हिमालय पार का क्षेत्र


भारत के हिमालय पार के क्षेत्र में जम्मू-कश्मीर का लद्दाख का सर्द रेगिस्तान और कारगिल क्षेत्र तथा हिमाचल प्रदेश की लाहौल और स्पीति घाटियाँ आती हैं।

बूंदों की संस्कृति

1. लद्दाख


तिब्बती पठार के एक किनारे पर स्थित लद्दाख में हर साल सिर्फ 140 मिमी बरसात होती है। शुष्क थार मरुभूमि के अधिकांश भागों में भी लद्दाख से ज्यादा पानी बरसता है। इसके भी पूर्वी और मध्यवर्ती क्षेत्रों में तो 100 मिमी से भी कम बरसात होती है।

दक्षिण-पश्चिमी इलाकों में बसे गाँवों की स्थिति थोड़ी बेहतर है। इसी क्षेत्र में बसे कारगिल में सालाना 239 मिमी बरसात होती है। और सर्दियों के मौसम में तो सारा पानी तथा ओस, सब जम जाती हैं और उनका सिंचाई में प्रयोग नहीं हो सकता।

एक बार में तो लग सकता है कि ऐसी मुश्किल जलवायु में मनुष्य नहीं रह सकता। पर स्थानीय लोगों ने अपने सीमित साधनों का बुद्धिमानीपूर्ण और अधिकतम सम्भव उपयोग करने की विधियाँ खोज निकाली हैं और इस क्रम में एक गौरवपूर्ण सभ्यता का निर्माण भी किया है। यह सही है कि लद्दाख के काफी बड़े इलाके में अभी भी आबादी नहीं है। यहाँ की कुल जमीन के मात्र 0.6 फीसदी हिस्से अर्थात 57,716 हेक्टेयर तक ही लोगों की पहुँच है। और इसकी भी मात्र 28.23 फीसदी जमीन पर ही खेती होती है।

बूंदों की संस्कृतिलद्दाखी जीवन की सबसे महत्त्वपूर्ण चीज है पानी का होशियारी से उपयोग करना। लद्दाख की मिट्टी अच्छी है और यहाँ धूप भी पर्याप्त रहती है, पर पानी के अभाव में यह जमीन खाली पड़ी है। लद्दाख की करीब 68 फीसदी जमीन समुद्र तल से 5,000 मीटर से ज्यादा ऊँची है और यहाँ मनुष्य जीवन और पेड़-पौधों का रहना सम्भव नहीं है। 4,500 से 5,000 मीटर की ऊँचाई वाली जमीन का हिस्सा कुल जमीन में 5.8 फीसदी है और इसका उपयोग जानवरों की चराई में होता है। खेती 4,500 मीटर से कम ऊँचाई वाले हिस्सों में ही सीमित है। एक और मुश्किल जलवायु को लेकर है। आमतौर पर तापमान 30 डिग्री सेल्सियस से ऊपर नहीं जाता। जुलाई और अगस्त यहाँ के सबसे गर्म महीने हैं, जब तापमान औसतन 19.4 और 19 डिग्री के बीच रहता है। जनवरी और फरवरी में सबसे ज्यादा ठंड पड़ती है और तापमान औसतन शून्य से करीब 11 डिग्री नीचे रहा करता है। इस प्रकार लद्दाख में फसल लगाने और उनके बढ़ने का मौसम सिर्फ छह महीनों तक रहता है।

बूंदों की संस्कृतिबूंदों की संस्कृतियहाँ शुष्क इलाकों वाली खेती भी सम्भव नहीं है और जिस 19,000 हेक्टेयर जमीन पर खेती होती है वह भी बर्फ के पिघलने से आने वाले सोतों के पानी से सिंचाई पर निर्भर करती है। बर्फ और ग्लेशियरों से ही यहाँ पानी मिल पाता है। ये दिन में बहुत मद्धिम रफ्तार से पिघलते हैं और देर शाम तक पानी नीचे आ पाता है और तब तक खेतों की सिंचाई के लिये काफी देर हो चुकी होती है।

