भारत विश्व में भूगर्भ जल दोहन करने वाले देशों में सबसे अग्रणी है। पृथ्वी के गर्भ से जल खींचने वाले विश्व के समस्त देशों में भारत प्रथम स्थान पर, दूसरे स्थान पर चीन तथा तीसरे स्थान पर अमेरिका है। आश्चर्य और कौतूहल का विषय है कि चीन और अमेरिका दोनों देशों को जितना भूगर्भ जल प्राप्त होता है, उससे भी ज्यादा अकेले भूगर्भ जल का दोहन भारत करता है। देश में भूगर्भ जल से ही स्वच्छ जल की पूर्ति होती है। यह भी कौतूहल का बिन्दु है कि भूगर्भ से निकाले जाने वाला कुल जल का 89 प्रतिशत जल सिंचाई के कार्यों में प्रयुक्त होता है। गृह कार्यों के उपयोग में भूगर्भ जल का 9 प्रतिशत तथा उद्योग-धंधों में मात्र 2 प्रतिशत ही प्रयोग होता है। यह आँकड़े भी चौकाने वाले हैं कि 50 प्रतिशत शहरी क्षेत्रों में और 85 प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्रों में भूगर्भ जल से जल की पूर्ति होती है। केन्द्रीय भूजल बोर्ड की रिपोर्ट से पता चला है कि 2007 से 2017 के बीच मात्र एक दशक में देश का भूगर्भजल स्तर 61 प्रतिशत गिरा है।
आई.आई.टी. खड़गपुर और कनाडा के अथाबास्का विश्वविद्यालय के संयुक्त अध्ययन के मुताबिक भारतीय हर साल 230 घन किमी भूजल का प्रयोग करते हैं जो विश्व में भूजल उपयोग का एक चौथाई-अर्थात 25 प्रतिशत है।केन्द्रीय जल आयोग के अनुसार देश की वार्षिक जल की आवश्यकता 3000 अरब घन मीटर है, जबकि देश में प्रतिवर्ष 4000 अरब घन मीटर वर्षा होती है। यह चिंता और चिंतन का विषय है कि वार्षिक वर्षा का मात्र 8 प्रतिशत जल ही भारत अपने प्रयोग में लाता है जो विश्व में सबसे कम है। यह प्रश्न भी गम्भीरता से विचारणीय है कि बढ़ती आबादी की आवश्यकताओं और उदार टाऊन प्लानिंग नियमों के कारण परम्परागत रूप से वर्षा जल ,संचयन जलस्रोत शनैः-शनैः खत्म होते जा रहे हैं। जल शोधन और रिसाइकिलिंग की स्थिति भारत में सोचनीय और दयनीय है। लगभग 80 प्रतिशत घरों में पहुँचने वाला जल भी प्रयोग के पश्चात यों ही सीवरों में बहा दिया जाता है, उसका प्रयोग अन्य किसी कार्य में नहीं लिया जाता है। यह प्रदूषित जल बहकर बड़े जलाशयों, नदियों आदि के जल को दूषित करता है। भारत को मरुभूमि में बसे इजरायल से शिक्षा लेनी चाहिए जो अपनी प्रत्येक जलबूँद को बेहतर तरीके से प्रयोग करता है। यह देश प्रयोग किए गए जल का शत-प्रतिशत शोधन करता है तथा 94 प्रतिशत को रिसाइकिलिंग द्वारा पुनः घरेलू कार्यों में प्रयोग करता है।
सम्प्रति देश के 81 प्रतिशत परिवारों को 40 लीटर जल प्रतिदिन प्राप्त होता है, जबकि ग्रामीण अंचलों में मात्र 18 से 20 प्रतिशत ही जल पाइप द्वारा घरों में पहुँचाया जाता है। अतएव जल उपलब्धता और आपूर्ति के बीच असंतुलन है, असमानता है। नीति आयोग के कम्पोजिटिव वाटर मैंनेजमेंट इंडेक्स के मुताबिक देश के करीब 75 प्रतिशत घरों में पेयजल उपलब्ध नहीं है। दिल्ली और मुम्बई जैसे महानगरों में प्रतिदिन प्रतिव्यक्ति 150 लीटर जलापूर्ति के नियम से कहीं ज्यादा जल की आपूर्ति की जाती है जबकि अधिकांश शहरों में यह 40 से 50 लीटर के बीच है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक प्रतिदिन प्रत्येक व्यक्ति को करीब 25 लीटर जल की आवश्यकता है। सन् 1882 ई. का ईजमेंट एक्ट सन् 2020 में भी लागू है- इसमें कोई परिवर्तन नहीं हुआ है जबकि सामाजिक राजनीतिक परिस्थितियां बहुत बदल चुकी हैं। भूगर्भजल का अतिदोहन निरंतर बढ़ रहा है। सन् 2011 में केन्द्र सरकार ने राज्य सरकारों के लिए भूजल प्रबंधन से सम्बद्ध एक मॉडल बिल तैयार किया था जो अभी तक राज्यों के द्वारा नहीं लागू किया जा सका है।
