धरती के कुल क्षेत्रफल का लगभग 10 प्रतिशत भाग हिमनद से ढका है जिसका कुल क्षेत्रफल लगभग 15×106 वर्ग किमी. और आयतन लगभग 33×106 घन किमी. है (स्वच्छ जल का 75% भाग) तथा अधिकतम मोटाई लगभग 4300 मी. मापी गई है। यदि धरती की सारी बर्फ पिघल गई तो समुद्र का जलस्तर लगभग 70 मी. तक बढ़ जायेगा, और विश्व का 20% भाग जलमग्न हो जायेगा, भौगोलिक क्षेत्रफल की दृष्टि से लगभग 98% हिमनद केवल अंटार्कटिका एवं ग्रीनलैंड में है, जिसमें 84% केवल अंटार्कटिका एवं 14% ग्रीनलैंड में विस्तारित हैं तथा 2% हिमनद विश्व के अन्य भागों में वितरित हैं (चित्र 1)।
हिमालय क्षेत्र में विश्व के लगभग 0.77% लगभग 108850 वर्ग किमी. भाग हिमनदों से ढका है, जिसमें लगभग 37466 वर्ग किमी. भारत में 16933 वर्ग किमी. पाकिस्तान में, 5322 किमी. नेपाल में तथा लगभग 49129 वर्ग किमी. भाग चीन में फैला है। हिमालयी हिमनदों से एशिया की सात बड़ी नदियाँ गंगा, सिंधु, ब्रह्मपुत्र, सालबीन, मीकोंग, यांगटी सी क्यांग, यलो रिवर तथा सैकड़ों सहायक नदियाँ निकलती हैं।
हिमालय के हिमनदों के बारे में बहुत सी भविष्यवाणियाँ होती रही हैं लेकिन जब जलवायु परिवर्तन पर बने अन्तरदेशीय पैनल (आई.पी.सी.सी.) की 2007 में प्रकाशित चौथी रिपोर्ट में यह दावा किया गया कि वर्ष 2035 तक हिमालय हिमनद पूरी तरह पिघल जायेंगे। इस रिपोर्ट के बाद विश्व के हिमनद वैज्ञानिक दो धड़ों में बंट गये, कुछ वैज्ञानिक तो इस रिपोर्ट को पूरी तरह खारिज करते थे, और कुछ इस रिपोर्ट पर विश्वास करते थे। इस पर विश्वास करने का कारण यह था कि विगत 20 सालों में जिस तरह धरती के तापमान में वृद्धि (0.5 से 0.770) हुई है (चित्र 2) और सभी हिमनद वैज्ञानिक हिमनद के पिघलने की रिपोर्ट प्रस्तुत करते रहे हैं, इसमें हिमालय ही नहीं अपितु दुनिया के सभी हिमनदों का अस्तित्व समाप्त होने की कगार पर आ गया, फिर 2035 तक सिर्फ हिमालय ही क्यों? वे वैज्ञानिक जो इस रिपोर्ट को नकारते हैं वे कहते हैं कि ग्लेशियर का पिघलना एवं आगे बढ़ना एक प्रक्रिया है तथा यह घटना पृथ्वी की उत्पत्ति के बाद लगातार चलती आ रही है। कई हिमयुग आये और चले गये, लेकिन 2035 में हिमालय के हिमनदों का पूरी तरह पिघलना तर्क संगत नहीं है।
भारत में हिमनद केवल हिमालय क्षेत्र में स्थित हैं, जिसका विस्तार 270 360 उत्तर तथा 720 से 960 पूरब के बीच जम्मू-कश्मीर, हिमाचल, उत्तराखण्ड, अरुणाचल प्रदेश और सिक्किम तक फैला है, जिसमें लगभग 9575 ग्लेशियर हैं, इनमें सबसे ज्यादा 5386 ग्लेशियर जम्मू-कश्मीर (56%) में हैं। समुद्र तल से 3000 मी. से 4600 मी. तक की ऊँचाइयों पर 2000 घन किमी. की बर्फ एवं 1400 घन किमी आइस (हिम) को लेकर इन हिमनदों के विलुप्त होने की खबरों ने लोगों के मन में डर की भावना भर दी, इनके विलुप्त होने का मतलब है कि इनसे निकलने वाली अनेक बड़ी नदियों और इनकी सहायक नदियों का विलुप्त होना।
आलोचनात्मक तथ्य 2035 या 2350
