आंध्र प्रदेश राज्य के प्रस्तावित बंटवारे में सबसे बड़ा पेंच राजधानी हैदराबाद को ले कर है और हो भी क्यों ना, आखिर लगभग सभी सियासती दलों के बड़े नेताओं के व्यापारिक प्रतिष्ठान यहीं पर हैं। वैसे यह त्रासदी बड़ी चालाकी से छिपाई जाती रही है कि हैदराबाद की ऊपरी चकाचौंध के पीछे उसकी प्यास, पानी की कमी और प्रदूषण का विद्रूप चेहरा भी है यह हालात वहां के पारंपरिक तालाबों पर बलात कब्जों के कारण पैदा हुए हैं।
वैसे तो हैदराबाद भारत के सबसे तेजी से उभरते शहर, चारमीनार, बिरयानी और हुसैन सागर के लिए बेहद मशहूर है, लेकिन असलियत में इसकी सांसों में भीतर-ही-भीतर ऐसा जहर घुल रहा है कि आने वाले दिनों में यहां के दमकते चेहरे की चमक बनाए रखना मुश्किल होगा। असल में पंद्रहवीं सदी में बसाया गया यह शहर उस समय वेनिस की तरह ढेर सारी झीलों और तालाबों के किनारे संवारा गया था। जुड़वां शहर - हैदराबाद और सिंकंदराबाद का विभाजन दुनिया की सबसे बड़ी मानव-निर्मित झील ‘‘हुसैन सागर’’ से हुआ।
जैसे-जैसे सूचना व जैव प्रौद्योगिकी में इस महानगर का रुतबा बढ़ा इसकी झीलें एक-एक कर गुम होती चली गईं जब ना तो भूगर्भ जल बचा और ना ही मूसी नदी में शहर की कोई अढ़सठ लाख आबादी का गला तर करने की ताकत; तब पारंपरिक जल स्रोत ‘‘झील-तालाबों’ की याद आई। जाहिर है बहुत देर हो चुकी है, लोगों को भ्रमित करने के लिए हुसैन सागर झील और उसे आसपास के इलाकों को चमकाया जाता है, हकीकत यह है कि यह सब भी वहां की बेशकीमती जमीन पर तिल-तिल व्यावसायिक गतिविधियों के लिए ही होता है।
हैदराबाद महानगर सीमा के भीतर 10 हेक्टेयर से अधिक क्षेत्रफल की 169 झीलों की सूची तो हम यहां प्रस्तुत करेंगे ही, इसके अलावा भी कई सौ तालाब यहां हुआ करते थे, जो देखते-ही-देखते कालोनी, सड़क, या बाजार के रूप में गुम हो गए। सनद रहे इन 169 झीलों का कुल क्षेत्रफल ही 90.56 वर्ग किलोमीटर होता है। जाहिर है कि यदि इनमें साफ पानी होता तो हैदराबाद का गला साल भर तर रह सकता है।
यह बात अब किसी से छिपी नहीं है कि लगभग 778 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में फैले हैदराबाद महानगर का अनियोजित विस्तार, पर्यावरणीय कानूनों की अनदेखी, और घरेलू व औद्योगिक कचरे की मूसी नदी व तालाबों में सतत गिरने से यहां भीषण जल-संकट खड़ा हो गया है और इसके निदान का कोई तात्कालिक उपाय सरकार व समाज के पास है नहीं।
हैदराबाद का महत्वपूर्ण हिस्सा वहां की झीलें हैं। बेतहाशा शहरीकरण के कारण यहां के पारंपरिक जल निकाय पूरी तरह नष्ट हो गए हैं। कुछ जल निकायों का आकार सिमट गया है तो कुछ औद्योगिक रसायनों और घरेलू कचरे से प्रदूषित हो गए हैं। झीलों और नहरों के उथला होने के चलते ही अगस्त 2000 में यहां बाढ़ आई थी। मुख्यधारा विकास के मॉडल पर पर्यावरण संबंधी संकट अब व्यापक स्तर पर वाद-विवाद को जन्म दे रहा है।
