गाज़ियाबाद जिले में मोहन नगर के पास नदी भूमि का काफी हिस्सा पहले से ही भूमाफियाओं के चंगुल में है। इधर इसी में से होकर पहले गाज़ियाबाद-मेरठ बाइपास का निर्माण किया गया। उद्देश्य शहर की भीड़ से बचाने से ज्यादा वहां खेती की ज़मीन कब्ज़ा कर बन रहे बिल्डर्स निर्माण परिसरों को मार्ग मुहैया कराना तथा बाढ़ के खतरे से बचाना था। उसके बाद बाइपास को करहैड़ा गांव से जोड़ने के नाम पर एक भरवा पुल बनाकर हिंडन की बेशकीमती ज़मीन को सुखाने-कब्ज़ाने का खेल शुरू किया गया। पर्यावरण मंत्री रहते हुए जयराम रमेश ने जब नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के गठन के प्रस्ताव को आगे बढ़ाया था, तो इसका असल मकसद प्रदूषण नियंत्रण क़ानूनों व शिकायतों की परवाह न करने वाले खासकर उद्योग, म्युनिसपलिटी व व्यावसायिक प्रतिष्ठानों को क़ानूनों का पालन करने को बाध्य करना था। मकसद था कि प्रदूषकों के खिलाफ शिकायत दर्ज कराना आसान बने। बरसों लटके रहने वाले मुकदमों के स्थान पर तय समय सीमा के भीतर सजा सुनाई जा सके। पूरी प्रक्रिया को कम ख़र्चीला व पारदर्शी बनाया जा सके। यह सामान्य मान्यता है कि निजी क्षेत्र ही पर्यावरण विरोधी गतिविधियों में ज्यादा लिप्त है। वही सरकारी नियम-कायदों की धज्जी ज्यादा उड़ाता है। जबकि सच यह है कि यदि सरकारी अमला अपने नियुक्ति के वक्त ली गई शपथ और सौंपे गये दायित्व की पूर्ति ठीक से करे, तो न निजी क्षेत्र क़ानूनों की धज्ज्यिां उड़ाने की हिम्मत करे और न ही अदालतों को उन्हें बार-बार निर्देशित करने की जहमत उठानी ही न पड़े। यह पर्यावरण सुरक्षा-संरक्षा के लिए जिम्मेदार सरकारी पक्षधरों की दायित्वहीनता का ही नतीजा है कि उनकी दायित्वपूर्ति की याद दिलाने के लिए जिम्मेदार नागरिकों और जनसंगठनों को अपनी ऊर्जा और पैसा तथा अदालतों को अपना बेशकीमती वक्त लगाना पड़ता है। हिंडन नदी पुल मामले में भी ग्रीन ट्रिब्यूनल को अपना वक्त निर्माता कंपनी के साथ-साथ उ. प्र. सिंचाई सचिव तथा गंगा परियोजना के चीफ़ इंजीनियर को उनकी ज़िम्मेदारी याद दिलाने में अपना वक्त लगाना पड़ रहा है। तीनों को कारण बताओ नोटिस जारी किया गया है।
उल्लेखनीय है कि हिंडन पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बहने वाली एक प्रमुख नदी है। गाज़ियाबाद जिले में मोहन नगर के पास नदी भूमि का काफी हिस्सा पहले से ही भूमाफियाओं के चंगुल में है। इधर इसी में से होकर पहले गाज़ियाबाद-मेरठ बाइपास का निर्माण किया गया। उद्देश्य शहर की भीड़ से बचाने से ज्यादा वहां खेती की ज़मीन कब्ज़ा कर बन रहे बिल्डर्स निर्माण परिसरों को मार्ग मुहैया कराना तथा बाढ़ के खतरे से बचाना था। उसके बाद बाइपास को