हरित जलवायु कोष : कितना लेना, कितना देना

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अरब सागर गर्म होता है, तो क्या इसका असर भारत के मानसून पर नहीं पड़ता? इसी तरह जब गरीब देश अपने यहाँ नुकसानदेह गैसों को उत्सर्जन घटायेंगे, तो क्या इसका लाभ सिर्फ गरीब देशों को ही होगा? नहीं, बेहतरी अमीर देशों के हिस्से में भी आयेगी। इसी तथ्य के मद्देनज़र पेरिस जलवायु समझौते के तहत 100 अरब डॉलर का ‘ग्रीन क्लाइमेट फण्ड’ बनाया गया था। हरित जलवायु कोष यानी ‘ग्रीन क्लाइमेट फण्ड’ को पेरिस जलवायु समझौते के निर्णय खण्ड में रखा गया है। निर्णय खण्ड में लिखी बातें समझौता हस्ताक्षरकर्ताओं के लिये कानूनन बाध्यकारी नहीं है। इसी छूट का फायदा लेते हुए दुनिया का नंबर दो सबसे अधिक कार्बन उत्सर्जक देश होने के बावजूद अमेरिका इस समझौते से यह कहते हुए भाग निकला है कि इससे अमेरिका का नुकसान अधिक है और भारत जैसे देशों का फायदा अधिक। यह सच है कि पेरिस जलवायु समझौते के तहत सृजित ‘ग्रीन क्लाइमेट फण्ड’ से भारत को 19,000 करोड़ रुपये की मदद मिली है, किंतु वहीं यह भी सच है कि इसमें अमेरिकी को सिर्फ 600 करोड़ रुपये ही देना पड़ा है।

श्रीमान डोनाल्ड ट्रम्प के इस दावे को झूठ ठहराता है कि पेरिस जलवायु समझौता भारत जैसे देशों की अमेरिका से धन हथियाने की साजिश है। पेरिस समझौते को लेकर गरीब व विकासशाील देशों की कुछ आशंकाओं और जटिलताओं के बावजूद, भारत की प्रतिबद्धता और नेतृत्वकारी भूमिका का सच वही है, जो भारतीय प्रधानमंत्री श्री मोदी ने सेंट पीट्सबर्ग इकोनॉमिक फोरम की निवेशक बैठक में कहा।

समझना होगा कि हम देश भले ही अलग-अलग हों; वायुमण्डल हम सभी का साझा है। सच है कि वायुमण्डल के सबसे ज्यादा क्षेत्रफल में नुकसानदेह गैसों का कब्जा ज्यादा उपभोग और ज्यादा भौतिक विकास करने वाले धनी देशों से आये उत्सर्जन की वजह से है। किंतु क्या इसका खामियाजा गरीब देशों को नहीं उठाना पड़ रहा है? अरब सागर गर्म होता है, तो क्या इसका असर भारत के मानसून पर नहीं पड़ता? इसी तरह जब गरीब देश अपने यहाँ नुकसानदेह गैसों को उत्सर्जन घटायेंगे, तो क्या इसका लाभ सिर्फ गरीब देशों को ही होगा? नहीं, बेहतरी अमीर देशों के हिस्से में भी आयेगी। इसी तथ्य के मद्देनज़र पेरिस जलवायु समझौते के तहत 100 अरब डॉलर का ‘ग्रीन क्लाइमेट फण्ड’ बनाया गया था।

गौर कीजिए कि ग्रीन क्लाइमेट फण्ड से मदद पाने के लिये कार्बन उत्सर्जन कम करने के संबंध में न्यूनतम अन्तरराष्ट्रीय मानकों की पूर्ति करना बाध्यकारी बनाया गया है। निगरानी, समीक्षा और मूल्यांकन करने वाली अन्तरराष्ट्रीय समिति उन्हें ऐसा करने के लिये बाध्य करेगी। यूँ कहें कि मदद पाने वाले देश अन्तरराष्ट्रीय निगरानी समिति के इशारों पर नाचने को मज़बूर होंगे। समीक्षा कार्य 2018 से शुरू हो जायेगा। समीक्षा, अन्तरराष्ट्रीय मानकों के आधार पर ही होगी। ऐसी बाध्यता की स्थिति में तकनीक महँगी होने के बावजूद खरीदने की मज़बूरी होगी, जिसका आर्थिक बोझ गरीब व विकासशील देशों को खुद झेलना पड़ेगा।

चूँकि ऐसी ज्यादातर तकनीकें आज विकसित देशों के पास हैं; लिहाजा, तकनीक खरीद का मुनाफा उन्हीं तकनीक विक्रेता देशों को ज्यादा होगा जो ग्रीन क्लाइमेट फण्ड में योगदान कर रहे हैं। क्या यह तो एक हाथ से देने और दूसरे हाथ से ले लेने जैसा नहीं है? इसीलिए सम्मेलन पूर्व मांग की गई थी कि उत्सर्जन घटाने में मददगार तकनीकों को पेटेंट मुक्त रखना तथा हरित तकनीकों के हस्तांतरण को मुनाफा मुक्त रखना बाध्यकारी हो; किंतु यह नहीं हुआ। तकनीक विक्रेता देश यह चालाकी करने में सफल रहे कि इस मांग को समझौते से बाहर रखकर अपनी मनमर्जी मुताबिक शर्तों तकनीक बेच सकेंगे।

यहाँ गौर करने लायक बात यह भी है कि ‘ग्रीन क्लाइमेट फण्ड’ से मिलने वाली मदद बाढ़, सुखाड़ अथवा भूकम्प जैसी किसी आपदा की एवज में मिलने नहीं जा रही, इसके लिये मदद प्राप्तकर्ता राष्ट्रों को अपने देश के रहन-सहन और रोजी-रोटी के तरीकों में बदलाव करने होंगे। जीवश्म ऊर्जा स्रोत आधारित बिजली संयंत्रों के लिये कर्ज मिलना तो बिल्कुल बंद हो जायेगा; बावजूद इसके, यदि प्रधानमंत्री श्री मोदी ने यह कहते हुए समझौते के प्रति प्रतिबद्धता जाहिर की थी - “पेरिस समझौते का जो परिणाम है, उसमें कोई हारा या जीता नहीं है; जलवायु न्याय जीता है। हम सभी एक हरित भविष्य के लिये काम कर रहे हैं।’’

गौर कीजिए कि उस वक्त भारत की इस प्रतिबद्धता के लिये अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति बाराक ओबामा तथा अमेरिकी मीडिया ने तारीफ की थी। अब ट्रम्प महोदय ने समझौते को लेकर भारत की नीयत को गलत ठहराकर अपनी संकीर्ण नीयत सामने रख दी है। यह भारत और अमेरिका के बीच का नया राजनयिक समीकरण है, जो ‘अमेरिका फर्स्ट’ के जयघोष की संतान है।

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