जब कई महीनों वर्षा नहीं होती, तालाब और छोटी नदियां सूख जाती हैं तब भी हमें कुओं से पानी मिलता रहता है।तब यह भी देखा होगा कि किसी साल बरसात कम हो तो बहुत से कुएं भी सूख जाते हैं। जब वर्षा होती है, तब कुएं में फिर से पानी आ जाता है। यही नहीं, कुओं को लेकर अलग-अलग जगहों के हालात भी अलग-अलग हैं। उदाहरण के लिए मालवा के पठार में एक गांव है, अरलावदा। पिछले कुछ सालों में यहां पानी की कमी बहुत गंभीर हो गई है। गांव का मुख्य कुआं गंगाजलिया भी 1993 की गर्मियों में सूख गया था। बाहर से टैंकर बुलवाकर गंगाजलिया में पानी डालना पड़ा था। इस वर्ष से पहले जब गर्मियों में अरलावदा के बहुत सारे कुएं सूख जाते थे तब भी गंगाजलिया में पानी रहता था। इसलिये लोग इस पर बहुत भरोसा करते थे। कुछ साल पहले गंगाजलिया से पास के एक शहर को भी पानी सप्लाई किया गया था। पर आज दूर खेतों के कुओं से अरलावदा के लोग पानी लेकर आते हैं। इस प्रकार का अनुभव यहां के कई गांवों के लिए आम बात बन चुकी है।
नर्मदा के मैदान में एक गांव है, कोटगांव। यहां पानी की कमी बिलकुल नहीं दिखाई देती। आमतौर पर 12-14 फुट की गहराई पर कुएं में पानी मिलता है।
- अरलावदा और कोटगांव के बीच इतना अंतर क्यों है?
- जब कुछ जगहों के कुओं में पानी की बहुतायत है तो दूसरी जगहों पर कुओं में पीने के लिए भी पानी क्यों नहीं मिल पाता?
- कुओं में पानी कहां से आता है?
- धरती के अंदर पानी कैसे पहुंचता है?
- हमें पानी बरसात से मिलता है पर यह बरसात का पानी कहां जाता है?
बरसात में ज़मीन से पानी को बहते हुए देखा होगा। यह बहता हुआ पानी नालों में जाता है और फिर ये नाले नदी में मिलते हैं। बरसात के पानी से तालाब और पोखर भी भर जाते हैं। पर यही नहीं, बरसात का पानी ज़मीन के अंदर भी रिस जाता है। मिट्टी के नीचे जो पत्थर, रेत, कंकड़ आदि हैं उनके बीच की जगह में, छेदों व दरारों में से रिसकर पानी नीचे जाता रहता है। रिस कर नीचे आया हुआ पानी ही भूजल है, यही पानी हमें कुओं में मिलता है।
धरती की सतह के नीचे की बनावट सब जगह एक समान नहीं है। इसका भूजल पर क्या प्रभाव पड़ता है, हम आगे पढ़ेंगे।
नर्मदा के मैदान में अधिक भूजल
कुछ साल पहले पहाड़ (पाहवाड़ी), पठार (बालमपुर), और मैदान (कोटगांव) के गांवों के बारे में पढ़ा गया था। इन गांवों में कुएं खोदने के बारे में भी बताया गया था कि पाहवाड़ी में ऊपरी मिट्टी बहुत हल्की है। जिसके नीचे पत्थर हैं। पत्थर को अगर हम तोड़ते हैं फिर भी पानी मिलना तय नहीं है। इसलिए पाहवाड़ी में कुआं खोदना आसान काम नहीं है।
बालमपुर गांव (पठार) में भी कुआं खोदने में कठिनाइयां हैं। मिट्टी के नीचे पत्थर हैं, जिनको बारुद से तोड़ना पड़ता है। फिर भी पानी मिल जाएगा इसका भरोसा नहीं है। यहां की चट्टानों में दरारें हैं, जिसमें पानी इकट्ठा होता है। सिर्फ दरारों में से कुएं में पानी मिल सकता है। कोटगांव में पाहवाड़ी और बालमपुर से बहुत अलग स्थिति है । कोटगांव नर्मदा के मैदान में है और वहां आसानी से कुआं खोदा जा सकता है। ऊपरी मिट्टी के नीचे बालू और कंकड़ मिलते हैं। कठोर चट्टान नहीं मिलती। बालू कंकड़ के बीच बहुत सारा पानी इकट्ठा रहता है।
कोटगांव में भूजल इतना अधिक कैसे मिलता है?