करहैड़ा गांव से जोड़ने के नाम पर एक भरवा पुल बनाकर हिंडन की बेशकीमती ज़मीन को सुखाने-कब्जाने का खेल शुरू किया गया। मालूम नहीं किस की शह पर, लेकिन यह सब किसी और के द्वारा नहीं बल्कि स्थानीय प्रशासन, गाज़ियाबाद विकास प्राधिकरण आदि की पहल पर हुआ। जबकि हिंडन का प्रवाह और उसकी ज़मीन बचाने की ज़िम्मेदारी गंगा परियोजना के चीफ़ इंजीनियर व सिंचाई विभाग के अलावा नैतिक तौर पर इनकी भी है। जब बाढ़ ही खेत खाने लगे, तो भला उम्मीद बचती ही कहां है! इसी का नतीजा है कि जनविरोध के बावजूद करहैड़ा गांव को मेरठ बाइपास से जोड़ने के नाम पर हिंडन नदी के पाट को सुखाकर गला घोटने के नापाक काम को अंजाम दिया जा सका।
हिंडन पर बन रहा भरवा पंटुन पुल नदी का गला घोटने का ही काम है। इसके लिए सरकारी अमला ही नहीं, उसके कारण सूखी ज़मीन पर कब्ज़े के लिए लगी गिद्ध निगाहें भी दोषी हैं। वह तो भला हो हिंडन जल बिरादरी के अगुवा और पेशे से वकील नौजवान विक्रांत शर्मा का, जिसके जज़्बे ने समाज के एक वर्ग को एकजुट किया। अदालत का दरवाज़ा खटखटाया। फिलहाल न्यायमूर्ति स्वतंत्र कुमार की अध्यक्षता वाली नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल पीठ ने सचिव (सिंचाई), मुख्य अभियंता (गंगा परियोजना) और निर्माता कंपनी मेसर्स पी के एस इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रा लि. को कारण बताओ नोटिस जारी कर दिया है। पूछा है कि धारा 26 और धारा 19(4) के तहत् दोषी पाये जाने पर क्यों न इन्हें दंडित किया जाये। ट्रिब्युनल की इस पीठ में अध्यक्ष के अलावा एक न्यायिक सदस्य जस्टिस पी. ज्योथिमणि तथा तीन विशेषज्ञ सदस्य क्रमशः डॉ. डी. के. पांडे, डॉ. डी. के. अग्रवाल तथा प्रो. ए. आर. युसूफ़ शामिल हैं।
विक्रांत बनाम यूनियन ऑफ इंडिया के इस मामले में ट्रिब्यूनल ने हालांकि यह माना है कि इस स्थिति में निर्माण ध्वस्त करने से कोई मकसद हल नहीं होगा; लेकिन उसने पंटुन पुल की लंबाई घटाने को लेकर गंभीर सवाल उठाये हैं। उल्लेखनीय है कि पुल स्थल पर करहैड़ा गांव और मेरठ बाइपास के बीच की दूरी 180 मीटर है। इस 180 में से 50 मीटर की दूरी तय करने के लिए पंटुन पुल का निर्माण किया गया है। जाहिर है कि शेष 130 मीटर की दूरी मुख्य पुल के जरिए तय होगी। मुख्य पुल खंभों पर टिका न होकर भरवा आधार वाला पुल है। पुल का भरवा आधार ही आपत्ति का मुख्य कारण है। इसी के मद्देनज़र ही ट्रिब्यूनल ने कई माह पूर्व ही निर्माण पर रोक लगा दी थी। उसका निर्माण कार्य रुकने पर पंटुन पुल का निर्माण कार्य किया गया; यानी मुख्य पुल निर्माण को अभी और आगे बढ़ाया जायेगा। पंटुन पुल की कम लंबाई का मतलब है कि मुख्य पुल जितने पर रुका