पर्यावरण को लेकर अभी हमारे देश में पूरी तरह जागरूकता नहीं आई है। प्रदूषण जैसे अहम मुद्दे विकास के नाम पर पीछे छूट गए हैं। ऐसे में ई- कचरे (इलेक्ट्रॉनिक) के बारे में देश में बिलकुल भी जानकारी नहीं है न ही इस दिशा में कोई कदम उठते नजर आ रहे हैं। इलेक्ट्रॉनिक उत्पादों से बाजार भरे पड़े हैं। तकनीक में हो रहे लगातार बदलावों के कारण उपभोक्ता भी नए-नए इलेक्ट्रॉनिकक उत्पादों से घर भर रहे हैं। ऐसे में पुराने उत्पादों को वह कबाड़ में बेच देता है और यहीं से आरंभ होती है ई-कचरे की समस्या।
क्या है ई-कचरा
ई-वेस्ट आई.टी. कंपनियों से निकलने वाला यह कबाड़ा है, जो तकनीक में आ रहे परिवर्तनों और स्टाइल के कारण निकलता है। जैसे पहले बड़े आकार के कम्प्यूटर, मॉनीटर आते थे, जिनका स्थान स्लिम और फ्लैट स्क्रीन वाले छोटे मॉनीटरों ने ले लिया है। माउस, की-बोर्ड या अन्य उपकरण जो चलन से बाहर हो गए हैं, वे ई-वेस्ट की श्रेणी में आ जाते हैं। पुरानी शैली के कम्प्यूटर, मोबाइल फोन, टेलीविजन और इलेक्ट्रॉनिक खिलौनों तथा अन्य उपकरणों के बेकार हो जाने के कारण भारत में हर साल इलेक्ट्रॉनिक कचरा पैदा होता है। यह मनुष्य के स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरा उत्पन्न कर सकता है। विकसित देशों में अमेरिका की बात करें, तो वहाँ प्रत्येक घर में वर्ष भर में छोटे-मोटे 24 इलेक्ट्रॉनिक उपकरण खरीदे जाते हैं। इन पुराने उपकरणों का फिर कोई उपयोग नहीं होता। इससे यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि अमेरिका में कितना इलेक्ट्रॉनिक कचरा निकलता होगा। यह तथ्य भी देखने में आया कि केवल अमेरिका में ही 7 प्रतिशत लोग प्रतिवर्ष मोबाइल बदलते हैं और पुराना मोबाइल कचरे में डाल देते हैं।
ई -कचरे का बंढता आयात
विकासशील देशों को सर्वाधिक सुरक्षित डंपिंग ग्राउंड माने जाने के कारण भारत, चीन और पाकिस्तान सरीखे एशियाई देश ऐसे कचरे के बढ़ते आयात से चिंतित हैं। देश और दुनिया के पर्यावरण संगठन इसके संभावित खतरों पर एक दशक से भी ज्यादा समय से चिंता प्रकट कर रहे हैं। ऐसे कचरे के आयात पर प्रतिबंध लगाने के लिए भारत में चौदह साल पहले बने कचरा प्रबंधन और निगरानी कानून 1989 को धता बताकर औद्योगिक घरानों नें इसका आयात जारी रखा है। अमेरिका, जापान, चीन और ताइवान सरीखे देश तकनीकी उपकरणें में फैक्स, मोबाइल, फोटोकॉपियर, कम्प्यूटर, लैप-टॉप, टी.वी., बैरिया, कंडेसर, माइक्रो चिप्स, सी.डी. और फ्लॉपी आदि के कबाड़ होते ही इन्हें ये दक्षिण पूर्व एशिया के जिन कुछ देशों में ठिकाने लगाते हैं, उनमें भारत का नाम सबसे ऊपर है। अमेरिका के बारे में यह कहा जाता है कि वह अपने यहाँ का 80 प्रतिशत ई-कचरा चीन, मलेशिया, भारत, कीनिया तथा अन्य अफ्रीकी देशों में भेज देता है।
भारत सहित कई अन्य देशों में हजारों की संख्या में महिला पुरुष व बच्चे इलेक्ट्रॉनिक कचरे के निपटान में लगे हैं। इस कचरे को आग में जलाकर इसमें से आवश्यक धातु आदि भी निकाली जाती हैं। इसे जलाने के दौरान जहरीला धुऑ निकलता है, जो कि काफी घातक होता है। भारत में दिल्ली व बंगलुरू ई-कचरे को निपटाने के प्रमुख केंद्र हैं। दुनिया के देशों में तेजी से बढ़ती इलेक्ट्रॉनिक क्रांति से एक तरफ जहां आम लोगों की उस पर निर्भरता। बढ़ती जा रही है, वहीं दूसरी तरफ इलेक्ट्रॉनिक कचरे से होने वाले खतरे ने पूरे दक्षिण पूर्व एशिया खासकर पूरे भारत की चिंता बंढा दी है। पर्यावरण के खतरे और गंभीर बीमारियों का स्रोत बन रहे इस कचरे का भारत प्रमुख उपभोक्ता है। मोबाइल फोन, लेपटॉप, फैक्स मशीन, फोटो कॉपियर, टेलीविजन और कबाड़ बन चुके कम्प्यूटरों के कचरे भारी तबाही के तौर पर सामने आ रहे हैं।
