खाद्य पदार्थों के उत्पादन बढ़ाने, उन्हें लम्बे समय तक सुरक्षित रखने, ताज़ा रखने की कोशिश में कई तरह के रसायनों तथा पीड़कनाशियों का इस्तेमाल का इस्तेमाल किया जाता है। ब्रोमोफॉस, डी.डी.टी., क्लोरडेन, मैलाथियोंन, पैराथियॉन जैसे पीड़कनाशियों की लम्बी फेहरिस्त है। ताज़ा अनुसंधान बताते हैं कि इन खाद्य पदार्थों के ज़रिए पीड़कनाशियों का शरीर में प्रवेश खतरनाक है। एक अध्ययन...
कृषि के विकासक्रम में, उत्पादन को पर्याप्त बढ़ाने हेतु फसलों की रक्षा के लिए पीड़कनाशी अब एक महत्वपूर्ण साधन बन गए हैं। फसलों को नुकसान पहुंचाने वाले कीट, फफूंद, कृमि इत्यादि को मारने वाली दवाओं के पूरे समूह को पीड़कनाशी (Pesticides) कहा जाता है। भारत में 140 से भी अधिक पीड़कनाशी उपयोग में हैं और उनका इस्तेमाल कुल 90,000 टन प्रति वर्ष के आसपास होता है।
लेकिन पीड़कनाशियों का बिना सोचे विचारे उपयोग, विकासमान संसार में व्यावसायिक जोखिमों के अतिरिक्त, मानव स्वास्थ्य के लिए भी गंभीर चेतावनी बन गई है। इनके अत्यधिक उपयोग से कैन्सर बढ़ने की घटनाएं चिंता प्रकट करती हैं। इन कृषि रसायनों के विषैले होने से, खाद्यों में उनके कुछ अवशेष रह जाते हैं और जब यह मात्रा सुरक्षित स्तर से अधिक हो जाती है तो हानिकारक प्रभाव उत्पन्न करते हैं।
दिल्ली, बिहार, उत्तर प्रदेश और आन्ध्र प्रदेश जैसे राज्यों से खाद्यों और वनस्पतियों के एकत्र किए गए 75 प्रतिशत नमूनों में पीड़कनाशियों के अवशेषों की पर्याप्त मात्रा पाई गई है। देश के गेहूं उपयोग करने वाले मुख्य क्षेत्रों से गेहूं के आटे की 15 ब्राण्डों के पैक आटे के विश्लेषण से उनमें डी.डी.टी. जैसे पीड़कनाशी पाए गए हैं। कुछ ही समय पहले बी. एच.सी. (पीड़कनाशी) के पानी में पाए जाने से आगरा में 19 मौतें हो चुकी हैं। इसलिए यह स्थिति गंभीर प्रश्न उत्पन्न करती है कि क्या यह रासायनिक पीड़क नाशी जीवन की गुणवत्ता को बनाये रखने अथवा बढ़ावा देने हेतु वरदान है अथवा अभिशाप।
कीटनाशकों के लगातार उपयोग से इनके मिट्टी में रिसते रहने से जमीन के अंदर पानी के स्रोतों को भी यह प्रभावित करते हैं। इसके परिणाम स्वरूप नदियां, सरिताएं और तालाब आदि इन हानिकारक रसायनों से प्रदूषित हो गए हैं और पीने के पानी के स्रोतों को प्रभावित कर रहे हैं। कर्नाटक के हसन ज़िले के तालाबों के पीने के पानी में 0.02 से 0.2 पी.पी.एम. (अंश, प्रति दस लाख भाग) पीड़कनाशी पाए गए। कावेरी (कर्नाटक) के पानी में बी. एच.सी. का स्तर 1000 पी.पी.बी. (अंश प्रति सौ करोड़ भाग) और मिथायल पेराथियॉन 1300 पी.पी.बी. से अधिक था। यमुना नदी जो दिल्ली और आगरा शहरों के पीने के पानी का साधन है, में 21.8 पी.पी.एम. डी.डी.टी. की मात्रा सूचित की गई है।
विभिन्न खाद्य वस्तुओं जैसे गेहूं, चावल, मूंगफली, मछली, गोश्त, मक्खन, घी और चीज़ में आजकल पीड़कनाशियों के अवशेष काफी मात्रा में पाए जा रहे हैं। एक औसत भारतीय के शरीर के ऊतकों में डी.डी.टी. के संचयन का स्तर, विश्व में सर्वाधिक 12.8 और 31.0 पी.पी.एम. के बीच में पाया गया है। भारतीयों के भोजन में डी.डी.टी. का प्रवेश शाकाहारी और मांसाहारी लोगों में क्रमश: 238.1 और 224.1 माइक्रोग्राम प्रति व्यक्ति प्रतिदिन आंका गया है। यह ऑस्ट्रेलिया (20.0), कनाडा (10.8) और यूनाइटेड किंगडम (12.0) की तुलना में लगभग 20 गुना अधिक है।
