे बीज का संकट उनकी पारम्परिक किसानी की राह का बहुत बड़ा रोड़ा है। किसानों के सामने इधर खाई-उधर खन्दक जैसा संकट है। एक ऐसे देश में यहाँ साठ फीसद से अधिक आबादी खेती-किसानी पर निर्भर हो, क्या यह सोचा जा सकता है कि उस देश की हुक़ूमत इतनी क्रूर और गैर जिम्मेदार हो जो अपने ही किसानों को खुदकुशी करने के लिए छोड़ दे। लेकिन, दुनिया के महान लोकतन्त्र भारत में यही हो रहा है। बीते छह सालों में छियासठ हजार से अधिक किसान अधिकृत तौर पर खुदकुशी कर चुके हैं, जबकि गैरसरकारी आँकड़ा इससे कहीं ज्यादा है। क्या मरते हुए किसानों के बारे में इसी तरह विचार करना चाहिए मानों कुआँ खोदने और खड़ंजा लगाने के फैसले हो रहे हों?
भारत जैसे कृषि प्रधान देश में जब किसान ने केवल बदहाली का जीवन जीने को मजबूर हो, बल्कि आत्महत्या जैसा भयावह कदम उठाने तक को मजबूर हो तो देश के विकास का सपना बेमानी लगने लगता है। दरअसल, देश में किसान की बदहाली को बयान करता राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन का एक सर्वे सामने आया है।
इस ताजा सर्वे के अनुसार देश के किसानों की हालत बदतर होती जा रही है और लोगों का खेतीबाड़ी से रुझान घट रहा है। यह सर्वे देश में अन्न की पैदावार पर सवालिया निशान लगा रहा है कि अगर इस कदर चलता रहा तो आने वाले समय में देश में कृषि उत्पादन न के बराबर न रह जाएँ। इसका एक कारण सरकार द्वारा किसानों की सुध न लेना और दूसरा गाँवों में विकास कार्य न होना है।
कृषि मन्त्रालय और राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो सत्तरवीं रिपोर्ट (एनएसएसओ) के नए आँकड़े बताते हैं कि खेती-किसानी के कारण कर्ज के जाल में फँसे किसान न सिर्फ बदहाली का जीवन जी रहे हैं बल्कि आत्मघाती कदम भी उठा रहे हैं। आँकड़ों के मुताबिक 2009 में सत्रह हजार, 2010 में साढ़े पन्द्रह हजार, 2011 में चौदह हजार और 2013 में साढ़े ग्यारह हजार से अधिक किसानों ने कृषि क्षेत्र की तमाम् समस्याओं की वजह से आत्महत्या की राह चुनी, जबकि सरकारी आँकड़ों के मुताबिक कृषि सम्बन्धी समस्याओं के चलते इस साल आठ सौ से अधिक किसानों के आत्महत्या की सूचना है और ऐसे मामलों की ज्यादातर खबरें महाराष्ट्र से हैं।
राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण की ताजा रिपोर्ट यह भी बताती है कि देश के नौ करोड़ किसान परिवारों में से बावन फीसद कर्ज में डूबे हैं और हर किसान पर औसतन सैंतालीस हजार रुपए का कर्ज है। देश के लगभग चौवालीस फीसद किसानों के पास मनरेगा का जॉब कार्ड है लेकिन जिन लोगों को इसकी सबसे अधिक जरूरत है यानी जिनके पास 0.01 हेक्टेयर से भी कम जमीन है, उनमें केवल अड़तीस प्रतिशत लोगों के पास ही कार्ड है।
सबसे बुरी बात यह है कि इन अत्यन्त कम जमीन वाले परिवारों में से तेरह फीसद के पास तो राशन कार्ड तक नहीं है और वे सब्सिडी आधारित खाद्यान्न तक नहीं ले सकते। देश का अन्नदाता किसान अगर अपने जीवनयापन के लिए मनरेगा और बीपीएल कार्ड की बाट जोहता दिखे तो भारत जैसे कृषि प्रधान देश के लिए यह स्थिति शर्मनाक और विडम्बना से भरी है।
एनएसएसओ ने सर्वे में इस बात का भी जिक्र किया है कि बहुत कम किसान हैं जिन्हें सरकार द्वारा दिए जाने वाले न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की जानकारी है। भारत में पिछले तीन साल से एमएसपी प्रति क्विंटल महज् पचास रुपए बढ़ाया गया है। यह किसानों को दिए जाने वाले प्रति क्विंटल न्यूनतम समर्थन मूल्य का महज तीन फीसद है।
