मानवीय स्वभाव है कि एक बार समस्या एवं उसका कारण स्पष्ट हो जाये तो उसके निदान के लिये नूतन आविष्कार कर ही लेता है। आशा है कि इस सदी के मध्य तक पेट्रोलियम पदार्थों पर निर्भरता समाप्त कर पृथ्वी के लिये वरदान स्वरूप सौर ऊर्जा से प्राप्त होने वाले पुनर्नवीकरणीय पदार्थों से ही वैज्ञानिक जैव अपघटनीय पदार्थ विकसित कर लेंगे, जो संश्लेषित प्लास्टिकों के उपयोग को पूर्णत: प्रतिबंधित करने में सहायक होंगे।
पदार्थ विज्ञान के क्षेत्र में पिछले पाँच दशकों में युगांतरकारी विकास हुए हैं। पिछली शताब्दी के मध्य के दशकों में विज्ञान-गल्प में वर्णित कल्पनातीत विवरणों की वास्तविकता में परिणति उल्लेखनीय हैं। आधुनिक पदार्थ विज्ञान द्वारा मानव के जीवन स्तर में गुणात्मक विकास हुए हैं। हर क्षेत्र में सफलता स्पष्ट दृष्टव्य है, चाहे वह खाद्यान्न की उपलब्धता हो, रंग-बिरंगे वस्त्रों की विविधता हो, यातायात की सुगमता हो, मनोरंजन के साधनों की विभिन्न क्षेत्रों में प्लास्टिक पदार्थ प्रचुरता हो, सुदूर संवाद की सहजता हो, गृह निर्माण एवं साज-सज्जा की सामग्री की बहुलता हो, प्रसाधनों द्वारा सौंदर्य का वरदान हो या चिकित्सा के चमत्कार हों। एक सामान्य बौद्धिक स्तर के मनुष्य के लिये अकल्पनीय संसाधन आज सहज उपलब्ध हैं।नि:संदेह मनुष्य की सृजनशील प्रकृति स्वप्नों को साकार रूप देने में समर्थ है। उपभोक्ता संस्कृति के प्रवाह में यदि हम केवल वर्तमान में ही लुब्ध रहेंगे, तो संभवत: भावी पीढ़ी के प्रति अन्याय के भागी होंगे। नितांत व्यावसायिक बुद्धि से संसाधनों का अंधाधुंध दोहन द्रुत गति से उनका क्षरण कर रहा है। आज की उपयोगी वस्तु कल के लिये कबाड़ हो जाती है। यदि विवेकपूर्ण कार्ययोजना तैयार न की जाये, तो अपशिष्टों का निपटान एक विकराल समस्या का रूप धारण कर लेगा।
पिछली शताब्दी के द्वितीयार्द्ध में संश्लेषित बहुलकों (सामान्य प्रचलित शब्द ‘प्लास्टिक’) ने उपभोक्ता बाजार पर वर्चस्व स्थापित कर लिया। कारण स्पष्ट है, प्लास्टिक के अद्वितीय गुणों की असाधारण रेंज के कारण विविध, नूतन एवं जटिल डिजाइनों तथा उपयोगिता की सामग्री का औद्योगिक निर्माण अत्यंत सस्ता एवं सहज है। सस्ते मूल्य पर उपलब्ध पेट्रोलियम पर आधारित प्लास्टिक पदार्थों की जैव-रासायनिक निष्क्रियता ने इनकी लोकप्रियता में मुख्य भूमिका निभाई। दैनन्दिन उपयोग के प्रचलन में लगभग पचास वर्ष के उपरांत जब हम इनके आदी हो चुके हैं, इनके दोष स्पष्ट होने लगे हैं। पेट्रोलियम के स्रोत तीव्र गति से समाप्ति की ओर अग्रसर हैं। उपयोग के उपरांत प्लास्टिक अपशिष्ट की जैव अपघटनीय प्रकृति पर्यावरण के लिये खतरा बनती जा रही है।
