ई-कचरा : पर्यावरण प्रदूषण का नया आयाम

ई-कचरा
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औद्योगिक एवं तकनीकी क्रांति ने यदि मानवता के विकास में निर्णायक भूमिका अदा की है तो इसने मानव सभ्यता एवं परिवेश के लिए गम्भीर संकट भी पैदा किये हैं। जहां सेलफोन, टेलीविजन कम्प्यूटर व लैपटॉप आदि ने संचार की दुनिया का परिदृश्य बदला, वहीं दूसरी ओर इससे उपजे कचरे ने पर्यावरण असंतुलन में भयानक योगदान दिया है। दरअसल इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के बढ़ते प्रयोग के साथ-साथ ई-कचरे के परिमाण में भी अभिवृद्धि हुई है। खराब अथवा प्रयोग में न आने वाले मोबाइल फोन, टीवी, कम्प्यूटर, प्रिन्टर, छायाकन मशीन, रेडियो, ट्रांजिस्टर आदि उपकरणों का ढेर विश्वव्यापी समस्या बन चुके हैं। जैसे-जैसे इन उपकरणों का प्रयोग विकासशील एवं विकसित देशों में बढ़ता जा रहा है, वैसे-वैसे निष्प्रयोज्य उपकरणों का बढ़ता भंडार पर्यावरण के लिये एक गम्भीर संकट के रूप में उभरता जा रहा है। यह समस्या दिन-प्रतिदिन इतनी भयानक होती जा रही है कि यदि समय रहते इस पर ध्यान नहीं दिया गया तो हमारा कथित विकसित एवं उद्योग तकनीकी सम्पन्न समाज एक बीमार एवं कुंठित समाज में तब्दील हो जायेगा ।

विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार, सिर्फ भारत में 5,27,700 मृत्यु प्रतिवर्ष इस विषाक्त प्रक्रिया से हो रही हैं। पर्यावरण विज्ञान एवं पारिस्थितिकी विशेषज्ञों का मानना है कि यदि ई-कचरे के निस्तारण हेतु वैज्ञानिक तरीकों को इस्तेमाल नहीं किया गया तो इसके जलने के बाद उत्पन्न धुएँ से जलवायु परिवर्तन के साथ-साथ कैंसर जैसे असाध्य रोगों के अलावा नए-नए रोगों के पैदा होने की प्रबल संभावना बनी रहेगी।

एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में 38 लाख हज़ार टन ई-कचरा (जैसे कम्प्यूटर, मोबाइलफोन तथा टेलीविज़न सेट, आदि) पैदा होता है। इसमें प्रतिवर्ष 15 प्रतिशत की दर से वृद्धि हो रही है. और यदि ई-कचरे का भंडार इसी तरह बढ़ता रहा तो इसका परिणाम अनुमानित तौर पर आठ सौ लाख हजार टन से भी अधिक हो जाएगा।

ई-कचरे से विकसित एवं विकासशील दोनों तरह के देश समस्याग्रस्त हैं। अमेरिका जैसे विकसित राष्ट्र भी महज 20 प्रतिशत ई-कचरे का पुनर्शोधन एवं पुनर्चक्रण करने का पुनः प्रयोग करने का दावा करते हैं। लेकिन शेष 20 प्रतिशत ई-कचरा चीन, नाइजीरिया, भारत, वियतनाम, तथा पाकिस्तान जैसे देशों को भेज दिया जाता है। यह सारी गतिविधि मुक्त व्यापार के नाम से सम्पन्न होती हैं तथा इन देशों को ई-कचरे के निस्तारण हेतु भूमि के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है।

ई-कचरे का भारतीय परिदृश्य अत्यंत भयावह होता जा रहा है सबसे अधिक इलेक्ट्रॉनिक कचरा महाराष्ट्र में जमा हो रहा है तथा मुम्बई एवं दिल्ली भारत के उन 10 बड़े शहरों में शुमार हैं, जहाँ ई-कचरा पैदा हो रहा है। आंकड़े बताते हैं कि सिर्फ महाराष्ट्र में 20, 270.6 टन कचरा पैदा हो रहा है। इसके बाद लगभग 50,000 टन कचरा विकसित देशों से आयात किया जा रहा है। यह सब कुछ पुनः प्रयोग हेतु दान स्वरूप भेजा जा रहा है। लेकिन भारत में इस कचरे के निस्तारण हेतु जो संसाधन औपचारिक रूप से उपलब्ध हैं उनसे मात्र तीन प्रतिशत कचरे को ही पुनर्शोधित किया जा सकता है। शेष कचरे को अनौपचारिक रूप से परंपरागत तरीकों से जलाकर नष्ट करने के प्रयास किये जाते हैं।

