हिमालय पर्वत पूर्व में म्यांमार से लेकर पश्चिम में अफगानिस्तान तक फैला है। हिमालय दुनिया के नवीनतम पर्वतों में से एक है। हिमालय में अन्दरूनी एवं बाहरी बदलाव की प्रक्रिया जारी है। प्रसिद्ध भू-वैज्ञानिक बीएस कोटलिया के अनुसार “हिमालय की रचना लगभग 50 हजार वर्ष पूर्व हुई है तथा विभिन्न प्लेटों/सतह से बने हुए पहाड़ के अंदर वर्तमान में भी परिवर्तन हो रहा है।”
पद्मश्री प्रो. केएस वल्दिया के अनुसार, “भारतीय उपमहाद्वीपीय भू-भाग लगातार उत्तर की ओर खिसक रहा है और हिमालय के उत्तर की ओर स्थिर एशियन प्लेट अपने स्थान पर मजबूती से स्थिर है। इस तरह से मध्य में हिमालय पर दबाव पड़ने के कारण वह अपने स्थान से ऊपर उठ रहा है, साथ ही सक्रिय एवं परिवर्तनशील है। लगातार परिवर्तनशील होने के कारण सम्पूर्ण हिमालय नाजुक स्थिति में है।”
उत्तराखण्ड राज्य हिमालय के लगभग मध्य भाग में स्थित है। राज्य हिमालय की ऊँची हिमाच्छादित पहाड़ियों से लेकर मैदानी भाग तक स्थित है। राज्य के अधिकांश भू-भाग में ऊँची-ऊँची पहाड़ियाँ हैं।
उत्तराखण्ड हिमालय दुनिया के सबसे अधिक भूकम्प प्रभावित क्षेत्रों में से एक है। साथ ही गंगा और यमुना का जलागम क्षेत्र पर्यावरण के दृष्टिकोण से बहुत संवेदनशील तथा नाजुक हैं। इस क्षेत्र में भूकम्प, बादल फटना, भू-धंसाव, अतिवृष्टि एवं बाढ़ आने जैसी घटनाएँ समय-समय पर होती रही हैं। जिससे बड़ी संख्या में जन-धन की हानि भी होती रही है। हजारों लोगों को इन दैवीय आपदाओं में जान देनी पड़ी।
ये सभी घटनाएँ हिमालय के नाजुक होने का प्रमाण हैं। उत्तराखण्ड गठन के दो वर्ष बाद केन्द्रीय कृषि मंत्रालय ने पहाड़ में भूस्खलन की समस्या की जाँच के लिये एक त्रिस्तरीय समिति का गठन किया था। समिति ने भी अपनी रिपोर्ट में उत्तराखण्ड को बेहद संवेदनशील एवं नाजुक बताया है। ऐसे में यदि यह क्षेत्र नाजुक है तो वह हमसे अपने नाजुक मिजाज के अनुरूप व्यवहार करने की अपेक्षा करता है। अपने से सम्बन्धित किसी भी नाजुक व कमजोर वस्तु को हम सुरक्षित व मजबूत रखना चाहते हैं तो उसके प्रति हमें सहानुभूति रखनी होगी एवं उसकी हिफाजत करनी होगी। तभी हम उसका निरन्तर उपयोग कर उससे फायदा ले सकते हैं।
राज्य में विकास के नाम पर विभिन्न परियोजनाओं के लिये निर्माण कार्य चल रहे हैं। विद्युत परियोजनाओं की बात करें तो लगभग 220 से अधिक विद्युत परियोजना चालू हैं तथा 600 से अधिक प्रस्तावित हैं। ये परियोजनाएँ उत्तरी एवं मध्य हिमालयी क्षेत्र तथा तीव्र ढाल वाली पहाड़ियों के निचले हिस्से में बन रही हैं। इन परियोजनाओं के लिये भारी मशीनों एवं विस्फोटकों द्वारा पहाड़ कटान किया जा रहा है। पहाड़ों के अन्दर लम्बी सुरंगे बनाई जा रही हैं जिन्हें बनाने के लिये धरती के अंदर बड़ी-बड़ी चट्टानें तोड़ने के लिये विस्फोट करने पड़ते हैं। इस तरह के विस्फोटों से आस-पास की पहाड़ियाँ हिलती हैं तथा दरार आने से चट्टानें कमजोर हो जाती हैं। इससे पहाड़ नाजुक हो गए हैं। कटान से उत्पन्न लाखों टन मलवा जिसमें पत्थर, मिट्टी, पेड़-पौधे आदि शामिल हैं, बेहिचक नदियों में फेंक दिया जाता है।