भारतीय वन्यजीव संस्थान के सर्वेक्षण से पता चला है कि गंगा के बाढ़ क्षेत्र में 70-80 प्रतिशत ताजे जल वाले दलदल और झीलें खत्म होने के कारण भूगर्भ जल संग्रह नहीं हो रहा है। सन् 2015 में जल संसाधन की स्थाई समिति ने दिसंबर में संसद को सूचित किया था कि 1955 में देश में 92 प्रतिशत जिलों का भूगर्भ जलस्तर बेहतर था, लेकिन 2011 में इन जिलों का प्रतिशत 71 हो गया। यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति अधिकारियों, कर्मचारियों एवं जनमानस की उदासीनता और उपेक्षापूर्ण व्यवहार के कारण उत्पन्न हो गई। सन् 1955 में देश के मात्र तीन जिलों में भूगर्भ जल का अतिदोहन हो रहा था जो बढ़कर 2011 में 15 हो गया और 2020 में करीब 42 जिलों में पहुँच गया है। सम्प्रति देश के एक चौथाई अर्थात् 25 प्रतिशत ब्लाक डार्कजोन में आ गए हैं। नासा के सेटेलाइट ग्रेवीटी रिकवरी एण्ड क्लाइमेट एक्सपेरीमेंट के मुताबिक पंजाब, हरियाणा, राजस्थान आदि में भूजल भंडार द्रुतगति से खाली हो रहे हैं। जलशक्ति मंत्रालय - भारत सरकार के नेशनल कमीशन फॉर इंटीग्रेटेड वॉटर रिसोर्सेज डेवलमेंट प्लान और सेंटर फॉर साइन्स एण्ड एन्वायर्नमैन्ट के सर्वेक्षण के अनुसार उद्योग और ऊर्जा के क्षेत्र में कुल भूजल की माँग सम्प्रति लगभग 7 प्रतिशत है जो सन् 2025 में अनुमानित 8.5 प्रतिशत हो जाएगी। यदि यही क्रम जारी रहा तो सन् 2050 में करीब 10.1 प्रतिशत हो जाएगी।
आज उद्योग धन्धे भी जल की समस्या से जूझ रहे हैं तथा फिक्की की रिपोर्ट भी चिंता बढ़ाने वाली ही है। कृषि क्षेत्रों में भी भूजल की माँग निरंतर हो रही है जो 2010 में 77.3 प्रतिशत थी, वह 2050 तक घटकर 70.9 प्रतिशत रह जाने की उम्मीद है। इस वर्ष दिल्ली-हरियाणा आदि में भूकंप के झटके कई बार आ चुके हैं जो भूजल दोहन के स्पष्ट संकेत हैं। सभी को इस ज्वलन्त समस्या के समाधान के लिए आवश्यक भूमिगत जल स्रोत को बढ़ाने के लिए 'जनजागरण जलसंचयन अभियान' चलाने की सम्प्रति नितान्त आवश्यकता है। इस अभियान में जन-जन अर्थात् आम जनता की सहभागिता आवश्यक है।
शहरी क्षेत्रों में मुहल्लों को जोड़कर 'जल संरक्षण' समिति बनाई जाए जिसके अध्यक्ष पदेन जिलाधिकारी को किया जाए। शहरी क्षेत्रों के सभी पोखरों, तालाबों एवं अन्य जलाशयों के जिलाधिकारी कार्यालय में निबंधन होना चाहिए तथा सभी शहरी नालियों का जल उन पोखरों में संग्रह किया जाये जिसकी देख-रेख उपजिलाधिकारी के साथ मुहल्लों के अन्य सामाजिक कार्यकर्त्ताओं को सौंपा जाए। वे ही लोग वर्षा जल का भी संग्रह पोखरों, जलाशयों के माध्यम से करेंगे। ग्रामीण क्षेत्रों में कुओं, नहरों, तालाबों, नलकूपों आदि के जलस्रोत भी दिन प्रतिदिन सूखते जा रहे हैं। वर्षा जल संग्रह करने पर जल कुछ मात्रा में धरती में पहुँचता रहेगा और प्रतिवर्ष यह चक्र चलता रहेगा जिससे कुओं, नलकूपों एवं अन्य जलाशयों के जलस्तर में जो गिरावट आ रही है वह रूक जाएगी तथा उद्योग धन्धों, कृषि कार्यों एवं पेयजल की समस्या का भी सहज ही समाधान हो सकता है। इसके लिए भी ब्लाक स्तर पर 'जल संचयन समिति' गठित कर पंच, सरपंच, सामाजिक कार्यकर्त्ता एवं स्थानीय विधायक आदि के द्वारा 'जल जन जागरण अभियान' चलाकर जल संचयन किया जा सकता है।
