पर्यावरण क्षरण और जलवायु परिवर्तन का सवाल फिर से बहस का मुद्दा बना हुआ है। अमेरिका और पूर्वी यूरोप में पड़ती भयानक सर्दी और बर्फबारी ने पर्यावरणविदों को नए सिरे से चिंतित कर दिया है। दुनिया भर में इस मुद्दे पर बेचैनी है, और चाहे वह क्योटो हो या कोपेनहेगन, कहीं भी अंतिम निर्णय नहीं हो सका है। ऐसे में कानकुन से भी कुछ खास उम्मीद नहीं थी। वहां वही हुआ, जो इससे पहले हो चुका था। पृथ्वी के तापमान में दो डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी न होने देने और विकासशील देशों की सहायता करने जैसे निष्कर्ष कोई नए नहीं हैं।
दरअसल जब तक अमेरिका, चीन, रूस और जापान जैसे विकसित राष्ट्र अपनी ओर से ठोस पहल के लिए राजी नहीं होते, तब तक बदलाव की उम्मीद बेमानी है। यह अलग बात है कि जलवायु परिवर्तन से यूरोप के लोग अमेरिका और चीन की तुलना में ज्यादा चिंतित हैं। इसके बावजूद बीते डेढ़ दशक में बहुतेरी बैठकों और आठ बार समझौते का मसौदा बनने के बाद भी कोई सर्वमान्य हल नहीं निकल सका। भले ही पर्यावरणविद ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी के लिए शीघ्र कदम उठाने की अपील करें, लेकिन यह भांप पाना मुश्किल नहीं है कि इसमें विलंब के लिए जिम्मेदार कौन है? सच तो यह है कि प्राकृतिक संसाधनों के बेतहाशा उपयोग और भौतिक सुख-सुविधाओं की अंधी दौड़ के कारण आज न केवल प्रदूषण बढ़ा है, बल्कि जलवायु में बदलाव से धरती तप रही है।मौसम में बदलाव के कारण भविष्य में आजीविका के संसाधनों यानी पानी की कमी और फसलों की बरबादी के चलते दुनिया के अनेक भागों में स्थानीय स्तर पर जंग तो छिड़ेगी ही, वर्ष 2050 तक एक अरब निर्धन लोग अपना घर-बार छोड़ शरणार्थी के रूप में रहने को मजबूर होंगे। संयुक्त राष्ट्र की अंतर-सरकारी पैनल की रिपोर्ट के अनुसार, 2080 तक 3.2 अरब लोग पानी की तंगी से, 60 करोड़ लोग भोजन के अभाव से और तटीय इलाकों के 60 लाख लोग बाढ़ की समस्या से जूझेंगे। ग्लोबल वार्मिंग से मलेरिया और फ्लू जैसी बीमारियां और भयावह होंगी। पहाड़ों पर ठंड के बावजूद मलेरिया फैलेगा। विकासशील देशों में उच्च घनत्व वाली आबादी के बीच एचआईवी, तपेदिक, श्वास व यौन रोगों में बढ़ोतरी होगी।
नासा के गोडार्ड इंस्टीट्यूट फॉर स्पेस स्टडीज के अध्ययन में खुलासा हुआ है कि बीते 30 वर्षों में धरती का तापमान 0.2 डिग्री सेल्सियस बढ़ गया है। यदि यह एक डिग्री भी और बढ़ता है, तो पिछले 10 लाख साल के अधिकतम तापमान के बराबर हो जाएगा। वैज्ञानिकों के अनुसार, 21वीं सदी के अंत में धरती का औसत तापमान 1.1 से 6.4 डिग्री सेंटीग्रेड तक बढ़ जाएगा।
बेशक जलवायु परिवर्तन के पीछे भारत विकसित देशों जैसा जिम्मेदार नहीं है, लेकिन हमारी सरकार भी तो निर्बाध आर्थिक मजबूती चाहती है। उसे न विश्व बैंक की चिंता है, न संयुक्त राष्ट्र के अंतर-सरकारी पैनल की और न सुप्रीम कोर्ट की। पर्यावरण सुधारने के लिए हमें संयम बरतना होगा। क्या विडंबना है कि जो देश पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने के सर्वाधिक जिम्मेदार हैं, वही पर्यावरण संरक्षण की दिशा में ठोस कदम उठाने में सबसे ज्यादा आनाकानी करते हैं। क्योटो संधि पर अमेरिका ने हस्ताक्षर करने से इनकार किया है। दीगर है कि अमेरिकी थिंकटैंक प्यू रिसर्च सेंटर द्वारा 47 देशों में कराए गए सर्वेक्षण में ग्लोबल वार्मिंग के लिए 34 देशों ने अमेरिका को जिम्मेदार ठहराया।
जैसे हालात बन गए हैं, उनमें एक दूसरे पर दोष मढ़ने से कुछ होने वाला नहीं। खर्चीला ईंधन जलाने वाले विकास का तरीका लंबे समय के लिए न तो उचित है, न उपयोगी, क्योंकि अब धरती के पास इतना ईंधन बचा ही नहीं है। जरूरी है कि समस्या के भयावह होने से पहले सामूहिक प्रयास किए जाएं। सरकार कुछ करे या न करे, हमें अपने स्तर पर पहल अवश्य करनी चाहिए। इसके लिए सबसे पहले हम अपनी जीवन-शैली बदलें। हमें बिजली का बेलगाम इस्तेमाल बंद करना पड़ेगा। अधिकाधिक पेड़ लगाने होंगे, ताकि ईंधन के लिए उनके बीज, पत्ते, तने काम आएं और हम धरती के अंदर गड़े कार्बन को वहीं रखकर वातावरण को बचा सकें। तभी धरती बचेगी। इतना तो हम कर ही सकते हैं। यदि हम समय रहते कुछ कर पाने में नाकाम रहे, तो आने वाले दिनों में इनसान क्या, जीव-जंतु और प्राकृतिक धरोहर तक का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा।
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