प्रकृति द्वारा उत्पन्न पदार्थों के क्षरण एवं पुनर्चक्रीकरण की संपूर्ण प्राकृतिक व्यवस्था होती है। संश्लेषित पदार्थों के पुनर्चक्रीकरण की कार्यविधि प्राकृतिक पर्यावरण में उपलब्ध नहीं होती है। अत: निर्माणकर्ता को ही संहारण की तकनीक भी विकसित करनी होगी। मानव निर्मित पदार्थों की विविधता के परिपेक्ष में यह अत्यंत जटिल एवं दुस्साध्य लक्ष्य है। विकासशील देशों की तुलना में विकसित देश अनेक गुना अधिक अजैव अपघटनीय एवं हानिकारक अपशिष्ट उत्पन्न करते हैं। अपनी समस्या के स्थानान्तरण के लिये इस प्रकार के अपशिष्टों को पुनर्चक्रण के नाम पर विकासशील देशों को निर्यात कर देने की प्रथा चल पड़ी है। पृथ्वी के पर्यावरण के लिये असुरक्षित अपशिष्ट पर्यावरणविदों के लिये चुनौती स्वरूप हैं।
सामाजिक प्रतिबद्धता एवं दूरगामी परिणामों की गहरी सोच वाले संवेदनशील वैज्ञानिक ऐसे पदार्थ एवं तकनीक विकसित करने में संलग्न हैं, जो धारणीयता (सस्टेनेबिलिटी), औद्योगिक मितव्ययिता, पर्यावरणीय दक्षता एवं हरित रसायन में सामंजस्य स्थापित कर सके। इक्कीसवीं सदी में पृथ्वी की हरियाली के संरक्षण हेतु नूतन, पर्यावरण हितैषी, पुनर्नवीकरणीय कृषि एवं जैव पदार्थों पर आधारित उत्पादों हेतु शोध कार्य निरंतर जारी हैं। आशा की जाती है कि शीघ्र ही इस प्रकार के पदार्थ पेट्रोलियम आधारित उत्पादों के बाजार पर आधिपत्य को चुनौती देने में सक्षम होंगे।
प्राकृतिक बहुलक (पॉलीसैकेराइड, प्रोटीन इत्यादि) पुरातनकाल से मानवीय उपयोग हेतु प्रयुक्त होते रहे हैं। विश्व के विभिन्न संग्रहालयों के अवलोकन से स्पष्ट प्रमाण उपलब्ध होते हैं। विभिन्न वस्तुओं में रेशम, चमड़ा, अस्थि, कागज आदि का प्रयोग किया जाता रहा है। दो या अधिक पदार्थों के सम्मिश्रण से कम्पोजिट का निर्माण किया जाता है। कम्पोजिटों का इतिहास संश्लेषित बहुलकों से कहीं अधिक प्राचीन हैं। बाइबिल में विवरण मिलता है कि मोजेस की माता ने जलबेंत, तारकोल एवं पंक (कीचड़) की सहायता से धनुष बनाया था। आधुनिक वर्गीकरण में इसे रेशा प्रबलित (Fibre reinforced) कम्पोजिट कहा जा सकता है। चीनी किलों के निर्माण में चावल का मांड, शक्कर, चूना एवं रेत से बने कम्पोजिट प्रयुक्त किये जाते थे। प्राचीन भारतीय महलों एवं दुर्गों के निर्माण में कंपोजिट पदार्थों में उड़द की दाल के उपयोग का उल्लेख मिलता है।
आधुनिक युग में विगत कई वर्षों से कंपोजिट प्रयुक्त किये जा रहे हैं और उनका बाजार निरंतर बढ़ रहा है। इन कम्पोजिटों में संश्लेषित बहुलकों के साथ एक या अधिक पूरकों का इस्तेमाल किया जाता है, जैसे- चूना, काँच तंतु, टॉल्क, काओलिन, माइका, वालस्टोनाइट, सिलिका, ग्रेफाइट, संश्लेषित रेशे, कार्बन फाइबर इत्यादि। इन कम्पोजिटों की प्रमुख कमी यह है, कि दो या अधिक भिन्न-भिन्न घटकों की उपस्थिति के कारण इनका पुनर्चक्रीकरण लगभग असंभव हो जाता है। अत: उन्हें या तो अनुपचारित रूप में फेंक दिया जाता है या जला दिया जाता है। ये दोनों ही विधियाँ पर्यावरण के लिये असुरक्षित हैं।