औद्योगिकरण, शहरी विस्तार, सिंचाई, बड़े बांध, हरित क्रांति आज विकास के क्षेत्र में बातचीत और आलोचना के विषय बन गए हैं। हैदराबाद दक्षिण पठार पर स्थित है। यहां की विशाल चट्टानें और जल निकाय इसके प्राकृतिक दृश्यों को दर्शाती है। ये कहना गलत न होगा कि हैदराबाद की प्राकृतिक विरासत का ध्वंस पिछले 50 वर्षों के विकास के कारण हुआ है। पिछले कुछ दशकों से सरकार और निजी संस्थाओं ने बड़े पैमाने पर अतिक्रमण कर झीलों को पक्के इलाकों में रूपांतरित कर दिया।
इस क्षति को हम पर्यावरण संबंध या व्यापक राजनीतिक आर्थिक संबंध या व्यापक राजनीतिक आर्थिक संबंध में समझ सकते हैं। जंगल, झील, महासागर अब जीवित रहने का स्रोत नही बल्कि गिने-चुने लोगों को फायदा पहुंचाने का जरिया बन गए हैं। सार्वजनिक संपत्ति तेजी से निजी संपत्ति बनती जा रही है । अब बढ़ती जनसंख्या और विकास के चलते समाज में अतिक्रमण और उपयोगिता अब बढ़ी है।
वहीं दूसरा मत भी है जो कहता है अगर संसाधनों का सार्वजनिक रूप से इस्तेमाल किया जाए तो उसके जीवित रहने की संभावना राज्य और निजी स्वामित्व की तुलना में कहीं ज्यादा होगी। चूंकि समाज उस संसाधन पर निर्भर रहेगा इसलिए दुरूपयोग से उसे बचाने का प्रयास करेगा। देश आजाद होने तक तो जल निकाय स्थानीय समाज के संसाधन थे, वही उसका संरक्षण करते थे, लेकिन स्वतंत्रता के बाद राज्य और निजी स्वामित्व के आ जाने से ये समाज का हिस्सा नहीं रहे।
हैदराबाद मेें कई तालाब कुतुबशाही (1534-1724 ईसवी) और बाद में आसफ जाही (1724-1948) ने बनवाए थे। उस समय के कुछ बड़े तालाबों में हुसैनसागर, मीरआलम, अफजल सागर, जलपल्ली, मा-सेहाबा तालाब, तालाब तालाब, ओसमानसागर और हिमायतसागर इत्यादि शामिल हैं। बड़े तालाब पूर्व शासकों या मंत्रियों द्वारा बनवाए गए थे जबकि छोटे तालाब जमींदारों द्वारा बनवाए गए थे।
हैदराबाद के विकास और संस्कृति की सहयात्राी ‘‘हुसैन सागर’’ यहां की बढ़ती आबादी व आधुनिकीकरण का बोझ व दवाब नहीं सह पाई। इसका पानी जहरीला हो गया और सदियों की कोताही के चलते झील गाद से पट गई। सन् 1966 में इसकी गहराई 12.2 मीटर थी जो आज घट कर बमुश्किल पांच मीटर रह गई है। इस झील की तबाही का सिलसिला 70 के दशक में शुरू हुआ था। मीर आलम तालाब भी बेहद शानदार झील है। इसका दायरा लगभग 8 मील है। यह झील निजाम की सेवा में लगे फ्रांस के इंजीनियर ने बनावाई थी। 1806 में इसका निर्माण हो गया था।
इन तालाबों (हुसैनसागर और मीर आलम) से शहर और उपनगरों में जल आपूर्ति की जाती थी। ध्यान दें कि अब ये तालाब पीने के पानी के रूप में इस्तेमाल नहीं किए जाते। मा साहिबा नामक तालाब 1624 ईसवी में बनाया गया था। इसे बाद में मासब तालाब कहा जाने लगा था। मीर आलम तालाब के नजदीक एक जलाशय जिसका नाम मूसा बाम या हुसैनी नहर था, सन् 1770 ईसवी में तब बनाई गई थी जब शहर में स्वच्छ जल कम हो गया था। शहर के पूर्वी भाग में सन् 1645 में लगभग 5 वर्ग कि.मी. क्षेत्रफल में सुरूरनगर झील बनाई गई थी। पूर्वी क्षेत्र में यह जल निकाय का मुख्य जरिया था।