हिमनदों पर विगत एक दशक से संवेदनशील यंत्रों की सहायता से विभिन्न विभागों के हिम वैज्ञानिक कार्यरत हैं उनका मानना है कि ये हिमनद इतनी तेजी से और असामान्य गति या तेजी से नहीं पिघल रहे हैं कि आई. पी. सी. सी. की घोषणा के अनुरूप कुछ ही सालों में सूख जायेंगे। दूसरी ओर आई. पी. सी. सी. की रिपोर्ट में ये आँकड़े नहीं दर्शाए गये थे, और लगता था कि यह आकलन पूरी तरह अनुमान पर आधारित था। इस रिपोर्ट को वर्ष 2005 की डब्लू डब्लू एफ की रिपोर्ट, वर्ष 1996 में यूनेस्को के जल विज्ञान में छपे पत्र तथा वर्ष 1999 की न्यू साइंटिस्ट पत्रिका में छपे एक साक्षात्कार के आधार पर बनाया गया था। इस साक्षात्कार में हिमालय के हिमनदों पर काम कर रहे अन्तरराष्ट्रीय कमीशन आई.सी.एस. के अध्यक्ष डा. सैयद इकबाल हसनैन ने सैटेलाइट इमेज के आधार पर बयान दिया था कि हिमालय के अधिकांश ग्लेशियर 40 सालों में समाप्त हो जायेंगे। दिल्ली में जे.एन.यू. के प्रोफेसर रह चुके डा. हसनैन वर्तमान में टाटा एनर्जी रिसर्च इंस्टीट्यूट (टेरी) में कार्यरत हैं। वर्ष 1996 में रूसी जल विज्ञानी बी.एम. कोतवाल ने भी वर्ष 2350 तक हिमालय के हिनदों के पिघल कर पाँचवे हिस्से तक रहने की घोषणा की थी। महज एक पत्रिका में छपे साक्षात्कार या वर्ष 2350 को 2035 लिख देने की गलती को सत्य की खोज और सटीक आँकड़ों के आधार पर कार्य करने वाले वैज्ञानिक समुदाय के एक वर्ग द्वारा जगह-जगह दोहराया जाने लगा।
अब लोगों की समझ में आ रहा है ग्लोबल वार्मिंग के कारण हिमालय हिमनदों के वर्ष 2035 तक समाप्त हो जाने की घोषणा भारत, चीन सहित हिमालय से सटे अन्य देशों को इस पारिस्थितिकीय घटना के लिये जिम्मेदार ठहराना था। इन भ्रांतियों से क्षेत्रीय राजनैतिक उठा पटक अस्थिरता तो आती ही है आर्थिक उठापटक भी होती है, क्योटो-प्रोटोकाल को अस्वीकार करने के बाद विकसित देश दरअसल 2007 में होने वाले सम्मेलन में कार्बन उत्सर्जन की जिम्मेवारी विकासशील देशों की तरफ खिसकाने की तैयारी कर चुके थे, कोपेनहेगन में 2009 में हुए जलवायु शिखर सम्मेलन में तो विकसित देशों ने विकासशील देशों को सन 2020 तक 25% कार्बन उत्सर्जन कम करने की सहमति वाले दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर करने का दबाव भी डाला। पर्यावरण कानून के विशेषज्ञ डा. ए. के. कांटू अपने शोध पत्र ‘‘मौसम परिवर्तन के राजनैतिक तथा आर्थिक प्रभाव’’ में लिखते हैं कि जीवाश्म और पेट्रोलियम आधारित ऊर्जा मॉडलों को बनाए रखने के लिये अमेरिका ने तेल की राजनीति से ध्यान भटकाने के लिये मौसम परिवर्तन तथा ग्लोबल वार्मिंग का हौवा खड़ा किया है।
भारतीय मूल के वैज्ञानिक डा. आर. के. पचौरी की अध्यक्षता वाली आई. पी. सी. सी. की रिपोर्ट आने के बाद विदेशी चंदे से फल-फूल रही कई स्वयंसेवी संस्थाओं तथा उनकी प्रतिष्ठित पयार्वरण पत्रिकाओं ने वर्ष 2035 तक हिमनद समाप्त की घोषणा करने वाली रिपोर्ट का जमकर प्रचार किया, रोज दूर-दराज के बयानों के बाद केंद्रीय वन एवं पर्यावरण राज्यमंत्री जयराम रमेश ने जी.