नदियों को प्रदूषण-मुक्त कराने में नागरिक और सामाजिक संगठनों के प्रयास ज्यादा सार्थक सिद्ध हुए हैं। इस दिशा में गंगा मुक्ति आन्दोलन और भारतीय सांस्कृतिक निधि द्वारा की जा रही कोशिशें बहुत मायने रखती हैं। कुछ स्कूलों द्वारा भी समय-समय पर बच्चों की पदयात्रा के जरिए लोगों में नदियों के प्रति जागरुकता पैदा करने की कोशिश की जाती है।
सांसद मोहन सिंह ने पिछले दिनों लोकसभा में वाराणसी में गंगा नदी की सफाई को लेकर कुछ सवाल उठाए थे। इसके जवाब में पर्यावरण एवं वन राज्य मंत्री ने जो कुछ कहा, यदि उसे सच मान लिया जाये तो गंगा एक्शन प्लान के तहत केन्द्र सरकार द्वारा प्रथम चरण में 428.04 करोड़ रुपए और दूसरे चरण में अब तक 1,276.25 करोड़ रुपए आवंटित किये जा चुके हैं, यानी सरकार की निगाह में इस योजना से गंगा का उद्धार हो चुका है। जाहिर है, इस जवाब के हिसाब से योजना क्षेत्र की आबादी को राहत महसूस होनी चाहिए थी, परन्तु गंगा एक्शन प्लान के तहत आने वाली गंगा-यमुना सहित चौदह बड़ी, पचपन मंझोली और सैकड़ों छोटी नदियों की तटीय आबादी को कोई लाभ नहीं महसूस हो रहा है।इस योजना को शुरू हुए लगभग 20 वर्ष हो गए हैं। गंगा एक्शन प्लान का प्रथम चरण वर्ष 1986 से 1999 तक चला और अब यह दूसरे चरण में है। प्रथम चरण के परिणाम से योजनाकारों को तसल्ली मिली, इसलिये उन्होंने दूसरे चरण को स्वीकृति दे डाली, लेकिन योजनाकारों ने नदियों की सफाई और उसके दूषित होने की सतही वजहों पर ही ज्यादा काम किया है। इन दोनों चरणों में गंगा के दूषित होने की सबसे बड़ी वजह कारखानों से निकलने वाले कचरों को माना गया, लेकिन उन पर लगाम लगाने में योजनाकार असमर्थ नजर आये। आँकड़े इस बात की पुष्टि करते हैं कि पूरे देश में 1,35,000 औद्योगिक इकाइयाँ हर रोज लाखों लीटर कचरा देश की नदियों में बगैर साफ किये प्रवाहित करती हैं, लेकिन पर्यावरण मंत्री के जवाब में औद्योगिक संस्थानों से उत्सर्जित होने वाले कचरे की बजाय नागरिक समाज से उत्पन्न प्रदूषण पर ज्यादा जोर दिया गया है। मसलन मल-मूत्र त्याग से नदियों को बचाने के लिये शौचालयों, धोबी घाटों, स्नान घाटों को बेहतर बनाने जैसे उपाय उनकी निगाह में प्रमुख हैं, परन्तु ये कोई इतने महत्वपूर्ण कारक नहीं हैं। औद्योगिक इकाइयों के कचरे के कारण नदियाँ प्रदूषित हो रही हैं।
औद्योगिक कचरे से नदियों के प्रदूषण में महाराष्ट्र का स्थान पहला है, जबकि उत्तर प्रदेश का स्थान दूसरा। इसकी वजह है अनियोजित उद्योगीकरण एवं प्राकृतिक संसाधनों के प्रति इन राज्यों की बेरुखी। गंगा में वीरभद्र के पास आईडीपीएल की रासायनिक गन्दगी, हरिद्वार में भेल का मलबा, बुलन्दशहर के पास नरौरा तापघर का कचरा, कानपुर में चमड़ा उद्योग व अन्य उद्योगों से निकलने वाला रासायनिक कचरा, वाराणसी में कपड़ा रंगाई व छपाई उद्योगों से निकलने वाला रासायनिक कचरा तथा इसके अलावा खाद्य और कीटनाशक कारखानों से निकलने वाले गन्दे पानी को बगैर उपचारित किये बगैर ही बहाया जा रहा है। मुनाफा कमाने के चक्कर में इन औद्योगिक संस्थानों का प्रबन्धन तंत्र पूर्णतया संवेदनहीन हो चुका है। यह कानून का उल्लंघन भी है। कोई भी उद्योग लगाने की एक अनिवार्य शर्त यह होती है कि सम्बन्धित प्रबन्धन अपने उद्योग से निकलने वाले गन्दे पानी को वाटर ट्रीटमेंट के जरिए साफ करने के बाद ही नदी में गिरा सकता है, लेकिन न तो फैक्टरियों के प्रबन्धन में अब नैतिकता बची है और न ही हमारे योजनाकारों में इतना साहस कि वे फैक्टरी मालिकों पर दबाव बनाकर नदियों को प्रदूषित होने से बचा सकें।
इसमें कोई दो राय नहीं कि भूमण्डलीकरण के मौजूदा दौर में निजीकरण से हम बच नहीं सकते, लेकिन निजीकरण के निजत्व बोध पर अंकुश जरूर लगाया जा सकता है, क्योंकि निजी कम्पनियाँ अपने विकास के चक्कर में पर्यावरण, प्राकृतिक संसाधनों और नागरिक समाज के हितों को समझने को तैयार नहीं हैं। इसी अन्धे विकास ने गंगा सहित अन्य नदियों के पानी को पीने लायक नहीं रहने दिया है। गंगा की 2,525 किलोमीटर की कुल लम्बाई के 1,760 किलोमीटर के दायरे में बायोकेमिकल ऑक्सीजन की मात्रा छह मिलीग्राम प्रतिलीटर से ज्यादा है। यह मात्रा नदियों के जलचर और जैवविविधता के लिये तो खतरनाक है ही, इंसानों के बीच पनपते नए-नए रोगों का भी एक बड़ा कारण है। नदियों की तटीय आबादी में चर्म रोग एवं पेट से सम्बन्धित अनगिनत बीमारियाँ इसकी गवाही देती हैं।
नदियों को प्रदूषण-मुक्त कराने में नागरिक और सामाजिक संगठनों के प्रयास ज्यादा सार्थक सिद्ध हुए हैं। इस दिशा में गंगा मुक्ति आन्दोलन और भारतीय सांस्कृतिक निधि द्वारा की जा रही कोशिशें बहुत मायने रखती हैं। कुछ स्कूलों द्वारा भी समय-समय पर बच्चों की पदयात्रा के जरिए लोगों में नदियों के प्रति जागरुकता पैदा करने की कोशिश की जाती है। जब लोग सजग होंगे, तभी इन औद्योगिक संस्थानों की मनमानी पर रोक लगाई जा सकेगी। गौरतलब है कि हरिहर, कर्नाटक के स्थानीय लोग तुंगभद्रा नदी के अस्तित्व को बचाने के लिये पिछली सदी के सत्तर के दशक से संघर्ष कर रहे हैं। प्लाचीमाड़ा, केरल के गाँव के लोगों ने अपने वजूद की लड़ाई मानकर नदी जल को प्रदूषण-मुक्त कराया। समाज की इन लड़ाइयों से लोगों को प्रेरणा लेनी होगी, तभी योजनाएँ साकार होंगी।
जल, जंगल और जमीन - उलट-पुलट पर्यावरण (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें) | |
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पुस्तक परिचय - जल, जंगल और जमीन - उलट-पुलट पर्यावरण | |
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