1980 में इसका जल विस्तार लगभग 35 हेक्टेयर था। शर्मीरपेट झील हैदराबाद से 24 कि.मी. की दूरी पर उत्तर में स्थित है जिसका क्षेत्रफल लगभग 97 हेक्टेयर था। दुर्गम चेरूवू गुप्त झील (क्योंकि ये तीन ओर पहाड़ी चट्टानों से घिरी है) के रूप में जानी जाती है। यह हैदराबाद से लगभग 16 किमी. की दूरी पर स्थित है।
यह 400 साल पुरानी झील है जिसका क्षेत्रफल लगभग 150 एकड़ है। इसके जीडीमेटला में करीबन 2 वर्ग किमी. क्षेत्रफल की फॉक्स सागर, ओल्ड बॉम्बे हाइवे पर मलखम चेरूवू, सिकंदराबाद के लालगुड़ा क्षेत्र में इरीकुंटा, बंजारा हिल में बंजारा झील और लगभग 41 हेक्टेयर की हसमथपट झील है। अन्य झीलों के नाम इस प्रकार हैं- युसुफगुडा चेरूबूू, येलारेड्डी चेरूबूू, फुटा चेरूबूू, नादमी चेरूबूू, रामकृष्ण चेयबू, हुरयालागुड, नचारम, कापरा, अलवल यमजल, तृरूमुल्घरी, नालकुंटा, पेडडा चेरूबूू, रामंथपुर, मोहिनी, उप्पल, कोकटपल्ली, शातम और अफजल सागर इत्यादि।
स्वतंत्रता से पूर्व हैदराबाद भारत का चौथा सबसे बड़ा शहर था सन् 1961 में हैदराबाद की जनसंख्या कोई सवा बारह लाख थी। 1990-01 के दौरान यहां की आबादी 43 लाख, 2001 में 57 लाख और आज लगभग 70 लाख पहुंच गई है। हैदराबाद महानगर में हैदराबाद नगर निगम, सिकंदराबाद छावनी, दस नगर कस्बों, ओसमानिया विश्वविद्यालय, कुछ नए उपनगर जुड़ गए हैं। शहर के बढ़ने को तो कोई अंत था नहीं, लेकिन जमीन तो सीमित ही थी।
इंसान की जमीन की बढ़ती मांग और लालच के चलते निशाना बनीं पारंपरिक जल निधियां विस्तार होने से भूमि पर घर बनाने और अन्य गतिविधियों के चलते खाली भूमि और जल निकायों पर अतिक्रमण बढ़ गया। ऐसे कई माध्यम जो बाढ़ का हैदराबाद और उसके आसपास 1973 में 932 तालाब अनुमानित थे जो 1996 से घटकर 834 हो गए। परिणामस्वरूप जल निकायों का क्षेत्रफल 118 से घटकर 110 वर्ग किमी. हो गया।
हैदराबाद शहरी विकास प्राधिकरण क्षेत्र में 10 हेक्टेयर आकार के 18 जल निकाय और 10 हेक्टेयर से कम के 80 तालाब नष्ट हो चुके हैं । एक अन्य अध्ययन के अनुसार हैदराबाद और उसके आसपास के झीलों का क्षेत्रफल 1964 में 2.51 प्रतिशत, 1974 में 2.40 प्रतिशत और 1990 में 1.57 प्रतिशत घट गया। 1974-90 में सबसे ज्यादा कमी आई, क्योंकि इस समय शहर का विस्तार तेजी से हो रहा था।
सरकार व समाज दोनो ही आने वाले संकट से बेखबर थे कि झील पर खड़े किए जा रहे कंक्रीट के जंगल और उड़ेले जा रहे गंदगी के परनाले पूरे शहर को किस संकट की ओर ले जा रहे हैं। सौंदर्यीकरण व पर्यटन के नाम पर हुसैन सागर झील के किनारे चौड़ी सड़कें ,फ्लाई ओवर, बगीचे बनाने का काम शुरू हुआ और पता ही नहीं चला कि कब इसका नैसर्गिक स्वरूप छिन्न-भिन्न हो गया। हालात इतने बिगड़ गऐ कि झील के दूर-दूर तक बदबू फैल गई। इसके इर्द-गिर्द आठ किलोमीटर तक का भूजल दूषित हो गया।