दरअसल ई-कचरे को जलाने के बाद उसमें व्याप्त सोना, चांदी जैसी बहुमूल्य धातुओं को इकट्ठा कर नवधनाढ्य बनने का एक सिलसिला चल रहा है जिसका ज्वलंत उदाहरण मुरादाबाद नगर है। यहाँ मुख्यतः दिल्ली जैसे महानगर चोरी छुपे ट्रकों द्वारा ई-कचरा लाया जाता है तथा शहर के बाहरी हिस्सों में इसे जलाने का निर्वाध सिलसिला चल रहा है।

ई-कचरे को जलाने से जिन विषाक्त गैसों का उत्पादन हो रहा है उनसे हमारा पर्यावरण तो विषाक्त हो ही रहा है साथ ही साथ उसके कचरे को जलाकर बहुमूल्य धातुओं को निकालने का जो सिलसिला चल रहा है उससे कम समय में अमीर बनने की ललक गंभीर बीमारियों को जन्म दे रही है।

ई-कचरे को अवैज्ञानिक ढंग से जलाने के लिए इस थन्धे में लिप्त लोग घनी आबादी में छतों तथा शहर के बाहरी हिस्सों में सुनसान स्थान चुनते हैं तथा चोरी-चुपके रात्रि में इस कचरे को जलाकर कीमती धातु प्राप्त करने का अवैध कारोबार करते हैं।

ई-कचरे में प्रिन्टेड सर्किट बोर्ड से लेड, मरकरी, कैडमियम, मदरबोर्ड से बेरिलियम, कैथोड ट्यूब में लेड ऑक्साइड, बेरियम, कॅडमियम, स्क्रीन मॉनिटर में मरकरी, कम्प्यूटर बैटरी में कैडमियम, इन्सुलेटिड कोटिंग में पॉलीविनाइल क्लोराइड एवं प्लास्टिक हाउसिंग में ब्रोमीन नामक विषाक्त पदार्थ पाया जाता है, ये पदार्थ मनुष्य के स्वास्थ्य पर भयंकर कुप्रभाव डालते हैं। लेड व कैडमियम किडनी, लिवर, तन्त्रिका तन्त्र, सिरदर्द, जैसे रोगों को जन्म देते हैं जबकि बेरीलियम से फेफड़े एवं त्वचा के क्रॉनिक रोग व लेड ऑक्साइड से हृदयाघात एवं अन्य बीमारियां पैदा होती हैं। इन कचरों में मरकरी की काफी मात्रा होती है, उससे मस्तिष्क रोग एवं किडनी के रोग तो होते ही हैं एवं कुछ समय बाद बायोमैग्नीफिकेशन द्वारा शरीर में यह मात्रा कई गुना बढ़ जाती है। कैडमियम हमारे लिवर को प्रभावित करता है। पॉलीविनाइल क्लोराइड, शारीरिक प्रतिरोधक क्षमता को तथा ब्रोमीन हार्मोनल सिस्टम को प्रभावित करता है। इसके अतिरिक्त ई-कचरे को जलाने से कुछ कार्सिनोजन, निकलते रहते हैं जिनसे कैंसर का खतरा भी निरंतर बढ़ता जा रहा है एवं मानव शरीर की प्रजनन क्षमता, शारीरिक विकास एवं प्रतिरोधक क्षमता भी प्रभावित हो रही है। इसके अतिरिक्त कार्बन डाइऑक्साइड, कार्बन मोनोऑक्साइड तथा क्लोरोफ्लोरो कार्बन वायुमण्डल की ओजोन परत को प्रभावित करते हैं जिससे पारिस्थितिकी असुंतलन का खतरा बढ़ रहा है।