हुआ है, निर्माता अभी उसकी लंबाई और बढ़ाने का इरादा रखते हैं। भरवा पुल जितना ज्यादा लंबा होगा, हिंडन के पाट की उतनी ज्यादा ज़मीन की सतह पर पानी नहीं होगा। इस तरह अधिकतम ज़मीन सुखाने का उद्देश्य उस पर कब्ज़ा कर उससे मुनाफ़ा कमाने के अलावा भला और क्या हो सकता है! इसी आशंका के कारण पहले मुख्य पुल का भरवा होना और अब पंटुन पुल की लंबाई का कम होना सवालों के घेरे में है। दोनों काम निर्माताओं की नीयत पर शक पैदा करते हैं। ट्रिब्यूनल ने गाज़ियाबाद विकास प्राधिकरण आदि निर्माता पक्ष से ठोस प्रस्ताव तैयार कर पेश कर बताने को कहा है कि उन्होने पंटुन पुल की चौड़ाई को घटाकर 50 मीटर क्यों किया? नदी प्रवाह मार्ग को पत्थर, मिट्टी और दूसरी सामग्री से क्यों भरा? हिंडन के प्राकृतिक प्रवाह को यथासंभव बरकरार रखने के लिए क्या कदम उठाये जा सकते हैं? ट्रिब्यूनल ने यह सवाल भी निर्माता पक्ष से ही पूछा है। जाहिर है कि निर्माता पक्ष से जानना चाहता है कि हिंडन के प्राकृतिक प्रवाह को बरकरार रखने के लिए वे क्या कदम उठाने वाले हैं।
ग्रीन ट्रिब्यूनल के रुख ने हिंडन रक्षा के लिए उठे कदमों की उम्मीद जगा दी है। वे अपनी यात्रा लेकर हिंडन जगाने निकल पड़े हैं।उनके हाथों में तख्तियां हैं और जुबां पे नारा। हिंडन की जय!अच्छा तो यही होता कि भरवा पुल गिराकर खंभों पर पुल बनाया जाता। इसमें आये खर्च की भरपाई इसके दोषियों की तनख्वाहों और निर्माता कंपनी से की जाती। यह सर्वश्रेष्ठ उपाय भी होता और दोषियों को यादगार नसीहत भी। लेकिन यदि यह ट्रिब्युनल को मुनासिब नहीं लगता, तो विशेषज्ञ राय में भरवा पुल को गिराये बगैर दुष्प्रभाव को न्यूनतम करने का तरीका यही है पंटुन पुल की लंबाई यथासंभव अधिकतम व शेष पुल की लंबाई न्यूनतम हो। मुख्य पुल के आगे का निर्माण खंभों पर डिज़ाइन किया जाये। सुनिश्चित हो कि हिंडन की ज़मीन पर भविष्य में कोई निर्माण नहीं होने दिया जायेगा। इसके लिए हिंडन नदी भूमि व बाढ क्षेत्र का सीमांकन किया जाये। इसे नजीर मानकर हिंडन के पूरे प्रवाह क्षेत्र पर लागू किया जाये। पर्यावरण मंत्रालय को इस बाबत अधिसूचना जारी करने के निर्देश दिए जायें। बाइपास और पुल के कारण करहैड़ा गांव के पास आकर नदी प्रवाह सिकुड़ना व उसकी गति का तेज होना तय है। इससे करहैड़ा गांव में बाढ़ का खतरा बढ़ेगा ही। बसावट घनी होने के कारण नुकसान भी ज्यादा ही होगा। अतः इसका निराकरण प्रस्तुत करना भी जरूरी ही है। व्यापक समाधान के लिए हिंडन प्रदूषक स्थानीय निकायों के अलावा औद्योगिक व कृषि प्रदूषण पर लगाम लगानी होगी। क्या ट्रिब्युनल इसका रास्ता खोलेगा? आइये! प्रतीक्षा करें।
दोषी पाये जाने पर क्यों न किए जायें दंडित?