एस. आई के पूर्व उपमहानिदेशक श्री विजय कुमार रैना को हिमालय के हिमनदों की वास्तविक अवस्था पर रिपोर्ट तैयार करने का काम दिया। पर्यावरण मंत्री के अनुसार यह रिपोर्ट पर्यावरण को प्रभावित करने वाले विभिन्न पहलुओं में से हिमनदों पर वैज्ञानिक व तथ्य परख एक रिपोर्ट है जिसे आम बहस के लिये रखा गया है। रिपोर्ट में स्पष्ट कहा गया है कि हिमालय के हिमनद (ग्लेशियर) पिघल रहे हैं, लेकिन उनके पिघलने की रफ्तार ऐसी नहीं है कि 2035 तक हिमालय के हिमनदों का अस्तित्व खत्म हो जाय।
ध्यान रहे कि हिमालय के ग्लेशियर पर जी.एस.आई. वर्ष 1906 व वाडिया संस्थान 1986 से लगातार काम कर रहा है, भारत के 9575 ग्लेशियर में से केवल 100 ग्लेशियरों का अध्ययन हुआ है, मास बैलेंस तकनीकी ही हिमनदों के बारे में स्टीक अध्ययन का तरीका है, इसके बिना हम कोई भी भविष्यवाणी नहीं कर सकते हैं। 9575 में से हमारे पास सिर्फ 12 हिमनदों का रिकार्ड है जिससे पूरे हिमालय के हिमनदों के बारे में कुछ भी कहना बेमानी होगा।
वैज्ञानिक तर्क
1970 के बाद देश के विभिन्न वैज्ञानिक संस्थानों ने हिमालयी हिमनदों पर बेहद संवेदनशील उपकरणों की सहायता से हाइड्रोलॉजीकल, मीटरोलॉजीकल, ग्लेशियर जियोमॉर्फोलॉजीकल, मास बैलेंस, स्टोन रिसिशन रिलीज आदि अनेक प्रकार से हिमनदों का अध्ययन किया, इन संस्थानों के वैज्ञानिकों द्वारा सुदूर उत्तर-पश्चिम के सियाचीन ग्लेशियर से लेकर सिक्किम व अरुणाचल प्रदेश के कुछ दर्जन हिमनदों के अध्ययन से प्राप्त आँकड़ों को लेकर रैना ने आठ अध्यायों वाली 60 पेज की रिपोर्ट प्रस्तुत की, रैना के अनुसार हिमालय हिमनदों के सिकुड़ने की गति असामान्य नहीं है, इन हिमनदों की विलुप्त हो जाने की घोषणा बेबुनियाद, तथा वैज्ञानिक तथ्यों से परे है। जी.एस.आई. के पूर्व उपमहानिदेशक श्री दीपक श्रीवास्तव कहते हैं कि हिमनदों पर बिना एक रात गुजारे इस तरह के बयान पर शोर मचाना वैज्ञानिक समुदाय का अपमान है, वे कहते हैं कि अभी हिमालय के हिमनदों का विस्तृत अध्ययन होना बाकी है। देहरादून में भारत सरकार द्वारा हिमालय के भूविज्ञान के अध्ययन के लिये संस्थापित वाडिया भूविज्ञान के हिमनद वैज्ञानिक पिछले 20 साल से हिमालय के हिमनद पर काम कर रहे हैं।
हम मानते हैं कि हिमनद जलवायु का संवेदनशील पैमाना है, इसके विषय में बिना गहन अध्ययन के कोई घोषणा करना जल्दबाजी होगी, हिमनदों का सिकुड़ना व आगे बढ़ना एक प्राकृतिक क्रिया है। इसके सिकुड़ने की दर उसके ढाल, उन पर जमे डेबरी कवर की मोटाई और सूरज की किरणों की तीव्रता पिछले कुछ वर्षों में हुई बर्फबारी पर निर्भर करती है। श्री किरीत कुमार, वैज्ञानिक जी.बी. पंत पर्यावरण संस्थान अल्मोड़ा के अनुसार 69 सालों में गंगोत्री ग्लेशियर 1520 मी. पीछे खिसका है लेकिन वर्ष 1971 के बाद गंगोत्री के पीछे खिसकने की गति कम हुई है। वे कहते हैं कि परिस्थितियाँ और सिकुड़ने की गति यही रही तो गंगोत्री को खत्म होने में कम से कम हजार साल लगेंगे।
जलवायु परिवर्तन एवं हिमनदों के सिकुड़ने की क्रिया को समझने के लिये हमें निम्न तथ्यों का ज्ञान होना आवश्यक है।
हिमनद क्या है?
