हमको पानी नहीं दिया तो...

रघुवीर सहाय की कविता की पंक्तियां हैं: पानी पानी बच्चा बच्चा मांग रहा है हिंदुस्तानी... हमको पानी नहीं दिया तो हमको मानी नहीं दिया... जाहिर है कि ये आज और भी प्रासंगिक हो उठी हैं, जब पानी के लिए कई जगहों पर त्राहि-त्राहि है। नदियां प्रदूषित हो गई हैं। कुएं, बावड़ी वाले पुराने जल-संसाधन 'सूख’ रहे हैं। वर्षा अनियमित ढंग से हो रही है। आबादी बढ़ रही है और कई जगहों पर कई सौ फीट बोरिंग करने पर भी पानी नहीं मिल रहा है। यह चिंता हमारे देश की ही नहीं है, दुनिया भर में यही चिंता व्याप्त हो गई है, कैसे मिल सकेगा पानी, कब तक मिलता रहेगा पानी... यह भी कि पानी पर हमारा अधिकार है।

हमारा लोक साहित्य और साहित्य इस चिंता से अछूता नहीं रहा है और अगर हिंदी कविता और फिल्मों की ही बात करें, तो 'पानी चिंता’ काफी पुरानी रही है। बिन पानी सब सून यही तो लिखा था रहीम ने: रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून। पानी गए न ऊबरै, मोती, मानुष, चून। हां, पानी के कई अर्थ हैं। दरअसल, प्रकृति से जो जीवनदायिनी चीजें मनुष्य को, सभी जीवों को मिली हैं, उनमें वायु, धरती, आकाश, सूर्य-चंद्र तो सदा-सर्वदा सुलभ हैं। उन्हें लेकर अलग से कोई प्रयत्न नहीं करना पड़ता। एक पानी ही है, जो कहीं से लाना, उगाहना पड़ता है, और उसे 'सुरक्षित’ करने की चिंता भी करनी पड़ती है। सो, यह अकारण नहीं है कि स्वयं प्रकृति से पानी को वर्षा के रूप में उगाहने के लिए लोक में कई प्रकार के अनुष्ठान होते रहे हैं। प्रार्थनाएं होती रही हैं।

हमारी फिल्मों में भी इस पानी चिंता के कई रूप मिलते हैं, गाइड से लेकर लगान तक ... और शांताराम की फिल्म दो आंखें बारह हाथ का पानी प्रसंग... कितनी छवियां उभरती हैं...।

घट सभी समाजों-संस्कृतियों में एक ऐसा आधारभूत 'आकार’ रहा है जो मानो पानी के संरक्षण के लिए ही आविष्कृत हुआ था और उसकी महिमा भी उचित ही बहुत बखानी गई है। वर्षा को लेकर लिखी गई रचनाओं का तो एक विशाल भंडार है ही। कुल मिलाकर यह कि 'पानी’ के साथ मनुष्य, अन्य जीवों और वनस्पतियों का जो विशेष संबंध है, उसका उत्सव तो मनता ही रहा है, और जब-जब उसका अभाव हुआ है, तब-तब करुणा और विलाप के स्वर भी कम नहीं उभरे हैं। उसका प्रयोग 'रूपक’ और 'प्रतीक’ की तरह कला और कविता में हुआ है, और मेघ और चातक के संबंध को कई प्रसंगों में याद किया गया है।

पानी से मनुष्य का यह जैविक-स्नायविक संबंध ही है, जो कविता और कलाओं में जब-जब प्रकट हुआ है, प्राय: मर्मवेधक बना है। जब 'अज्ञेय’ लिखते हैं: ओ पिया, पानी बरसा!/ घास हरी हुलसानी/मानिक के झूमर-सी झूमी मधु-मालती/ झर पड़े जीते पीत अमलतास/चातकी की वेदना विरानी/ बादलों का हाशिया है आसपास-/ बीच लिखी पांत काली बिजली की- कुंजों की डार, कि असाढ़ की निशानी। ओ पिया, पानी!/ मेरा जिया हरसा। तो जो चित्र बनता है, और जो पानी-मर्म उभरता है, बस गहरे में स्पर्श करता है।पानी की एक बूंद की महिमा भी खूब बखानी गई है। 'बूंद बूंद से घट भरै’, और जब आज पानी की हर बूंद को सावधानीपूर्वक खरचने की बात की जा रही है, तो इसमें भी यही चिंता छिपी हुई है कि नहीं होगा पानी, तो क्या होगा। सुमित्रानंदन पंत ने बादल शीर्षक कविता में लिखा है, हम सागर के धवल हास हैं,/ जल के धूम, गगन की धूल, अनिल फेन, ऊषा के पल्लव,/ वारि वसन, वसुधा के मूल;/ नभ में अवनि, अवनि में अंबर,/ सलिल भस्म, मारुत के फूल,/ हम भी जल में थल/ थल में जल,/ दिन के तम, पावक के तूल!

तो कितनी सहजता, पर पूरी गंभीरता से हम बादलों के रूप में अवनि-अंबर के संबंध को, सृष्टि की पूर्णता में जल के योग को ग्रहण कर लेते हैं। हां, जल 'वसुधा का मूल’ ही तो है। इसी मूल-धन को बचाने की जद्दोजहद है। यह मूल-धन बचना ही चाहिए... इसे बचाना ही होगा। इसकी गुहार उठ रही है। हर जल प्रसंग में स्वाभाविक रूप से याद आती है अनुपम मिश्र की अनुपम कृतियां, आज भी खरे हैं तालाब और राजस्थान की रजत बूंदें। जल को बचाने, संरक्षित करने के जो देसी तरीके रहे हैं, उन्हें फिर आजमाने का समय है। 'बच्चन’ ने लिखा था निशा नियंत्रण में व्यर्थ मेरे अश्रु, तेरी बूंद है अनमोल, बादल! आज मुझसे बोल बादल!

जल का यह आह्वान कई रूपों में प्रकट हुआ है, गद्य में भी, पद्य में भी। रेणु के परती: परिकथा को याद करिए... कोसी की बाढ़ और परती की, जित्तन बाबू की, परती को हरा-भरा करने के उद्यम की...।

हां, जो जल-कल्पना में है, प्रकृति-छवियों में है, शब्द-ध्वनियों में है, उसे साकार करना है। कविता और कलाएं तो उत्प्रेरक की जरूरी भूमिका ही निभाती हैं.. पार्श्व में खड़े रहकर।

(लेखक जाने-माने कला समीक्षक हैं)

Path Alias

/articles/hamakao-paanai-nahain-daiyaa-tao

Post By: admin
×