यह बात लम्बे समय से उठ रही है कि हमारे देश में अब कृषि की औसत जो इतनी कम हो गई है कि इससे भरण-पोषण नहीं हो सकता। हालांकि, सरकारी कर्मचारियों के वेतन में महँगाई भत्ता ही 107 फीसद हो गया है। छठा वेतन आयोग आया, अब सातवें वेतन आयोग की तैयारी है।
लेकिन सत्तरवें राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के अनुसार लगभग नब्बे प्रतिशत किसानों के पास दो हेक्टेयर से भी कम भूमि है। अगर यही स्थिति रही तो हालात बद-से-बदतर होते जाएँगे। इस स्थिति से निकलने के लिए सरकार को कृषि निर्भर आबादी का अनुपात कम करने के साथ ही उत्पादन बढ़ाना चाहिए। कृषि निर्भर आबादी का अनुपात कम करने के लिए सबसे जरूरी बात यह होगी कि वर्तमान में कृषि पर निर्भर इन लोगों को वैकल्पिक और पूरक रोजगार उपलब्ध कराया जाए।
यह तभी सम्भव है जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में उद्योग-धन्धे हों। सरकारें कृषि का ढोल तो बहुत पीटती हैं पर उसकी बेहतरी के लिए जो उनके वश में है वह भी नहीं करती। भारत में कुल 1440 लाख हेक्टेयर क्षेत्र पर खेती होती है। इसमें 60 प्रतिशत क्षेत्र ऐसा है जो अब भी सिंचाई के लिए वर्षा पर आधारित है।
सरकार को सबसे पहले सिंचाई सुविधा उपलब्ध कराने की दिशा में प्रयास करना चाहिए। यह किया जाए तो कृषि और उद्योग दोनों का भला होगा। सरकार को अपनी विपणन और वितरण प्रणाली को सुधारना और नई तकनीक, शोधों और जानकारियों को किसानों तक पहुँचाना होगा, ताकि किसानों का ध्यान अधिक-से-अधिक कृषि करने में लगाया जा सके।
माना तो यही जा रहा है कि सरकार की तमाम कोशिशों और दावों के बावजूद देश के किसानों की हालत में कोई सुधार नहीं दिख रहा है। उनकी इस बदहाली के पीछे सीधे तौर पर सरकार की नीतियाँ ही जिम्मेदार हैं, जहाँ कृषि को कभी भी देश के विकास की मुख्यधारा का मानक समझा ही नहीं गया। उलटे उनकी खेती योग्य भूमि को तमाम् तरह की विकास योजनाओं के नाम पर औने-पौने दामों में खरीदकर उन्हें दर-दर की ठोकर खाने को मजबूर किया जाता रहा है।
बीज और खाद वगैरह के नाम पर छिटपुट सब्सिडी और कृषि ऋण के अलावा किसानों के लिए आज ऐसी कोई सरकारी सुविधा नहीं है जहाँ अतिवर्षा, सूखा या दूसरी प्राकृतिक आपदाओं की वजह से तबाह हो गई फसल की भरपाई हो पाए। संकर (हाइब्रिड) फसलों के नाम पर किसानों के सामने महँगे बीज का संकट उनकी पारम्परिक किसानी की राह का बहुत बड़ा रोड़ा है। किसानों के सामने इधर खाई-उधर खन्दक जैसा संकट है।
प्राकृतिक आपदा या अन्य किसी कारण से फसल बर्बाद हो गई तो खेती के लिए लिया गया कर्ज न चुका पाने के कारण रोटी के भी लाले पड़ जाते हैं और निराशा आत्महत्या तक ले जाती है, लेकिन जरूरत से ज्यादा उत्पादन भी आफत ही होता है, क्योंकि उसे उसकी फसल का उचित मूल्य नहीं मिल पाता है और उसे उन्हें औने-पौने दामों में बेचना पड़ता है। अगर किसान का उत्पादन अधिक हो जाए तो भी सरकार अफना हाथ खींच लेती है और कम रहे तो भी।
