विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार जैसे माचिस की एक तीली सम्पूर्ण दुनिया को स्वाहा करने की ताकत रखती है उसी तरह बहुत सूक्ष्म मात्रा की गन्दगी भी महामारी फैला सकती है। उदाहरण के लिये एक ग्राम मल में एक करोड़ विषाणु हो सकते हैं, एक हजार परजीवी हो सकते हैं और 100 परजीवियों के अंडे हो सकते हैं। साफ-सफाई और स्वच्छता आदिम मानव सभ्यता की निशानी रही है। इंसानों को साफ-सफाई की नसीहत देने वाली तभी अनेकानेक कहावतें प्रचलन में आईं। साफ-सफाई के पीछे के विज्ञान को हमारे मनीषियों ने बखूबी समझा। लिहाजा सभी धर्मों में उपासना, पूजा, कर्मकाण्ड आदि में सफाई का विशेष स्थान बनता गया। जब आबादी कम थी तो उपभोक्तावाद के अभाव में कचरा फैलाने वाली अप्रयोज्य वस्तुएँ भी कम थीं। जो कूड़ा-करकट निकलता था, उसका लोग तमाम तरीके से पुनरुपयोग कर लेते थे। आज आबादी ज्यादा है। उपभोक्तावाद चरम पर है। लिहाजा कचरा संस्कृति भी ज्यादा है। इसकी बानगी 4203 शहरों में कराये गये केन्द्रीय शहरी विकास मंत्रालय के स्वच्छता सर्वेक्षण 2018 में दिखती है। चन्द शहरों को छोड़ दें तो बाकी की सड़ान्ध आपको विचलित कर सकती है। लगातार इन्दौर दूसरी बार सबसे साफ शहर बना है। दूसरे और तीसरे नम्बर पर क्रमशः भोपाल और चंडीगढ़ हैं। हमारा और आपका शहर क्यों नहीं बना अव्वल? जाहिर है हम सब उन नियम-कानून और प्रक्रियाओं का पालन नहीं करते हैं जो उक्त तीनों शहर कर रहे हैं। ऐसे में अगर अगले सर्वे में अपने शहर को आप शीर्ष पर देखना चाहते हैं तो स्वयं में बदलाव करते हुए कचरे के खिलाफ मुहिम छेड़ दीजिए।
इन्दौर: कायम रखा ताज
नगर निगम ने देश का पहला व्यवस्थित ट्रेंचिंग ग्राउंड डेढ़ साल के प्रयासों से तैयार किया। इसे कवर्ड शेड बगीचे और उनमें खूबसूरत फूलों के पौधे लगाये गये हैं। चोइथराम मंडी में 14 करोड़ रुपए की लागत से बनाया गया बॉयोमिथनाइजेशन प्लांट देश में अनूठा है। यहाँ एक ही जगह कचरे से खाद बिजली और सीएनजी पैदा की जा रही है। इस प्लांट पर रोजाना 1000 किलोग्राम गैस दो टन खाद और 100 केवीए बिजली पैदा हो रही है। रोज 20 टन कचरा प्रोसेस हो रहा है। शहर में 172 पब्लिक और 125 कम्युनिटी टॉयलेट हैं। वहाँ दिन में चार बार सफाई करने के साथ लाइट, पानी, साइन बोर्ड और पब्लिक फीडबैक आदि के इन्तजाम हैं। टॉयलेट में सेनेटरी नैपकिन वेंडिग मशीन और उपयोग के बाद उसे नष्ट करने वाली मशीन वहीं लगाई गई हैं। दिव्यागों के लिये रैम्प बनाने और हैंडल लगाने के साथ बच्चों के लिये छोटी सीटें लगाई गई हैं। निगम ने एप तैयार किया है। उपयोग किये गये सेनेटरी पैड और डायपर एकत्र करने की अलग व्यवस्था है। इस श्रेणी का रोज चार टन कचरा अलग निकल रहा है। तीन तरह के कचरे तो सीधे घरों से ही हो जा रहे हैं। 