हमारी नदियां और पानी बिकाऊ नहीं

23 नवंबर 2005 को दिल्ली की सरकार ने केंद्र सरकार को एक पत्र लिखा कि वह विश्व बैंक से ऋण लेने के लिए दिया गया अपना प्रार्थनापत्र वापस लेना चाहती है। यह दिल्ली की आम जनता द्वारा एक वर्ष तक लड़ी गयी लंबी लड़ाई का परिणाम था। दिल्ली की जनता दिल्ली की सरकार द्वारा शहर के निवासियों के साथ सार्वजनिक ढंग से कोई सलाह मशविरा किये बिना दिल्ली की जलापूर्ति व्यवस्था के निजीकरण के लिए तेजी से तैयार होते कार्यक्रम का मुकाबला करने के लिए जलाधिकार अभियान (राइट टु वाटर कैंपेन), जल लोकतंत्र के लिए नागरिक मंच (सिटीजंस फ्रंट फॉर वाटर डेमोक्रेसी), जलकर्मी गठबंधन (वाटर वर्कर्स एलायंस) और पानी मोर्चा के तहत संगठित हुई थी।

दिल्ली में जल प्रबंधन


दिल्ली की जल व्यवस्था का प्रबंधन दिल्ली जल बोर्ड (डी.जे.बी.) करता है। इस बोर्ड का गठन दिल्ली विधानसभा के एक अधिनियम के जरिये 6 अप्रैल 1998 को हुआ था। जलापूर्ति, सीवेज निस्तारण और दी गई सेवाओं के राजस्व के संग्रह की जिम्मेदारी इस बोर्ड पर है। बोर्ड का कार्यक्षेत्र दिल्ली नगर निगम के न्यायक्षेत्र के भीतर है।

राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के कुल शहरी क्षेत्र का 94 प्रतिशत हिस्सा इस क्षेत्र के अंतर्गत है। यह बोर्ड नई दिल्ली नगर परिषद (एन.डी.एम.सी.) और दिल्ली कैंटूनमेंट बोर्ड (डी.सी.बी.) को भी थोक में पानी देता है और फिर ये दोनों आगे अपने-अपने क्षेत्रों में पानी का वितरण करते हैं। इसी तरह नई दिल्ली नगर परिषद और दिल्ली कैंटूनमेंट बोर्ड के क्षेत्रों से निकले सीवेज का संग्रह यही दोनों करते हैं और फिर उसका निस्तारण दिल्ली जल बोर्ड करता है।

दिल्ली में जल का निजीकरण


दिल्ली की जल व्यवस्था के निजीकरण की तैयारियां कई वर्षों से जारी थीं। पानी की कमी पर काबू पाने के लिए स्थानीय समुदायों को भी जलनीति बनाने में शामिल करने और पानी को एक उपभोक्ता माल के बजाय साझे का,प्राकृतिक संसाधन मानने की पर्यावरण से जुड़े समूहों की दलीलों को अनदेखा करते हुए भारत की राष्ट्रीय जल नीति 2002 घोषित कर दी गई थी।

कुछ पर्यावरणविदों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने गंगा नदी पर टेहरी बांध और नई दिल्ली में सोनिया विहार संयंत्र के निर्माण को चुनौती दी थी। टेहरी बांध के निर्माण की सामाजिक,पर्यावरणीय या वित्तीय किसी भी लागत का भुगतान करने में ‘स्वेज देग्रेमों’ की असफलता को लेकर भी सवाल उठाये गये। सन् 2002 में वंदना शिवा ने इस बात की ओर संकेत किया-

पानी के निजीकरण को इस आश्वासन पर न्यायोचित ठहराया गया है कि पूरी लागत अदा की जायेगी। जब पानी की बड़ी-बड़ी कंपनियों को निजीकरण के जरिये बाजार मिल जाते हैं तब वे पूरी लागत जनता से वसूलना चाहती हैं। लेकिन जैसा कि दिल्ली जल संयंत्र के मामले में स्पष्ट है, निगमों को पानी मुफ्त में मिलता है। जिन ग्रामीण समुदायों से पानी लिया जाता है उन्हें वे उसकी पूरी सामाजिक और पर्यावरणीय कीमत नहीं देते।