उल्लेखनीय है कि हिंडन पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बहने वाली एक प्रमुख नदी है। गाज़ियाबाद जिले में मोहन नगर के पास नदी भूमि का काफी हिस्सा पहले से ही भूमाफियाओं के चंगुल में है। इधर इसी में से होकर पहले गाज़ियाबाद-मेरठ बाइपास का निर्माण किया गया। उद्देश्य शहर की भीड़ से बचाने से ज्यादा वहां खेती की ज़मीन कब्ज़ा कर बन रहे बिल्डर्स निर्माण परिसरों को मार्ग मुहैया कराना तथा बाढ़ के खतरे से बचाना था। उसके बाद बाइपास को करहैड़ा गांव से जोड़ने के नाम पर एक भरवा पुल बनाकर हिंडन की बेशकीमती ज़मीन को सुखाने-कब्जाने का खेल शुरू किया गया। मालूम नहीं किस की शह पर, लेकिन यह सब किसी और के द्वारा नहीं बल्कि स्थानीय प्रशासन, गाज़ियाबाद विकास प्राधिकरण आदि की पहल पर हुआ। जबकि हिंडन का प्रवाह और उसकी ज़मीन बचाने की ज़िम्मेदारी गंगा परियोजना के चीफ़ इंजीनियर व सिंचाई विभाग के अलावा नैतिक तौर पर इनकी भी है। जब बाढ़ ही खेत खाने लगे, तो भला उम्मीद बचती ही कहां है! इसी का नतीजा है कि जनविरोध के बावजूद करहैड़ा गांव को मेरठ बाइपास से जोड़ने के नाम पर हिंडन नदी के पाट को सुखाकर गला घोटने के नापाक काम को अंजाम दिया जा सका।
हिंडन पर बन रहा भरवा पंटुन पुल नदी का गला घोटने का ही काम है। इसके लिए सरकारी अमला ही नहीं, उसके कारण सूखी ज़मीन पर कब्ज़े के लिए लगी गिद्ध निगाहें भी दोषी हैं। वह तो भला हो हिंडन जल बिरादरी के अगुवा और पेशे से वकील नौजवान विक्रांत शर्मा का, जिसके जज़्बे ने समाज के एक वर्ग को एकजुट किया। अदालत का दरवाज़ा खटखटाया। फिलहाल न्यायमूर्ति स्वतंत्र कुमार की अध्यक्षता वाली नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल पीठ ने सचिव (सिंचाई), मुख्य अभियंता (गंगा परियोजना) और निर्माता कंपनी मेसर्स पी के एस इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रा लि. को कारण बताओ नोटिस जारी कर दिया है। पूछा है कि धारा 26 और धारा 19(4) के तहत् दोषी पाये जाने पर क्यों न इन्हें दंडित किया जाये। ट्रिब्युनल की इस पीठ में अध्यक्ष के अलावा एक न्यायिक सदस्य जस्टिस पी. ज्योथिमणि तथा तीन विशेषज्ञ सदस्य क्रमशः डॉ. डी. के. पांडे, डॉ. डी. के. अग्रवाल तथा प्रो. ए. आर. युसूफ़ शामिल हैं।
पंटुन पुल की कम लंबाई सवालों के घेरे में
विक्रांत बनाम यूनियन ऑफ इंडिया के इस मामले में ट्रिब्यूनल ने हालांकि यह माना है कि इस स्थिति में निर्माण ध्वस्त करने से कोई मकसद हल नहीं होगा; लेकिन उसने पंटुन पुल की लंबाई घटाने को लेकर गंभीर सवाल उठाये हैं। उल्लेखनीय है कि पुल स्थल पर करहैड़ा गांव और मेरठ बाइपास के बीच की दूरी 180 मीटर है। इस 180 में से 50 मीटर की दूरी तय करने के लिए पंटुन पुल का निर्माण किया गया है। जाहिर है कि शेष 130 मीटर की दूरी मुख्य पुल के जरिए तय होगी। मुख्य पुल खंभों पर टिका न होकर भरवा आधार वाला पुल है। पुल का भरवा आधार ही आपत्ति का मुख्य कारण है। इसी के मद्देनज़र ही ट्रिब्यूनल ने कई माह