100 प्रतिशत कचरे का डोर-टू-डोर कलेक्शन है। पूरा शहर कचरा पेटी से मुक्त है। इन्दौर में 100 प्रतिशत गीले और सूखे कचरे का निपटान होता है। निगम के टॉयलेट के अलावा पेट्रोल पम्प मॉल और कॉमर्शियल कॉम्प्लेक्स को स्वच्छ टॉयलेट लोकेटर से लिंक कर दिया गया है। सम्बन्धित संस्थानों के लिये यह अनिवार्य किया गया है कि वे जनता को टॉयलेट में प्रवेश दें। निजी संस्थान के भी टॉयलेट का उपयोग शहरवासी कर सकते हैं। स्वच्छता को लेकर सरकार ने अन्तरराष्ट्रीय स्तर की कार्यशाली आयोजित की। संसाधनों की कमी नही आने दी गई। नये कर्मचारियों की नियुक्तियों की अनुमति दी गई।
भोपाल: संकल्प से मिली सिद्धि
35 सालों से भानपुर खंती में डाले जा रहे कचरे के वैज्ञानिक विधि से निष्पादन का मार्ग प्रशस्त हुआ। लगातार मॉनीटरिंग हुई। ट्रांसफर स्टेशनों के लिये जमीन सम्बन्धी अड़चनों को दूर किया गया। नगर निगम ने कबाड़ से जुगाड़ माइ सिटी माइ वाल स्वच्छ कार्ड के माध्यम से स्वच्छता गतिविधियों में शामिल होने वाले नागरिकों को खरीदी में 10 से 20 फीसद तक छूट का प्रावधान दिया। संकरे मार्गों से कचरा उठाने के लिये नये वाहन खरीदे।
जीपीएस से वाहनों की निगरानी पब्लिक और कम्युनिटी टॉयलेट में फीडबैक सिस्टम चालू किये गये। नगर निगम द्वारा चलाये गये स्वच्छता अभियान में लोगों ने बढ़-चढ़ कर भागीदारी की। न गन्दगी करेंगे न करने देंगे का संकल्प लेकर शहरवासी संघों, व्यापारिक संघों सामाजिक-धार्मिक संगठन भी शहर को नम्बर वन बनाने के लिये मैदान में उतरे। दुकानों में खुद डस्टबिन रखवाई कॉलोनियों में कम्पोस्ट यूनिट को अपनाया। सिटिजन फीडबैक के लिये टोल फ्री नम्बर 1969 में करीब 60 हजार लोगों ने सकारात्मक फीडबैक दिया। कहीं कमी होने पर नागरिकों ने खुद आगे आकर निगम अमले की मदद से व्यवस्था को दुरुस्त कराया।
चंडीगढ़ साथ से चमका
पब्लिक एप को डाउनलोड करने के लिये लोगों को जागरूक किया गया। इस पर गन्दगी की फोटो डालने पर 24 घंटे में हर हालत में साफ करवाने की समय सीमा तय की गई। दो से तीन घंटे में ही सफाई सुनिश्चित की गई। न होने की सूरत में कड़ी कार्रवाई तय की गई। सफाई कर्मचारी यूनियन ने भी साथ दिया। पूरे साल कोई हड़ताल नहीं की। उस कारण लोगों का रुझान बढ़ा। गीले व सूखे कचरे को अलग करने के लिये नीले व हरे रंग के डस्टबिन बाँटे गये। कमिश्नर व अधिकारी खुद स्कूलों व कॉलेजों में गये। पब्लिक टॉयलेट तक खुद साफ किये बाजारों को रात में साफ किया गया। सार्वजनिक शौचालयों की सही से सफाई करवाई गई। कई समाजसेवी संस्थानों को साथ लेकर डोर-टू-डोर लोगों को जागरूक किया। अपने स्तर पर भी बाजरों में डस्टबिन लगवाये। निगम ने घर-घर से कचरा उठवाया। उसकी प्रोसेसिंग के लिये प्लांट लगाया गया। लोगों ने भी कचरे के निपटान के लिये खुद कम्पोस्ट बनानी शुरू की। घरों के पास अथवा खाली जगहों पर गड्डे खोदकर इस कचरे को दबाकर कम्पोस्ट बनाया। शहर की हरियाली बढ़ाने में इसका उपयोग किया गया। राजनीतिक स्तर पर सभी पार्टियों व उनके नेताओं ने सहभागिता दिखाई।