दिल्ली जल बोर्ड और फ्रांसीसी कंपनी आनडियो द ग्रेमों (विश्व की महाकाय जल कंपनी स्वेज ल्योने दे यो जल विभाग की सहायक कंपनी) के बीच हुए अनुबंध के तहत दस वर्षीय ‘बनाओ-चलाओ-हस्तांतरित करो’ (बी.ओ.टी.) के आधार पर बनाया गया सोनिया विहार केवल इन्हीं विवादों के घेरे में न था। केंद्रीय सतर्कता आयोग (सी.वी.सी.) ने इसकी टेंडर प्रक्रिया के बारे में भी चिंता व्यक्त की थी। केंद्रीय सतर्कता आयोग ने अपनी तकनीकी परीक्षण समिति को इस बात की जांच करने का आदेश दिया था कि मूल रूप से 295.75 करोड़ रुपयों वाले अनुबंध को दुबारा टेंडर आमंत्रित किये बिना क्यों लगभग 900 करोड़ रुपये का बना कर कंपनी को दे दिया गया।

दो वर्ष बाद ‘दिल्ली जल और बेकार जल सुधार विधेयक 2004’ प्रस्तावित किया गया। विधेयक में दिल्ली जल बोर्ड के निगमीकरण और उसकी निधियों के हस्तांतरण के सुझाव थे। इसमें अनेक प्रावधन पानी और सीवेज संबंधी अनेक सेवाओं की आपूर्ति के लिए विभिन्न कंपनियों को लाइसेंस दिये जाने से संबंधित थे। ‘राइट टु वाटर कैंपेन’ ने इस विधेयक के प्रावधनों और कुछ सलाहकारों की सिफारिशों के बीच की समानता के बारे में सटीक सवाल उठाये। ये सलाहकार यह सलाह भी दे रहे थे कि दिल्ली जल बोर्ड का निगमीकरण कर दिया जाय और पानी के शोधन, उसे केंद्रों तक पहुंचाने और फिर आगे वितरण के लिए दिल्ली जल बोर्ड को तोड़कर तीन अलग अलग इकाइयां बना दी जायं।

कैंपेन ने सार्वजनिक रूप से शंका जाहिर की कि यह कहीं दिल्ली विद्युत बोर्ड (जो दिल्ली शहर को बिजली देता है) की ही तरह दिल्ली जल बोर्ड के अंततः निजीकरण की ही भूमिका तो नहीं।

24×7 पानी की भूमिका


दिल्ली की जलापूर्ति के निजीकरण की तैयारी में 1 दिसंबर 2004 को दिल्ली में जल शुल्कों में सात से दस गुना वृद्धि कर दी गयी। शुल्क बढ़ाने का औचित्य सिद्ध करने के लिए जल बोर्ड विश्व बैंक के तत्वावधन में प्राइस वाटरहाउस कूपर (पी.डब्ल्यू.सी) द्वारा निजीकरण पर किये गये एक अध्ययन को उद्धृत करता है।

सन् 2004 में जल क्षेत्र में तीव्र गति से चले घटनाक्रम के कारण कुछ कार्यकर्ता नवंबर 2004 में दिल्ली सूचना के अधिकार के तहत प्रार्थनापत्र देने पर मजबूर हुए। दिल्ली सूचना के अधिकार के तहत अपील अधिकारी से कई अपीलें किये जाने के बाद नागरिकों के एक संगठन ‘परिवर्तन’ को दस्तावेजों दे दिये गये। इन मोटे दस्तावेजों के विश्लेषण में ही निजीकरण योजनाओं को समझने और इसके लिए मुख्य एजेंसियों, सरकारी विभागों-राज्य और केंद्र दोनों- तथा विश्व बैंक जैसे अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों (आई एफ आई) को जिम्मेदार ठहरा सकने की कुंजी छिपी थी। सूचना के अधिकार के माध्यम से मिले दस्तावेजों से इस पूरी प्रक्रिया में विश्वबैंक की मिली भगत के बारे में विस्फोटक जानकारी सामने आई।