मुरादाबाद जैसे शहर जहाँ ई-कचरे को जलाने का अवैध कारोबार निरन्तर फल-फूल रहा है, वहाँ तरह-तरह की बीमारियों का औसत बढ़ रहा है। चिकित्सकों का मानना है कि विगत वर्षों में किडनी, कैंसर, श्वास रोग व मानसिक रोगों में वृद्धि हुई है। इससे स्मृति लोप, उच्चारण दोष, दृष्टि दोष, थकान एवं कमजोरी व अनिद्रा जैसी गम्भीर प्रवृत्तियां विकसित हो रही हैं। चिकित्सा विज्ञान के जानकारों का मानना है कि ई-कचरे के निस्तारण से निकलने वाली विषैली गैसों से हमारी प्रजनन क्षमता एवं प्रतिरोधी क्षमता का निरंतर ह्रास होता जा रहा है। इसका दूसरा दुष्परिणाम यह है कि मुरादाबाद जैसे शहर प्रदूषण के उच्चतम प्रदूषित क्षेत्र के मानकों को पार कर रहे हैं। ई-कचरे के जलने से सम्पूर्ण वातावरण में धुंध तो छायी ही रहती है लोग प्रायः सांस लेने में तकलीफ की शिकायत करते पाये गये हैं। ई-कचरे के जलने से जहाँ वायु प्रदूषण बढ़ रहा है वहीं जमीन में दबाने से मिट्टी तथा जल दोनों ही - प्रदूषित हो रहे हैं। आज ई-कचरे के कारण हमारे जल संसाधन एवं मृदा संसाधन भी विषाक्त होते जा रहे हैं।

इसके फलस्वरूप, फल-सब्जियों में विषाक्त पदार्थों की अधिकता बढ़ती जा रही है। एक अनुमान के अनुसार, यदि इस चक्र को निर्बाध गति से चलने दिया गया तो लगभग 60 लाख लोग विभिन्न बीमारियों से प्रतिवर्ष कालग्रस्त हो जाएंगे तथा 2030 तक यह संख्या लगभग 10 करोड़ तक पहुँच जायेगी।

यह जानकर बहुत आश्चर्य होता है कि ई-वेस्ट का केवल 5 प्रतिशत ही वैज्ञानिक तरीके से नष्ट किया जाता है जबकि बाकी 95 प्रतिशत अवैज्ञानिक तरीकों से निस्तारित किया जाता है जिसमें विषैली गैसें डाइऑक्सिन और फ्यूरॉन निकलती हैं जो कि कैंसर जनित होती हैं।

इसको जलाने के लिए मिट्टी के तेल या पेट्रोलियम पदार्थों का प्रयोग किया जाता है जिसके उत्सर्जन से कार्बन डाइऑक्साइड, कार्बन मोनोऑक्साइड, बेन्जीन, बेन्जोपाइरिन, बेन्जीन, टालुईन जैसे कार्बनिक प्रदूषक निकलते हैं जिससे वायुमण्डल में कार्बन का स्तर बढ़ रहा है। 

इलैक्ट्रॉनिक कचरा जलाना यूँ तो विश्वभर में प्रतिबंधित है लेकिन पीतल नगरी में इसकी खुली छूट है स्थिति की गंभीरता को लेकर शहर में एक व्यापक गोष्टी आयोजित की गयी जिसमें प्रशासन, प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड बुद्धिजीवी एवं समाजसेवी शामिल हुए। भारत सरकार के संचार एवं सूचना मंत्रालय (मैट, 2007) के अनुसार, भारत में 3,32,979 मीट्रिक टन कचरा जमा हो चुका है जो कि अनुमानित तौर पर 2015 में 0.7 मिलियन मीट्रिक टन एवं 2025 में 2 मिलियन मीट्रिक टन हो जायेगा।

अतः आज जरूरत इस बात की है कि ई-कचरे के निस्तारण के लिए वैज्ञानिक विधियों को प्रयोग में लाया जाए तथा गैर-कानूनी ढंग से जलाए जा रहे कचरे के विरुद्ध व्यापक जनमत तैयार किया जाए। समय-समय पर आयोजित जनसूचनाओं एवं गोष्ठियों के जरिए आम जनता को ई-कचरे के दुष्प्रभावों के प्रति जागरूक करना होगा ताकि हमारा पर्यावरण एवं समाज स्वस्थ रह सके।

संपर्क सूत्र : श्री रेना पाल, श्री अंशुमन गुप्ता एवं सुश्री अनामिका त्रिपाठी, प्रदूषण पारिस्थितिकी शोध प्रयोगशाला, वनस्पति विज्ञान विभाग, हिन्दू कॉलेज, मुरादाबाद (उ. प्र. )
 

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Post By: Kesar Singh
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