इन मुश्किलों के बावजूद लद्दाखी लोगों ने सिंचाई की एक अद्भुत प्रणाली विकसित की है। सोतों का पानी लोगों द्वारा निर्मित जलमार्गों से शाम के समय एक छोटे तालाब में जिसे स्थानीय तौर पर जिंग कहा जाता है, आता है। ग्लेशियरों से आये इस संचित जल से अगले दिन खेतों की सिंचाई की जाती है।1,2

दुर्लभ-पानी के बँटवारे में गड़बड़ न हो, इसके लिये गाँव वाले हर खेती के मौसम में एक अधिकार चुरपुन का चुनाव करते हैं। चुरपुन ही देखता है कि हर किसान को उसकी जमीन के अनुपात में पानी मिल जाये। वह यह ख्याल भी रखता है कि कोई खेत बिना सिंचित न रह जाये। इसलिये, पानी के उपयोग को लेकर बहुत कम विवाद होते हैं। जलमार्गों की मरम्मत सब लोग मिल-जुलकर करते हैं। जिले का करीब पूरा सिंचित क्षेत्र पारम्परिक जलमार्गों से भरा है जिनका निर्माण और रख-रखाव गाँव के लोग ही करते हैं।

लद्दाखी लोगों के जीवन में सोतों का महत्त्व इतना ज्यादा है कि उनकी पूजा की जाती है। कपड़े धोने जैसा कोई भी काम इनके अन्दर करने की इजाजत नहीं है जिससे इनका पानी गन्दा हो जाये। दुर्भाग्य से लेह के शहरी इलाकों के लोगों के नजरिए में अब बदलाव आ रहा है।2

2. लाहौल और स्पीति


पूरब में तिब्बत और उत्तर में लद्दाख से घिरा हिमाचल प्रदेश का लाहौल और स्पीति जिला समुद्र से 3,048-4,572 मीटर की ऊँचाई पर बसा है। इस जिले का क्षेत्रफल 12.2 लाख हेक्टेयर है और यह देश के सबसे बड़े जिलों में से एक है। पर 1981 में यहाँ की आबादी सिर्फ 32,000 थी। इस प्रकार यह दुनिया का सबसे ज्यादा ऊँचाई वाला आबाद इलाका तो है, पर यह जनसंख्या सबसे विरल घनत्व वाले इलाकों में भी एक है।

बूंदों की संस्कृतिलाहौल और स्पीति के दुर्गम और दूरदराज की घाटियों में तापमान शून्य से भी 40 डिग्री नीचे पहुँच जाता है। बरसात का कोई भरोसा नहीं है। 1971 से 1979 के बीच औसत बरसात तो 279 मिमी हुई थी, पर 1976 में मात्र 27.1 मिमी पानी गिरा तो 1972 में 583.5 मिमी।3 कम ऊँचाई वाले बादल पहाड़ों से टकराकर इस इलाके में आने से पहले ही लौट जाते हैं और यह इलाका सूखा रह जाता है। यहाँ बहुत हरियाली भी नहीं है। यहाँ जो लोग सदियों से खेती करते आये हैं उनके तौर-तरीकों के बारे में लिखित रूप में बहुत कम सामग्री उपलब्ध है। लद्दाख और कारगिल की तरह वे भी सोतों के पानी को मोड़कर सिंचाई करते हैं। फसल बिना सिंचाई के पैदा नहीं होती और यही खेती के लिये सबसे बड़ी मुश्किल है। खेती श्रमसाध्य है और मानव श्रम का 84 फीसदी हिस्सा उसी पर लगता है। इस इलाके की मुश्किल बनावट और बरसात की कमी को देखते हुए सोतों की धारा मोड़ने जैसी लघु सिंचाई योजनाएँ ही यहाँ सिंचाई का एकमात्र साधन लगती हैं।

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