हिमनद हिम का एक वृहद द्रव्यमान है जो तुहिन (राइम आइस) के संहनन एवं पुन: क्रिस्टलन से निर्मित होता है, और अपने ही भार के प्रतिबल के कारण अनुढाल पर गुरुत्वीय त्वरण के कारण बाहर की ओर हर दिशा में विसर्पण द्वारा धीरे-धीरे आगे खिसकता है। प्रवाह गति भले ही मात्र कुछ सेंटीमीटर दैनिक हो या दसों मीटर सालाना, इसे निप्रवाह विभेदित करती है (चित्र 3)।
हिमनद बर्फ के परोक्ष रूप से वायुमण्डल में तुहिन अथवा बर्फ वर्षण अथवा हिमनद सतह पर सीधे तरल से बर्फ में रुपांतरण से उत्पन्न होती है जलवाष्प जो हिमनद सतह के संपर्क में जम जाता है, नाना प्रकार के बर्फ का निर्माण करता है जिसमें तुहिन अति महत्त्वपूर्ण है तुहिन बर्फ तब बनता है जब अति शीतल जल की सूक्ष्म बूँदे एक शीत ठोस वस्तु के संपर्क में आती है और संपर्क में आने से जम जाती है।
उपरोक्त प्रकार की बर्फ एवं संबंधित बर्फ तह यदि अगली ग्रीष्म में हट नहीं जाती तो धीरे-धीरे हिम में परिवर्तित हो जाती है, जिसे कण हिम (फर्न) कहते हैं। इसका घनत्व सामान्यत: 0.5-0.56 ग्राम/सेमी3 होता है। फर्न का हिम में रुपान्तरण नाना प्रकार के प्रक्रमों से होता है जिसका समग्र प्रभाव क्रिस्टलों के आकार को बढ़ाना एवं वायुमार्ग को समाप्त करना होता है हिम तक यह परिवर्तन 0.8 ग्राम/सेमी3 0.85 ग्राम/सेमी3 और घनत्वों के माध्यम से होता है (सारणी 1)
सारणी 1: हिम व हिमनद का घनत्व | ||
1 | नयी बर्फ | 0.001-0.03 |
2 | नयी जमा बर्फ | 0.05-0.07 |
3 | जमा बर्फ (एक घंटे बाद) | 0.01-0.2 |
4 | 2 दिन पुरानी बर्फ | 0.2-0.3 |
5 | नीचे की दबी बर्फ | 0.2-0.3 |
6 | हवा द्वारा जमा बर्फ | 0.35-0.4 |
7 | कणिकामय बर्फ (फर्न) | 0.4-0.6 |
8 | गीली बर्फ या हिम | 0.7-0.8 |
9 | हिमनद हिम | 0.85-0.91 |
हिमनद का व्यवहार उसके तापक्रम से निकटता से जुड़ा होता है। बर्फ का तापक्रम तीन स्रोतों यथा सतह, आधार (भूतापीय ऊष्मा अभिवाद) एवं आंतरिक घर्षण से प्राप्त ऊष्मा से प्रभावित होता है। सतह की उष्णता तीन प्रकार से उत्पन्न होती है, सीधे तुहिन तापक्रम से, चालन वायु के तापमान व विकिरण के सीधे प्रवाह से एवं जल के पुन: हिमीकरण के समय गुप्त ऊष्मा के स्थानान्तरण से। इन ऊष्मा स्रोतों की अनुक्रिया में दो मूल प्रकार की बर्फ पाई जाती है, गर्म एवं ठंडी बर्फ। ठण्डी बर्फ गलनांक के दाब के नीचे होती हैं जबकि गर्म बर्फ का गलनांक दाब के समीप होता है ताकि बर्फ रुकी रहे, इसे प्रेशर मेल्टिंग प्वांइट भी कहा जाता है, क्योंकि तापक्रम जिस पर जल जमता है वह अतिरिक्त दाब (10C/140 बार) पर निर्भर करता है। इसका अर्थ है कि आधार में बर्फ का गलनांक 00C से कुछ कम होता है, इन दो प्रकार की बर्फों को ध्रुवीय एवं शीतोष्ण नाम से भी जानते हैं।
सामान्यत: हिमनदों को तीन क्षेत्रों में विभाजित किया जा सकता है, जो निम्न प्रकार हैं
1. संचयन क्षेत्र
2. अपरक्षण क्षेत्र
3. स्खलन एवं जिव्हा क्षेत्र