ऊपर दिए चित्र में हम देखते हैं कि पहाड़ और पठार से बहुत सारे नदी-नाले बहकर नीचे मैदान में पहुंचते हैं। ये सब नर्मदा नदी में मिलते हैं। बरसात के समय जब बहुत सारा पानी इकट्ठा होता है तब नर्मदा नदी में पानी बढ़ जाता है और नदी फैलकर खूब चौड़ी भी हो जाती है। नदी का यह पानी पश्चिम की ओर बहता हुआ आखिर में खंभात की खाड़ी में मिल जाता है। इस प्रकार बहुत पानी मैदानी इलाके में पहुंचता है। कुछ पानी नर्मदा में बहकर पश्चिम की ओर निकल जाता है, परन्तु इन नदी-नालों का कुछ पानी ज़मीन में रिसकर भी जाता है।चित्र-1 में हमने सतपुड़ा पर्वत, भोपाल के पठार और नर्मदा नदी के कुछ इलाके को देखा उसकी भीतरी बनावट समझने के लिए चित्र-2 देखिए।
चित्र-2 में नदी के मैदान में बालू, कंकड़ बहुत गहराई तक दिखते हैं। वहां चट्टान बहुत नीचे है। इस इलाके में बहुत गहरे नलकूप भी किसी चट्टान तक नहीं पहुंचते हैं (1000 फीट तक ऐसी स्थिति देखी गई है। बालू, कंकड़ बहुत गहराई तक हैं और इसी बालू, कंकड़ के बीच पानी को इकट्ठे होने की बहुत जगह है। जैसा की चित्र में देख सकते है कि बालू कंकड़ की गहरी परत पहाड़ और पठार के इलाकों में नहीं दिखती है। बल्कि वहां ऊपरी मिट्टी के नीचे चट्टान मिलती है।
कुछ चट्टानें ऐसी होती हैं जिनमें छेद व दरारें लगभग नहीं होतीं। इनमें पानी घुस नहीं पाता। कई चट्टानें ऐसी हैं जिनमें छेद हैं, इनमें से पानी रिस सकता है। लेकिन जो भी हो, जितनी आसानी से बालू व कंकड़ में से पानी रिसता है उतनी आसानी से तो पत्थरों से नहीं रिस पाता।
चित्र-2 में देख सकते है कि मैदान में चट्टान की परत बालू-कंकड़ की परत के नीचे है। यहां बिना छेद वाली चट्टानें एक बहुत ज़रूरी काम करती हैं। वे पानी को अपने अंदर आने नहीं देतीं। इसलिए पानी उनके ऊपर रुक जाता है और इकट्ठा होने लगता है।
पहाड़ और पठार की तुलना में मैदानों में ज़्यादा भू-जल क्यों मिलता है?