गौरतलब है कि भारत में तकरीबन साठ फीसद आबादी कृषि से जुड़ी है। फिर भी यह रिपोर्ट बताती है कि सरकार द्वारा किसानों की आय बढ़ाने के लिए तमाम् योजनाएँ चलाए जाने के बावजूद उनकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं हो पाई। यकीनन सर्वेक्षण ने बहुत लोगों को नहीं चौंकाया है क्योंकि किसानों की खराब आर्थिक स्थिति के बारे में इसके द्वारा पुष्ट हुई कुछ बातें पहले से लोगों के जेहन में थीं। ये आँकड़ें सरकार द्वारा कृषि विकास और समाज कल्याण के लिए तैयार की गई योजनाओं के क्रियान्वयन सम्बन्धी चूक उजागर करते हैं।
कृषि जिंसों की ऊँची कीमत ने पिछले कुछ सालों में खाद्य महँगाई को दो अंकों में बनाए रखा लेकिन किसानों को इससे कोई खास फायदा नहीं मिला। ऐसा शायद इसलिए क्योंकि सरकार की न्यूनतम समर्थन मूल्य और सरकारी खरीद प्रक्रिया में भारी खामियाँ हैं। न केवल एमएसपी और सरकारी खरीद को लेकर जागरुकता की कमी है बल्कि इनके बारे में जानकारी रखने वाले किसान भी अपनी उपज सरकारी एजेंसियों को नहीं बेच पाते हैं। 2000 के दशक के मध्य में राष्ट्रीय किसान आयोग ने कहा था कि देश के किसान सरकारी कार्यालयों के चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों की तुलना में भी कम कमाते हैं।
भारतीय कृषि मानसून पर निर्भर है। इसी कारण भारतीय कृषि को ‘मानसून का जुआ’ कहा गया है। अब भी कुल कृषि योग्य भूमि के 41 प्रतिशत ही सिंचित है। मानसून पर इतनी अधिक निर्भरता का प्रभाव यह होता है कि देश के अधिकांश भाग की कृषि प्रकृति की दया पर निर्भर है। भारत में बीते 130 साल में 60 फीसद सूखे की घटनाएँ एल नीनो से कहीं-न-कहीं जुड़ी हुई हैं। अगर मानसून सहीं वक्त पर और सही मात्रा में आ जाता है तो कृषि उत्पादन भी ठीक होता है जिससे देश में खाद्यान्नों की आवश्यकता की पूर्ति हो जाती है और उद्योगों को भी पर्याप्त कच्चा माल मिल जाता है।हालांकि, सरकार मानती है कि बीज, खाद, सिंचाई से लेकर मजदूरी तक महँगी हुई है। खेत से मण्डी तक के बीच बिचौलियों की भूमिका बढ़ी है। मण्डी से गोदाम तक के बीच जमाखोरों की तादाद बढ़ी है तो फिर सरकार करे क्या? क्योंकि मजूदा वक्त में देश में आठ करोड़ किसान हैं तो पच्चीस करोड़ खेत मजदूर है। यानी सरकार के सिर्फ समर्थन मूल्य से काम नहीं चलेगा बल्कि खेती में सरकार को निवेश करना होगा।
और देश का आलम यह है कि चौथी से बारहवीं पंचवर्षीय योजना में राष्ट्रीय आय का 1.3 फीसदी से भी कम कृषि में निवेश हुआ। यानी जिस देश की बासठ फीसद आबादी खेती पर आश्रित हो, पचास से बावन फीसद मजदूर खेत से जुड़े हों, वहाँ सिर्फ 1.3 फीसद खर्च से सरकार किसानों का क्या भला कर सकती है। उसका भी अन्दरूनी सच यही है कि निजी निवेश को इसमें से निकाल दें तो राष्ट्रीय आय का सरकार सिर्फ 0.3 फीसद निवेश कर रही है। यानी देश में जो भी हो रहा है वह किसान अपनी बदौलत कर रहा है।
2011 की जनगणना के अनुसार देश की 58.2 प्रतिशत आबादी खेती पर निर्भर थी, जबकि सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का योगदान महज 14.1 प्रतिशत था। इसका यह भी अर्थ है कि आधी से अधिक जनसंख्या की आमदनी बहुत कम है, इतनी कम की दो जून की रोटी का जुगाड़ करना भी कठिन होता है। दूसरी तरफ शहरों में रहने वाले चन्द लोगों ने सारी आय और सम्पत्ति पर कब्जा जमा रखा है। कहने को सरकार ने गरीब जनता के फायदे के लिए अनेक कल्याणकारी योजनाएँ चला रखी हैं।
