हिमालय ने युद्ध छेड़ दिया है

तवाघाट क्षेत्र के लोगों को छोटी-मोटी सहायता पहुँचाकर मरहम पट्टी कर देना उस वास्तविकता को भुला देना होगा, जो कई वर्षों से इसी जिले के दर, गरब्यांग, गोल्फा और उत्तराखंड के भूस्खलन से पीड़ित गाँवों के निवासियों द्वारा इस प्रश्न को पेश कर रही है कि ‘हम कहाँ रहेंगे?’ इसमें दो रायें नहीं हो सकती कि यदि दूरदराज के क्षेत्रों में रहने वाले इन भूले-बिसरे लोगों के लिए भी जानमाल की सुरक्षा की गारन्टी देने का अपना प्रारम्भिक कर्तव्य महसूस करने वाली कोई सरकार है तो उसे इन्हें तुरन्त तराई-भावर में बसाकर उन्हें भय-मुक्त करना चाहिए, गुड़-चना और कम्बल-कपड़ा बाँटकर बुनियादी प्रश्नों को टाला नहीं जा सकता।

कैलास मानसरोवर के पुराने तीर्थ मार्ग पर स्थित सीमान्त जिला पिथौरागढ़ के तवाघाट क्षेत्र में 14, 15 व 16 अगस्त 77 को अत्यधिक वर्षा के फलस्वरूप भूस्खलन से हुई जान-माल की हानि का विस्तृत ब्यौरा अब मिल सका है। इस दुरूह क्षेत्र में यातायात और संचार के साधन अस्त-व्यस्त हो गये थे, एक माह पूर्व इसी क्षेत्र में ऊपर से पत्थर लुढ़क कर आने से एक महिला की मृत्यु हो गई थी। उसके सहित भूस्खलन से दबकर मरने वालों की संख्या 45 हो गई है। इनमें से तवाघाट स्थित सैनिक शिविर के 33 जवान, खेला गाँव के 2 और पलपला के 9 लोग थे, दुर्घटना में मरने वालों के 15 शव ही क्षत-विक्षत अवस्था में मलवे में से निकाले जा सके हैं। शेष शव या तो बहुत नीचे बड़े-बड़े पत्थरों और मलवे के नीचे दबे हुए हैं या धौली गंगा की धारा में बह गये हैं।

जन हानि के अलावा लगभग 150 एकड़ भूमि फसल सहित पूर्णतया नष्ट हो चुकी है। कई खेतों में दरारें पड़ गई, सेना के 20 बैरक और ग्रामीणों के 6 मकान पूर्णतया दब गये। लगभग 50 वर्ग किलोमीटर के इस क्षेत्र में 6 गाँव प्रभावित हुए। पुनः वर्षा होने पर इस दुर्घटना की पुनरावृत्ति हो सकती है। लोग इतने भयभीत हैं कि किसी भी समय उन्हें मौत का मुकाबला करना पड़ सकता है। तवाघाट को रहने के लिए असुरक्षित समझकर सेना ने वहाँ से अपना मार्ग-शिविर हटा दिया है। पलपला गाँव में, जहां मकानों के नीचे मनुष्य और पशुओं की लाशें दबी हुई हैं, चील और कौवे मँडरा रहे हैं। जगह-जगह टूटे हुए खेतों के रेड़ों से धरती क्षतविक्षत हो गई है।

क्रमिक सिलसिला दुर्घटनाओं का


कौलिया गाँव के श्री कल्याण सिंह के अनुसार कई दिनों से निरंतर होने वाली वर्षा ने 14 अगस्त सांयकाल को उग्र रूप धारण कर लिया। रात को नौ बजे बड़ी-बड़ी शिलाओं के लुढ़कने से खेत टूटने लगे। पत्थरों का यह रोड़ा पानी के साथ भयंकर आवाज करना हुआ नीचे की ओर और भी अधिक खेतों को तोड़कर बढ़ता रहा। मकान और धरती काँप रही थी। घरों के अन्दर बर्तन, थाली कनस्तर आदि हिल रहे थे। यह क्रम प्रातः 3 बजे तक चलता रहा। सुबह उजाला होने पर हमने देखा मक्का, चीणा, मडुवा और आलू के खेतों की जगह रेड़ा था। धरती का रूप बदल गया था। मकान तो किसी तरह बच गये। परन्तु कहीं-कहीं तो आँगन भी चले गये थे। जमीन पर दरारें पड़ी थीं।