मुँह बन्द काम चालू
कचरे से निपटने में बुरी तरह विफल रहने वाली बृहत बंगलुरु महानगर पालिका (बीबीएमपी) की अकर्मण्यता ने एक ऐसा समूह खड़ा कर दिया जो चुपचाप गन्दे स्थलों की पहचान करके उनका सौन्दर्यीकरण करने लगा। द अग्ली इंडियन समूह (टीयूआइ) के सदस्यों को किसी प्रसिद्धि की भी भूख नहीं है। इनमें से अधिकांश अज्ञात ही बने रहकर केवल ब्लैक स्पॉट को सुन्दर बनाना चाहते हैं। अभी तक शहर में इस समूह द्वारा 1154 स्थानों की पहचान करके उन्हें सुन्दर बनाया जा चुका है। इस समूह का ध्येय वाक्य है ‘काम चालू मुँह बन्द’। प्रभावित होकर बीबीएमपी ने कचरा फेंके जाने वाले स्थलों के सौन्दर्यीकरण के लिये इनके साथ समझौता किया है। संगठन की वेबसाइट पर लिखा है कि अब हमें यह स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं है कि देश की अधिकांश समस्याएँ हम जैसे अग्ली इंडियंस के चलते हैं। अब हम अग्ली इंडियस के लिये वक्त आ चुका है कि इस दिशा में कुछ करें। खुद को खुद से हम लोग ही बचा सकते हैं।
ठोस कचरा प्रबन्धन नियम-2016
अप्रैल 2016 में 16 साल बाद म्युनिसिपल सॉलिड वेस्ट (मैनेजमेंट एंड हैंडलिंग) रूल्स, 2000 की जगह इस कानून को लागू किया गया। नये नियमों के तहत कचरा प्रबन्धन के दायरे को नगर निगमों से आगे भी बढ़ाया गया। ये नियम अब शहरी समूहों जनगणना वाले कस्बों, अधिसूचित औद्योगिक टाउनशिप, भारतीय रेल के नियंत्रण वाले क्षेत्रों, हवाई अड्डों, एयर बेस बंदरगाह, रक्षा प्रतिष्ठानों, विशेष आर्थिक क्षेत्र, केन्द्र एवं राज्य सरकारों के संगठनों, तीर्थ स्थलों पर भी लागू किये गये। इन नियमों के समग्र निगरानी के लिये पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के सचिव की अध्यक्षता में एक केन्द्रीय निगरानी समिति भी गठित हुई।
खास बातें
1. कोई भी स्वयं द्वारा उत्पन्न ठोस कचरे को अपने परिसर के बाहर सड़कों, खुले सार्वजनिक स्थलों पर या नाली में या जलीय क्षेत्रों में न तो फेंकेगा न जलाएगा अथवा दबाएगा।
2. ठोस कचरा उत्पन्न करने वालों को ‘उपयोगकर्ता शुल्क’ अदा करना होगा, जो कचरा बीनने वालों को मिलेगा।
3. निर्माण और तोड़-फोड़ से उत्पन्न ठोस कचरे को निर्माण एवं विध्वंस अपशिष्ट प्रबन्धन नियम, 2016 के अनुसार संग्रहीत करने के बाद अलग से निपटाना होगा।
संस्कृति की विकृति