हरित रसायन का महत्त्वपूर्ण लक्ष्य कच्चे माल का अधिकतम क्षमता में उपयोग एवं न्यूनतम अपशिष्ट निर्माण है। कच्चे माल के रूप में प्राकृतिक पुनर्नवीकरणीय पदार्थों के प्रयोग का रुझान इसी लक्ष्य की पूर्ति हेतु बढ़ रहा है। प्राकृतिक बहुलकों के बहुविध अनुप्रयोग हैं, यथा रेशों के रूप में, गोंद, आवरण या लेप, जेल, फोम, फिल्म, थर्मोप्लास्टिक एवं थर्मोसेटिंग रेजिन इत्यादि। प्राकृतिक उत्पादों की मुख्य कमियाँ उनके जल स्नेही गुण, द्रुत अपघटन एवं असंतोषजनक यांत्रिक गुण (विशेषत: आर्द्र वातावरण में) होते हैं। अधिकांश प्राकृतिक बहुलक उच्च ताप पर स्थायी नहीं होते हैं। सिद्धांतत: प्राकृतिक बहुलकों के गुणधर्म संश्लेषित बहुलकों के साथ सम्मिश्रण (Blending) द्वारा परिष्कृत किये जा सकते हैं। ब्लेंडिंग एक सस्ती एवं बहुपयोगी तकनीक है, जिसमें दो या अधिक पदार्थों के सम्मिश्रण से घटकों के गुणों में यद्यपि क्रांतिकारी परिवर्तन तो नहीं होता, किंतु ब्लेंड या कम्पोजिट की कार्य निष्पादन क्षमता में उल्लेखनीय सुधार हो जाता है। संश्लेषित बहुलकों का रासायनिक वैविध्य एवं चमत्कारिक गुण अतिविशिष्ट होते हैं। वस्तुत: उनके गुणों एवं प्रकारों की सीमा रेखाएँ प्राकृतिक बहुलकों की तुलना में कहीं अधिक व्यापक हैं। संश्लेषित बहुलक बृहत पैमाने पर कम मूल्य में बनाये जा सकते हैं। इनके साथ प्राकृतिक या जैव बहुलकों (रेशों) की ब्लेंडिंग द्वारा उत्पाद के गुणों के परिष्कार की असीमित संभावनाएं बनती हैं। प्राकृतिक रेशे पौधों के विभिन्न भागों से प्राप्त किये जाते हैं, जैसे :
1. तने की आंतरिक छाल जो पौधे की पूरी लंबाई में विस्तृत होती है, उदाहरण - जूट, फ्लेक्स, रेमी आदि।
2. पत्तियों के रेश - उदाहरण केला, सीसल, अनानास आदि।
3. बीजों के केशीय रेशे - नारियल की जटा, कपास आदि।
4. मज्जा या गूदा - कुछ पौधों के अंदरूनी हल्के एवं स्पंजी भाग, जैसे - जूट, केनाफ आदि।
5. जड़ों एवं पौधों के अन्य भागों, जिनका ऊपर उल्लेख नहीं है, से प्राप्त रेशे।
प्राकृतिक/वानस्पतिक रेशों को पूरक के रूप में उपयोग कर बनाये जाने वाले कम्पोजिट वाहन उद्योग, हवाई परिवहन, पैकेजिंग, फर्नीचर, खिड़की-दरवाजों के चौखट, रेलमार्ग के स्लीपर एवं अन्य औद्योगिक सामग्रियों के निर्माण में उत्तरोत्तर लोकप्रिय हो रहे हैं।