भूजल स्तर
अगर नर्मदा के मैदान के किसी स्थान पर कुआं खोदा जाए तो पहले मिट्टी और सूखी बालू ही मिलेगी और खोदने पर कंकड़ व बालू गीली मिलने लगेगी। फिर और खोदें तो थोड़ा-थोड़ा पानी रिस कर कुएं में आने लगता है। अभी भी कुछ ज़्यादा पानी नहीं मिला। थोड़ा और खोदने पर पानी तेजी से कुएं में भरने लगता है।
नीचे दिए गए चित्र में कुआं-1 को देखें। इसके आस-पास के कई और कुएं भी देखे जा सकते हैं। सभी कुओं में पानी जहां तक है वह दिखाया गया है। यह बारिश के बाद की स्थिति है। चित्र 3 में देख सकते है कि सभी कुओं में पानी लगभग 15 फीट की गहराई पर मिल जाता है। यानी इस इलाके में जहां भी कुआं खोदा जाये वहां लगभग 15 फीट की गहराई पर पानी मिलना चाहिए। यही पानी का स्तर या जलस्तर कहलाता है - ज़मीन की सतह से 15 फीट नीचे (चित्र देखो)।
गर्मियों के महीनों के आते-आते कुओं में पानी का स्तर नीचे पहुंच जाता है। जैसे कि चित्र में देख सकते है, गर्मियों में पानी का स्तर रेखा से बताया गया है।
चित्र 3 देखो। गर्मियों के महीनों में कौन-कौन से कुएं सूख जाएंगे और किन कुओं में पानी रहेगा? चर्चा करो।
यह एक इलाके के आसपास के कुओं के बारे में बताया गया है । ये सभी कुंए एक जैसी समतल जगह पर थे। अब हम एक दूसरी स्थिति के बारे में पढ़ेंगे। लक्ष्मी नर्मदा के पास रहती है। उसने अपने घर के पास एक कुआं बनाया है। उसे मिट्टी के नीचे बहुत गहराई तक खोदने की ज़रूरत नहीं थी। इसी नदी के पास श्यामू का घर भी है। वहां भी एक कुआं है। पर लक्ष्मी की तुलना में श्यामू को पानी तक पहुंचने के लिए कुआं और ज़्यादा गहरा खुदवाने की ज़रूरत पड़ी थी।चित्र 4 में दोनों कुएं दिखाए हैं। उसी इलाके की धरती के नीचे की बनावट चित्र 5 में दिखाई गई है। क्या यह बता सकते हो कि श्यामू का कुआं लक्ष्मी के कुएं से गहरा क्यों खोदा गया है?
पहले के उदाहरण में जलस्तर दिखाने के लिये हमने एक रेखा खींची थी। उसी प्रकार इस चित्र में भी जलस्तर दिखाया गया है। श्यामू के घर के आसपास ज़मीन की ऊपरी सतह भूजल स्तर बहुत ऊपर है। पर लक्ष्मी के घर के पास ज़मीन की सतह भूजल स्तर के करीब है। यदि श्यामू और लक्ष्मी के घर एक ही समतल जगह पर होते तो उन्हें बराबर गहराई तक खोदना पड़ता।
अब तक हमने मैदानी इलाके के भूजल के बारे में पढ़ा। पर पठारी इलाकों की स्थिति इनसे बहुत अलग है। अब हम ऐसे एक पठारी इलाके की स्थिति देखेंगे।
बालमपुर का भू-जल
बालमपुर जैसी पठारी जगहों में आमतौर पर पानी ढाल की तरफ नीचे मैदान की ओर बहता है। बालमपुर के लोग बरसात का पानी इकट्ठा करने के लिये बंधान खड़े करके तालाब बनाते हैं।
ऊपरी मिट्टी खोदने से यहां पत्थर मिलता है। यह बालू पत्थर है जो गुलाबी रंग का है। इसमें पानी की रिसन आसान नहीं है। किन्तु बालू पत्थर में दरारें होती हैं और ऊपरी मिट्टी से रिसकर पानी इन दरारों में भरता जाता है। जब कुआं खोदते हैं तो दरार तक पहुंचना ज़रूरी है। किसी दरार तक जब कुआं पहुंच जाता है तब उसमें पानी फूट पड़ता है। चित्र 6 में बालमपुर का एक कुआं-2 दिखाया है, जिसमें पानी है। इससे पहले वहां कुआं-1 खुदवाया गया था। बहुत गहराई तक खोदने से भी उसमें पानी नहीं मिला। कुआं-2 में पानी है पर कुआं- 1 सूखा है।
क्या सभी पठारों में भू-जल की स्थिति ऐसी ही होती है, जैसी बालमपुर में देखी है? क्या पठारों में हमेशा ऊपरी मिट्टी के नीचे बालू पत्थर मिलता है? चलो एक दूसरे पठार के इलाके, मालवा को देखें।