संचयन क्षेत्र : हिमनद का ऊपरी (पार्श्व) भाग जहाँ पर हिम का जमाव, हिमपात, वायु आपोढ़ व हिम आवधाव (एवलांच) से होता है। इस क्षेत्र में अपक्षरण क्रिया बहुत कम होती है, तथा हिम की मोटाई बहुत ज्यादा होती है एवं यह क्षेत्र कम गतिशील होता है। इस क्षेत्र में हमेशा पॉजीटिव मास बैलेंस पाया जाता है। यह हिम जमाव का मुख्य क्षेत्र है।
अपक्षरण क्षेत्र : हिमनद का निचला क्षेत्र जहाँ हिमनद का वाष्पन, गलन, तथा वायु अपरदन से अधिकतम अपक्षरण होता है, अपक्षरण क्षेत्र कहलाता है। इस क्षेत्र में गलन प्रक्रिया अधिक होती है, जो हिमनद के ऊपरी व आंतरिक दोनों सतहों में पायी जाती है। यह हिमनद का क्रियाशील क्षेत्र है। संचय व अपक्षरण क्षेत्र को विभाजित करने वाली रेखा को हिमरेखा कहते हैं। इस रेखा के क्षेत्र में मासबैलेंस जीरो होता है यहाँ पर जितना संचय होता है उतना ही अपक्षरण हो जाता है।
स्खलन या जिव्हा क्षेत्र : हिमनद का निचला व अंतिम क्षेत्र, जहाँ से आगे बर्फ का मिलना समाप्त हो जाता है, यहाँ पर संपूर्ण हिमनद का ऊपरी तथा आंतरिक दोनों सतहों का गलन जल नाले के रूप में बाहर निकलता है, इस क्षेत्र में हिमनद की मोटाई बहुत कम मिलती है। यह क्षेत्र अधिक गतिशील होता है तथा हिमनदों के विकास का अंतिम चरण होता है।
जलवायु क्या है?
वर्षा, तापमान, वायु, वायुदाब और अनेक कारणों से जो वातावरण में हर दिन परिवर्तन होता है उसे मौसम कहते हैं तथा लम्बे समय से मौसम में जो औसतन परिवर्तन होता है उसे जलवायु कहते हैं। कुछ वैज्ञानिक मौसम के एक साल के औसतन परिवर्तन को भी जलवायु कह देते हैं, 2007 की आई.पी.सी.सी. ने 30 साल के मौसम में औसतन परिवर्तन को जलवायु के नाम से परिभाषित किया।
जलवायु मुख्यत: सूर्य के प्रकाश के कोण के झुकाव पर निर्भर करती है, जब सूर्य का प्रकार 900 के कोण से धरती पर विकिरित होता है तो गर्मी का मौसम होता है और जब झुकाव धीरे-धीरे कम होता है तो शीत का मौसम शुरू हो जाता है।
जलवायु को हम निम्न भागों में विभाजित करते हैं :-
उष्ण कटिबंधीय : इस क्षेत्र में औसतन मौसम एक जैसा रहता है और साल का औसत तापमान लगभग 180C या इससे अधिक रहता है।
शुष्क जलवायु : यहाँ पर वर्षा वाष्पीकरण से कम होती है, और औसत सालाना तापमान लगभग 200C होता है।
शीतोष्ण : यहाँ पर गर्मियों में औसतन तापमान 100C और जाड़ों में औसतन लगभग – 30C तक होता है।
प्राय: द्वीपीय जलवायु : यहाँ पर गर्मियों में तापमान 100C से ज्यादा रहता है तथा जाड़ों में औसतन तापमान – 30C से नीचे चला जाता है।
ध्रुवीय मौसम : औसत सालाना तापमान 50C से नीचे रहता है।
अल्पाइन : औसतन सालाना तापमान 100C से नीचे रहता है।
मौसम को लेकर हम तापमान को निम्न पैमाने में दर्शाते हैं - | |
1. अत्यधिक गर्म | औसत तापमान > 350 |
2. बहुत गर्म | 280C से 34.90C |
3. गर्म | 230C से 27.90C |
4. साधारण गर्म | 180C से 22.90C |