वाहन उद्योग में हरित कम्पोजिटों के प्रयोग का श्रेय मर्सीडीज-बेन्ज को दिया जाता है, जिन्होंने पिछली सदी के नब्बे के दशक में जूट के रेशों का प्रयोग द्वार-पैनलों के निर्माण में किया। इस अनुकरणीय उदाहरण से प्रेरित होकर अन्य कार निर्माताओं ने कारों के निर्माण में प्राकृतिक कार्बनिक पूरकों का प्रयोग प्रारंभ कर दिया। पर्यावरण मैत्री के साथ भार का हल्कापन, प्रचुर उपलब्धता, कम मूल्य, उच्च तन्यता गुणांक इनके लाभकारी गुण हैं। रेशों के अतिरिक्त कार्बनिक पूरक अनुपयोगी पदार्थों से भी प्राप्त किये जा सकते हैं, जैसे-लकड़ी का बुरादा, गन्ने की खोई, भुट्टे के ठूंठ, गेहूँ या धान का भूसा आदि। खनिज पूरकों की तुलना में इन पदार्थों के अनेक लाभ हैं। वे प्रोसेसिंग मशीनों के प्रति अत्यल्प घर्षण उत्पन्न करते हैं जिससे उत्पादन में लगे श्रमिकों के लिये हानिकारक नहीं होते और श्वसन संबंधी समस्या भी उत्पन्न नहीं करते। ये उपयोग के उपरांत आसानी से भस्मीकृत किये जा सकते हैं। साथ ही हल्के होते हैं और बेहतर तापीय व ध्वनि अवरोधन के गुण प्रदर्शित करते हैं।
विगत 10 वर्षों से वैज्ञानिक ‘‘इकोकम्पोजिट’’ या ग्रीन कम्पोजिटों के निर्माण में जुटे हैं। इस प्रकार के पहले प्रयास में पॉलीऑलिफिन (जिनका पुनर्चक्रीकरण किया जा सकता है) के साथ प्राकृतिक कार्बनिक पूरकों का प्रयोग किया गया। डिब्बाबंद भोज्य पदार्थों के उपयोग के उपरांत खाली डिब्बों, दूध की खाली बोतलों, ग्रीन हाउस की बेकार हुई फिल्मों आदि के पुनर्चक्रण से प्राप्त बहुलकों का भी कम्पोजिटों में प्रयोग किया गया। इनमें प्राकृतिक कार्बनिक पूरकों को समान्यत: 40-70 प्रतिशत मिलाया जाता है, परिणामत: कठोरता एवं लोच सामर्थ्यता बढ़ जाती है, किंतु तन्यता में कमी आती है। इस समस्या के निदान हेतु संश्लेषित बहुलक पर ध्रुवीय समूहों की ग्राफ्टिंग की जाती है, जिससे विभिन्न घटकों की परस्पर आसंजन क्षमता बढ़ जाती है। प्राकृतिक रेशों का रासायनिक उपचार करने पर वे छोटे-छोटे तंतुओं में विभक्त हो जाते हैं और उपचार में समुपयुक्त रसायन प्रयुक्त कर आर्द्रताशोषक गुण, सतह की गुणवत्ता, ताप सहनीयता, आयामी स्थिरता आदि गुणों में अपेक्षित सुधार किया जा सकता है।
दुर्भाग्यवश ये हरित कम्पोजिट भी पूर्णरूपेण मित्र नहीं होते हैं, क्योंकि इनके पुनर्चक्रीकरण की कुछ सीमाएं हैं, यथा पुनर्चक्रण के दौरान ताप 2000C से अधिक होने पर विखण्डन प्रारंभ हो जाता है एवं गुणों का ह्रास होने लगता है। दूसरा-प्राकृतिक पूरक जलस्नेही होते हैं तथा संश्लेषित बहुलकों का आव्यूह (Matrix) जालावरोधी होता है। अत: इनमें पूरी तरह सायुज्य एवं अंतरसतह आसंजन न होने के कारण बीच-बीच में कुछ स्थान बचा रहता है, जिसके कारण यांत्रिक सामर्थ्यता में कमी आती है। इस स्थिति में सुधार के लिये कुछ उभयधर्मी पदार्थ (जिनमें जलस्नेही एवं जलावरोधी दोनों प्रकार के समूह हों) मिलाये जाते हैं, जो विभिन्न घटकों के साथ सामंजस्य के द्वारा यांत्रिक प्रबलता को बढ़ा देते हैं।
