हम न बच पाएँगे जंगल बिन


झारखंड के आदिवासी अपनी संस्कृति, भाषा, मर्यादा, सभ्यता, जल-जंगल-जमीन, पूर्वजों की धरोहरों को बचाकर रखने के लिये हमेशा से संघर्षरत रहे हैं। जिस तरह जंगल है तो आदिवासी है, उसी तरह आदिवासी हैं तो जंगल है। इन दोनों में से किसी एक की मौत हो जाने से दूसरे की जान अपने-आप निकल जाएगी। झारखंड में जंगल और आदिवासी दोनों मौत की दहलीज पर हैं। जंगल के बिना आदिवासी समाज व संस्कृति अधूरी है। प्राकृतिक सम्पदाओं जल-जगंल-जमीन की रक्षा के लिये आदिवासी समाज आदिकाल से ही कार्यरत है। भगवान बिरसा मुंडा ने भी इन्हीं की रक्षा के लिये कुर्बानी दी। लेकिन, आज वन प्रक्षेत्रों में रहने वाले आदिवासियों को जंगल से बेदखल करने की साजिश की जा रही है। झारखंड के 11वें साल में जनता, जंगल और आदिवासियों का जीवन स्तर लगातार दुखद स्थिति की ओर बढ़ रहा है। झारखंड की संस्कृति आदिवासी मूलवासी आधारित है, जिसमें जल-जंगल-जमीन की प्रधानता है।

झुंड़खंड: झुंड़ का मतलब जंगल-झाड़ी और खंड का अर्थ है एक हिस्सा। झुंड़खंड से ही झारखंड बना है। उस झुंड़खंड को तो राज्य का दर्जा मिले 11 साल हो गए, लेकिन दुर्भाग्य है कि यहाँ जंगल और आदिवासियों की समृद्धि के बजाय आदिवासी और जंगल का सफाया होता जा रहा है। जहाँ आदिवासी हैं, वहीं जंगल है। और जहाँ आदिवासियों की जनसंख्या समाप्त हो गई है, वहाँ जंगल भी खत्म हो गए हैं। अवशेष के रूप में चट्टानें और पत्थर बच गए थे, लेकिन, उन्हें भी क्रसर निगल रहा है। कई दशक पहले राँची एक गाँव था। जो रिची बुरू के नाम से जाना जाता था। फांसी टुंगरीया जो अब पहाड़ी मन्दिर के रूप में जाना जाता है, वही इसकी मुख्य पहाड़ी थी। रिची यानी बाज पक्षी। रिची के नाम पर ही मुंडारी भाषा से रांची का नामकरण हुआ। तब यहाँ घना जंगल हुआ करता था। और इन जंगलों के गाँव में आदिवासी मुंडा, उरांव, खड़िया, बिरहोर, हो, संथाल आदि रहा करते थे। चारों ओर घने जंगलों, नदी, नालों से सुशोभित झुंड़खंड में शेर, बन्दर, भालू, मयूर, हाथी, सूअर, साँप, बिच्छू, रंग-बिरंगे पशु-पक्षी और गाँव के लोग बड़े प्यार और खुशियों के साथ रहते थे। बाहरी आबादी के आगमन के साथ रांची शहर के रूप में विकसित होने लगी। आज उजड़ी सी रांची सबके सामने है। सिर्फ नाम मात्र के आदिवासी गाँव, पूजा-स्थल- सरना, अखड़ा बचे हैं।

रांची के तमाम औद्योगिक क्षेत्र भी आदिवासी गाँवों पर ही बने हैं। पूरी की पूरी राँची में आदिवासी गाँव, अखड़ों और जंगल की भरमार हुआ करती थी। आज के हालात में इन बातों पर विश्वास करना मुश्किल है, पर यह सच है। कोकर एक मुंडारी भाषा का शब्द है, जिसका मतलब होता है- उल्लू पक्षी। इस इलाके में जब घना जंगल था, तो कोकर नदी में पवित्र पानी बहता था। यहाँ के नदी किनारे बड़े-बड़े पेड़ों के कोटरों में बड़ी संख्या में कोकर यानी उल्लू रहा करते थे। रात में उड़ते हुए बड़ी तेज स्वर में कोरकच-कोरकच के गीत गाते थे। इसी पक्षी के नाम से कोकर गाँव का नामकरण हुआ। यह एक आदिवासी बहुल गाँव था, जिसमें मुंडा, खड़िया, उरांव रहते थे। लेकिन आज वे आदिवासी कहाँ चले गए? किसी को यह मालूम नहीं है। गली-कोचा में नाम मात्र के आदिवासी समुदाय मिलेंगे। जहाँ पर छोटा सा नाम मात्र का सरना स्थल बचा हुआ है। कोकर नदी कचरा पानी ढोने वाले गन्दे नाले के रूप में बह रही है। इसी नदी के पास अमर शहीद भगवान बिरसा मुंडा का समाधि स्थल है। यह एक ऐतिहासिक नदी है, जिसे मार दिया गया है। आज यही कोकर औद्योगिक क्षेत्र राँची कहलाता है। पहले मुंडा मोराबादी को माराबादी कहते थे, आज वह मोरहाबादी के नाम से जाना जाता है। इसी तरह दुरांग दा से- डोरंडा बना। इसी तरह आदिवासियों के जंगल-नदी और कई गाँव मिट गए। इससे साफ जाहिर है कि आदिवासी हैं तो जंगल है, तो आदिवासी समाज है।