अनुमान है कि आज इसमें कोई साठ लाख क्यूबिक कीचड़-गाद है जिसे निकालना लगभग असंभव बनता जा रहा है । तालाबों पर अतिक्रमण का दुष्परिणाम पहली बार अगस्त 2000 में सामने आया जब 24 घंटे में 24 सेमी. वर्षा हुई और पूरा शहर जल-मग्न हो गया। हुसैनसागर के निचले इलाकों में भयंकर बाढ़ आ गई। इंदिरा पार्क के नीचे के क्षेत्र (जैसे अशोक नगर, गांधीनगर और हिमायत नगर) और शकरमुट्ट-नाल्लाकुंटा के नजदीक बाढ़ के पानी में नाव का इस्तेमाल किया गया। कुछ अपार्टमेंट्स में पानी पहली मंजिल तक पहुंच गया था। इसके बाद तो अब थोड़ी-सी बारिश में ही शहर ठहर जाता है, लोग नए नाले-सीवर की बात करते हैं जबकि जरूरत पारंपरिक तालाबों तक पानी आने के रास्तों को निरापद बनाने की है।
शहरी कचरे, औद्योगिक जहर ने झीलों के शहर को बदबू का दरिया बना दिया है। जो झीलें पहले जीवनदायी जल देती थीं, अब बीमारियों की सौगात बांट रही हैं। हालांकि हैदराबाद में पहले ही छः पुराने औद्योगिक क्षेत्र (आजमाबाद, मुशीराबाद, सनथनगर, कबदीगुडा, न्यूभोईगुडा और लालागुडा) थे, लेकिन उसके बाद भी ग्यारह नए औद्योगिक क्षेत्र स्थापित कर दिए गए। तभी कभी पीने लायक पानी देने वाली 38 झीलों में से महज 6 झीलें ही पेयजल के लिए उपयुक्त हैं। अन्य सभी झीलों की जांच नकारात्मक आई।
गंदे औद्योगिक रसायनों के लगातार बहाव के कारण जल निकाय ‘जहरीले तलाबों’ में बदल गए हैं। भ्रष्टाचार-उद्योगपति-राजनीतिज्ञ, नौकरशाह की चौकड़ी ने जल निकायों केा चौपट किया है। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि पतनचेरू क्षेत्र में सबसे ज्यादा प्रदूषित उद्योगों पर पाबंदी लगाने का आदेश देने पर आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय के जज की तबादला किया गया था। केट्डन औद्योगिक क्षेत्र के कपड़ा मिल द्वारा चोरी से बिछाई गई पाइपलाइन की वहज से नूरमुहम्मद कुंटा का जल गंदे रसायनों के सीधे स्राव से लाल रंग का हो गया।
जीडिमेटला औद्योगिक क्षेत्र में रयाकुंटा चेरूबूू अतिक्रमण, रसायनों और अपशिष्ट के फेंके जाने से अदृश्य हो गई है। कुछ जल निकायों में दो-तीन फीट गहरा जहरीला कीचड़ एकत्र हो गया है। स्थानीय किसान इन तालाबों से ही बारिश का पानी लेते हैं जो आगे भूमि जल को प्रदूषित करता है। यही नहीं कई कारखाने वाले रात में चुपके से खतरनाक रसायनों को तालाब में फेंक देते हैं।
भले ही हैदराबाद किसी के भी हिस्से में जाए, यह बात तय है कि वहां की मरती झीलों को यदि नहीं सहेजा गया तो जिस तेजी से शहर के विकास की चर्चा हुई है, इसका पराभव भी पानी की कमी के कारण लोगों के पलायन से होगा।
वैसे तो हैदराबाद भारत के सबसे तेजी से उभरते शहर, चारमीनार, बिरयानी और हुसैन सागर के लिए बेहद मशहूर है, लेकिन असलियत में इसकी सांसों में भीतर-ही-भीतर ऐसा जहर घुल रहा है कि आने वाले दिनों में यहां के दमकते चेहरे की चमक बनाए रखना मुश्किल होगा। असल में पंद्रहवीं सदी में बसाया गया यह शहर उस समय वेनिस की तरह ढेर सारी झीलों और तालाबों के किनारे संवारा गया था। जुड़वां शहर - हैदराबाद और सिंकंदराबाद का विभाजन दुनिया की सबसे बड़ी मानव-निर्मित झील ‘‘हुसैन सागर’’ से हुआ।
