ई-प्रदूषण

देश में ई-कचरे को अब तक सामान्य कचरे की तरह ही निबटाया जाता रहा है। उन्हें बाकी कचरों के साथ जमीन के नीचे दबा दिया जाता है या फिर जला दिया जाता है। अभी इस बात का अंदाजा नहीं लगाया जा सका है कि इसका पर्यावरण पर कितना और किस तरह का असर हुआ है। इसकी वजह यह है कि जिन जगहों पर कचरा दफनाया जाता है वहां और तमाम तरह के कचरे भी होते हैं। कचरे के निबटान की तकनीक का असर भी पैदा होने वाले प्रदूषण पर पड़ता है। पिछले कुछ दशकों में बिजली के उपकरणों के विकास ने जिंदगी को आसान और सुखद बना दिया है। ज्ञान की दुनिया के साथ ही मनोरंजन की दुनिया भी बदली है। रसोईघर भी अब पहले से ज्यादा आधुनिक हुए हैं। कपड़ों की धुलाई से लेकर घर को ठंडा रखने तक के नए इंतजाम हुए हैं और इन सबके पीछे है विद्युत और विद्युतीय उपकरण। लेकिन विज्ञान का यह वरदान अभिशाप भी बन सकता है, यह एहसास मनुष्य को अब होने लगा है। यह अभिशाप ई कचरे की शक्ल में आ रहा है।

विद्युतीय उपकरणों का इस्तेमाल पूरी दुनिया के साथ भारत में भी तेजी से बढ़ा है साथ ही इसकी दुनिया बहुत तेजी से बदल रही है। इस वजह से नए उपकरण जल्दी ही पुराने पड़ जाते हैं। तथा कई उपकरण खराब हो जाते हैं। इन सबका नतीजा है ई वेस्ट, यानी इलेक्ट्रॉनिक कचरा। इससे न सिर्फ हमारा पर्यावरण खतरे में है बल्कि लोगों के स्वास्थ्य के लिए भी गंभीर खतरा पैदा हो गया है। इस समय दुनिया में पैदा होने वाले कुल कचरे में ई कचरे का हिस्सा लगभग 5 प्रतिशत है जो प्लास्टिक कचरे के बराबर ही है। ई कचरे में लगभग 1000 ऐसे पदार्थ होते हैं जो जहरीले होते हैं और जिनका निबटान अगर सही तरीके से न किया गया तो पर्यावरण और मानव स्वास्थ्य को खतरा हो सकता है। इसे आधुनिकता का अभिशाप मानिए या नए उत्पाद लाने और बेचने की बाजार की जरूरत, यह एक ऐसी बुराई है जिससे बचने की कोशिश तो की जा सकती है, लेकिन इसकी अनदेखी अब मुमकिन नहीं। इसलिए अब ज़रुरी हो गया है कि ई कचरे से बचने और उसके सुरक्षित निबटान के तरीके ढूंढे जाएं और इसके लिए कायदे कानूनों पर सख्ती से अमल किया जाए।

सूचना क्रांति ने देश में ई-कचरे की समस्या को और गंभीर बना दिया है। वर्ष 2009 के पहले तीन महीनों में देश में 16 लाख से ज्यादा डेस्कटॉप और लैपटॉप बिके। गत वर्ष यानी वर्ष 2008-09 में लगभग 68 लाख लैपटॉप और डेस्कटॉप की बिक्री हुई। हालांकि वर्ष 2007-2008 के मुकाबले यह 7 प्रतिशत कम है। लेकिन पिछले पांच साल के आंकड़ों को देखें तो इस दौरान कम्प्यूटर की बिक्री दो गुनी से ज्यादा हुई। डेस्कटॉप और लैपटॉप की सबसे ज्यादा बिक्री पश्चिमी भारत (37 प्रतिशत) में होती है। इसके बाद दक्षिण (23 प्रतिशत) और उत्तर भारत (18 प्रतिशत) का नंबर आता है। वर्ष 2009-10 में 73 लाख से ज्यादा लैपटॉप और डेस्कटॉप भारत में बिकने का अनुमान है।