गरीब ही नहीं कचरे की समस्या से अमीर और विकसित देश भी हलकान हो रहे हैं। उनके यहाँ व्यापक उपभोक्तावाद और डिस्पोजेबल उत्पादों की अत्यधिक खपत के चलते प्रति व्यक्ति कूड़ा निकलने का अनुपात ज्यादा है। यह बात और है कि सर्वाधिक कूड़ा पैदा करने के बावजूद अपने कुशल प्रबन्धन, संसाधन और संस्कृति के बूते वे अपने देश व पर्यावरण को साफ रखने में सक्षम हैं। स्वीडन तो पड़ोसी मुल्कों का कूड़ा भी खरीद लेता है। दुनिया के कई देश इसे पर्यावरण के साथ जोड़कर भी देखते हैं। साफ-सफाई के मसले पर भारत को दोतरफा लड़ाई लड़नी पड़ रही है। एक तो यहाँ गन्दगी के निपटान वाले संसाधन नहीं है, लिहाजा लोग गन्दगी फैलाने को विवश हैं। जो थोड़े संसाधन हैं हम उनके इस्तेमाल से परहेज करते हैं। ऐसे में साफ-सफाई रखकर ही हम राष्ट्र को स्वस्थ रख सकते हैं। विभिन्न देशों में गन्दगी से निपटने के लिये उठाये जाने वाले कदम इस तरह हैं।
कूड़ेदान
कई देशों में जगह-जगह कूड़ेदान रखे जाते हैं। सभी सार्वजनिक स्थलों, सड़कों आदि पर इन्हें प्रशासन द्वारा रख दिया जाता है। स्वच्छता की संस्कृति विकसित कर चुके ये लोग अपने कूड़े को इसमें डाल जाते हैं जिसे स्थानीय कांउसिल द्वारा उठवा लिया जाता है। ऐसा नहीं है कि भारत में ऐसा प्रयोग नहीं किया गया है, लेकिन जनता से लेकर प्रशासन तक की उदासीनता कारगर पहल को विफल कर देती है।
अभियान
कई बार स्वयंसेवक विभिन्न संगठनों के सहयोग से गलियों और सड़कों पर पड़े कूड़े को उठाते हैं। सफाई अभियान चलाये जाते हैं जिनके तहत एक पूरे इलाके की सभी गन्दगी को साफ किया जाता है। उत्तरी अमेरिका में राजमार्गों को अपनाने का कार्यक्रम चलता है। इसके तहत कम्पनियों और संगठन सड़क के एक हिस्से को साफ रखने की प्रतिबद्धता जाहिर करते हैं। केन्या के एक शहर में ऐसे कूड़े से कलाकृतियाँ बनाकर बेची जाती है।
स्थलों की देखरेख- कई देशों में तकनीक के सहारे गन्दगी फैलाने वालों पर निगाह रखी जाती है। जापान में जियोग्राफिक इंफॉर्मेशन सिस्टम का इस्तेमाल किया जाता है।
कानून- कुछ देशों में कंटेनर डिपोजिट कानून बनाए गये हैं। इसके तहत लोगों को कूड़ा जमा करने के लिये प्रेरित किया जाता है, बाद में एल्युमिनियम कैन, शीशे व प्लास्टिक की बोतलों आदि के लिये लाभ भी पहुँचाया जाता है। जर्मनी, न्यूयार्क, नीदरलैण्ड और बेल्जियम के कुछ हिस्से में इस तरह के कानून लागू हैं। इस कानून के चलते जर्मनी के किसी सड़क पर कैन या प्लास्टिक की बोतल नही दिखाई देती। नीदरलैंड में भी कूड़े की मात्रा में अप्रत्याशित गिरावट आई।
कूड़ा किया तो खैर नहीं
दुनिया के कई देशों ने कूड़ा और गन्दगी फैलाने वालों के लिये सख्त दंड का प्रावधान कर रखा है।
अमेरिका- 500 डॉलर का अर्थदंड सामुदायिक सेवा या दोनों हो सकती है। अधिकांश राजमार्गों और पार्कों के लिये यह सजा 1000 डॉलर या एक साल की जेल है।