जैसे-जैसे सूचना व जैव प्रौद्योगिकी में इस महानगर का रुतबा बढ़ा इसकी झीलें एक-एक कर गुम होती चली गईं जब ना तो भूगर्भ जल बचा और ना ही मूसी नदी में शहर की कोई अढ़सठ लाख आबादी का गला तर करने की ताकत; तब पारंपरिक जल स्रोत ‘‘झील-तालाबों’ की याद आई। जाहिर है बहुत देर हो चुकी है, लोगों को भ्रमित करने के लिए हुसैन सागर झील और उसे आसपास के इलाकों को चमकाया जाता है, हकीकत यह है कि यह सब भी वहां की बेशकीमती जमीन पर तिल-तिल व्यावसायिक गतिविधियों के लिए ही होता है।
हैदराबाद महानगर सीमा के भीतर 10 हेक्टेयर से अधिक क्षेत्रफल की 169 झीलों की सूची तो हम यहां प्रस्तुत करेंगे ही, इसके अलावा भी कई सौ तालाब यहां हुआ करते थे, जो देखते-ही-देखते कालोनी, सड़क, या बाजार के रूप में गुम हो गए। सनद रहे इन 169 झीलों का कुल क्षेत्रफल ही 90.56 वर्ग किलोमीटर होता है। जाहिर है कि यदि इनमें साफ पानी होता तो हैदराबाद का गला साल भर तर रह सकता है।
यह बात अब किसी से छिपी नहीं है कि लगभग 778 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में फैले हैदराबाद महानगर का अनियोजित विस्तार, पर्यावरणीय कानूनों की अनदेखी, और घरेलू व औद्योगिक कचरे की मूसी नदी व तालाबों में सतत गिरने से यहां भीषण जल-संकट खड़ा हो गया है और इसके निदान का कोई तात्कालिक उपाय सरकार व समाज के पास है नहीं।
हैदराबाद का महत्वपूर्ण हिस्सा वहां की झीलें हैं। बेतहाशा शहरीकरण के कारण यहां के पारंपरिक जल निकाय पूरी तरह नष्ट हो गए हैं। कुछ जल निकायों का आकार सिमट गया है तो कुछ औद्योगिक रसायनों और घरेलू कचरे से प्रदूषित हो गए हैं। झीलों और नहरों के उथला होने के चलते ही अगस्त 2000 में यहां बाढ़ आई थी। मुख्यधारा विकास के मॉडल पर पर्यावरण संबंधी संकट अब व्यापक स्तर पर वाद-विवाद को जन्म दे रहा है।
औद्योगिकरण, शहरी विस्तार, सिंचाई, बड़े बांध, हरित क्रांति आज विकास के क्षेत्र में बातचीत और आलोचना के विषय बन गए हैं। हैदराबाद दक्षिण पठार पर स्थित है। यहां की विशाल चट्टानें और जल निकाय इसके प्राकृतिक दृश्यों को दर्शाती है। ये कहना गलत न होगा कि हैदराबाद की प्राकृतिक विरासत का ध्वंस पिछले 50 वर्षों के विकास के कारण हुआ है। पिछले कुछ दशकों से सरकार और निजी संस्थाओं ने बड़े पैमाने पर अतिक्रमण कर झीलों को पक्के इलाकों में रूपांतरित कर दिया।
इस क्षति को हम पर्यावरण संबंध या व्यापक राजनीतिक आर्थिक संबंध या व्यापक राजनीतिक आर्थिक संबंध में समझ सकते हैं। जंगल, झील, महासागर अब जीवित रहने का स्रोत नही बल्कि गिने-चुने लोगों को फायदा पहुंचाने का जरिया बन गए हैं। सार्वजनिक संपत्ति तेजी से निजी संपत्ति बनती जा रही है । अब बढ़ती जनसंख्या और विकास के चलते समाज में अतिक्रमण और उपयोगिता अब बढ़ी है।