इससे यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि भारत में सूचना क्रांति के विस्फोट के साथ कितनी बड़ी संख्या में हार्डवेयर घरों और दफ्तरों में आ रहा है। बिक्री बढ़ने के साथ ही पुराने पड़ गए कंप्यूटर कचरे में तब्दील होते जा रहे हैं और ऐसा सिर्फ कंप्यूटर के साथ ही नहीं है, लगभग सभी बिजली के उपकरणों के साथ ऐसा ही हो रहा है।

दुनिया में हर रोज निकलने वाले कचरे में ई कचरे का अनुपात तेजी से बढ़ता जा रहा है। ई कचरे से संबंधित भारत सरकार के दिशा-निर्देश में कहा गया है कि वर्ष 2005 में देश में 1,46,108 टन ई कचरा पैदा हुआ। ऐसा अनुमान है कि वर्ष 2012 तक यह मात्रा आठ लाख टन तक पहुंच जाएगा। भारत में ई कचरे को बड़े पैमाने पर फिर से इस्तेमाल में लाने की कोई सुविधा नहीं है। चेन्नई और बेंग्लुरू में ई कचरे को निबटाने की दो छोटी इकाइयां हैं। ऐसे में ज्यादातर ई-कचरा असंगठित क्षेत्र में ही रि-साइकिल किया जा रहा है जहां सुरक्षित तौर तरीकों की अक्सर अनदेखी कर दी जाती है।

इलेक्ट्रॉनिक कचरे से अभिप्राय उन तमाम पुराने पड़ चुके बेकार बिजली के उपकरणों से है, जिन्हें उपयोग करने वालों ने फेंक दिया है। इनमें कंप्यूटर, टीवी, डीवीडी प्लेयर, मोबाइल फोन, एमपी-थ्री प्लेयर और तमाम दूसरे विद्युत उपकरण शामिल हैं। हालांकि इलेक्ट्रॉनिक कचरे की कोई सर्वमान्य परिभाषा नहीं है लेकिन आमतौर पर इसका मतलब उन तमाम डाटा प्रोसेसिंग, दूरसंचार और मनोरंजन के विद्युतीय उपकरणों से है जिनका इस्तेमाल घर या दफ्तर में होता है।

तकनीकी तौर पर देखें तो जिस किसी भी उपकरण को चलाने में (बिजली या बैटरी) का इस्तेमाल होता है और जो बेकार हो गए हैं, उन्हें डब्ल्यू ई ई ई यानी वेस्ट इलेक्ट्रॉनिक एंड इलेक्ट्रॉनिक इक्विपमेंट की विस्तारित परिभाषा के दायरे में रखा जाएगा। यह परिभाषा ई-कचरे की आम परिभाषा यानी बेकार हो गई बिजली के उपकरण और मनोरंजन उपकरणों से ज्यादा आगे जाती है।

ई-कचरे की श्रेणी में जिन उपकरणों को रखा गया है उन्हें इन श्रेणियों में बांटा गया है :-
बड़े घरेलू उपकरण।
छोटे घरेलू उपकरण।
आईटी और दूरसंचार उपकरण।
रोशनी के उपकरण।
बिजली के उपकरण (बड़े औद्योगिक उपकरणों को छोड़कर)
खिलौने और मनोरंजन तथा खेल के उपकरण, चिकित्सा संबंधी उपकरण (इंप्लांट्स और संक्रमित उत्पाद अपवाद है)।
निगरानी रखने और नियंत्रण रखने के उपकरण आदि।

कितना बड़ा खतरा


1. नित नई खोज और कंपनियों के विपणन प्रयासों की वजह से कई कंप्यूटर उत्पाद बहुत कम समय में ही बाजार से बाहर हो जाते हैं और इनकी जगह नए उत्पाद आ जाते हैं। कई बार तो यह समय दो साल से भी कम होता है। इन उत्पादों के इस्तेमाल में हर साल लगभग 15 प्रतिशत की दर से बढ़ोत्तरी और इनके तेजी से बाजार में आने और पुराने पड़ जाने की वजह से अगले पांच दस साल में ई-कचरे में दो गुना बढ़ोत्तरी का अनुमान है।