ग्रामीण पोखर आज भी अधिकांश संख्या में सक्रिय हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में जल के लिए कुओं, तालाबों, झीलों, झरनों, पोखरों, नलकूपों, सरकारी हैंड पम्पों आदि पर निर्भर रहना पड़ता है। यदि भूगर्भ जल - भूमिगत जल को संरक्षित किया जाए तो ये जल के स्रोत सदाबहार स्रोत बन जाएंगे और अनवरत रूप से जल का स्तर ऊँचा उठेगा और सभी लोग अपना जीवनयापन सुचारू रूप से करेंगे। खेतों में मेड़बंदी लगाकर भी वर्षा का जल संरक्षित किया जा सकता है। जल मानव जीवन के लिए ही नहीं बल्कि समस्त जीवधारियों नभचर, जलचर, थलचर एवं वनस्पतियां आदि के लिए भी परमावश्यक तत्व है। जल सृष्टि का आधारभूत तत्त्व है। जलाभाव के कारण सृष्टि चक्र रुक जायेगा, वनस्पतियां सूख जाएँगी तथा सभी जीवधारी असमय ही काल के गाल में चले जाएँगे। अतः जल जो जीवन है, को संरक्षित करना हर नागरिक का पुनीत कर्त्तव्य है।
वारि, नीर, अम्बु, वन, जीवन, तोय, जल, सलिल, उदक।
गर करें संचयन भूजल का, पशु, पक्षी -नर सभी फुदक।
कदम उठाने होंगे। अपना उत्तरदायित्व होगा। देशहित और राष्ट्रहित में चिंतन-मनन करने की आवश्यकता है। जनमत सर्वेक्षण के अनुसार 96 प्रतिशत लोगों ने वर्षा जल को संग्रह कर जल की उपलब्धता पर सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाया है। 91 प्रतिशत लोगों ने वर्षाजल को वर्ष भर की जल पूर्ति हेतु धरती के गर्भ में पहुँचाने पर सहमति व्यक्त की है। वर्षा जल संचयन जल आपूर्ति की सर्वाधिक सरल-सुगम विधि है तथा तालाब, पोखर, झील, जलाशय आदि में वर्षा जल संचयन का सम्पूर्ण विश्व का इतिहास रहा है, उसे लागू करने हेतु आज जनमानस की मानसिकता बनानी होगी।
भूमिगत जल के अत्यधिक दोहन से नदियाँ, तालाब आदि सूख गए। कुओं के जल का स्तर भी नीचे चला गया। भूगर्भ जल करीब 400 फीट से 1000 फीट तक नीचे चला गया है। अतएव वर्षा जल संग्रह हेतु मेड़बंदी करने के लिए प्रेरित और प्रोत्साहित करना होगा। किसानों के खेतों में मेड़बंदी कराकर भूजल स्तर को बढ़ाया जा सकता है जिससे खेती की पैदवार भी बढ़ेगी और दूसरे लोगों को रोजगार भी मिलेगा। बिहार, ओडिशा, बंगाल आदि राज्यों में भी जहां बाढ़ सदैव आती रहती है, वहाँ भी भूजल संकट उत्पन्न हो गया है। 37 वर्ष पूर्व अलवर जिले के गोपाल पुरा गाँव में जोहड़ बनाने का काम सीखकर एक किसान ने 3 वर्षों में गाँव को पानीदार गाँव बना दिया। राष्ट्र के प्रति समर्पण का भाव बोध प्रत्येक नागरिक में होना चाहिए। केन्द्रीय सरकार की प्राथमिकता भी भूजल संग्रह की है जिसे व्यावहारिक धरातल प्रदान करने की आवश्यकता है। भारत में औसतन करीब 1100 मिलीमीटर वर्षा वर्षभर में होती है।