कौलिया से मिले हुए पलपला गाँव के जीवनसिंह के अनुसार 14 को रात घना कोहरा और अंधेरा था। लगभग दस बजे पहाड़ टूटने की आवाज़ आई। धरती हिली और मकान भी हिलने लगे। गाय-भैंस अल्लाने (रंभाने) लगीं। अपने मकान के सामने से उन्होंने एक लड़के का जोर- जोर से ‘इजा’ (माँ! माँ!) चिल्लाना सुना। वहाँ जोगा सिंह और भवानसिंह के मकान पूरी तरह दब गये थे। इनमें से केवल जोगा सिंह की 35 वर्षीय पत्नी जमुना देवी और जसूली देवी को लोगों ने मलवे से निकाल लिया, चिल्लाने वाला भवानसिंह आठ वर्षीय लड़का जीवनसिंह एक बड़े पत्थर के सहारे अटका हुआ था और वहाँ तक पहुँचने के लिए दलदल था। उसे सुबह उजाला होने पर ही बचाया जा सका।

वह कालरात्रि


तवाघाट के डाक बंगले के उन्नीस वर्षीय चौकीदार मगनसिंह को 15 अगस्त शाम को 4 बजे से ही खेला से आने वाले सूखे नाले में लबालब पानी भर जाने से चिंता होने लगी थी कि कहीं डाक बंगले को अहाते की दीवार ही न टूट जाये। इसी से सटे हुए सैनिक शिविर में जवान स्वतन्त्रता दिवस का उत्सव उल्लासपूर्वक मना रहे थे। उनके यहाँ निर्माण विभाग के जूनियर अभियंता भी भोजन के लिए आमन्त्रित थे। जब पानी का बहाव लगभग 10 बजे रात तीव्र होने लगा तो मगनसिंह उन्हें वापस बुला लाया। इसके बाद ही ऊपर खेला गाँव की ओर से नाले के ऊपर-ऊपर एक तेज रोशनी आई जो धौली की धारा में विलीन हो गई भयंकर शूँ-शूँ की आवाज के साथ बंगला हिलने लगा और तेज हवा के झोंके से मगन सिंह गिर गया। पौने ग्यारह बजे आवाज बंद होने पर मगनसिंह अपने साथी जयसिंह के साथ बाहर आया, तो कीचड़ से लथपथ एक जवान बैरकों से वहाँ पहुँचा। रोशनी जलाकर देखा तो सारी दुनियां बदली हुई थी। सैनिकों के बैरक दबे हुए थे। ‘मुझे बचाओ, मुझे बचाओ’, ‘एक लांसनायक चिल्ला रहा था। नाला अपनी पूरी रफ्तार पर बह रहा था। इस पर भी कुछ सैनिकों ने दो जवानों को रात ही में खींचकर निकाल लिया। सुबह तक वर्षा के बावजूद भी फँसे हुए लोगों को बचाने का कार्य होता रहा। सारा क्षेत्र सैकड़ों टन भार के पत्थरों के नीचे दबा हुआ था। इस कहानी को सुनाने वाले मगनसिंह और जयसिंह अब तक इतने भयभीत हैं कि रात को नींद में वे चौंक उठते हैं और चिल्लाते हैं, ‘चलो-चलो, भागो-भागो।’

सैनिक शिविर को ध्वस्त करने वाला रेड़ा 500 मीटर की ऊँचाई से खेला गाँव से प्रारम्भ हुआ था। इसके उद्गम पर अभी तीन विशाल शिलाखण्ड थोड़ी हलचल होते ही नीचे लुढ़कने के लिए तैयार खड़े हैं। खेला का धनसिंह दस बजे के बाद पत्थरों के लुढ़कने के साथ हवा के शूँ-शूँ की भंयकर आवाज सुनने और धरती का हिलना महसूस करने पर 6 माह की बच्ची को गोद में लिये हुए पत्नी के साथ गुफा से बाहर आ गया। वे उस पार मकान में सोई हुई अपनी वृद्धा माँ डालमा देवी और जू.हा. के हेड मास्टर श्री देवीसिंह पाल का हालचाल देखने जाना चाहते थे। पर नाला पार करना सम्भव नहीं था। रात भर वर्षा में खड़े रहे। सुबह पता चला कि मकान रेड़े के नीचे दब गया है। केवल मास्टर साहब का हाथ दिखाई दिया। उनकी कलाई पर बंधी घड़ी रात को साढ़े दस बजे उनकी अंतिम साँसों के साथ ही बन्द हो चुकी थी।