मालवा में कुंए
मालवा के किसी गांव में कुआँ खोदने से आमतौर पर ऊपरी मिट्टी के नीचे मुरम मिलती है। (चित्र-7 देखो) मुरम कहीं तो बहुत गहरी होती है और कहीं इसकी परत पतली होती है। मुरम के अंदर बहुत-सा पानी सोखा जा सकता है। इससे रिसकर पानी नीचे जाता है। मुरम की सतह से नीचे जाने पर हरे-से रंग के पत्थर की चट्टान मिलती है। यह चट्टान अलग-अलग नाम से जानी जाती है। कहीं उसको लोग मुलायम चट्टान कहते हैं और कहीं कड़क मुरम या कच्चा पत्थर। यह भी एक छेददार चट्टान है। इसके अंदर भी पानी सोखा जाता है। कहीं कहीं इसमें बहुत सारे गोल-गोल निशान दिखायी देते हैं। ये छेद हैं और ऊपर से रिसन का पानी इन्हीं में से होकर पत्थर के अन्दर आ जाता है। इस प्रकार मुलायम चट्टान के अंदर पानी इकट्ठा होता है।
मुलायम चट्टान के नीचे आमतौर पर कठोर काली चट्टान दिखती है। इसके ऊपरी भाग में कभी-कभी दरारें होती हैं, पर नीचे बिलकुल छेद नहीं होते हैं। इस चट्टान के अंदर पानी के घुसने की संभावना नहीं है। इसलिए इसके ऊपर पानी इकट्ठा होता रहता है। इस काली चट्टान तक कुआं खोदने की कोशिश होती है, ताकि कुएं में ज़्यादा से ज़्यादा पानी आ सके।
मालवा में अलग-अलग जगहों पर ज़मीन की भीतरी बनावट में अंतर पाया जाता है। कहीं मुलायम चट्टान की परत मोटी होगी तो कहीं पतली। जैसी बनावट इस चित्र-7 में देखी, वैसी सभी जगहों पर मिले, यह ज़रूरी नहीं है। मुरम और चट्टान की परतें सभी जगह इतनी ही गहराई पर मिलें यह भी ज़रूरी नहीं।
काली चट्टान के नीचे भी पानी
नलकूप मिट्टी के नीचे बहुत गहराई तक छेद करके बनाया जाता है। ड्रिल मशीन से यह काम किया जाता है। कुएं की तुलना में नलकूप बनाना बहुत महंगा होता है। हमने अभी तक साधारण कुएं खोदने की बात की थी। पर मालवा क्षेत्र में काली चट्टान के नीचे झांक कर नहीं देखा था। काली चट्टान बिना छेद वाले पत्थर से बनी है। काली चट्टान में पानी नहीं घुसता और रिसन भी नहीं होती।
नलकूप काली चट्टान के नीचे तक पहुंचता है। सोचो वहां पानी कैसे मिलता होगा? मिट्टी के नीचे अलग-अलग तरह के पत्थरों की तहें हैं। चित्र - 8 को देखो क्या सभी तहें एक-सी चौड़ाई की है?
"क" नलकूप मिट्टी व पत्थर की कई तहों को भेदता हुआ नीचे जाता है। ये तहें एक के ऊपर एक बिलकुल सीधे-सीधे नही फैलीं है। यह नलकूप काली चट्टान को भी छेद कर उसके नीचे की तह तक पहुंचा है। सबसे नीचे की इस तह पर उंगली फेरो और "ख" स्थान तक पहुंचो । देखो कैसे पत्थर की यह तह "ख" स्थान पर ऊपरी मिट्टी के पास मिलती है। यह तह छेदवाले पत्थरों की तह है। "ख" स्थान पर जब बारिश का पानी गिरता है तो इस तह में घुसकर नीचे बहता है और इस तरह "क" स्थान पर काली चट्टान के नीचे पहुंचता है। धरती की ऊपरी सतह से इतने नीचे पहुंचने में पानी को बहुत लम्बा समय लगता है और यह काम बहुत धीरे-धीरे होता है। पर अलग-अलग पत्थरों-चट्टानों की ऊबड़-खाबड़ तहों के बहुत नीचे पहुंचे हुए पानी को भी गहरे नलकूप बाहर खींच निकालते हैं।
भू-जल की मात्रा
साल में बारिश सिर्फ तीन या चार महीनों के लिए मिलती है। साल भर हम इसी पानी पर निर्भर हैं। चाहे वह पानी हम नदी से लें, तालाब से या कुएं से। धरती में बारिश के समय ज़्यादा पानी के रिसन के लिए हम क्या कर सकते हैं? क्या हम कोई ऐसी कोशिश कर सकते है कि एक बारिश से इकट्ठा हुआ पानी अगली बारिश तक हमारा साथ दे?