वहीं दूसरा मत भी है जो कहता है अगर संसाधनों का सार्वजनिक रूप से इस्तेमाल किया जाए तो उसके जीवित रहने की संभावना राज्य और निजी स्वामित्व की तुलना में कहीं ज्यादा होगी। चूंकि समाज उस संसाधन पर निर्भर रहेगा इसलिए दुरूपयोग से उसे बचाने का प्रयास करेगा। देश आजाद होने तक तो जल निकाय स्थानीय समाज के संसाधन थे, वही उसका संरक्षण करते थे, लेकिन स्वतंत्रता के बाद राज्य और निजी स्वामित्व के आ जाने से ये समाज का हिस्सा नहीं रहे।
हैदराबाद मेें कई तालाब कुतुबशाही (1534-1724 ईसवी) और बाद में आसफ जाही (1724-1948) ने बनवाए थे। उस समय के कुछ बड़े तालाबों में हुसैनसागर, मीरआलम, अफजल सागर, जलपल्ली, मा-सेहाबा तालाब, तालाब तालाब, ओसमानसागर और हिमायतसागर इत्यादि शामिल हैं। बड़े तालाब पूर्व शासकों या मंत्रियों द्वारा बनवाए गए थे जबकि छोटे तालाब जमींदारों द्वारा बनवाए गए थे।
शहरी कचरे, औद्योगिक जहर ने झीलों के शहर को बदबू का दरिया बना दिया है। जो झीलें पहले जीवनदायी जल देती थीं, अब बीमारियों की सौगात बांट रही हैं। हालांकि हैदराबाद में पहले ही छः पुराने औद्योगिक क्षेत्र थे, लेकिन उसके बाद भी ग्यारह नए औद्योगिक क्षेत्र स्थापित कर दिए गए। तभी कभी पीने लायक पानी देने वाली 38 झीलों में से महज 6 झीलें ही पेयजल के लिए उपयुक्त हैं। अन्य सभी झीलों की जांच नकारात्मक आई। गंदे औद्योगिक रसायनों के लगातार बहाव के कारण जल निकाय ‘जहरीले तलाबों’ में बदल गए हैं।
संयुक्त राष्ट्र विश्व पर्यटन संगठन(यूएनटीओ) ने इस दिल के आकार की झील को विश्व की सबसे बड़ी मानव निर्मित झील घोषित किया है। यह सिकंदराबाद को हैदराबाद से जोड़ती है। इसका निर्माण सन् 1559 से 1562 तक 3500 मजदूरों ने दिन रात काम कर किया था। सुल्तान इब्राहीम कुतुबशाह के दामाद व उस जमाने के इंजीनियर हुसैन शाह वली ने इसका डिजाईन तैयार किया था व उस समय इस पर दो लाख 54 हजार रुपए खर्च हुए थे। इसे मूसी नदी के तट पर बनाया गया था।हैदराबाद के विकास और संस्कृति की सहयात्राी ‘‘हुसैन सागर’’ यहां की बढ़ती आबादी व आधुनिकीकरण का बोझ व दवाब नहीं सह पाई। इसका पानी जहरीला हो गया और सदियों की कोताही के चलते झील गाद से पट गई। सन् 1966 में इसकी गहराई 12.2 मीटर थी जो आज घट कर बमुश्किल पांच मीटर रह गई है। इस झील की तबाही का सिलसिला 70 के दशक में शुरू हुआ था। मीर आलम तालाब भी बेहद शानदार झील है। इसका दायरा लगभग 8 मील है। यह झील निजाम की सेवा में लगे फ्रांस के इंजीनियर ने बनावाई थी। 1806 में इसका निर्माण हो गया था।
