हिमालय पर वैज्ञानिक निगरानी की दरकार

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हिमालय दिवस 9 सितम्बर 2015 पर विशेष


भूगर्भीय कालचक्र में हिमालय प्रकृति की एक नवीनतम कृति है। विशेषज्ञों के मुताबिक हिमालय अपनी रचना पक्रिया में है इसीलिये अस्थिर है और इसकी सारी हलचल अपने स्थिर होने की कोशिश के कारण है। ये तथ्य भूगर्भशास्त्रियों में कुतूहल तो पैदा करते ही हैं लेकिन उससे भी बड़ी बात यह कि भारत की जलवायु और मौसम को निर्धारित करने में हिमालय की बड़ी भूमिका है।

विशेषज्ञों ने यहाँ तक सिद्ध कर दिया है कि हिमालय बनने के बाद ही उस पार से आने वाली बर्फीली हवाओं के रुकने का कुदरती इन्तज़ाम हुआ था। भारत की छह ऋतुओं की अनुपम व्यवस्था का निर्धारक भी हिमालय ही सिद्ध हुआ है।

हिमालय के महत्त्व की जो सूची बनाई गई है उसमें जलवायु पर सुप्रभाव, रक्षा, नदियों का स्रोत, उपजाऊ मिट्टी का स्रोत, पनबिजली, वन सम्पदा, कृषि, पर्यटन, धार्मिक तीर्थ और खनिज के भण्डार के रूप में बड़े गर्व से बखान किया जाता है लेकिन आज मानव की हरकतों से जलवायु में हो रहे परिवर्तन ने हिमालय या भारतीय हिमालयी क्षेत्र को सबसे ज्यादा खतरे में डाल दिया है। इस हिमालयी क्षेत्र में जो खतरे पैदा हुए हैं वे तो हैं ही इनके अलावा उत्तर भारत का पोषण करने वाली गंगा और यमुना पर भी संकट देखा जा रहा है।

भूगर्भीय निरीक्षण से पता चला है कि ग्लेशियरों के पिघलने की रफ्तार बढ़ गई है। इसका कारण भूताप में बढ़ोत्तरी को समझा गया है। औसत तापमान में यह बढ़ोत्तरी 0.6 दर्ज हुई है। इतनी बढ़ोत्तरी से ही जब हिमालयी क्षेत्र मे उथल-पुथल दिखने लगी है तो आने वाले तीस पैंतीस साल में होने वाली डेढ़ से लेकर दो डिग्री सेल्सियस की तापमान वृद्धि के पूर्वानुमान से हम अन्दाजा लगा सकते हैं कि हिमालयी क्षेत्र में कितना बड़ा संकट और कितने तरह के संकट खड़े होने वाले हैं।

भारतीय हिमालयी क्षेत्र में आर्थिक विकास वाली गतिविधियों पर समाज के जागरूक वर्ग के एक बहुत छोटे से तबके की नजर जा रही है। कुछ साल से हिमालय दिवस पर होने वाले विमर्शो में चिन्ता और सरोकार जताए जाते हैं। लेकिन भूगर्भशास्त्रीय, भौगोलिक, जल वैज्ञानिक और मौसम विज्ञानी तथ्यों के दुर्लभ होने के कारण वे चिन्ताए सिर्फ चिन्तित करती हैं, हमें चिन्ताशील नहीं बनातीं।

इसीलिये देखने में सब कुछ राजनीतिक खेलखिलवाड़ जैसा लगने लगता है। और फिर ऐसे कामों में सक्रिय भारतीय स्वयंसेवी संस्थाओं की दिलचस्पी हमेशा से ही परम्परावादी रही है। दिन-पर-दिन यह प्रवृत्ति बढ़ती ही दिख रही है। अपने आप को वैज्ञानिक सोच का बताने वाली संस्थाएँ भी जिस तरह से वैज्ञानिकों और विशेषज्ञों का उपहास करती हैं उससे लगता है कि वे मानकर चलती हैं कि पृथ्वी पर ऐसी कोई नई समस्या आ ही नहीं सकती जो प्राचीन काल में न आई हो।

बहुत बड़ा तबका है जिसका विश्वास बना दिया गया है कि जितनी भी समस्याएँ हो सकती हैं उन सबका समाधान प्राचीन ग्रंथों में पहले से ही लिख कर रख दिया गया है। ऐसी स्थिति में ज्ञान के सृजन की स्थिति बनती ही नहीं है। इस सिलसिले में अगर हिमालय की बात करें तो वैज्ञानिक शोध के लिहाज से यह इतना महत्त्वपूर्ण भौगोलिक क्षेत्र हमें उपलब्ध है कि प्राकृतिक संसाधनों के प्रबन्धन के शोध के मामले में भारतवर्ष विश्व का अगुआ बन सकता है।