सोलह अगस्त दोपहर तक भी दुर्घटनाओं का सिलसिला जारी रहा। 16 परिवारों के गशील गाँव के निवासियों ने धम-धम की आवाज सुनी और धरती को लुढ़कने वाले पत्थरों के बोझ से काँपते हुए देखा, वे मृत्यु का सहवरण करने के लिए एक स्थान पर इकट्ठे हो गये। कुछ देर बाद जब घरों में वापस लौटे तो रास्तों, खेतों और मकानों में सर्वत्र दरारें थीं।

प्रलयंकारी विनाश के अवशेष


इस क्षेत्र में सर्वत्र रेड़े से टूटे हुए खेत और मकान तथा मलवे के नीचे दबे हुए मनुष्यों और पशुओं के अवशेष इस प्रलय लीला की याद दिलाने के लिए तो हैं ही, परन्तु सबसे भयंकर हैं नालों के बीच और आस-पास अटके हुए वे भीमकाय शिलाखण्ड जो कभी भी लुढ़ककर इससे भी भंयकर काण्ड को जन्म दे सकते हैं। खेला गाँव के ऊपर इस प्रकार की तीन शिलाएँ लोगों की चिन्ता का विषय बनी हुई हैं। यह कोई आकस्मिक दुर्घटना नहीं थी, बल्कि पिछले सात-आठ वर्षों से इस प्रकार निरन्तर होने वाली दुर्घटनाओं के क्रम में सबसे बड़ी दुर्घटना थी। सन् 1970 की बरसात में तवाघाट और नारायण आश्रम के बीच कुछ लोग बह गये थे। 19 जुलाई 1971 को धारचूला से 5 किमी. आगे तवाघाट की और दुबाट में स्याणा नाला अपने साथ बड़ी-बड़ी शिलायें लेकर आया और उनके नीचे 35 खाली मकान दब गये। वहाँ से जान बचाने के लिए भागते हुए आदमी भी वहीं मर गये। उस पार नैपाल में भी 2-3 बार इस प्रकार की घटनाएँ हो चुकी हैं। काला पानी में 14,420 फुट की ऊँचाई से और दूसरी ओर 14,860 से आने वाली काली गंगा की सहायक धौली नदी प्रति मील 150 फीट से भी अधिक वेग से बहती हैं। यह नदी धारचूला (भारत) और दारचूला (नेपाल) में कटाव से भारी नुकसान कर चुकी हैं। कुछ वर्ष पहले तो चट्टानों के गिरने के कारण धौली का प्रवाह थोड़े समय के लिये अवरूद्ध हो गया था।

ऐसा लगता है कि खेला का सारा क्षेत्र किसी समय हुए भूगर्भित परिवर्तनों के फलस्वरूप खिसक कर आये हुए पहाड़ों पर बसा हुआ है, क्योंकि यहाँ पर बने हुए मकानों के लिए नीचे स्थिर मिट्टी की बुनियाद नहीं मिलती। मकानों की चिनाई बड़े-बड़े पत्थरों पर या उनकी आड़ पर की गई है। इसी धरती पर लोगों ने खेत बना लिए। 70 प्रतिशत तक के ढाल पर सीढि़याँ बनाकर खेती होती है और जनसंख्या की वृद्धि के साथ ये सीढ़ियां भी जंगलों को साफ करती हुई चोटियों की ओर बढ़ती गई। धारचूला तहसील में खेती का विस्तार पिछले 75 वर्षों में 130 प्रतिशत तक हुआ है। बुजुर्गों ने कहा कि अपनी जवानी के दिनों में जो पत्थर हमारी हल की फाल पर लगते थे, वे अब छाती के बराबर ऊँचाई तक आ गये हैं। सारी मिट्टी बहकर चली गई। पत्थरों को आपस में मिलाकर या जमाकर रखने के लिये कोई आधार नहीं रह गया।

पिछले 10-12 वर्षों में मोटर सड़क के निर्माण के लिए भारी मात्रा में निरन्तर प्रयुक्त होने वाली विस्फोट सामग्री ने पहाड़ों को हिला दिया है। तवाघाट से 1 किमी. पीछे निरंतर मटमैले पानी को लेकर सड़क को अवरूद्ध करने वाले डुगडुग नाले पर इसी प्रकार फटी हुई एक चट्टान इस तथ्य का सबूत देने के लिये अब गिरी और तब गिरी का दृश्य उपस्थित कर रही है। 17 जुलाई को इसी के पास घास काटती हुई स्व. देवीलाल पाल की पत्नी ऊपर से पत्थर आने के कारण काली में गिर कर मर गई थी।