सड़कों के विषय में जानकार सूत्रों के मुताबिक राज्य बनने के बाद लगभग 14000 किमी. से अधिक लम्बाई की सड़कें बनाई गई हैं। इन सड़कों के निर्माण के लिये भी हजारों की संख्या में डेटोनेटर एवं डायनामाइट से पहाड़ों का कटान किया गया है। बड़ी-बड़ी मशीनों को परियोजना स्थल तक पहुँचाने के लिये विभिन्न राष्ट्रीय राजमार्गों की भी चौड़ाई बढ़ाई जा रही है। इन सभी कार्यों से कटान का मलवा, बड़े-बड़े बोल्डर व मिट्टी पहाड़ियों से सीधे ढलान में डाला जा रहा है। इस मलवे से खेती एवं वानस्पतिक आवरण के साथ-साथ जंगल, छोटी-छोटी नदियाँ व नाले दब कर अपना अस्तित्व खो चुके हैं। वानस्पतिक एवं वनावरण नष्ट होने से धरती की जल संचय करने की क्षमता खत्म हो जाती है।
जब वर्षा होती है तो वर्षा का पानी तेजी से जमीन पर गिरता है और अपने साथ मिट्टी, छोटे-बड़े पत्थर तेजी से बहा के ले जाता है, जोकि नदियों में जाकर प्रलयकारी बाढ़ का रूप ले लेता है। परिणामस्वरूप नदियों के किनारे रहने वाले लोगों को भारी मुसीबतों का सामना करना पड़ता है। कई लोग बेघर हो जाते हैं व कइयों की जान तक चली जाती है। उत्तराखण्ड में जहाँ भी बाँध परियोजनाएँ या सड़कें बनाई गई हैं, उनके निर्माण से गिरे मलबे के कारण आबादी एवं आबादी में लगे जलस्रोत, जंगल, जमीन व खेती का वीरान व उजड़ा हुआ रूप आज भी प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। इस तरह की एकतरफा सोच और अविवेकपूर्ण कार्यों से होने वाले तथाकथित विकास से हम स्वयं ही इन प्राकृतिक आपदाओं को न्योता दे रहे हैं।
हालाँकि विकास कार्यों के लिये निर्माण एवं सड़क बनाना गलत नहीं है, किन्तु इस तरह के निर्माण वन एवं पर्यावरण की कीमत पर न हो। इस तरह के निर्माण कार्यों से राज्य के वनों को सबसे अधिक नुकसान हुआ है। इससे राज्यों के पारिस्थितिक संतुलन के साथ जैव-विविधता खतरे में पड़ गई है।
यदि निर्माण कार्य मानकों के अनुसार किया जाए तो होने वाले नुकसान को न्यूनतम किया जा सकता है। भले ही सम्बन्धित परियोजना द्वारा कार्य से हुए नुकसान की भरपाई की कोशिश भी की जाती है, किन्तु वास्तविक रूप से नुकसान की पूर्ति नाममात्र के लिये ही होती है। सामान्य कायदा है कि किसी कार्य के लिये हम पेड़ काटते हैं तो उसकी दोगुनी संख्या में पेड़ लगाते हैं किन्तु इससे पर्यावरण को हुए तात्कालिक नुकसान की भरपाई नहीं हो पाती है। सीएजी की रिपोर्ट में भी यह उल्लेख किया गया है कि बहुत कम परियोजनाएँ ही नियमों का पालन कर रही हैं।
उत्तराखण्ड की अधिकांश छोटी-बड़ी नदियों में खनन किया जा रहा है। बड़ी-बड़ी मशीनें, जेसीबी आदि से नदियों के किनारों की भी खुदाई की जा रही है। इससे नदी के किनारों में कटाव हो रहा है और पहाड़ धँसते चले जा रहे हैं। इस कारण आस-पास की आबादी को खतरा पैदा होने के साथ-साथ भूधंसाव व भूस्खलन में दिन-प्रतिदिन बढ़ोतरी हो रही है।