स्वयंसेवी संस्थाओं की दिलचस्पी और सरकारी सर्वेक्षणों की हालत का अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि हमें भारतीय हिमालयी क्षेत्र में घट या बढ़ रही आबादी का ही ठीक-ठीक अन्दाजा नहीं लग पाता। अभी साल भर पहले ही इस इलाके में आश्चर्यजनक रूप से बढ़ रही आबादी के आँकड़े बताए गए थे।

भूगर्भीय निरीक्षण से पता चला है कि ग्लेशियरों के पिघलने की रफ्तार बढ़ गई है। इसका कारण भूताप में बढ़ोत्तरी को समझा गया है। औसत तापमान में यह बढ़ोत्तरी 0.6 दर्ज हुई है। इतनी बढ़ोत्तरी से ही जब हिमालयी क्षेत्र मे उथल-पुथल दिखने लगी है तो आने वाले तीस पैंतीस साल में होने वाली डेढ़ से लेकर दो डिग्री सेल्सियस की तापमान वृद्धि के पूर्वानुमान से हम अन्दाजा लगा सकते हैं कि हिमालयी क्षेत्र में कितना बड़ा संकट और कितने तरह के संकट खड़े होने वाले हैं।

इसी बीच इस इलाके से तेजी से पलायन पर चिन्ता जताते हुए भी कुछ कार्यकर्ताओं को सुना जाता है। वैसे नवीनतम आँकड़ों के मुताबिक भारतीय हिमालयी क्षेत्र की आबादी चार करोड़ 70 लाख पहुँच गई हैै। बुआई का क्षेत्र साढ़े 14 फीसद हो गया है। खेती बाड़ी के काम में लगे लोगों का प्रतिशत साढ़े 61 फीसद और सेवा क्षेत्र में आ गए लोगों का प्रतिशत साढ़े बीस फीसद हो गया है।

लेकिन इन तथ्यों से तब कोई सार्थक सूचना नहीं बनाई जा सकती जब तक पिछले 20-25 साल के आँकड़ों के आधार पर विश्लेषण न किए जाएँ। लेकिन अफसोस की बात है कि सांख्यिकीय विधि से अध्ययन करने वालों का टोटा सा पड़ा हुआ है।

भूगर्भशास्त्र, भूगोल, जलविज्ञान, पारिस्थिकीय जैसे विशुद्ध विज्ञान के अध्ययन में मेधावी विद्यार्थियों की दिलचस्पी कम हो रही है। देश की मौजूदा स्थितियाँ यह बन रही हैं कि पहले से हुनरमंद युवकों को काम पर लगाने के लिये हमारे पास पैसे हैं नहीं और तत्काल उत्पादन में हुनर पैदा करने के लिये कौशल विकास के नारे प्रभावी हो रहे है।

खैर प्राकृतिक संसाधनों से सम्बन्धित विषयों में अध्ययन, अध्यापन और वैज्ञानिक शोध की सम्भावनाएँ नए दौर में लगभग खत्म होने को आ गई हैं। हिमालयी क्षेत्र की नदियों में अचानक बाढ़ के कुदरती हादसे बढ़ते जा रहे हैं। जबकि विशेषज्ञ और आधुनिक विज्ञान के विद्वान यह सिद्ध कर चुके हैं कि हिमालय के ऊँचाई वाले बर्फीले इलाके में चट्टानों और बर्फ के फिसलने से अस्थायी झीलें बन जाती हैं।

इन झीलों में जब ज्यादा पानी जमा हो जाता है तो वे टूट जाती हैं अचानक सारा पानी नीचे आकर बाढ़ की तबाही मचा देता है। इस घटना को आधुनिक विज्ञान की भाषा में ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लड ग्लोफ कहते हैं। जल विज्ञानी सुझाते हैं कि ग्लेशियल लेक पर निगरानी कोई बहुत मुश्किल काम नहीं है, हाँ इसके लिये धन और इच्छा शक्ति जरूर चाहिए।

यह काम हादसों से बचाव का काम है इससे विकास के काम वाली वाहवाही नहीं मिलती सो न तो करने वालों का ध्यान जाता है और ध्यान दिलाने वाले उन्हें ध्यान दिलाते हैं। देश के प्रतिष्ठित आईआईटी और आईआईएम जैसे संस्थान जब विद्वानों की बजाय कुशल कारीगर बनाने के काम में लगाए जाने लगे हों तो ऐसे हालात में हिमालय पर भविष्य में आने वाले संकट से बचाव के बारे में क्या और कैसे सोचा जा सकेगा? हर साल विलाप कर लेने के लिये हम तत्पर और स्वतंत्र हैं ही।

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Post By: RuralWater
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