वर्षा के मात्र चार महीनों में करीब 70 प्रतिशत वर्षा हो जाती है। यदि इस वर्षा जल को भूगर्भ तक पहुँचाने में हम सब अपने-अपने दायित्वों का निर्वहन करें तो वर्ष भर के लिए पेयजल, सिंचाई एवं उद्योग-धन्धों हेतु सुगमता से जल की उपलब्धता होगी। नीति आयोग की रिपोर्ट के अनुसार देश के 21 बड़े नगरों की समस्या विकराल हो गई है और वे जीरो ग्राउण्डवाटर स्तर को छूने जा रहे हैं। देश की करीब 12 प्रतिशत आबादी के लिए आज भी पानी नहीं है। 2030 में देश में जल की कमी और अधिक होने की आशा है तथा वर्तमान में उपलब्ध आपूर्ति की दोगुनी होने की भी उम्मीद है। आज वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम का प्रयोग करने की महती आवश्यकता है ताकि वर्षा जल संचयन के द्वारा खेतों, तालाबों, कुओं, नदियों एवं अन्य जलस्रोतों में जल संचय किया जा सके और भूगर्भ जल की समस्या से मुक्ति मिल सके।
भूजल का सतत दोहन रोकना जन-जीवन और वनस्पतियों के हित में परमावश्यक है। इसको व्यवस्थित तरीके से सदुपयोग में लाना प्रत्येक नागरिक का कर्त्तव्यकर्म, सामाजिक दायित्व एवं राष्ट्रीय नैतिक आचरण करना है। औद्योगिकरण, वन्य कटाव आदि के कारण पेड़-पौधे, पहाड़ों आदि के क्षरण के फलस्वरूप वर्षाजल का भी समुचित सदुपयोग नहीं हो पा रहा है। भूजल का अत्यधिक दोहन ही भूजल स्तर के गिरावट का प्रमुख कारण है। पूर्व में करीब चालीस मीटर पर पानी का स्रोत मिल जाता था, अब तो करीब 70 से 80 मीटर तक बोरिंग करनी पड़ती है। शहरी क्षेत्रों में भी हैंडपाइप और सबमरसिबल लगाने के लिए काफी गहरी बोरिंग करनी पड़ती है। जिसके मूल में भूगर्भ जल का स्तर नीचे जाना है। भारतीय केन्द्रीय जल आयोग के 2015-16 के तथ्य इसे प्रमाणित करते हैं कि भूगर्भ जल का स्तर क्रमशः नीचे जा रहा है। ग्रामीण क्षेत्रों में पातालतोड़ कुँए देखने को भी नहीं मिलते हैं। नलकूपों की भी दशा अत्यन्त दयनीय हैं। बहुत से नलकू सूख गए हैं जिससे खेती-बाड़ी भी प्रभावित हुई है। सरकारी और गैर सरकारी नलकूपों की भी हालत खराब ही है।
सर्वेक्षण के आधार पर 2015-16 के आँकड़े इस तथ्य का भी साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं कि देश के बारह राज्यों में भूगर्भ जल स्तर पूर्व की अपेक्षा और अधिक नीचे पाताल में चला गया है। इनमें उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक, महाराष्ट्र, गुजरात, त्रिपुरा, पश्चिमी बंगाल, उत्तराखण्ड एवं झारखण्ड हैं। मुम्बई में तो प्रतिवर्ष वर्षा के दिनों में भीषण बाढ़ की सी स्थिति बन जाती है तथा जन-जीवन बुरी तरह प्रभावित हो जाता है फिर भी केंद्रीय और राज्य सरकार भूगर्भ जल संचयन में सफल नहीं हो सकी हैं। इस जटिल समस्या का त्वरित समाधान जनहित, राज्यहित एवं राष्ट्रहित में परमावश्यक है। अन्य राज्यों को भी इसी प्रकार योजनाबद्ध तरीके से समाधान निकालने की आवश्यकता है।
केन्द्रीय जल आयोग ने योजनान्तर्गत देश के करीब 86 प्रमुख जलाशयों में वर्षा जल भण्डारण की जिम्मेवारी ली है तथा कार्यक्रम को गति भी मिली है लेकिन इसमें आंशिक सफलता ही मिली है क्योंकि पिछले दशक में रिकार्डतोड़ वर्षा जल में असमानता देखी गई है। कहीं-कहीं अतिवृष्टि हुई भी और अधिकांश प्रदेशों में अनावृष्टि, सूखा एवं औसत से कम वर्षाजल प्राप्त हुआ था, जिससे वर्षा जल भूजल संग्रह नहीं हो सका और जो कुछ थोड़ा संग्रह भी हुआ- तत्कालीन औद्योगिक और सिंचाई के लिए पर्याप्त नहीं था। स्मरण रहे कि कृषि में उत्पादन बढ़ाने हेतु