2. ई-कचरे में शीशा कैडमियम, पारा, पोलिक्लोरिनेटेड बाई फिनाइल, ब्रोमिनेटर फ्लेम रिटार्डेट जैसे जहरीले पदार्थ हो सकते हैं जिनका सावधानी से निबटान जरूरी होता है। लेकिन पूरी सावधानी न बरते जाने से यह जहर पर्यावरण में पहुंच जाता है।

3. ई-कचरे के निबटान और उनके पुनः प्रयोग की दिशा में पर्याप्त ढांचागत सुविधा नहीं है। यह बात सभी जानते हैं कि ई-कचरे का निबटान अगर सही तरीके से न हो तो यह कबाड़ियों के पास पहुंच जाता है और वहां से उन लोगों के पास जो इन्हें तोड़-फोड़कर बेच डालते हैं। अभी देश में ऐसी पर्याप्त सुविधाएं नहीं हैं कि इतनी बड़ी संख्या में पैदा हो रहे ई-कचरे को पर्यावरण-अनुकूल ढंग से निबटाया जा सके। इस वजह से कई विदेशी रिसाइकिलिंग संस्थाओं ने भारत में आकर इस काम को करने में अपनी दिलचस्पी दिखाई है।

किस तरह का खतरा


बिजली और बिजली के उपकरणों में कई तरह के पुर्जे होते हैं। उनमें से कई में जहरीले पदार्थ होते हैं जिनका अगर सावधानी से निबटान न किया जाए तो वे स्वास्थ्य और पर्यावण दोनों के लिए खतरनाक हो सकते हैं। मिसाल के तौर पर टीवी और कंप्यूटर स्क्रीन के तौर पर इस्तेमाल होने वाले कैथोड-रे ट्यूब (सीआरडी) में शीशा, बेरियम, फॉस्फोरस और दूसरी भारी धातु होती है जो कैंसर की वजह बन सकते हैं। अगर कैथोड-रे ट्यूब का सावधानी से निबटान किया जाए तो इससे पर्यावरण को कोई गंभीर खतरा नहीं होता। लेकिन अगर इन्हें असुरक्षित तरीके से तोड़ा जाए या रिसाइकल किया जाए या खुले में यों ही फेंक दिया जाए तो इससे लोगों के स्वास्थ्य को खतरा हो सकता है साथ ही ये पृथ्वी, हवा और भूमिगत जल को प्रदूषित कर सकते हैं। एक और उदाहरण, तारों की पीवीसी कोटिंग का है। इन्हें जलाने पर जहरीला डाई-ऑक्सिन निकलता है। लैंडफिल में ई-कचरे को निबटाने का तरीका भी कारगर नहीं है क्योंकि इनसे जहरीले पदार्थ रिसकर मिट्टी और भूजल में मिलने का खतरा बना रहता है। ऐसे पदार्थों में पारा, कैडमियम होते हैं साथ ही लैंडफिल में हमेशा आग लगने का खतरा बना रहा है, जिससे जहरीले रसायन से हवा के प्रदूषित होने का खतरा होता है।

ई-कचरे में क्या चीजें होती हैं?


ई-कचरे में शामिल चीजों का दायरा काफी बड़ा है। इनमें लगभग 1,000 तरह की चीजें हैं, जिनमें कुछ खतरनाक हैं और कुछ नहीं। मोटे तौर पर इनमें लौह और अलौह धातुएं, प्लास्टिक, कांच, लकड़ी और प्लाईवुड, प्रिंटेड सर्किट बोर्ड, कंक्रीट और सेरामिक, रबर और दूसर पदार्थ शामिल हैं। ई-कचरे का लगभग आधा हिस्सा लोहा और इस्पात होता है। 21 प्रतिशत प्लास्टिक और 13 प्रतिशत अलौह धातु और बाकी दूसरी चीजें होती हैं। अलौह धातु में तांबा, एल्युमीनियम के अलावा चांदी, सोना, प्लेटिनम और प्लैडियम जैसे कीमती तत्व होते हैं। ई-कचरे में मौजूद शीशा, पारा, आर्सेनिक, कैडमियम, सेलेनियम, होक्सावैलेंट क्रोमियम और फ्लेम रिटार्डेट की सीमा से अधिक मात्रा उन्हें खतरनाक बनाती है।