भूमि से बिना पेड़-पौधों या घास वाली जगहों से, बारिश का पानी तेज़ बहता है, क्योंकि उसको थामने के लिए कुछ है ही नहीं। पर जब पानी थम कर एक जगह कुछ समय तक रुका रहता है या धीरे बहता है, तब ऊपरी मिट्टी से उसके रिसने की संभावना बढ़ती है। अतः जहां पेड़-पौधे तालाब या बांध होते हैं वहां भू-जल बढ़ने की संभावना होती है।
एक जगह का भूजल धरती के अंदर बहता-बहता दूसरी जगहों तक जाता है। अगर एक जगह पर बहुत ज़्यादा मात्रा में पानी निकाला जाता है तो दूसरी जगहों के कुओं में पानी कम पहुंचेगा और वे सूखने लगेंगे। यानी ज़मीन के नीचे जो भूजल है, जिससे कुएं में पानी मिलता है, वह स्थिर नहीं है। ज़मीन के नीचे सैकड़ों मीलों दूर तक फैली हुई चट्टानों और पत्थरों की तहों में पानी रिसता है और बहता है। बहुत ज़्यादा मात्रा में भूजल के निकाले जाने के नतीजे अच्छे नहीं होते।
उदाहरण के लिए देवास शहर का अनुभव देखें। देवास की घरेलू ज़रूरतों के अलावा वहां के उद्योगों के लिए पानी की मांग बहुत होती है। देवास में भूजल के भारी मात्रा में निकाले जाने के कारण कुएं एवं नलकूप सूखने लगे हैं। पानी की बहुत कमी हो गयी है। देवास शहर में ही पीने के पानी की दिक्कत बहुत आम बात बन चुकी है।
अरलावदा में पानी की जो स्थिति है उसके बारे में हमने पाठ में देखा था। अरलावदा जैसे गांव की यह स्थिति एक अकेली बात नहीं है। हमारे देश में कई जगह ऐसी स्थिति देखने को मिलती है।
फिर हम उसी सवाल पर आ रहे हैं जो पहले भी एक बार किया था कि बारिश के पानी को ज़्यादा इकट्ठा करने के लिए हम क्या कर सकते हैं? पानी का इस्तेमाल कैसे कर सकते हैं, जिससे ऐसी स्थिति न बने जहां लोगों एवं मवेशियों को पीने का पानी भी नहीं मिलता है।
जहां पानी की कमी महसूस की जा रही है वहां भूजल को बढ़ाने के लिए क्या करना चाहिए? जितना भी पानी तुम चाहो उतना अपने कुएं या नलकूप से निकालना सही है क्या? ऐसा करने के क्या नतीजे होते है?
भूजल स्तर की अति
अभी तक हम पानी की कमी के बारे में पढ़ रहे थे। कुछ इलाकों में भूजल की मात्रा अधिक होने से भी समस्याएं पैदा हो जाती है। होशंगाबाद में जहां तवा नदी की बांई मुख्य नहर निकाली गई है, चारों ओर के खेतों में नहर का पानी रिसकर पहुंचता रहता है और इससे जल स्तर ऊपर उठ आता है। इससे मिट्टी में दलदल जैसा बन गया है और वहां खेती कठिन हो गई है। इस क्षेत्र में निमसाड़िया, रोहना, निटाया, ब्यावरा, आदि गांवों के किसान बताते हैं कि नहर की रिसन के कारण भू-जल स्तर ऊपर उठ आया है। इसलिए कुओं में पानी का स्तर भी ऊपर उठ आया है।
कुओं में जल स्तर बहुत बढ़ जाने का क्या असर पड़ता है ?
ऐसे कुओं में रिसन से पानी के साफ होने की भी प्रक्रिया नहीं हो पाती और पानी गंदा रहता है। इस तरह मिट्टी और कुएं में आवश्यकता से अधिक जल से लाभ नहीं होता, उससे तरह-तरह की समस्याएं खड़ी हो जाती हैं।
स्रोत :- भूजल भंडार
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