विश्व बैंक की भूमिका


1950 से 1990 के दौरान विश्व बैंक ने बांध बनाने और नदियों की धारा मोड़ने के लिए वित्त प्रदान कर भारत में एक जल संकट उत्पन्न करने के लिए धन की व्यवस्था की थी। 1990 के दशक में विश्व बैंक वित्तीय और जलीय संकट का इस्तेमाल भारत के राज्यों और सार्वजनिक सेवाओं को जल सेवाओं और निधियों का निजीकरण करने पर मजबूर करने के लिए कर रहा था।

दिल्ली जल बोर्ड की विश्व बैंक के साथ जुड़ने की प्रक्रिया 1998 में तब शुरू हुई जब उसी वर्ष जुलाई में विश्व बैंक की एक मिशन टीम दिल्ली जल बोर्ड देखने आई। सन् 2004 के अंत तक पूरी प्रक्रिया लगभग पूर्ण गोपनीयता के आवरण में चली। तभी एकाएक मीडिया में इस आशय की रिपोर्टें प्रकाशित हुईं कि पी डब्ल्यू सी ने दिल्ली जल बोर्ड की निधियों की कीमत बहुत कम आंकी है।

24×7 योजना में कार्यकर्ताओं ने अनेक समस्याएं चिन्हित कीं:
1. प्राइस वाटरहाउस कूपर को अनुबंध दिलाने में विश्व बैंक की भूमिका।
2. भुगतान जिनके कारण शुल्कों में जबर्दस्त वृद्धि होगी।
3. दिल्ली जल बोर्ड के हाथ से नियंत्रण निकल जायेगा तथा कंपनियों द्वारा बांह मरोड़े जाने की संभावना।
4. दिल्ली के गरीब लोगों की पानी तक पहुंच का मामला और जल-दंगों की संभावना।
5. जल कंपनियों की जवाबदेही का अभाव।
6. सरकार के वित्त पर ऋण और परियोजना का प्रभाव।

(1) पी डब्ल्यू सी को नवंबर 2001 में 7 करोड़ का परामर्शी ठेका दिलानेमें विश्व बैंक की भूमिका


दिल्ली जल बोर्ड ने एक ऋण लेने के लिए 1998 में विश्व बैंक से बात की थी। बैंक ने सुझाव दिया कि वे एक सलाहकार रख लें जो दिल्ली जल बोर्ड को सुझाव देगा कि उसे कौन से बुनियादी सुधार लागू करने चाहिए। सलाहकार रखने के लिए बैंक ने दिल्ली जल बोर्ड को 25 लाख डॉलर का ऋण देने का प्रस्ताव किया।

दिल्ली जल बोर्ड ने प्रार्थनापत्र मांगे


• 35 सलाहकारों ने आवेदन किया। इनमें से छांटकर छह की सूची बनानी थी।
• एक मूल्यांकन कमेटी बनी जिसमें दिल्ली जल बोर्ड के वरिष्ठ अधिकारी थे। इस समिति ने हर कंपनी को विश्व बैंक के दिशानिर्देशों के आधार पर श्रेणीबद्ध किया। इस सूची में पी डब्ल्यू सी दसवें नंबर पर थी। विश्व बैंक के दिशानिर्देशों के अनुसार छोटी सूची में शामिल कंपनियों में से एक कंपनी किसी विकासशील देश की होनी चाहिए। पी डब्ल्यू सी को इससे बचाने के लिए इस प्रावधान का दुरुपयोग किया गया। पी डब्ल्यू सी को एक भारतीय कंपनी मान लिया गया क्योंकि पी डब्ल्यू सी की शाखा, जिसने आवेदन किया था, भारत में निगमीकृत है। इसलिए पी डब्ल्यू सी को दसवें से छठे स्थान पर ले आया गया।
• छांटी गई कंपनियों से तकनीकी और वित्तीय प्रस्ताव मांगे गये। पहले तकनीकी प्रस्ताव खोले गये। सफल होने के लिए तकनीकी मूल्यांकन में कंपनी के लिए 75 प्रतिशत अंक मिलने जरूरी थे। मूल्यांकन समिति ने जिसके सदस्य दिल्ली जल बोर्ड के वरिष्ठ अधिकारी थे, विश्वबैंक के दिशा-निर्देशों में दिये गये मानदंडों के आधर पर इन प्रस्तावों का मूल्यांकन किया। पी डब्ल्यू सी फिर असफल रही। केवल दो कंपनियों-अमेरिका की डिलायट तथा इजरायल की ताहल (टी ए एच ए एल) को 75 प्रतिशत से अधिक अंक मिले।
• ‘‘कोई आपत्ति नहीं’’ (अनापत्ति प्रमाणपत्र) पाने के लिए ये परिणाम (परीक्षाफल) विश्व बैंक के पास भेजे गये। बैंक ने दिल्ली जल बोर्ड से इस बात का स्पष्टीकरण मांगा कि पी डब्ल्यू सी को इतने कम अंक क्यों दिये गये थे। बैंक ने नये मानदंड लागू कर दिये और दिल्ली जल बोर्ड को निर्देश दिया कि वह इस मूल्यांकन को रद्द कर फिर से पुनर्मूल्यांकन करे। दिल्ली जल बोर्ड ने इस मनमानी भरे हस्तक्षेप का विरोध किया। लेकिन विश्व बैंक अपनी स्थिति से टस से मस नहीं हुआ। दिल्ली जल बोर्ड को उसकी बात माननी पड़ी।