जंगल और आदिवासी: झारखंड के आदिवासी अपनी संस्कृति, भाषा, मर्यादा, सभ्यता, जल-जंगल-जमीन, पूर्वजों की धरोहरों को बचाकर रखने के लिये हमेशा से संघर्षरत रहे हैं। जिस तरह जंगल है तो आदिवासी है, उसी तरह आदिवासी हैं तो जंगल है। इन दोनों में से किसी एक की मौत हो जाने से दूसरे की जान अपने-आप निकल जाएगी। झारखंड में जंगल और आदिवासी दोनों मौत की दहलीज पर हैं।

आदिवासियों ने किसी धरोहर की तरह जंगल, पहाड़, नदी, गाँव, खेत-खलिहानों को अब तक बचाए रखने का जी-जान से जतन किया है। लेकिन, देशी-विदेशी कम्पनियों ने दशकों से आतंक मचा रखा है। यही वजह है कि राज्य में एक ओर अमीर जहाँ और अमीर होते जा रहे हैं, वहीं गरीब और गरीब होते जा रहे हैं। इसने अमीर-गरीब के बीच हिंसक संघर्षों की शुरुआत कर दी है।

आज हिंसक, खूंखार, लूटखंड के रूप में झारखंड की छवि दिखाई दे रही है। जबकि झारखंड का मान-सम्मान और अस्तित्व, गाँव, जंगल, पहाड़, नदी, झरनों, अखड़ों और आदिवासी भाषा-संस्कृति में विद्यमान है। इसे जड़ से मिटाने की कोशिश की जा रही है- झारखंड चला श्मशान-वनांचल छू रहा है आसमान, आदिवासी और जंगल को उजाड़ो और विकास का नया मॉडल तैयार करो। इसी उद्देश्य से भू-अर्जन, पुनर्वास और पुनर्व्यवस्थापन विधेयक-2011 लाया गया है।

झारखंड के गाँवों में, जंगलों में बसे लोगों को उजाड़ कर पुनर्वास देना, सरासर मानवाधिकार का हनन है। पलायन और विस्थापन ने झारखंडी आदिवासियों को अपनी भाषा, संस्कृति, सभ्यता व जल-जंगल-जमीन से जुदा कर दिया है। राज्य गठन के 11 सालों में हर बार आदिवासी मुख्यमंत्री ही बने, लेकिन जिन पर आदिवासियों का जीवन आधार टिका है, उनकी सरासर अनदेखी की गई। जंगल और आदिवासियों के मुद्दे विकास के एजेंडे से गायब हो गए, बल्कि उन्हें उजाड़ने का ही काम अधिक हुआ।

आज भी राज्य के हर कोने में झारखंडी समुदाय जल, जंगल, जमीन और अपने अधिकारों की रक्षा के लिये बिरसा मुंडा के उलगुलान के रास्ते संघर्ष कर रहे हैं। आदिवासियों के लिये यह धरती अपनी माँ है और उस पर विद्यमान नदी, जंगल, पहाड़, खेत-खलिहान उनके अंग हैं। आजादी के बाद से ही आदिवासियों द्वारा सुरक्षित जंगलों को रिजर्व फॉरेस्ट घोषित कर दिया गया है। लेकिन, आज भी उन जंगलों की रक्षा गाँव में रहने वाला आदिवासी समाज ही करता है, न कि वन अधिकारी। लेकिन, वन विभाग उन ग्रामीणों के बीच जंगल का माफिया बन बैठा है। जंगल का संरक्षण ग्रामीण आदिवासी करते हैं और जंगल का लाभ वन विभाग उठाता है। जब गाँव वाले आवाज उठाते हैं तो वन विभाग के वनपाल कर्मी कहते हैं कि जंगल उनका है। हमारे कार्यालय में नक्शा है, हम नक्शे की ड्यूटी करते हैं, जब तक नक्शा है, तब तक नौकरी पक्की है। जंगल में ड्यूटी करने की कोई जरूरत नहीं है। वन सुरक्षा कर्मी वर्दी और नक्शे के लिये ही तनख्वाह लेते हैं। आदिवासियों का मानना है कि जंगल हमारे पूर्वजों की धरोहर है। जंगल के बिना झारखंड अधूरा है, यह मुंडारी गीत हमें प्रेरणा देता है-