निजी स्वार्थ एवं अधिक से अधिक फायदा लेने की प्रवृत्ति के कारण हम प्रकृति से अधिक से अधिक संसाधनों का दोहन कर रहे हैं, मिट्टी, पत्थर, रेत, बजरी, पानी, हवा, पेड़-पौधे आदि जो भी हम प्रकृति से चाहते हैं जी भर के प्राप्त कर रहे हैं, किन्तु प्रकृति को देने के नाम पर केवल औपचारिकता भर निभा रहे हैं। ऐसे में प्रकृति ये सब कब तक सहन करेगी? एक न एक दिन हमें प्रकृति का ऐसा रौद्र रूप देखने को मिलेगा कि हम अपना कुछ भी नहीं बचा पाएंगे।
इसी तरह राज्य के पर्यटक एवं धार्मिक स्थलों में भी यात्रियों की संख्या में दिनों दिन इजाफा हो रहा है। पिछले एक दशक में केदारनाथ एवं बद्रीनाथ में यात्रियों की संख्या लगभग चार गुनी बढ़ गई है। इसी तरह अन्य तीर्थ स्थलों के साथ-साथ बद्रीनाथ-केदारनाथ में भी स्थान-स्थान पर एवं नदियों के किनारे घर, होटल व अन्य व्यावसायिक भवन बनाए जा रहे हैं। इन भवनों के निर्माण में तकनीकी एवं वैज्ञानिक मानकों का पालन भी नहीं किया जा रहा है। इस कारण इन क्षेत्रों का पारिस्थितिक तंत्र नष्ट हो रहा है। वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी के द्वारा बताया गया कि 16-17 जून 2013 को केदारनाथ की दुर्घटना का एक कारण वहाँ पर हुए अनियोजित भवन निर्माण एवं यात्रियों की असीमित संख्या रही है। हालाँकि अब राज्य सरकार द्वारा तीर्थ यात्रियों की संख्या को नियंत्रित किये जाने की पहल की गई है। यात्रियों एवं पर्यटकों की संख्या के साथ-साथ ही राज्य में वाहनों की संख्या में भी तेजी से इजाफा हुआ है जिससे यहाँ के पर्यावरण पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है।
इन सभी अवैज्ञानिक ढंग के कार्यों से हिमालय और कमजोर हो रहा है। गत 200 वर्षों में यहाँ पर 107 से अधिक भूकम्प आ चुके हैं। राज्य बनने के बाद बादल फटने की 7 से अधिक घटनाएँ हो चुकी हैं जिनमें कई लोगों को अपनी जान गँवानी पड़ी। केदारनाथ त्रासदी के बाद माननीय राष्ट्रपति ने इसे मानवीय कारण बताया, साथ ही प्रकृति के साथ संतुलन बनाने पर जोर दिया है।
पहले भी इस क्षेत्र में भूस्खलन, बादल फटने, बाढ़ आने की घटनाएँ हुई हैं, जिनसे काफी जन-धन की हानि भी हुई। फिर भी इन घटनाओं को मनुष्यों ने झेल लिया क्योंकि कुछ समय पहले तक मनुष्य प्रकृति के साथ तालमेल अथवा सामंजस्य बनाकर चलता था। हम प्रकृति से उतना ही लेते थे जितना आवश्यक होता था। किन्तु अब हमारी लालची और जमाखोरी की प्रवृत्ति ने हमें प्रकृति से अधिक से अधिक संसाधनों के जरिये धन-दौलत जमा करने वाला बना दिया है।
अधिक से अधिक संसाधनों और पैसे की ताकत से हम निजी तौर पर अपने को सुरक्षित समझने लगते हैं किन्तु प्रकृति का अंधाधुंध दोहन कर हम कदापि सुरक्षित नहीं रह सकते हैं। हमें संभलना होगा तथा प्रकृति के साथ अनावश्यक छेड़-छाड़ बंद करनी होगी। उसकी सुरक्षा का समुचित प्रबन्ध करना होगा। क्षणिक विकास के बजाए दीर्घकालिक विकास की सोच अपनानी होगी। यदि हम अभी भी नहीं चेते तो आपदा का रूप कई गुना भयावह हो सकता है, इससे न हम स्वयं बचेंगे और ना ही भावी पीढ़ी को सुरक्षित रख पाएँगे।
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