नई बोलियां आमंत्रित की गईं


• बैंक की सहमति से एक नई मूल्यांकन समिति गठित की गई।
• लेकिन पी डब्ल्यू सी इस बार भी पास होने के लिए जरूरी अंक लाने में विफल रही। केवल एक कंपनी, इंग्लैंड की एम. वाटसन ही सफल हुई।
• विश्व बैंक ने मूल्यांकन समिति के प्रत्येक सदस्य द्वारा दिये गये अंकों का विस्तृत विवरण मांगा। उसने यह भी मांग की कि मूल्यांकन समिति के एक सदस्य श्री आर.के. जैन द्वारा दिये गये अंक हटा दिये जायें। दिलचस्प बात यह है कि मूल्यांकन समिति ने अपनी रिपोर्ट में इस बात का उल्लेख किया था कि श्री आर.के. जैन ने पी डब्ल्यू सी को कम अंक दिये और श्री एस के छाबड़ा ने मेसर्स सोग्री को कम अंक दिये। लेकिन विश्व बैंक ने केवल श्री जैन द्वारा दिये गये अंक को ही हटाये जाने की मांग की।
• दिल्ली जल बोर्ड से ‘‘अनुरोध किया गया’’ कि वह नये सिरे से अंक दे और इस तरह पी डब्ल्यू सी इस कठिनाई को पार कर गई।

(2) भुगतान जिनके कारण शुल्कों में जबर्दस्त बढ़ोत्तरी होगी


• प्रबंधन शुल्क प्रति क्षेत्र (कुल 21 क्षेत्र) 5 करोड़ रुपये वार्षिक का।
• चार विशेषज्ञों का वेतन, प्रतिमाह प्रति व्यक्ति 24,400 डॉलर (लगभग 11 लाख रुपये) की दर से।
• 21 क्षेत्रों के 84 विशेषज्ञों के लिए 105 करोड़ रुपये
• यह दिल्ली जल बोर्ड के कुल राजस्व का 40 प्रतिशत है (लगभग 270 करोड़ रुपये)

संचालन के असीमित खर्चे


हर दिन के आधर पर क्षेत्रों के कार्य संचालन के लिए• संचालन संबंधी खर्चों के लिए कंपनी वार्षिक मांगें प्रस्तुत करेगी।
• दिल्ली जल बोर्ड को इन मांगों की समीक्षा करने का सैद्धांतिक अधिकार है- यदि दिल्ली जल बोर्ड इन मांगों को मानने से इनकार करे या इनमें कटौती करे तो कंपनी अपने दायित्वों से मुक्त हो सकती है।
• कंपनी वर्ष भर में चाहे जितनी बार अतिरिक्त धन मांग सकती है।