छोटानागपुर वीर दिसुम, मुंडा कोआ बाईयान, दिसुम, एलाबू होरोया आबू एलाबू जांगिआ, झारखंड वीर बेगार सामागेआ।
वीर रंगे उतु: मांडी, बुरू रंगे राणु जिंआड़, एलाबू होरोया आबू एलाबू जांगिआ, झारखंड वीर बेगार सामागेआ।
वीर रंगे रूतुः बनाम, बुरू रंगे सुसुन कराम्, एलाबू होरोया आबू एलाबू जांगिआ, झारखंड वीर बेगार सामागेआ।


छोटानागपुर जंगल राज्य (झारखंड) मुंडाओं द्वारा बसाया गया है। आओ हम इसका संरक्षण करें, पहरा करेंगे, जंगल के बिना झारखंड राज्य अधूरा है। जंगल में ही सब्जी- भोजन, जंगल से ही दवा दारू (जड़ी-बूटी), जंगल से ही रुपया-पैसा, जंगल से ही घर द्वार, जंगल में ही बाँसुरी और बनम, जंगल से ही नृत्य-संगीत और खुशियाँ होती हैं, आइए हम मिलकर झारखंड के जंगलों की सुरक्षा करें। झारखंड के जंगल-नदी, पहाड़ को बचाकर ही हम झारखंड राज्य के मान-सम्मान को बचा सकते हैं। और बिरसा मुंडा के सपनों के झारखंड का नवनिर्माण कर सकते हैं।

 

और कितना वक्त चाहिए झारखंड को

(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।)

जल, जंगल व जमीन

1

कब पानीदार होंगे हम

2

राज्य में भूमिगत जल नहीं है पर्याप्त

3

सिर्फ चिन्ता जताने से कुछ नहीं होगा

4

जल संसाधनों की रक्षा अभी नहीं तो कभी नहीं

5

राज व समाज मिलकर करें प्रयास

6

बूँद-बूँद को अमृत समझना होगा

7

जल त्रासदी की ओर बढ़ता झारखंड

8

चाहिए समावेशी जल नीति

9

बूँद-बूँद सहेजने की जरूरत

10

पानी बचाइये तो जीवन बचेगा

11

जंगल नहीं तो जल नहीं

12

झारखंड की गंगोत्री : मृत्युशैय्या पर जीवन रेखा

13

न प्रकृति राग छेड़ती है, न मोर नाचता है

14

बहुत चलाई तुमने आरी और कुल्हाड़ी

15

हम न बच पाएँगे जंगल बिन

16

खुशहाली के लिये राज्य को चाहिए स्पष्ट वन नीति

17

कहाँ गईं सारंडा कि तितलियाँ…

18

ऐतिहासिक अन्याय झेला है वनवासियों ने

19

बेजुबान की कौन सुनेगा

20

जंगल से जुड़ा है अस्तित्व का मामला

21

जंगल बचा लें

22

...क्यों कुचला हाथी ने हमें

23

जंगल बचेगा तो आदिवासी बचेगा

24

करना होगा जंगल का सम्मान

25

सारंडा जहाँ कायम है जंगल राज

26

वनौषधि को औषधि की जरूरत

27

वनाधिकार कानून के बाद भी बेदखलीकरण क्यों

28

अंग्रेजों से अधिक अपनों ने की बंदरबाँट

29

विकास की सच्चाई से भाग नहीं सकते

30

एसपीटी ने बचाया आदिवासियों को

31

विकसित करनी होगी न्याय की जमीन

32

पुनर्वास नीति में खामियाँ ही खामियाँ

33

झारखंड का नहीं कोई पहरेदार

खनन : वरदान या अभिशाप

34

कुंती के बहाने विकास की माइनिंग

35

सामूहिक निर्णय से पहुँचेंगे तरक्की के शिखर पर

36

विकास के दावों पर खनन की धूल

37

वैश्विक खनन मसौदा व झारखंडी हंड़ियाबाजी

38

खनन क्षेत्र में आदिवासियों की जिंदगी, गुलामों से भी बदतर

39

लोगों को विश्वास में लें तो नहीं होगा विरोध

40

पत्थर दिल क्यों सुनेंगे पत्थरों का दर्द

 

 
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