दिल्ली के नागरिकों के शरीर की वसा में विश्व में सर्वाधिक पीड़कनाशी स्तर पाया गया है। विभिन्न खाद्य पदार्थों में डीडीटी का स्तर भिन्न पाया गया है। यह गेहूं में 1.6-17.4 पीपीएम के बीच, चावल में 0.8-16.4 पीपीएम के बीच, दालों में 2.9-16.9 पीपीएम के बीच, मूंगफली में 3.0-19.1 पीपीएम के बीच, सब्जियों में 5.0 पीपीएम तक और आलू में 68.5 पीपीएम तक पाई गई है। परीक्षित किए गए खाद्य पदार्थों में से 30 प्रतिशत में विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा निर्धारित सहन सीमा से अधिक अवशेष पाए गए। बीएचसी और डीडीटी अधिक सामान्य अवशेष हैं, लेकिन कलकत्ता के बाजारों में बिकने वाले खाद्य पदार्थों में मेलाथियॉन और लिनडेन अवशेष की अच्छी खासी मात्रा पाई गई है।
महाराष्ट्र में बोतल बंद दूध के नमूनों की जांच से 70 प्रतिशत में डी.डी.टी. और डाइएल्ड्रिन की मात्रा क्रमशः 4.8-6.3 पी.पी.एम. और 1.9-6.3 पी.पी.एम. थी, जबकि दूध में दोनों के लिए निर्धारित सीमा 0.66 पी.पी.एम. है। मुम्बई में दूधवालों द्वारा बेचे जाने वाले खुले दूध में डाइएल्ड्रिन की औसत मात्रा 96 पी.पी.एम. तक पाई गई। मक्खन में डाइएल्ड्रिन की सहने योग्य सीमा 1.25 पी.पी.एम. है, लेकिन इसमें डी.डी.टी. और बी.एच.सी. अवशेषों की सीमा क्रमशः 3.6 पी.पी.एम. और 2.6 पी.पी.एम. थी।
अंतर्राष्ट्रीय विकास अनुसंधान केन्द्र (ओटावा) ने दावा किया है कि विश्वभर में पीड़कनाशी विषाक्तता के 4,30,000 मामलों में से 10,000 लोग प्रतिवर्ष विकासमान देशों में मरते हैं। इसमें भारत का योगदान एक तिहाई है। इनमें से भी छिड़काव के कार्य में लगे खेतिहर श्रमिक सर्वाधिक प्रभावित होते हैं। औद्योगिक विश्व विज्ञान अनुसंधान केन्द्र और के.जी. मेडिकल कॉलेज, लखनऊ ने रिपोर्ट किया है कि उ.प्र. के गेहूं उगाने वाले क्षेत्र के पचास प्रतिशत खेती मजदूर पीड़कनाशी अवशेषों के प्रभाव से साफ-साफ न देख पाने की स्थिति में है। महाराष्ट्र और आन्ध्र प्रदेश के कपास उगानेवाले जिलों में पीड़कनाशी विषाक्तता के कारण अंधेपन, कैंसर, विरूपता, लीवर व तंत्रिका तंत्र की बीमारियों के मामले भी प्रकाश में आए हैं।
वर्तमान में पीड़कनाशियों की विषाक्तता के मामले तेज़ी से बढ़ रहे हैं, क्योंकि बिना जांच पड़ताल के विषाक्त रासायनिकों का बड़े स्तर पर उपयोग बढ़ रहा है। अतः इससे होने वाली मौतों की संख्या भी बढ़ गई है। राज्य श्रम कमिश्नर (असम) ने हाल ही में चाय बागान प्रबंधन पर इंगित किया है कि बिना सुरक्षा का इंतजाम किए विषैले पीड़कनाशियों का श्रमिकों द्वारा छिड़काव किए जाने से उनमें विषाक्तता के मामले बढ़ रहे हैं। रिपोर्ट किया गया है कि रसायन लेपित बाजरा खाने से मध्य प्रदेश में 50 मोरों की हाल ही में मृत्यु हो गई। हरियाणा के महेन्द्रगढ़ जिले में भी मोरों की आबादी के लिए खतरा पैदा हो गया है। क्योंकि वे खेतों में बोए गए उपचारित बीजों को मिट्टी से चुनकर खाते हैं।