देश में पैदा होता ई–कचरा
सरकार के अनुसार 2004 में देश में ई-कचरे की मात्रा एक लाख 46 हजार 800 टन थी जो बढ़कर वर्ष 2012 तक आठ लाख टन होने का अनुमान है। ई -कचरा पैदा करने वाले 10 अग्रणी शहरों में दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरू, कोलकाता, चेन्नई और हैदराबाद शामिल हैं। जोधपुर विश्वविद्यालय के एक प्रोजेक्ट पर काम कर रहे सेंटर फॉर क्वालिटी मैनेजमेंट सिस्टम के प्रमुख जांचकर्ता श्री घोष के अनुसार, जिस तेजी से बाजार में इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों विशेष रूप से मोबाइल की धूम मची है, इससे वर्ष 2010 में इलेक्ट्रॉनिक कचरा बढ़कर दो हजार टन होने की संभावना है। अभी भले ही यह आंकड़ा कम लगे, लेकिन यह चिंता का विषय जरूर है।
ई -कचरे के निपटान की समस्या
विकसित देश अपने यहाँ के इलेक्ट्रॉनिक कचरे की गरीब देशों को बेच रहे हैं। विकसित देश यह नहीं देख रहे कि गरीब देशों में ई-कचरे के निपटान के लिए नियम-कानून बने हैं या नहीं! इस कचरे से होने वाले नुकसान का अंदाजा इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि इसमें 38 अलग प्रकार के रासायनिक तत्व शामिल होते हैं जिनसे काफी नुकसान भी हो सकता है। जैसे टीवी व पुराने कम्प्यूटर मॉनिटर में लगी सीआरटी (केथोंड रे ट्यूब) को रिसाइकल करना मुश्किल होता है। इस कचरे में लेड, मरक्युरी, केडमियम जैसे घातक तत्व भी होते हैं। दरअसल ई-कचरे का निपटान आसान काम नहीं है क्योंकि इसमें प्लास्टिक और कई तरह की धातुओं से लेकर अन्य पदार्थ रहते हैं। इस कचरे को आग में जलाकर इसमें से आवश्यक धातु आदि निकाली जाती है। इसे जलाने से जहरीला धुंआ निकलता है जो काफी घातक होता है। विकासशील देश इनका इस्तेमाल तेजाब में डुबोकर या फिर उन्हें जलाकर उनमें से सोना-चांदी, प्लैटिनम और दूसरी धातुएं निकालने के लिए करते हैं। भारत में सूचना प्रोद्योगिकी का क्षेत्र बंगलौर है। यहां करीब 1700 आई.टी. कंपनियां काम कर रही है और उनसे हर साल 6000 हजार से 8000 टन इलेक्ट्रॉनिक कचरा निकलता है।
साफ्टवेयर टेक्नोलॉजी पार्क ऑफ इंडिया (एस.टी.पी.आई .) के डॉयरेक्टर जे. पार्थ सारथी कहते है कि सबसे बंडी जरूरत है भारी मात्रा में निकलने वाले ई-वेस्ट के सही निपटान की जब तक उसका व्यवस्थित ट्रीटमेंट नहीं किया जाता, वह पानी और हवा में जहर फैलता रहेगा। देश में निकलने वाला हजारों टन ई-वेस्ट (इलेक्ट्रॉनिक कचरा) कबाड़ी ही खरीद रहे हैं। इनके पास इस तरह के कचरे को खरीदने की न अनुमति है और न ही वैज्ञानिक तरीके से निपटान की व्यवस्था। म.प्र. में खतरनाक अपशिष्ट (प्रबंधन, हैंडलिंग एवं सीमापार संचलन) अधिनियम-2008 में ही इलेक्ट्रॉनिक व इलेक्ट्रिक वस्तुओं से निकलने वाले कचरे के प्रबंधन की व्यवस्था करीब दो वर्ष पहले से ही लागू कर दी गई थी, लेकिन म.प्र. प्रदूषण बोर्ड द्वारा लगातार इसकी अनदेखी की जा रही है। नियमों को जानते हुए भी बोर्ड ने आज तक शहर में किसी भी कबाड़ी के खिलाफ कार्रवाई तो दूर उसे नोटिस तक जारी नहीं किया। इंदौर में ही नहीं, संभवत: पूरे प्रदेश में कोई भी फर्म या व्यक्ति ई-वेस्ट निपटान या खरीदने के लिए अधिकृत नहीं है।