5. हल्का गर्म | 100C से 17.90C |
6. कम ठंडा | 0.10C से 9.90C |
7. ठंडा | -9.9 से 00C |
8. अत्यन्त ठंडा | -24.9 से -100C |
9. अत्यधिक ठंडा | -39.90C से -250C |
10. अत्यधिक ठंडा | <-400C |
जलवायु परिवर्तन : मौसम में कई सालों (10 से 100 साल) के सांख्यिकयात्मक बदलाव को जलवायु परिवर्तन कहते हैं। पृथ्वी की उत्पत्ति के लगभग 4.5 अरब साल के इतिहास में धरती को कई बार जलवायु परिवर्तन के दौर से गुजरना पड़ा है। हिमनद और जलवायु का आपस में गहरा संबंध है। जब पृथ्वी के तापमान में गिरावट आती है तो अधिक हिमवर्षण होता है, जिससे हिमनदों के आकार में बढ़ोत्तरी होती है। इस प्रकार जब तापमान बढ़ता है तथा हिमवर्षण कम होता है तो हिमनदों की सिकुड़ने की क्रिया बढ़ जाती है। इस प्रकार जलवायु परिवर्तन का हिमनदों के विकास प्रक्रिया में महत्त्वपूर्ण योगदान है।
‘‘लास्ट ग्लेशियल मैक्सिमा’’ (10000 साल) के बाद धरती के तापमान में लगातार बढ़ोत्तरी हुई, जिससे हिमनद लगातार सिकुड़ रहे हैं, किंतु लिटिल आइस ऐज में (1450-1750 AD) लगभग धरती के सभी हिमनदों के आयतन में बढ़ोत्तरी हुई थी, इसके बाद फिर तापमान बढ़ने लगा और नब्बे के दशक में यह बहुत तेजी से बढ़ा और 1998 इन सौ सालों के इतिहास में सबसे गर्म साल रिकॉर्ड किया गया जिससे हिमनदों की सिकुड़ने की गति अधिक रही, लेकिन इसके बाद के आँकड़े बताते हैं कि सन 2000 के बाद तापमान में गिरावट आयी है, साथ ही हिमनद सिकुड़ने की गति में कमी आयी। यह छोटी-छोटी घटनायें 11 साल के अंतराल में, सूर्य के धब्बों, अलनीनो आदि के कारण होती रहती हैं।
इस प्रकार हिमनदों की बढ़ने और सिकुड़ने की प्रक्रिया जलवायु पर निर्भर करती है।
जलवायु परिवर्तन के कारण
जलवायु परिवर्तन के निम्न महत्त्वपूर्ण कारण हैं
उत्केन्द्रता - पृथ्वी सूर्य के चारों ओर कांतिवृत मार्ग से चक्कर लगाती है, लेकिन हर दस लाख साल में यह कांतिवृत पथ को अण्डे के आकार के मार्ग में परिवर्तित कर देती है, जिससे यह अपने केंद्र (सूर्य) से दूर होकर चक्कर लगाती है।
अक्ष का झुकाव - वर्तमान समय में पृथ्वी के अक्ष का झुकाव 23.50 का है। लेकिन हर चालीस साल में इसका झुकाव 21.5 से 24.5 डिग्री तक होता है।
पुरस्सरण - धरती के अपने अक्ष पर घूमने के कारण अक्ष का अलग-अलग दिशाओं में घूमने की अवस्था को पुरस्सरण कहते हैं। यह किसी भी भारी द्रव्यमान के अपने अक्ष पर घूमने की भौतिक अवस्था के कारण होती है, जैसे लट्टू का घूमना, यह घटना हर 23,000 साल में होती है।
ज्वालामुखी का विस्फोट - ज्वालामुखी भी जलवायु को प्रभावित करता है, जब यह फटता है तो वातावरण में एरोसोल व कार्बनडाइ आक्साइड (CO2) का प्रतिशत बढ़ जाता है।
उपरोक्त सभी प्राकृतिक कारक जो सूर्य के प्रकाश की तीव्रता को घटाते या बढ़ाते हैं, जलवायु परिवर्तन के मुख्य कारक हैं। इसके अलावा प्लेट टेक्टोनिक्स, अलनिनो का प्रभाव और ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन आदि भी जलवायु परिवर्तन में मुख्य योगदान करते हैं।