पहले भी एल्यूमिनस फॉस्फाइड विषाक्तता के कारण उदयपुर (राजस्थान) में 28 मौतें हो चुकी हैं और रोहतक (हरियाणा) में 114, उत्तर प्रदेश में 55 और हिमाचल प्रदेश में 30 इसी तरह के मामले हो चुके हैं। एल्यूमिनस फॉस्फाइड विषाक्तता के लक्षण बेचैनी, उल्टियां, संचार हानि और बेहोशी हैं। पिछले दिनों मुंबई से कोचीन को पानी जहाज़ से माल भेजने के समय रिसन के कारण फॉलिडोल पीड़कनाशी से संदूषित चीनी और गेहूं के आटा को खाने से केरल में 106 मौतें हुई थीं। कर्नाटक के चिकमंगलूर जिले के गरीब हरिजन, पीड़कनाशी से धान के खेतों का उपचार करने से विषैले हुए उन्हीं खेतों के केकड़ों को खाने के कारण गंभीर लकवा के शिकार हो गए थे। केकड़े एल्ड्रिन और पेराथियॉन पीड़कनाशी के अवशेषों के द्वारा विषाक्त हो गए थे।
अनेक देशों ने अधिक विषाक्त और हानिकारक पाए गए अनेक कृषि रसायनों के उपयोग पर रोक लगाई है या उनका सीमित उपयोग निर्धारित किया है। लेकिन अमेरिकी कम्पनियां तीसरी दुनिया में इन निरोधी रसायनों को खपा रहीं हैं। इण्डोनेशिया ने धान के सभी 57 पीड़कनाशियों पर रोक लगा दी है क्योंकि वे फसल की रक्षा कम और मानव का हानि अधिक करते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने एण्डोसल्फान के उपयोग पर तत्काल रोक लगा दी है। यह खतरनाक पीड़कनाशी धान की फसल हेतु उपयोग किया जाता है लेकिन इससे आंख किडनी और लीवर की खराबियां हो जाती हैं। भारत सरकार ने 12 पीड़कनाशियों पर रोक लगा दी है और 13 पीड़कनाशियों का उपयोग सीमित कर दिया है। बी. एच.सी. का उपयोग धीरे-धीरे कम करके बन्द किया जा रहा है। दिल्ली सरकार ने अस्पतालों में बेंजीन के उपयोग पर रोक लगा दी है। मलेरिया की रोकथाम हेतु डी.डी.टी. का उपयोग अभी भी भारत सहित 20 से अधिक विकासमान देशों में हो रहा है। जबकि कई विकसित देशों में इसका उपयोग प्रतिबंधित है।
वैसे मानव और पशुजीवन को इन रासायनिक विषों द्वारा किए गए खतरे और उनका पर्यावरणीय प्रदूषण तथा हवा, पानी, मिट्टी और खाद्य सामग्रियों में अवशेषों के बने रहना अब विश्व भर के लिए चिंता का विषय बन गया है। टाटा ऊर्जा अनुसंधान ने हाल ही में सुझाव दिया है कि फसलों में कुछ जीन प्रवेश करा देने चाहिए जिससे वे नाशक जीवों और कीड़ों के लिए प्रतिरोधी बन जाएं और विषले रासायनिक के उपयोग से बचा जा सके। इसकी सफलता विविध आयामी होगी, परन्तु इसके दुष्प्रभावों का भी अध्ययन जरूरी है।
जोखिमों के प्रभावों को कम करने के लिए आजकल वनस्पति आधारित पीडकनाशी विकसित करने का प्रयास किया जा रहा है। प्रकृति में विद्यमान जैविक नियंत्रण को विशिष्टता दिए जाने की बहुत आवश्यकता है। नीम का वृक्ष एशिया और अफ्रीका में जंगली तौर पर उगता है और प्राकृतिक कीटनाशी का एक बड़ा स्रोत बनने की संभावना रखता है। अमेरिका में नीम से एक कीटनाशी विकसित किया गया है जो चूर्ण और छिड़काव दोनों रूप में है।
लहसुन और मिचर्चा से एक सुरक्षित वानस्पतिक पीड़कनाशी विकसित किया गया है जो उच्च प्रभावी है। केन्द्रीय औषधीय और सगंध पादप संस्थान, लखनऊ ने हाल ही में एक वानस्पतिक को पेटेन्ट कराया है जो भण्डारित दालों में पीड़कों से होने वाली हानियों को रोक सकेगा। इस तरह के सुरक्षित प्राकृतिक पीड़कनाशी निश्चय ही निकट भविष्य में रासायनिक पीड़कनाशियों से होने वाले मानव दुर्घटनाओं से हमें बचा सकेंगे।
स्रोत:- फीचर्स जून 2001
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