स्वास्थ्य और पर्यावरण को खतरा
इलेक्ट्रॉनिक चीजों को बनाने के उपयोग में आने वाली सामग्रियों में ज्यादातर कैडमियम, निकेल, क्रोमियम, एंटीमोनी, आर्सेनिक, बेरिलियम और मरकरी का इस्तेमाल किया जाता है। ये सभी पर्यावरण और स्वास्थ्य के लिए घातक हैं। इनमें से काफी चीजें तो रिसाइकल करने वाली कंपनियां ले जाती हैं, लेकिन कुछ चीजें नगर निगम के कचरे में चली जाती हैं। वे हवा, मिट्टी और भूमिगत जल में मिलकर जहर का काम करती हैं। कैडमियम से फेफड़े प्रभावित होते हैं, जबकि कैडमियम के धुएं और धूल के कारण फेफड़े व किडनी दोनों को गंभीर नुकसान पहुंचता है। एक कम्प्यूटर में प्राय: 3.8 पौंड सीसा, फासफोरस, केडमियम व मरकरी जैसे घातक तत्व होते हैं, जो जलाए जाने पर सीधे वातावरण में घुलते हैं। इनका अवशेष पर्यावरण के विनाश का कारण बनता है। अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण संगठन ''ग्रीनपीस'' के एक अध्ययन के अनुसार 49 देशों से इस तरह का कचरा भारत में आयात होता है। तमिलनाडु में सूचना प्रोद्योगिकी के विस्तार ने ई-कचरे के रूप में पर्यावरण के लिए गंभीर संकट पैदा कर दिया है। रायों में जहां-जहां सूचना प्रोद्योगिकी से जुड़ी कंपनियों द्वारा लगातार अपने ठिकाने बनाए जाने से ई-कचरे का संकट व्यापक रूप लेता जा रहा है।
भारत की सिलिकॉन वैली के रूप में मशहूर आई.टी. शहर बंगलौर में ई-वेस्ट यानी इलेक्ट्रॉनिक कचरे की समस्या गंभीर होती जा रही है। इससे निकलने वाले हानिकारक रसायन न सिर्फ मिट्टी को दूषित कर रहे हैं बल्कि भूजल को भी जहरीला बना रहे हैं। ई-कचरे ने पर्यावरण के लिए खतरा पैदा कर दिया है। खासतौर पर राजधानी चेन्नई के मूर मार्केट त्रिशुलम और रेडहिल समेत कई अन्य इलाकों में ई-कचरे का ढेर बढ़ता जा रहा है। पर्यावरण संरक्षण के लिए काम करने वाली एक स्वैच्छिक संस्था ''सिटिजन कंयूमर एण्ड एक्शन ग्रुप'' के प्रोग्राम अधिकारी राजेश रंगराजन ने बताया कि बेकार पड़े इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों को तोड़ने और बीनने के काम में लगे लोगों को इस बात का तनिक भी अंदाजा नहीं है कि ये उपकरण उनके स्वास्थ्य के साथ-साथ पर्यावरण के लिए भी कितने खतरनाक हैं। इलेक्ट्रॉनिक उपकरण सेमीकंडक्टर तकनीक से बनाए जाते हैं। इनमें ऊर्जा स्रोतों को लघु से लघुत्तम करने, परम्परागत धातु तांबे के साथ ही सिलीकॉन, केडमियम, सीसा, क्रोमियम, पारा व निकल जैसी भारी धातुओं का उपयोग किया जाता है। वैज्ञानिकों के अनुसार पर्यावरण में असावधानी व लापरवाही से इस कचरे को फेंका जाता है, तो इनसे निकलने वाले रेडिएशन शरीर के लिए घातक होते हैं। इनके प्रभाव से मानव शरीर के महत्वपूर्ण अंग प्रभावित होते हैं। कैंसर, तंत्रिका व स्नायु तंत्र पर भी असर हो सकता है।
क्या है नियम