• कोई ऊपरी सीमा निर्धारित नहीं।

पूंजी निवेश-

व्यवस्था को बेहतर बनाने के लिए।

• कंपनी हर साल पूंजी निवेश योजनाएं प्रस्तुत करेगी।
• दिल्ली जल बोर्ड को इन योजनाओं की समीक्षा करने का अधिकार है- यदि धन न दिया गया तो कंपनी इसके खराब प्रभाव की धमकी दे सकती है।
• दिल्ली जल बोर्ड को धन देना ही है।
• तब कंपनी ठेके देगी, क्रियान्वयन की निगरानी करेगी और काम की गुणवत्ता और काम पूरा होने का प्रमाणपत्र देगी।

इनमें से किसी भी प्रक्रिया में दिल्ली जल बोर्ड की भूमिका नहीं है,न ही इनमें से किसी पर उसका कोई नियंत्रण है।

3. दिल्ली जल बोर्ड के हाथ से नियंत्रण निकल जायेगा; जल कंपनियों द्वारा बांह मरोड़े जाने की संभावना


एक बार अनुबंध पर हस्ताक्षर कर देने के बाद जल कंपनियां एक ऐसी लाभ की स्थिति हासिल करने की दिशा में प्रवृत्त होती हैं जहां से वे सरकारों को ब्लैकमेल कर सकें और उनकी बांह मरोड़ सकें। सरकारों के लिए उनकी मांगों को अनदेखा करना यहां तक कि उसमें कुछ घट-बढ़ कर पाना भी राजनीतिक रूप से संभव नहीं होता। वस्तुतः किस मद में खर्च किया जाये, कितना खर्च किया जाये, और कब खर्च किया जाये इन बातों पर दिल्ली जल बोर्ड का कोई नियंत्रण नहीं रहेगा। दिल्ली जल बोर्ड का काम बस धन देने तक सीमित रहेगा।

4. दिल्ली के गरीब लोगों तक पानी की पहुंच और जल दंगों की संभावना


• गरीबों के लिए जलापूर्ति के वर्तमान स्रोत
• पानी के टैंकर
• ट्यूबवेल
• रिसाव वाली पाइप लाइनें
• सामुदायिक नल

ये सभी स्रोत बंद कर दिये जायेंगे। जरा भी पानी, ‘मुफ्त’ ‘गैरकानूनी’ और राजस्वमुक्तनहीं होगा।

परियोजना प्रस्ताव और जनता की चिंताएं


पांच परिवारों के लिए एक समूह कनेक्शन- क्या यह संघर्ष को जन्म नहीं देगा? सलाहकारों द्वारा सुझायी गयी निवेश योजनाएं इन क्षेत्रों में जल संजाल का विस्तार करने की किसी योजना का सुझाव नहीं देती तब समूह कनेक्शन कैसे दिये जायेंगे? और फिर समूह कनेक्शन क्यों? इनसे पड़ोसियों के बीच झगड़े होंगे। हर परिवार को अलग कनेक्शन क्यों न दिया जाये? यदि लोग अपने मीटर का पैसा दें तो इसके दिल्ली जल बोर्ड पर कोईअतिरिक्त बोझ भी नहीं पड़ेगा।

(5) जल कंपनियों की जवाबदेही का अभाव


• लक्ष्य पूरे करने में असफल रहने पर जुर्माना लगेगा
• लक्ष्य से आगे बढ़ जाने पर बोनस
• कितना जुर्माना, कितना बोनस? जुर्माना लगाने का तरीका क्या होगा? दिल्ली जल बोर्ड ने जवाब देने से इनकार कर दिया।
• विश्व बैंक ने कुछ पत्रकारों से कहा कि जुर्माना एक वर्ष में प्रबंधन शुल्क के 30 प्रतिशत से अधिक नहीं होगा। क्या यह सही है? क्या इतनी सजा काफी है?
• यदि कोई उपभोक्ता पीड़ित है तो वह कहां जायेगा? दिन प्रतिदिन के कार्य व्यापार पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं होगा।
• अंतर्राष्ट्रीय अनुभवों से पता चलता है कि इतने कम जुर्माने से कंपनियां सेवाएं बेहतर बनाने के बजाय अर्थदंड झेलना पसंद करेंगी।