ई-कचरे में वैसे तो कई खतरनाक पदार्थ होते हैं, लेकिन सबसे ज्यादा खतरा जिन पदार्थों से होता है उनमें प्रमुख हैं - शीशा, पारा, कैडमियम, क्रोमियम, हेलोजेनेटेड पदार्थ (सीएफसी), पॉलिक्लोरिनेटेड बाइफिनाइल। इनके अलावा सर्किट बोर्ड में ब्रोमिनेटेड फ्लेम रिटार्डेंट होते हैं जो जलाए जाने पर खतरनाक डाई-ऑक्सिन और फ्यूरॉन पैदा करते हैं।

भारत में पैदा होने वाले कुल ई-कचरे का 70 प्रतिशत देश के 10 राज्यों से आता है। सबसे ज्यादा ई-कचरा पैदा करने वाले राज्य हैं - महाराष्ट्र, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, दिल्ली, कर्नाटक, गुजरात, मध्य प्रदेश और पंजाब तथा सबसे ज्यादा ई-कचरा पैदा करने वाले शहर हैं- मुंबई, दिल्ली, बैंगलुरू, चैन्नई, कोलकाता, अहमदाबाद, हैदराबाद, पुणे, सूरत और नागपुर। जबकि इस समय देश में सिर्फ चेन्नई और बंगलुरू में ही ई-कचरा निबटान संयंत्र हैं और वे भी छोटे आकार के। कहीं भी इस काम के लिए बड़े पैमाने पर व्यवस्था नहीं है और यह काम ज्यादातर असंगठित क्षेत्र में होता है।

देश में ई-कचरे को अब तक सामान्य कचरे की तरह ही निबटाया जाता रहा है। उन्हें बाकी कचरों के साथ जमीन के नीचे दबा दिया जाता है या फिर जला दिया जाता है। अभी इस बात का अंदाजा नहीं लगाया जा सका है कि इसका पर्यावरण पर कितना और किस तरह का असर हुआ है। इसकी वजह यह है कि जिन जगहों पर कचरा दफनाया जाता है वहां और तमाम तरह के कचरे भी होते हैं। कचरे के निबटान की तकनीक का असर भी पैदा होने वाले प्रदूषण पर पड़ता है। एक अध्ययन से पता चला है कि लैंडफिल में निबटाए गए ई-कचरे के खतरों की अनदेखी नहीं की जा सकती क्योंकि लैंडफिल की प्रकृति आम मिट्टी से अलग होती है और वहां ई-कचरे में मौजूद धातुओं से रिसाव की वजह से खतरा बढ़ जाता है। इस लिहाज से लैंडफिल ई-कचरे के निबटान का सुरक्षित रास्ता नहीं है। ई-कचरे के निबटान का दूसरा तरीका उन्हें ताप पर जला देना है। इससे कचरे की मात्रा भी घट जाती है और साथ ही कई तरह के खतरनाक कचरे का प्रभाव कम हो जाता है। लेकिन इस विधि का दोष यह है कि इससे कचरे का कुछ हिस्सा हवा में पहुंच जाता है। अभी तक इस बारे में ज्यादा आंकड़े मौजूद नहीं है। इसके अलावा ई-कचरे में मौजूद भारी धातु का नाश इस तरह नहीं हो पाता और जलने के बाद भी वे बचे रहते हैं।

