हिमालय की गोद में छिपा है सस्ती दवाओं का खजाना

विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया की तीन चौथाई आबादी आधुनिक तकनीक से तैयार दवाएं खरीदने में अक्षम है और उन्हें ऐसे ही पौधों से बनने वाली परंपरागत दवाओं पर निर्भर रहना पड़ता है। वर्षों से शोध और निष्कर्ष के बाद विश्व स्वास्थ्य संगठन इन्हीं जड़ी बुटियों से तैयार दवाओं को राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के प्रोग्राम के तहत बढ़ावा देने की कोशिश कर रहा है, क्योंकि इसकी कीमत काफी कम होती है तथा यह सबकी पहुंच में भी है।

वनस्पति न सिर्फ इंसानी जीवन बल्कि पृथ्वी पर वास करने वाले समस्त जीव जंतु के जीवन चक्र का एक अहम हिस्सा है। एक तरफ जहां यह वातावरण को शुद्ध करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है वहीं दूसरी तरफ इसकी कई प्रजातियां दवा के रूप में भी काम आती हैं। वन संपदा की दृष्टिकोण से भारत काफी संपन्न है। उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार इस क्षेत्र में भारत का विश्व में दसवां और एशिया में चौथा स्थान है। यहां अब तक लगभग छियालीस हजार से ज्यादा पेड़-पौधों की प्रजातियों का पता लगाया जा चुका है जो किसी न किसी रूप में हमारे काम आते हैं। पश्चिमी हिमालयी क्षेत्र के अंतर्गत लद्दाख यूं तो अत्याधिक ठंड के लिए प्रसिद्ध है, इसके बावजूद यहां एक हजार से भी ज्यादा वनस्पतियों की विभिन्न प्रजातियां फल-फूल रही हैं, इनमें आधे ऐसे हैं जिनका उपयोग औषधि के रूप में किया जा सकता है।

समुद्र की सतह से करीब 11,500 फुट की उंचाई पर बसा लद्दाख अपनी अद्भुत संस्कृति, स्वर्णिम इतिहास और शांति के लिए विश्व प्रसिद्ध है। देश के सबसे बड़े जिले में एक लद्दाख की कुल आबादी 117637 है। ऊँचे क्षेत्र में स्थित होने तथा कम बारिश के कारण यहां का संपूर्ण जीवन कभी न समाप्त होने वाले ग्लेशियर पर निर्भर है। जो पिघलने पर कई छोटे बड़े नदी नाले को जन्म देती है। नवंबर से मार्च के बीच यहां का तापमान शुन्य से भी 40 डिग्री नीचे चला जाता है। भारी बर्फबारी के कारण इसका संपर्क इस दौरान पूरी दुनिया से कट जाता है। यहां का 70 प्रतिशत क्षेत्र सालों भर बर्फ से ढका रहता है। इसी कारण इसे ठंडा रेगिस्तान के नाम से भी जाना जाता है। लेकिन अगर आप करीब से इसका मुआयना करेंगे तो पता चलेगा कि यहां वनस्पतियों का एक संसार भी मौजूद है। दरअसल विषम भौगोलिक परिस्थिती ने यहां के लोगों को आत्मनिर्भर बना दिया है। ऐसे में क्षेत्र के निवासी अपने लिए आसपास उपलब्ध सामानों से ही जीवन को चलाने का माध्यम बनाते रहे हैं। यहां मुख्य रूप से गेहूं, जौ, मटर और आलु इत्यादि की खेती की जाती हैं, परंतु इसके बावजूद सब्जियां, दवाएं, ईंधन और जानवरों के लिए चारा जैसी बुनियादी आवश्यकताएं भी जंगली पौधों से ही प्राप्त की जाती हैं। जंगली पौधों पर इतने सालों तक निर्भरता ने ही इन्हें इसके फायदे का बखूबी अहसास करा दिया है।