पूर्व ही निर्माण पर रोक लगा दी थी। उसका निर्माण कार्य रुकने पर पंटुन पुल का निर्माण कार्य किया गया; यानी मुख्य पुल निर्माण को अभी और आगे बढ़ाया जायेगा। पंटुन पुल की कम लंबाई का मतलब है कि मुख्य पुल जितने पर रुका हुआ है, निर्माता अभी उसकी लंबाई और बढ़ाने का इरादा रखते हैं। भरवा पुल जितना ज्यादा लंबा होगा, हिंडन के पाट की उतनी ज्यादा ज़मीन की सतह पर पानी नहीं होगा। इस तरह अधिकतम ज़मीन सुखाने का उद्देश्य उस पर कब्ज़ा कर उससे मुनाफ़ा कमाने के अलावा भला और क्या हो सकता है! इसी आशंका के कारण पहले मुख्य पुल का भरवा होना और अब पंटुन पुल की लंबाई का कम होना सवालों के घेरे में है। दोनों काम निर्माताओं की नीयत पर शक पैदा करते हैं। ट्रिब्यूनल ने गाज़ियाबाद विकास प्राधिकरण आदि निर्माता पक्ष से ठोस प्रस्ताव तैयार कर पेश कर बताने को कहा है कि उन्होने पंटुन पुल की चौड़ाई को घटाकर 50 मीटर क्यों किया? नदी प्रवाह मार्ग को पत्थर, मिट्टी और दूसरी सामग्री से क्यों भरा? हिंडन के प्राकृतिक प्रवाह को यथासंभव बरकरार रखने के लिए क्या कदम उठाये जा सकते हैं? ट्रिब्यूनल ने यह सवाल भी निर्माता पक्ष से ही पूछा है। जाहिर है कि निर्माता पक्ष से जानना चाहता है कि हिंडन के प्राकृतिक प्रवाह को बरकरार रखने के लिए वे क्या कदम उठाने वाले हैं।
दोषियों को नसीहत और हिंडन की सुरक्षा: रास्ता क्या?
ग्रीन ट्रिब्यूनल के रुख ने हिंडन रक्षा के लिए उठे कदमों की उम्मीद जगा दी है। वे अपनी यात्रा लेकर हिंडन जगाने निकल पड़े हैं।उनके हाथों में तख्तियां हैं और जुबां पे नारा। हिंडन की जय!अच्छा तो यही होता कि भरवा पुल गिराकर खंभों पर पुल बनाया जाता। इसमें आये खर्च की भरपाई इसके दोषियों की तनख्वाहों और निर्माता कंपनी से की जाती। यह सर्वश्रेष्ठ उपाय भी होता और दोषियों को यादगार नसीहत भी। लेकिन यदि यह ट्रिब्युनल को मुनासिब नहीं लगता, तो विशेषज्ञ राय में भरवा पुल को गिराये बगैर दुष्प्रभाव को न्यूनतम करने का तरीका यही है पंटुन पुल की लंबाई यथासंभव अधिकतम व शेष पुल की लंबाई न्यूनतम हो। मुख्य पुल के आगे का निर्माण खंभों पर डिज़ाइन किया जाये। सुनिश्चित हो कि हिंडन की ज़मीन पर भविष्य में कोई निर्माण नहीं होने दिया जायेगा। इसके लिए हिंडन नदी भूमि व बाढ क्षेत्र का सीमांकन किया जाये। इसे नजीर मानकर हिंडन के पूरे प्रवाह क्षेत्र पर लागू किया जाये। पर्यावरण मंत्रालय को इस बाबत अधिसूचना जारी करने के निर्देश दिए जायें। बाइपास और पुल के कारण करहैड़ा गांव के पास आकर नदी प्रवाह सिकुड़ना व उसकी गति का तेज होना तय है। इससे करहैड़ा गांव में बाढ़ का खतरा बढ़ेगा ही। बसावट घनी होने के कारण नुकसान भी ज्यादा ही होगा। अतः इसका निराकरण प्रस्तुत करना भी जरूरी ही है। व्यापक समाधान के लिए हिंडन प्रदूषक स्थानीय निकायों के अलावा औद्योगिक व कृषि प्रदूषण पर लगाम लगानी होगी। क्या ट्रिब्युनल इसका रास्ता खोलेगा? आइये! प्रतीक्षा करें।
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