इन तालाबों (हुसैनसागर और मीर आलम) से शहर और उपनगरों में जल आपूर्ति की जाती थी। ध्यान दें कि अब ये तालाब पीने के पानी के रूप में इस्तेमाल नहीं किए जाते। मा साहिबा नामक तालाब 1624 ईसवी में बनाया गया था। इसे बाद में मासब तालाब कहा जाने लगा था। मीर आलम तालाब के नजदीक एक जलाशय जिसका नाम मूसा बाम या हुसैनी नहर था, सन् 1770 ईसवी में तब बनाई गई थी जब शहर में स्वच्छ जल कम हो गया था। शहर के पूर्वी भाग में सन् 1645 में लगभग 5 वर्ग कि.मी. क्षेत्रफल में सुरूरनगर झील बनाई गई थी। पूर्वी क्षेत्र में यह जल निकाय का मुख्य जरिया था।
1980 में इसका जल विस्तार लगभग 35 हेक्टेयर था। शर्मीरपेट झील हैदराबाद से 24 कि.मी. की दूरी पर उत्तर में स्थित है जिसका क्षेत्रफल लगभग 97 हेक्टेयर था। दुर्गम चेरूवू गुप्त झील (क्योंकि ये तीन ओर पहाड़ी चट्टानों से घिरी है) के रूप में जानी जाती है। यह हैदराबाद से लगभग 16 किमी. की दूरी पर स्थित है।
यह 400 साल पुरानी झील है जिसका क्षेत्रफल लगभग 150 एकड़ है। इसके जीडीमेटला में करीबन 2 वर्ग किमी. क्षेत्रफल की फॉक्स सागर, ओल्ड बॉम्बे हाइवे पर मलखम चेरूवू, सिकंदराबाद के लालगुड़ा क्षेत्र में इरीकुंटा, बंजारा हिल में बंजारा झील और लगभग 41 हेक्टेयर की हसमथपट झील है। अन्य झीलों के नाम इस प्रकार हैं- युसुफगुडा चेरूबूू, येलारेड्डी चेरूबूू, फुटा चेरूबूू, नादमी चेरूबूू, रामकृष्ण चेयबू, हुरयालागुड, नचारम, कापरा, अलवल यमजल, तृरूमुल्घरी, नालकुंटा, पेडडा चेरूबूू, रामंथपुर, मोहिनी, उप्पल, कोकटपल्ली, शातम और अफजल सागर इत्यादि।
स्वतंत्रता से पूर्व हैदराबाद भारत का चौथा सबसे बड़ा शहर था सन् 1961 में हैदराबाद की जनसंख्या कोई सवा बारह लाख थी। 1990-01 के दौरान यहां की आबादी 43 लाख, 2001 में 57 लाख और आज लगभग 70 लाख पहुंच गई है। हैदराबाद महानगर में हैदराबाद नगर निगम, सिकंदराबाद छावनी, दस नगर कस्बों, ओसमानिया विश्वविद्यालय, कुछ नए उपनगर जुड़ गए हैं। शहर के बढ़ने को तो कोई अंत था नहीं, लेकिन जमीन तो सीमित ही थी।
इंसान की जमीन की बढ़ती मांग और लालच के चलते निशाना बनीं पारंपरिक जल निधियां विस्तार होने से भूमि पर घर बनाने और अन्य गतिविधियों के चलते खाली भूमि और जल निकायों पर अतिक्रमण बढ़ गया। ऐसे कई माध्यम जो बाढ़ का हैदराबाद और उसके आसपास 1973 में 932 तालाब अनुमानित थे जो 1996 से घटकर 834 हो गए। परिणामस्वरूप जल निकायों का क्षेत्रफल 118 से घटकर 110 वर्ग किमी. हो गया।
हैदराबाद शहरी विकास प्राधिकरण क्षेत्र में 10 हेक्टेयर आकार के 18 जल निकाय और 10 हेक्टेयर से कम के 80 तालाब नष्ट हो चुके हैं । एक अन्य अध्ययन के अनुसार हैदराबाद और उसके आसपास के झीलों का क्षेत्रफल 1964 में 2.51 प्रतिशत, 1974 में 2.40 प्रतिशत और 1990 में 1.57 प्रतिशत घट गया। 1974-90 में सबसे ज्यादा कमी आई, क्योंकि इस समय शहर का विस्तार तेजी से हो रहा था।
सरकार व समाज दोनो ही आने वाले संकट से बेखबर थे कि झील पर खड़े किए जा रहे कंक्रीट के जंगल और उड़ेले जा रहे गंदगी के परनाले पूरे शहर को किस संकट की ओर ले जा रहे हैं। सौंदर्यीकरण व पर्यटन के नाम पर हुसैन सागर झील के किनारे चौड़ी सड़कें ,फ्लाई ओवर, बगीचे बनाने का काम शुरू हुआ और पता ही नहीं चला कि कब इसका नैसर्गिक स्वरूप छिन्न-भिन्न हो गया। हालात इतने बिगड़ गऐ कि झील के दूर-दूर तक बदबू फैल गई। इसके इर्द-गिर्द आठ किलोमीटर तक का भूजल दूषित हो गया।