प्रकृति ने इस क्षेत्र को कम से कम मनुष्यों के और वह भी उसे साथ एकरूप होकर रहने के लिये बनाया है, परन्तु पिछले 10-15 वर्षों से यहाँ पर इतने अधिक मनुष्य आ गये कि प्रकृति के साथ छेड़छाड़ की घटनायें बढ़ गईं, ईंधन की पूर्ति के लिये रहे-सहे पेड़ों को काट कर बेचना गाँव के लोगों का मुख्य व्यवसाय बन गया है। कैलास मानसरोवर यात्रा तथा तिब्बत के साथ व्यापार के दिनों वे भारवाहक का काम करते थे। कृषि का अनियंत्रित विस्तार, मोटर सड़कों का अंधाधुंध निर्माण और जंगलों की हजामत ने हिमालय में मानव ने प्रकृति के साथ बलात्कार किया है और इसका परिणाम यह हुआ है कि अनादि काल से यहाँ पर हमारे साथ जो प्रकृति बहुत उदार रही है, जिसने हिमालय के लोगों को खाने के लिए जंगली फल, कन्द, शहद और कई मूल्यवान जड़ी-बूटियाँ दीं, पशुओं के लिए उत्तम चारा दिया, सघन वनों और स्वच्छ नदियों के द्वारा सौन्दर्य प्रदान किया। उसने अब यहाँ के मनुष्यों के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया है। हम अपने उदार पिता की सम्पति का मुक्तहस्त से उपयोग कर केवल भौतिक समृद्धि ही नहीं, सुख और शान्ति प्राप्त करते रहे, उसे बाँटते भी रहे। परन्तु पिछले सौ वर्षों से प्रकृति से अधिकाधिक लेने की जो होड़ हमारी भौतिक सभ्यता ने प्रारम्भ की, उसकी गति पिछले दशक में इतनी तीव्र हो गई कि प्रकृति के भंडार खाली हो गये, उसने हमारा पोषण और रक्षण करना छोड़ दिया। यह हमारे लिये चेतावनी थी, परन्तु इस चेतावनी को हम समझे नहीं, हिमाचल प्रदेश के लाहौल व किन्नौर जिलों का डेढ़ वर्ष पुराना भूकम्प, बेलाकूची से लेकर तवाघाट तक की उत्तराखण्ड की प्रलयंकारी दुर्घटनायें तथा पिछले वर्ष नेपाल में एक समूचे गाँव के भूस्खलन में दब जाने से अधिक स्पष्ट प्रकृति की कौन सी भाषा हो सकती थी ? प्रकृति ने अपना रौद्र रूप धारण कर लिया है, हिमालय अब संहार करने लगा है। उसका मुकाबला करने की शक्ति और युक्ति मानव के पास नहीं है।

तवाघाट क्षेत्र के लोगों को छोटी-मोटी सहायता पहुँचाकर मरहम पट्टी कर देना उस वास्तविकता को भुला देना होगा, जो कई वर्षों से इसी जिले के दर, गरब्यांग, गोल्फा और उत्तराखंड के भूस्खलन से पीड़ित गाँवों के निवासियों द्वारा इस प्रश्न को पेश कर रही है कि ‘हम कहाँ रहेंगे?’ इसमें दो रायें नहीं हो सकती कि यदि दूरदराज के क्षेत्रों में रहने वाले इन भूले-बिसरे लोगों के लिए भी जानमाल की सुरक्षा की गारन्टी देने का अपना प्रारम्भिक कर्तव्य महसूस करने वाली कोई सरकार है तो उसे इन्हें तुरन्त तराई-भावर में बसाकर उन्हें भय-मुक्त करना चाहिए, गुड़-चना और कम्बल-कपड़ा बाँटकर बुनियादी प्रश्नों को टाला नहीं जा सकता। परन्तु यह तो छोटा सवाल है, वास्तविक समस्या तो पूरे हिमालय क्षेत्र के लोगों की अपनी जीवनपद्धति में बुनियादी परिवर्तन लाने की है, क्या हम धरती के साथ बलात्कार जारी रखेंगे।

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