कम्पोजिट के उपयोग काल के उपरांत प्राकृतिक घटक का जैव अपघटन हो जाता है, किंतु संश्लेषित बहुलक अपघटित हुए बिना रह जाता है। अत: पिछले कुछ वर्षों से शत-प्रतिशत पर्यावरण धारणीय एवं जैव अपघटनीय कम्पोजिटों के विकास हेतु प्रयास किये जा रहे हैं। इस हेतु पॉलीसैकेराइड (स्टार्च, काइटिन, कोलेजेन, जिलेटिन आदि), प्रोटीन (केसीन, एल्ब्यूमिन, रेशम, इलास्टिन, सोया प्रोटीन आदि), पॉली एस्टर (पॉलीहाइड्रॉक्सी एल्केनोएट, पॉलीहाइड्रॉक्सी ब्यूटाइरेट, पॉलीलेक्टि अम्ल), लिग्निन, लिपिड, प्राकृतिक रबर, कुछ पॉलीएमाइड, पॉलीविनाइल अल्कोहल, पॉलीविनाइल एसीटेट एवं पॉलीकेप्रोलेक्टोन प्रयुक्त किये जा रहे हैं। इनमें से अधिकांश जैव बहुलक हैं जो आर्द्र वातावरण में एन्जाइमों की क्रिया से अपघटित हो जाते हैं।
नोवामोण्ट कंपनी ने मैटर-बि नामक बहुलक विकसित किये हैं, जो संशोधित स्टार्च एवं सेश्लेषित बहुलकों (मुख्यत: पॉलीएस्टर) पर आधारित हैं और भूमि में दबाने की कम्पोस्टिंग विधि से अपघटित हो जाते हैं। पॉलीलेक्टिक अम्ल (मक्के से संश्लेषित) के साथ कई रेशों पर प्रयोग किये जा रहे हैं। अस्थि ऊतक अभियांत्रिकी के क्षेत्र में जैव अपघटनीय रोपणों (Implants) की मांग बढ़ रही है। इस हेतु ऐसे पदार्थ आवश्यक होते हैं, जो जैवसंयोज्य (Biocompatible) हों और उनकी सतह पर ऊतक का पुनरुद्भवन संभव हो। जैवशोषणीय बहुलक पॉलीलेक्टिक अम्ल के साथ घुलनशील कैल्शियम फास्फेट काँच के प्रयोग द्वारा पूर्णत: अपघटनीय पदार्थ विकसित किया गया है, जो अस्थि पुनरुद्भवन की सामर्थ्यता प्रदर्शित करता है।
पूर्णत: जैव अपघटनीय कम्पोजिटों के विकास एवं उपयोग में कुछ बाधाएँ हैं। पहली समस्या है कि परंपरागत उपभोक्ता बहुलकों की तुलना में इनका मूल्य अधिक होता है। यद्यपि उपयोग एवं मांग बढ़ने पर मूल्य घटना संभव है। उदाहरण के तौर पर कुछ कंपनियाँ जेनेटिक अभियांत्रिकी द्वारा रेशम निर्माण के लिये प्रयासरत हैं जिसका जैव अपघट्य पदार्थों में उपयोग किया जा सके। दूसरी एवं अधिक जटिल मूलभूत समस्या पूरकों का एकसार प्रसरण एवं बहुलक आव्यूह के साथ अंतर सतह आसंजन की है, जो उत्पाद के गुणों को प्रभावित करने वाला मुख्य कारक है। इस समस्या का समाधान विभिन्न घटकों को रासायनिक उपचार द्वारा संयोज्य बनाने का है, किंतु यह प्रविधि सहज एवं सस्ती नहीं है। इन समस्याओं का निदान ‘ग्रीन’ नैनोकम्पोजिटो के रूप में खोजा जा रहा है। पॉलीसैकेराइड नैनोक्रिस्टलों एवं सैल्यूलोज नैनोव्हिस्कर्स के प्रयोग से कम्पोजिटों की यांत्रिक सामर्थ्यता बहुगुणित हो जाती हैं। नैनोक्रिस्टल काइटिन एवं स्टार्च के अम्लीय जल अपघटन से प्राप्त किये जा सकते हैं। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि सेल्यूलोज पेड़-पौधों में पाया जाता है तथा सर्वाधिक प्रचुर पुनर्नवीकरणीय प्राकृतिक पदार्थ है।