केन्द्रीय पर्यावरण एवं वन संसाधन मंत्री जयराम रमेश के अनुसार ई-कचरे के निपटाने के लिए नियम बनाए गए हैं। केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने ई-कचरे के समुचित प्रबंध एवं निपटाने के लिए 'खतरनाक कचरा प्रबंधन, रखरखाव एवं सीमापार यातायात नियम 2008' बनाए हैं। नियमों के अनुसार ई -कचरे के निपटारे में इकाइयों की केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड में पंजीकृत होना जरूरी है। शहरों में कबाड़ी ही कम्प्यूटर, मोबाइल व इलेक्ट्रॉनिक वस्तुओं को कबाड़ के रूप में खरीद रहे हैं। वे इस कचरे में से मतलब की उपयोगी वस्तुओं को निकालकर खतरनाक अपशिष्ट को खुले में फेंक देते हैं। इसमें से निकलने वाले हानिकारक रेडिएशन लोगों के जीवन के लिए खतरा बन सकते हैं। इसके निपटान व नियंत्रण के लिए जिम्मेदार प्रदूषण बोर्ड के अधिकारी दो साल बीतने के बाद भी लापरवाह बने हुए हैं। ई-कचरे को खरीदने के लिए नियमानुसार प्रदेश के प्रदूषण बोर्ड द्वारा अनुमति लेने के बाद केंद्रीय प्रदूषण बोर्ड द्वारा पंजीयन कराना होता है। बोर्ड के क्षेत्रीय कार्यालय के अधिकारियों से मिली जानकारी के अनुसार अभी तक किसी को भी इस तरह के कचरे को खरीदने के लिए अधिकृत नहीं किया है। इधर केंद्रीय प्रदूषण बोर्ड ने देश में तेजी से बढ़ रहे ई-वेस्ट निपटान के लिए प्रारूप-2010 जारी कर नए नियमों को अमल में लाने की तैयारी की जा रही है।
प्रस्तावित नियम
इलेक्ट्रॉनिक व इलेक्ट्रिक वस्तुओं की उपयोग की उम्र निपटान की जिम्मेदारी उत्पादक संस्थान की होगी। उत्पादक के लिए ही नहीं, अपितु इस तरह के कचरे के पुर्नचक्रण व निपटान के लिए जिम्मेदार संस्थाओं पर भी सही तरीके से निपटान के लिए यह नियम लागू होगा। उपकरणों के खराब व अनुपयोगी होने पर उपयोगकर्ता की भी जिम्मेदारी होगी।
कड़े नियम जरूरी
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बेसल कन्वेंशन के अंतर्गत इलेक्ट्रॉनिक कचरे संबंधी नियमों का पालन होता है। चीन ने अपने यहाँ ई-कचरे आयात करने पर रोक कुछ महीने पहले ही लगाई है। हांगकांग में बैटरियाँ व केथोड़ रे ट्यूब का आयात नहीं किया जा सकता। इसके अलावा दक्षिण कोरिया, जापान व ताईवान ने यह नियम बनाया है कि जो भी कंपनियाँ इलेक्ट्रॉनिक उत्पाद बनाती हैं वे अपने वार्षिक उत्पादन का 75 प्रतिशत रिसाइकल करें। वहीं भारत की बात की जाए तो अभी ई-कचरे के निपटान व रिसाइकलिंग के लिए कोई प्रयास ही शुरू नहीं हुए। देश में तेजी से बढ़ रही कम्प्यूटर व इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों की संख्या से भी अब इस तरह के नियम-कायदे बनाना जरूरी हो गया है। सरकार और सूचना प्रौद्योगिकी उद्योग को इस खतरे से निपटने के लिए तुरंत कार्रवाई करनी चाहिए। तामिलनाडु प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का कहना है कि उसने सूचना प्रौद्योगिकी से जुड़ी कंपनियों को ई-कचरे के निस्तारण के लिए उचित तरीके अपनाए जाने की हिदायत दी है, लेकिन ज्यादातर कंपनियां इसका पालन नहीं कर रही है। इंडो-जर्मन स्विस ई-वेस्ट कंपनी के सहयोग से बंगलौर में काम कर रहे स्वैच्छिक संगठन ''ई-वेस्ट एजेंसी'' ने इलेक्ट्रॉनिक कचरे के सही निपटान के लिए पर्यावरण और वन मंत्रालय को भी पत्र लिखा है, कहा है कि इसके संबंध में कानूनी प्रावधान किया जाना चाहिए।
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