अनुमान है कि आज इसमें कोई साठ लाख क्यूबिक कीचड़-गाद है जिसे निकालना लगभग असंभव बनता जा रहा है । तालाबों पर अतिक्रमण का दुष्परिणाम पहली बार अगस्त 2000 में सामने आया जब 24 घंटे में 24 सेमी. वर्षा हुई और पूरा शहर जल-मग्न हो गया। हुसैनसागर के निचले इलाकों में भयंकर बाढ़ आ गई। इंदिरा पार्क के नीचे के क्षेत्र (जैसे अशोक नगर, गांधीनगर और हिमायत नगर) और शकरमुट्ट-नाल्लाकुंटा के नजदीक बाढ़ के पानी में नाव का इस्तेमाल किया गया। कुछ अपार्टमेंट्स में पानी पहली मंजिल तक पहुंच गया था। इसके बाद तो अब थोड़ी-सी बारिश में ही शहर ठहर जाता है, लोग नए नाले-सीवर की बात करते हैं जबकि जरूरत पारंपरिक तालाबों तक पानी आने के रास्तों को निरापद बनाने की है।
शहरी कचरे, औद्योगिक जहर ने झीलों के शहर को बदबू का दरिया बना दिया है। जो झीलें पहले जीवनदायी जल देती थीं, अब बीमारियों की सौगात बांट रही हैं। हालांकि हैदराबाद में पहले ही छः पुराने औद्योगिक क्षेत्र (आजमाबाद, मुशीराबाद, सनथनगर, कबदीगुडा, न्यूभोईगुडा और लालागुडा) थे, लेकिन उसके बाद भी ग्यारह नए औद्योगिक क्षेत्र स्थापित कर दिए गए। तभी कभी पीने लायक पानी देने वाली 38 झीलों में से महज 6 झीलें ही पेयजल के लिए उपयुक्त हैं। अन्य सभी झीलों की जांच नकारात्मक आई।
गंदे औद्योगिक रसायनों के लगातार बहाव के कारण जल निकाय ‘जहरीले तलाबों’ में बदल गए हैं। भ्रष्टाचार-उद्योगपति-राजनीतिज्ञ, नौकरशाह की चौकड़ी ने जल निकायों केा चौपट किया है। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि पतनचेरू क्षेत्र में सबसे ज्यादा प्रदूषित उद्योगों पर पाबंदी लगाने का आदेश देने पर आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय के जज की तबादला किया गया था। केट्डन औद्योगिक क्षेत्र के कपड़ा मिल द्वारा चोरी से बिछाई गई पाइपलाइन की वहज से नूरमुहम्मद कुंटा का जल गंदे रसायनों के सीधे स्राव से लाल रंग का हो गया।
जीडिमेटला औद्योगिक क्षेत्र में रयाकुंटा चेरूबूू अतिक्रमण, रसायनों और अपशिष्ट के फेंके जाने से अदृश्य हो गई है। कुछ जल निकायों में दो-तीन फीट गहरा जहरीला कीचड़ एकत्र हो गया है। स्थानीय किसान इन तालाबों से ही बारिश का पानी लेते हैं जो आगे भूमि जल को प्रदूषित करता है। यही नहीं कई कारखाने वाले रात में चुपके से खतरनाक रसायनों को तालाब में फेंक देते हैं।
भले ही हैदराबाद किसी के भी हिस्से में जाए, यह बात तय है कि वहां की मरती झीलों को यदि नहीं सहेजा गया तो जिस तेजी से शहर के विकास की चर्चा हुई है, इसका पराभव भी पानी की कमी के कारण लोगों के पलायन से होगा।
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Post By: Shivendra