(6) सरकार के वित्त पर ऋण और परियोजना का प्रभाव


• परियोजना के पहले
• राजस्व खर्च वहन करने के लिए सरकार हर वर्ष लगभग 350 करोड़ रुपये की आर्थिक सहायता देती हैं।
• सरकार हर वर्ष लगभग 700 करोड़ रुपये ऋण देती है।

परियोजना के बाद


• पी डब्ल्यू सी की सिफारिश है कि सरकार हर साल 1,000 से 1500 करोड़ रुपये का नकद अनुदान दे।
• इसके अतिरिक्त, सरकार को इस ऋण पर विश्व बैंक को ब्याज भी देना होगा।
• इसलिए, इस परियोजना के बाद सरकार के वित्तों पर दबाव कहीं अधिक बढ़ जायेगा।

क्या हमें पी पी एफ ऋण की जरूरत होगी?


• ऋण राशि केवल दस करोड़ रुपये है। लेकिन विश्व बैंक ने पूरा कार्यक्रम थोप दिया है।
• क्या हमें पहले स्वयं अपनी समस्याओं का अध्ययन और अपने धन से उनके समाधनों पर विचार नहीं कर लेना चाहिए था? इसके बाद ही हमें जरूरी धनराशि के लिए विश्वबैंक से बात करनी थी।

विदेशी मुद्रा में ऋण की लागत


• आई बी आर डी वाणिज्यिक दर पर ऋण देता है
• लिबोर (Libor)- 3 प्रतिशत
• इसलिए डॉलर के संदर्भ में ब्याज - 3.75 प्रतिशत
• विदेशी मुद्रा में उतार-चढ़ाव- 3-5 प्रतिशत
• इसलिए लागत- 8 प्रतिशत
• कर के रूप में धन की वापसी नहीं

घरेलू बाजार में लागत


• यह धनराशि कम लागत पर आसानी से प्राप्त की जा सकती है
• कर के रूप में 2.4 प्रतिशत की वापसी
• इसलिए शुद्ध लागत 5.6 प्रतिशत से कम
• इसके हाथ कोई शर्त जुड़ी नहीं

क्या हमें अंतिम ऋण की जरूरत है?


• ऋण राशि छह वर्षों के लिए 700 करोड़ रुपये से कम अर्थात 120 करोड़ रुपये प्रतिवर्ष
• सरकार लगभग 1,000 करोड़ हर साल निवेश करती है
• क्या हमें ब्याज के भुगतान और कठोर शर्तों के संदर्भ में इतनी छोटी धनराशि इतनी ऊंची लागत पर लेने की जरूरत है?
सवालों और उनसे उपजी समझ की इस प्रक्रिया ने दिल्ली में रहने वालों के लिए वह मंच तैयार कर दिया जहां से उन्हें अपने जनतांत्रिक अधिकारों को पुनः वापस पाने के लिए सक्रिय हो जाना था।

निजीकरण को रोकने के लिए जनता की सक्रियता, संघर्ष, रणनीतियां और युक्तियां
राइट टु वाटर कैंपेन, सिटीजंस फ्रांट फार वाटर डेमोक्रेसी, दिल्ली जल बोर्ड की डेल्ही वाटर सीवर ऐंड सीवेज डिस्पोजल एम्प्लायीज़ यूनियन, वाटर वर्कर्स एलायंस और अन्य अनगिनत लोगों और संगठनों ने साथी दिल्लीवासियों को शिक्षित करने तथा दिल्ली सरकार, केंद्र सरकार और देश में विश्व बैंक के प्रतिनिधियों पर दबाव डालने के लिए अथक रूप से जन-शिक्षण और विरोध अभियान चलाये। उच्च कोटि की आवासीय बस्तियों के मध्यमवर्गीय निवासियों और मलिन बस्तियों के झुरमुटों में रहने वाले गरीब लोगों के बीच वर्ग एकता स्थापित की गई। दिल्लीवासियों को दिन में 24 घंटे सप्ताह में सात दिन पानी देने की आड़ में लाये जा रहे निजीकरण की योजनाओं का विरोध् करने के लिए सब लोगों का एक साझा मंच पर आना सुनिश्चित करने के लिए बैठकों के कई दौरों के बाद सरोकारों और मांगों की एक साझी सूची तैयार की गयी। दिल्लीवासी इस बात के प्रति दृढ़संकल्प थे कि वे निहित स्वार्थों को एक समूह को दूसरे समूह के खिलाफ इस्तेमाल नहीं करने देंगे। वह अभियान जो मुट्ठी भर लोगों के साथ शुरु हुआ था आगे चलकर एक कमरे में इकट्ठा हुए लोगों से सामुदायिक भवनों में बहस करते सैकड़ों लोगों तक पहुंच गया और अंततः दिल्ली की गलियों में फैल गया जहां हर रोज हजारों लोग निजीकरण का विरोध् कर रहे थे। दबाव बना हुआ था।