ब्रिटेन- दोषी साबित होने पर अधिकतम 2500 पौंड का अर्थदंड लग सकता है।
आस्ट्रेलिया- राज्यों के स्तर पर कानून। अर्थदंड का भी प्रावधान।
नीदरलैंड- गलियों में कूड़ा फेंकने पर पुलिस जुर्माना कर सकती है।
सिंगापुर- 1965 में स्वतंत्र हुआ देश आज प्रति व्यक्ति आय के मामले में अमेरिका सहित कई विकसित देशों के कान काटे हुए है। तीसरे पायदान पर। बताने को देश के पास कोई प्राकृतिक संसाधन नहीं। पेयजल के लिये भी मलेशिया पर निर्भर। कहीं भी कूड़ा फेंकने पर 200 डॉलर का अर्थदंड। कोई भी दलील नहीं सुनी जाएगी। च्युंगम पर प्रतिबंध। बिक्री पर भी सजा हो सकती है। अवारा कुत्ते यहाँ नही पाये जाते।
हैरतअंगेज तथ्य
कूड़े के रूप में दुनिया में सर्वाधिक सिगरेट के 4.5 ट्रिलियन टोटे सालाना फेंके जाते हैं। कुछ टोटों के अपक्षय में 400 साल तक लग जाते हैं।
खामियाजा व्यापक
विश्व बैंक के एक अध्ययन के मुताबिक अपर्याप्त गन्दगी की हर साल भारत को 54 अरब डॉलर कीमत चुकानी पड़ती है। यह 2006 में भारत की जीडीपी की 6.4 फीसद के बराबर है। यह चपत आन्ध्र प्रदेश, तमिलनाडु और गुजरात जैसे प्रदेशों की कुल आय से भी अधिक है।
बड़ा बाजार
शोध के अनुसार भारत में स्वच्छता के एक बड़े बाजार की पर्याप्त सम्भावनाएँ हें। 2020 तक यह बाजार 152 अरब डॉलर का हो सकता है। इनमें से 67 अरब डॉलर (64 फीसद) इंफ्रास्ट्रक्चर, 54 अरब डॉलर( 36 फीसद) प्रचालन और रखरखाव सेवाओं के लिये होगा। साफ-सफाई से जुड़े बाजार की सालाना वृद्धि 2020 में 15.1 अरब डॉलर हो सकती है।
गम्भीर नतीजे
अपर्याप्त साफ-सफाई और स्वच्छता के चलते लोग मारे जाते हैं। बीमारियाँ होती हैं। पर्यावरण प्रदूषित होता है। लोगों का कल्याण क्षीण होता है। इन सब परिणामों से हर कोई वाकिफ होता है लेकिन खराब स्वच्छता के आर्थिक असर का आकलन अब तक ढंग से नही किया गया है।
सफाई से कमाई
विश्व बैंक के शोध के अनुसार अगर शौचालय के इस्तेमाल में वृद्धि की जाय। स्वच्छता के तरीके अपनाये जायें तो स्वास्थ्य पर पड़ने वाले समग्र असर को 45 प्रतिशत तक कम किया जा सकता है जबकि जल, लोगों के कल्याण और पर्यटन नुकसान पूरे टाले जा सकते हैं।
1321 रुपए प्रतिव्यक्ति लाभ
स्वच्छता के सही तरीके अपनाकर भारत 32.6 अरब डॉलर हर साल बचा सकता है। यह रकम 2006 मे देश की जीडीपी के 3.9 हिस्से के बराबर है। इससे प्रतिव्यक्ति 1321 रुपए का लाभ सुनिश्चित किया जा सकता है।
“हर आदमी को खुद का सफाईकर्मी होना चाहिए” “किसी परिवार के सदस्य खुद के घर को तो साफ रखते हैं लेकिन पड़ोसी के घर के बारे में उनकी कोई रुचि नहीं होती।” “स्वतन्त्रता से ज्यादा महत्वपूर्ण है स्वच्छता।” -महात्मा गाँधी
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