दूसरे स्थान पर काइटिन है, जो कीड़ों, मकोड़ों, घोघों, फफूंद, काई आदि में पाया जाता है। यह समुद्री भोज्य सामग्री का प्रमुख अपशिष्ट है। काइटिन के असाधारण रासायनिक एवं जैविक गुणों के कारण इसके अनेक औद्योगिक एवं चिकित्सकीय अनुप्रयोग हैं। यद्यपि इसके गुणों की तुलना में इसका पर्याप्त उपयोग वर्तमान में नहीं हो रहा है, किंतु इसकी उच्च कार्य क्षमता को देखते हुए इसके उपयोग हेतु अनेक शोध हो रहे हैं।
सेल्यूलोज नैनोफाइबर्स अनेक अद्वितीय गुण प्रदर्शित करते हैं। आयतन की तुलना में सतहीय क्षेत्रफल बहुत अधिक होते हैं। इनके कुछ विशिष्ट गुण, यथा उत्तम यांत्रिक गुण, उच्च यंग मॉड्यूल्स, उच्च तन्यता सामर्थ्य, निम्न तापीय प्रसार गुणांक, अत्यंत संरंध्र जालिका का निर्माण आदि होते हैं जो अन्य व्यावसायिक रेशों में उपलब्ध नहीं हैं। हाइड्रोजन बंध बनाने की क्षमता के कारण सेल्यूलोज में पराआण्विक संरचनाएँ बनती हैं, जो इनके भौतिक एवं रासायनिक गुणों का निर्धारण करती हैं। अत: प्रकृति में पाये जाने वाले सेल्यूलोज की आण्विक शृंखलाएं असंख्य अंत: एवं अंतराणुक हाइड्रोजन बंधों द्वारा दृढ़ता से परस्पर आबद्ध होती हैं। यही कारण है कि सेल्यूलोज जल एवं अधिकांश कार्बनिक विलायकों में अविलेय होता है। सेल्यूलोज की यह उच्च दृढ़प्रकृति कम्पोजिटों में प्रबलीकरण के लिये अत्यधिक उपयुक्त है। नैनोफाइबर बनाने के लिये दृढ़ता से आबद्ध शृंखलाओं को पृथक करना आवश्यक है।
इस हेतु सेल्यूलोज रेशों को आयनिक द्रवों में माइक्रोवेव ऊर्जा से घोलकर नैनोफाइबर बनाने की विधि विकसित की जा रही है। नैनोफाइबर्स का पॉलीमर आव्यूह में विसरण एवं आसंजन समांगी रूप से संभव हो सकता है, परिणामत: बने नैनोकम्पोजिट अत्यंत उत्कृष्ट एवं विशिष्ट गुण प्रदर्शित करते हैं।
पूर्णत: सेल्यूलोज पर आधारित नैनोकम्पोजिटों में सेल्यूलोज नैनोफाइबर्स को पुनरुद्भवित सेल्यूलोज आव्यूह में विसरित कर असामान्य रूप से पारदर्शी, उच्च यांत्रिक क्षमता युक्त, अविशाक्त, जैव अपघटनीय ‘हरित नैनोकम्पोजिट’ का विकास किया गया है।
मानवीय स्वभाव है कि एक बार समस्या एवं उसका कारण स्पष्ट हो जाये तो उसके निदान के लिये नूतन आविष्कार कर ही लेता है। आशा है कि इस सदी के मध्य तक पेट्रोलियम पदार्थों पर निर्भरता समाप्त कर पृथ्वी के लिये वरदान स्वरूप सौर ऊर्जा से प्राप्त होने वाले पुनर्नवीकरणीय पदार्थों से ही वैज्ञानिक जैव अपघटनीय पदार्थ विकसित कर लेंगे, जो संश्लेषित प्लास्टिकों के उपयोग को पूर्णत: प्रतिबंधित करने में सहायक होंगे।
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