दिल्लीवासियों को यह योजना समझाने के लिए दस्तावेजों के हजारों पृष्ठों के विश्लेषण को निचोड़ कर एक आधे घंटे की प्रस्तुति में बदला गया ताकि वे इस परियोजना की जरूरत और व्यावहारिकता के बारे में सुविचारित फैसला कर सकें। सामुदायिक भवनों में वहां के निवासियों की कल्याण परिषदों के साथ, कालेजों के परिसरों में छात्रों के साथ, सेमिनार कक्षों में पेशेवर लोगों और सरकारी अफसरों के साथ, गलियों के नुक्कड़ों पर हैंडबिलों, परचों और नुक्कड़ नाटकों के जरिये, मीडिया के संवाददाताओं के साथ इन मुद्दों पर बातचीत की गई जिससे इन मुद्दों और नागरिकों की चिंताओं को व्यापक और जानकारी युक्त प्रचार मिला। इन सभी कार्रवाइयों ने मिलकर इससे जुड़ी सभी एजेंसियों, विश्व बैंक और सरकार पर दबाव बनाया। अपने विश्लेषण के आधर पर नागरिक कार्यकर्ताओं ने खुले खतों का सिलसिला चलाकर देश में विश्व बैंक के प्रतिनिधि माइकेल कार्टर को भी मामले में शामिल कर लिया। उनका जवाब निराशाजनक और बचने वाला था। लेकिन दिल्लीवासी टस से मस होने वाले नहीं थे क्योंकि इतना कुछ दांव पर लगा था। उन्होंने सरकार पर नजर रखी और उसके मिथकों और खेलों का पर्दाफाश करते रहे। आखिरकार 23 नवंबर 2005 को दिल्ली सरकार ने केंद्र सरकार को पत्र लिखकर अनुरोध किया कि वह विश्व बैंक में पड़ा उसका ऋण आवेदन वापस ले लें।

अपनी इस ऐतिहासिक जीत के बाद भी दिल्लीवासी चैन से नहीं बैठे। वे देश भर के पानी और प्रबंधन विशेषज्ञों से मिले और 5 दिसंबर 2005 को सुझावों की एक सूची उन्होंने दिल्ली सरकार के पास भेजी। उसमें पानी के मीटर लगाने और व्यवस्था को पारदर्शी बनाने के बारे में सुझाव थे ताकि लोग वेब पर देख सकें कि शहर के 21 क्षेत्रों में से हर एक क्षेत्र में कितना पानी बह रहा है और जिनके साथ सौतेला व्यवहार हो वे अपने जन-प्रतिनिधियों से इस विषय में सवाल कर सकें।

स्थिति जस की तस


इन सुझावों का दिल्ली सरकार की ओर से कोई जवाब नहीं दिया गया है और लगता है कि दिल्ली जल बोर्ड को पुनर्गठित करने और बेहतर बनाने की फिलहाल कोई योजना नहीं है।

राखी सहगल 2004-2005 के दौरान जल के अधिकार अभियान से जुड़ी थीं। फिलहाल वह नई दिल्ली के पड़ोस में गुड़गांव के नये औद्योगिक क्षेत्र में श्रम संबंधी शोध अध्ययन में व्यस्त हैं।

अधिक जानकारी के लिए कृपया देखें,

www.delhiwater.org तथा www.navdanya.org/ earthdcracy/water

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