भारतीय हिमालय हिमनदों की अवस्था (रैना के बाद)
1. बीसवीं सदी से जिन हिमनदों का नियमित अध्ययन हुआ है वे नकारात्मक द्रव्यमान संतुलन दर्शाते हैं। यदि हम हिमालय के हिमनदों के द्रव्यमान संतुलन की क्रिया को देखें तो यह पूर्व से पश्चिम की तरफ झुकाव दिखाता है, द्रव्यमान का पतन पश्चिम में कम व पूर्वी हिमालय में ज्यादा है। यह अध्ययन तीस साल के आँकड़ों के आधार पर है जो जम्मू कश्मीर, हिमाचल, उत्तराखण्ड व सिक्किम के हिमनदों में किया गया है।
2. नदी के निर्वहन में हिमनदों का 25 से 30 प्रतिशत योगदान होता है, जो सर्दियों में बढ़ कर 60 प्रतिशत तक होता है, नदी ज्यों-ज्यों हिमनद से दूर जाती है, इसके प्रतिशत की मात्रा कम होती जाती है, तथा समुद्रतट तक यह ना के बराबर रह जाती है।
3. हिमालय को छोटे हिमनदों (
4. मलबे का आवरण भी हिमनदों के पिघलने की दर को कम व ज्यादा करता है, यदि आवरण 2 सेमी. से कम है तो पिघलने की दर अधिक होगी, यदि आवरण 4 सेमी. से अधिक है तो पिघलने की दर थोड़ी कम होगी और यदि आवरण एक मीटर से ज्यादा है तो पिघलने की दर ना के बराबर हो जायेगी, क्योंकि मलबे का अवरण सूर्य के प्रकाश की धारा को रोकेगा व स्वउष्णता को भी बाहर नहीं आने देगा। ज्ञात रहे हिमालय के अधिकतर हिमनद इस श्रेणी में आते हैं।
5. हिमालयन हिमनदों के 100 साल के व्यवहार में बहुत अंतर है। सोनापानी ग्लेशियर इन सौ सालों में 500 मी. से अधिक पीछे खिसक चुका है, जबकि किंग्रज हिमनद इन सौ सालों में एक इंच भी नहीं खिसका। 1862 से 1909 में सियाचीन ग्लेशियर 700 मीटर आगे बढ़ा और उसी रेट से 1929 से 1958 में 400 मी. पीछे खिसका, गंगोत्री हिमनद लगभग 20 मी./ साल की दर से सन 2000 तक पीछे खिसका जबकि 2005 से 2009 तक का अध्ययन बताता है कि इसके पीछे खिसकने की गति कम हुई है।
6. डोकरियानी और चोराबारी हिमनदों की पीछे जाने की गति में भी निरंतर बदलाव आते रहे हैं। डोकरियानी ग्लेशिार 1962 से 1999 तक 18 मी./साल की दर से पीछे खिसका जो बाद में 2000 से 2007 तक 16 मी./ साल हो गई, लेकिन फिर 2007 से 2009 में यह बढ़कर 20मी./ साल आंकी गई है।
7. यह सर्वमान्य है कि संसार में सभी हिमक्षेत्र व हिमनद लगातार सिकुड़ रहे हैं। भले ही इनकी सिकुड़ने की गति विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न आंकी गई है जो उस क्षेत्र की स्थलाकृति व जलवायु पर निर्भर करती है। हिमालय की वृहत व जटिल स्थलाकृति होने की वजह से यहाँ पर भी हिमनदों की फैलने व सिकुड़ने की गति अलग-अलग है। इसलिए यह कहना तर्कसंगत होगा कि हिमनदों का फैलना व सिकुड़ना पूरी तरह से जलवायु व स्थलाकृति पर निर्भर है।
सम्पर्क
डी. पी. डोभाल एवं मनीष मेहता
वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान, देहरादून
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