खाद्य, खाद, ऊर्जा, शिक्षा और स्वास्थ्य पर हर साल अरबों रुपए खर्च किए जाते हैं, लेकिन इसमें भी बन्दरबाँट है। पिछले एक दशक में सरकार ने जनकल्याणकारी योजनाओं को एक सौ दस खरब रुपए की सब्सिडी दी। अकेले ईंधन पर 2013 में 1.30 लाख करोड़ रुपए की सब्सिडी दी गई। लेकिन सम्पन्न बीस फीसद तबके को गरीब बीस प्रतिशत आबादी के मुकाबले छह गुना ज्यादा सब्सिडी मिली। सरकार एक लीटर डीजल पर नौ रुपए की देती है, लेकिन इस सस्ते डीजल की चालीस प्रतिशत खपत महँगी निजी कारों, उद्योगों, जेनरेटरों वगैरह में होता है। गरीब किसान के हिस्से बहुत कम डीजल आता है।
सब्सिडी में भारी भ्रष्टाचार है। इसलिए माना जाता है कि इसके एक रुपए में से लगभग दस पैसे ही जरूरतमन्द गरीब जनता तक पहुँच पाते हैं।
पिछले डेढ़-दो दशक में जो भी सरकारें बनी, उसने कृषि क्षेत्र की उपेक्षा की। बेशक कृषि क्षेत्र के लिए कई परियोजनाएँ शुरू की गईं, लेकिन उसका क्रियान्वयन ठीक ढंग से नहीं किया गया। राष्ट्रीय कृषि विकास योजना, राष्ट्रीय खाद्यन्न सुरक्षा मिशन, राष्ट्रीय बागवानी मिशन जैसी कई योजनाएँ चल रही हैं। इसके अलावा भारत निर्माण, त्वरित सिंचाई लाभ कार्यक्रम, वर्षा आधारित क्षेत्र विकास कार्यक्रम के तहत् काफी क्षेत्रों को सिंचित करने का प्रस्ताव भी है, लेकिन सही तरीके से क्रियान्वयन न होने की वजह से इसका अपेक्षित लाभ नहीं मिल पा रहा है। अक्सर यह बात कही जाता है कि हमारी अर्थव्यवस्था सबसे चमकदार अर्थव्यवस्थाओं में एक है। लेकिन चमकदार अर्थव्यवस्था में इस दाग को सरकार नहीं मिटा पाती कि दुनिया में सबसे अदिक कुपोषण से मरने वाले बच्चों की संख्या भारत में ही है। यह एक सच्चाई है जिसे कोई सरकार स्वीकार करना नहीं चाहेगी।
भले, ऊँची विकास दर अर्थव्यवस्था की गतिशीलता का पैमाना हो, मगर खाद्य असुरक्षा को लेकर कृषि प्रधान देश की ऐसी दुर्दशा निश्चित ही गम्भीर बात है। वहीं भारत की आबादी एक अरब पच्चीस करोड़ से ऊपर जा चुकी है। ‘द मिलेनियम प्रोजेक्ट’ की रिपोर्ट में कहा गया है कि 2020 में भारत की आबादी लगभग एक अरब तैंतीस करोड़ और 2040 तक एक अरब सत्तावन करोड़ हो जाएगी। ऐसे में, सभी लोगों को भोजन मुहैया करना एक बड़ी चुनौती होगी।
हकीकत यह है कि अगर इस देश में सभी लोग दो जून भरपेट भोजन करने लगें तो देश में अनाज की भारी किल्लत पैदा हो जाएगी। भुखमरी की यह तस्वीर कृषि संकट का ही एक चेहरा है। असल में कृषि क्षेत्र जिस घोर संकट में फँसा हुआ है, उसका एक बड़ा कारण किसानों की आत्महत्याओं में दिखाई पड़ रहा है।
केन्द्र में राजग सरकार को सत्ता पर आसीन हुए अभी आठ महीने ही हुए हैं। नीतिगत परिवर्तन के लिए यह अवधि शायद पर्याप्त नहीं कही जा सकती। लेकिन कृषि प्रधान देश भारत में कृषि और किसान कितनी मुश्किलों से गुजर रहे हैं, यह जानने के लिए तो किसी अध्ययन या शोध की जरूरत सरकार को नहीं होनी चाहिए।
बरसों से देश के विभिन्न हिस्सों से किसानों के आत्महत्या करने की खबरें आ रही हैं तो तेजी से खेती से विमुख हो रहे लोगों की संख्या भी लगातार बढ़ रही है। खासकर तब, एक और हरित क्रान्ति पर जोर दिया जा रहा हो। अगर भारत राष्ट्रीय कृषि और किसान को गहरे संकट से उबारना है तो कुछ बड़े और कड़े फैसले सरकार को करने पड़ेंगे। भले पिछले दशक में कृषि क्षेत्र के लिए ऋण में चाहे जितना इजाफा किया गया हो लेकिन आज भी छोटे और सीमान्त किसान अपनी जरूरतों की पूर्ति के लिए सेठ-साहूकारों की ही मदद लेते हैं।