भारत सरकार ने ई-कचरे के सुरक्षित प्रबंधन के लिए खतरनाक कचरे के प्रबंधन, निबटान और सीमा के बाहर ढुलाई के नियम वर्ष 2008 में बनाए हैं जिसने अब पुराने नियमों की जगह ले ली है। इसमें पहली बार ऐसी व्यवस्था की गई है कि खराब हो गए बिजली और बिजली के उपकरणों की रिसाइकिलिंग या रिप्रोसेसिंग करने वाले को केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड में पंजीकरण कराना होगा। इस नियम का मक़सद है ई-कचरे का बेहतर और पर्यावरण का हितैषी निबटान करना। इसके लिए पर्यावरण मंत्रालय की एक टास्क फोर्स ने अपनी रिपोर्ट दे दी है और अब दिशा-निर्देश भी मंत्रालय और केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की वेबसाइट क्रमशः www.envfor.nic.in और www.cpcb.nic.in पर उपलब्ध हैं। दिशा निर्देश में इलेक्ट्रिक और इलेक्ट्रॉनिक ई-कचरे के अलग-अलग स्रोत की पहचान के लिए निर्देश दिए गए हैं। इसमें ई-कचरा पैदा करने वाले को जिम्मेदार ठहराने की जगह ई-कचरे को फिर से इस्तेमाल योग्य बनाने पर जोर दिया गया है।

बिजली और बिजली के उपकरण बनाने वालों के लिए दिशा-निर्देश


बिजली और बिजली के उपकरण बनाने वालों को अपने उत्पाद के साथ शुल्क लगाने की इजाजत होनी चाहिए, ताकि वे बाद में उन उत्पादों को वापस खरीद सकें। बाय बैक की व्यवस्था लागू करने की लागत जोड़कर उत्पाद की जो कीमत हो उस कीमत की सूची ग्राहक को उपलब्ध कराई जानी चाहिए। उत्पादक की जिम्मेदारी होनी चाहिए कि वह इस्तेमाल के लायक न रहे उत्पादों का संग्रह करे। इसके लिए उन्हें संग्रह केंद्र और गोदाम बनाने चाहिए। इसके लिए सरकार और निजी क्षेत्र के बीच सहयोग के पीपीपी (निजी-सार्वजनिक साझेदारी) मॉडल को अमल में लाया जा सकता है। बिजली और बिजली उत्पाद के निर्माताओं को उत्पाद के साथ निम्नलिखित जानकारियां देनी चाहिए-

1. उपकरण में कौन से खतरनाक पदार्थ है।
2. उपकरण में अगर टूट-फूट हो जाए तो उसे कैसे सुरक्षित ढंग से निबटाया जाए, इस बारे में एक पुस्तिका दिया जाना चाहिए।
3. क्या करें और क्या न करें के बारे में एक पुस्तिका होनी चाहिए।
4. जब उत्पाद काम के लायक न रह जाए तो उसके निबटान के तरीके का ब्यौरा होना चाहिए।
5. बेकार हो चुके उत्पाद को कहां जमा किया जा सकता है इसके बारे में संग्रह केंद्र और संगठनों का ब्यौरा, उनका पता, फोन नंबर, 24 घंटे हेल्पलाइन नंबर और ई-मेल का पता आदि दिया जाना चाहिए। ऐसे उत्पादों का संग्रह करने वालों के लिए आने-जाने की व्यवस्था होनी चाहिए।

इसके अलावा भारत में ई-कचरा के निबटारे के नए नियमों को भी अंतिम रूप दिया जा रहा है। इसके तहत कंप्यूटर, म्यूजिक सिस्टम, मोबाइल फोन तथा अन्य इलेक्ट्रॉनिक उपकरण बनाने वालों की भी ये जिम्मेदारी होगी कि इन उत्पादों के ई-कचरा बन जाने पर वे इनका सुरक्षित निबटान करें। नए नियमों में ई-कचरे के प्रबंधन की जरूरतों, उनके संग्रह, ढलाई और आयात-निर्यात के बारे में नियम बनाने, पर्यावरण अनुकूल तरीके से रिसाइक्लिंग यानी दोबारा इस्तेमाल जैसे पक्ष शामिल होंगे। इसे बनाने में एनजीओ और निर्माता कंपनियों के संगठनों की मदद ली गई है। इन नियमों को मानना तमाम पक्षों के लिए बाध्यकारी होगा।

उम्मीद है कि दुनिया भर के अनुभवों से सीख लेकर और इस मसले से जुड़े तमाम पक्षों की राय लेकर बनाए जा रहे नियमों से भारत में ई-कचरे का निबटान पर्यावरण अनुकूल और व्यवस्थित तरीके से हो पाएगा और हमारे शहर ई-कचरे के ढेर में दब जाने के खतरे से उबर जाएंगे।

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