विल्लो पोपलर (willow poplar) तथा सीबुक थ्रोन (seabuckthrone) यहां सबसे ज्यादा पाए जाने वाली वनस्पति है। उपचार की चिकित्सा पद्धति जिसे स्थानीय भाषा में स्वा रिग्पा (sowa rigpa) अथवा आमची कहा जाता है, पूर्ण रूप से इन्हीं वनस्पतियों पर निर्भर है तथा यह वर्षों से स्थानीय निवासियों के लिए उपचार का साधन रहा है। मुख्यतः स्थानीय स्तर पर उपचार के लिए तैयार की जाने वाली औषधि इन्हीं वनस्पतियों के मिश्रण से बनाया जाता है। इस पद्धति के तहत हिमालयी क्षेत्रों में मिलने वाली जड़ी बुटियों तथा खनिजों का प्रमुख रूप से इस्तेमाल किया जाता है। ट्रांस हिमालय में पाए जाने वाली वनस्पतियां आमची की अधिकतर दवाओं को तैयार करने में महत्वपूर्ण साबित होते हैं। आज भी लद्दाख में मिलने वाली दवाओं में इस्तेमाल किए जाने वाली जड़ी बुटियां द्रास, नुब्रा, चांगथान तथा सुरू घाटी में आसानी से प्राप्त किए जा सकते हैं।

लेह स्थित आमची मेडिसिन रिसर्च यूनिट (AMRUL) और फिल्ड रिसर्च लैब्रटॉरी (FRL) देश की दो ऐसी प्रयोगशालाएं हैं जहां ट्रांस हिमालय से प्राप्त वनस्पतियों का दवाओं में प्रयोग किए जाने के विभिन्न स्वरूप पर अध्ययन किया जा रहा है। एक अनुमान के अनुसार लद्दाख और लाहोल स्फीति के ट्रांस हिमालय क्षेत्रों में मौजूद वनस्पतियों का दस से अधिक वर्षों से अध्ययन किया जा रहा है। इन अध्ययनों में कम से कम 1100 किस्मों को रिकार्ड किया गया है जिन में 525 किस्में ऐसी हैं जिन्हें भारतीय परंपरा में मौजूद कई दवाओं में इस्तेमाल किया जाता रहा है। इस संबंध में AMRUL तथा FRL कई स्तरों पर लोगों को जागरूक कर रही है। कई राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय सेमिनारों और वर्कशॉप के माध्यम से इन वनस्पतियों के फायदों के बारे में जागरूकता अभियान चलाया जा रहा है। दवाओं में प्रयोग होने वाले ये पौधे काफी स्वच्छ वातावरण में पनपते हैं, परंतु हाल के अध्ययनों से पता चला है कि इन पौधों की कुछ प्रजातियों पर जलवायु परिवर्तन के कारण नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है जिन्हें संरक्षण करने की सख्त जरूरत है।

बदलते परिदृश्य में बढ़ती जनसंख्या और दूषित वातावरण के कारण एक तरफ जहां इन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है वहीं इसे बाजार का रूप भी दिया जा रहा है। हालांकि व्यापारिक जरूरतों को पूरा करने के लिए इन ट्रांस हिमालयी पौधों को आधुनिक तकनीक के माध्यम से मैदानी इलाकों में भी उगाया जा सकता है। अगर इस क्षेत्र के प्राकृतिक संपदा का उचित उपयोग किया गया तो इनसे अच्छे हर्बल उत्पाद तैयार किए जा सकते हैं। जिससे ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों को बेहतर रोजगार उपलब्ध हो सकते हैं। ऐसे में जरूरत है इनकी पैदावार बढ़ाने, इनका संरक्षण करने तथा इसके उचित उपयोग की। इसके लिए अंतर्राष्ट्रीय संगठन तथा उद्योग जगत को आगे आने की आवश्यकता है लेकिन इस बात पर विशेष ध्यान देने की भी आवश्यकता है कि इससे होने वाले फायदों में स्थानीय आबादी का भी प्रतिनिधित्व बराबर का हो। विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया की तीन चौथाई आबादी आधुनिक तकनीक से तैयार दवाएं खरीदने में अक्षम है और उन्हें ऐसे ही पौधों से बनने वाली परंपरागत दवाओं पर निर्भर रहना पड़ता है। वर्षों से शोध और निष्कर्ष के बाद विश्व स्वास्थ्य संगठन इन्हीं जड़ी बुटियों से तैयार दवाओं को राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के प्रोग्राम के तहत बढ़ावा देने की कोशिश कर रहा है, क्योंकि इसकी कीमत काफी कम होती है तथा यह सबकी पहुंच में भी है।

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