ऐसा लगता है कि बैंकों की ऋण सुविधाओं का अधिकतर लाभ वही किसान उठा रहे हैं जो कर्ज चुकाने की स्थिति में हैं। अगर किसानों को खेती से लाभ दिलाने के लिए दीर्घकालिक उपायों पर गम्भीरता से विचार नहीं किया गया तो स्थिति और विस्फोटक हो सकती है। सम्भव है कि किसान रोजी-रोटी के लिए अन्य क्षेत्रों की ओर रुख कर जाएँ। ऐसे में हमें गम्भीर खाद्यान्न संकट का भी सामना करना पड़ सकता है। जरूरत है इसकी महत्ता को कागजों से निकाल कर किसानों के बीच ले जाने की।
साफ है, लागत खर्च बढ़ने से देश के किसानों की स्थिति दिन-ब-दिन बदतर होती जा रही है। यहाँ तक कि उन्हें अपनी फसल का उचित मूल्य नहीं मिल पा रहा है। यही वजह है कि अब किसानों के लिए खेती लाभप्रद व्यवसाय नहीं रह गई है और खेती से मोहभंग के कारण वे लगातार रोजगार के वैकल्पिक उपायों को अपना रहे हैं।
अगर किसानों और कृषि के प्रति यही बेरुखी रही, तो वह दिन दूर नहीं, जब हम खाद्य असुरक्षा की तरफ तेजी से बढ़ जाएँगे। जोकि देश की खाद्य सुरक्षा के लिए खतरे का संकेत है। खाद्य पदार्थों की लगातार बढ़ती कीमत हमारे लिए खतरे की घण्टी हैं।
आयातित अनाज के भरोसे खाद्य सुरक्षा की गारण्टी नहीं दी जा सकती। इस देश के किसानों को आर्थिक उदारवाद के समर्थकों की सहानुभूति की जरूरत नहीं है। अगर देश की हालत सुधारनी है और गरीबी मिटानी है तो कृषि क्षेत्र की हालत सुधारना सबसे जरूरी है। देश की आधी से अधिक आबादी की स्थिति सुधारे बिना देश का विकास नहीं हो सकता है।
खेती से जुड़ी कुछ बातें
देश की जीडीपी में कृषि का योगदान 13.6 फीसद है। कृषि उद्योग भारत की अधिकांश जनता को रोजगार मुहैया कराता है। इस देश की बावन प्रतिशत आबादी प्रत्यक्ष रूप से कृषि पर निर्भर है। आज एक किसान दिन भर में सिर्फ पच्चीस रुपए ही कमा पाता है।
भारत में पशुओं के गोबर और मूत्र से हर साल 2.89 करोड़ टन खाद प्राप्त की जा सकती है। इसके अलावा कम्पोस्ट और दूसरी बेकार वस्तुओं से लगभग 93 लाख टन खाद बनाई जा सकती है। लेकिन गोबर का अधिकांश भाग ईंधन के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है। क्योंकि ग्रामीण क्षेत्र में अन्य सस्ते ईंधन का अभाव है। खेतों को पर्याप्त मात्रा में खाद नहीं मिल पाती, जिससे उत्पादन की स्थिति अच्छी नहीं है।
भारतीय कृषि मानसून पर निर्भर है। इसी कारण भारतीय कृषि को ‘मानसून का जुआ’ कहा गया है। अब भी कुल कृषि योग्य भूमि के 41 प्रतिशत ही सिंचित है। मानसून पर इतनी अधिक निर्भरता का प्रभाव यह होता है कि देश के अधिकांश भाग की कृषि प्रकृति की दया पर निर्भर है। भारत में बीते 130 साल में 60 फीसद सूखे की घटनाएँ एल नीनो से कहीं-न-कहीं जुड़ी हुई हैं। अगर मानसून सहीं वक्त पर और सही मात्रा में आ जाता है तो कृषि उत्पादन भी ठीक होता है जिससे देश में खाद्यान्नों की आवश्यकता की पूर्ति हो जाती है और उद्योगों को भी पर्याप्त कच्चा माल मिल जाता है।
किसानों के लिए उच्च गुणवत्ता वाले बीजों की अक्सर कमी बनी रहती है। उसे बाजार से सस्ता और घटिया बीज मिलता है। इससे भी किसानों की आय में कमी आ जाती है। इसके लिए सरकारी मशीनरी की कार्यप्रणाली और लालफीताशाही समान रूप से दोषी है। भारत में नब्बे प्रतिशत किसानों के पास कुल भूमि का 38 प्रतिशत भाग है। इसका अर्थ यह है कि एक किसान के पास औसतन तीन एकड़ जमीन है।
ravishankar.5107@gmail.com
Path Alias
/articles/idhara-khanadaka-udhara-khaai
Post By: Shivendra