तथा औद्योगिक प्रतिष्ठानों में उत्पादन बढ़ाने हेतु भूमिगत जल भण्डारण से ही जल की आपूर्ति की जाती है। जल की आमद वर्षा के रूप में कम मात्रा में हो रही है तथा खपत् ज्यादा हो रही है- इसलिए असंतुलन होना स्वाभाविक ही है। पर्यावरणीय संतुलन भी बिगड़ रहा है, जिसके कारण वर्षा भी अनियमित हो गई है तथा वर्षा का वितरण भी असमानता लिए हुए है। मानसूनी वर्षा जून से सितम्बर तक चार महीने में हो जाती है और भारी वर्षा तो शेष आठ महीनें में होती ही नहीं - इसलिए जो कुछ जलभण्डारण इन चार महीनें में हो जाता है- वही वर्ष भर उद्योग धन्धों, कृषि कार्यों एवं गृहकार्यों के काम आता है।
वर्षा जल का समुचित संचयन- संग्रहण एवं पर्याप्त संरक्षण ही जल आपूर्ति का समाधान है। पूरी संवेदना और सहिष्णुता के साथ अधिकारियों, कर्मचारियों एवं केन्द्रीय जल आयोग को तन्मयता और मनोयोग से इस समस्या के समाधान में सहयोग करने की सम्प्रति आवश्यकता है। जलवायु परिवर्तन के कारण वर्षा की तीव्रता और वितरण में व्यापक परिवर्तन देखा गया है जिसके निदान के लिए अधिकाधिक वृक्षारोपण अभियान को सफल बनाकर वर्षा कराई जा सकती हैं, क्योंकि पेड़-पौधें वर्षा के कारण और कारक होते हैं। धरती पर भूमिगत जल का अतिशय दोहन रोकना होगा तथा सिंचाई के लिए आवश्यकतानुसार सभी को समुचित लाभ पहुँचाने की दृष्टि से समान जल वितरण करना होगा। पारदर्शी नियम बनाकर उन्हें कठोरता से लागू करने की आवश्यकता है। जल प्रबंधन हेतु केन्द्रीय सरकार की नीतियों के अनुरूप राज्य सरकारों को उन नियमों और कानूनों का कड़ाई से पालन करना होगा तभी इस समस्या का समाधान संभव हो सकेगा।
राष्ट्रीय जल संसाधन परिषद का गठन 1 मार्च 1983 को जल की आपूर्ति, वितरण एवं संचयन हेतु हुआ था, जिसके अध्यक्ष स्वयं प्रधानमंत्री जी पदेन होते हैं। उपाध्यक्ष पद पर जल संसाधन मंत्री कार्य करते हैं। केन्द्रीय जल आयोग एवं केन्द्रीय भूजल बोर्ड दोनों प्रतिष्ठानों को एक साथ मिलाकर एक बड़े स्तर पर प्रतिष्ठान गठित करने की आवश्यकता है। इस संस्थान में राज्यों के उपमुख्यमंत्री या मुख्यमंत्री की पदेन सहभागिता सुनिश्चित की जानी चाहिए। साथ ही प्रादेशिक स्तर पर पर्यावरणविद, जल विशेषज्ञ एवं सचिव की नियुक्ति होनी चाहिए। आयोग और बोर्ड के सदस्यों का कार्यकाल पाँच वर्ष ही निर्धारित होना चाहिए तथा सभी सदस्यों से वर्तमान आय का शपथ लेकर नियुक्ति देनी होगी ताकि कुशल, दक्ष एवं विशेषज्ञ ही इसमें नियुक्ति पा सकें और कर्मठ व्यक्ति ही ईमानदारी से देशहित में सेवा कर सकें। अच्छे कार्य के लिए पुरस्कार, सम्मान होना चाहिए और निष्क्रियता, बेईमानी के लिए कठोर दण्ड विधान भी आवश्यक है, क्योंकि जल जीवन का पर्याय है। वारि, नीर, अम्बु, वन, जीवन, तोय, जल, सलिल, उदक, पानी आदि पर्यायवाची शब्द जल के लिए ही प्रयोग किए जाते हैं। गोस्वामी तुलसीदास ने ठीक ही कहा है, 'सुखी मीन जहाँ नीर अगाधा' अर्थात् अगाध जल होने पर जलाशय की मछली भी आनंदित हो उठती है, सुख की अनुभूति करती है तो संवेदनशील प्राणी मानव और वनस्पतियां क्यों नहीं आत्मविभोर हो उठेंगे। अतएव जल संरक्षण परमावश्यक है- वर्षा का जल भी भूजल, भूगर्भ जल के रूप में धरती के गर्भ में पहुंचना आवश्यक है ताकि जल का, भूगर्भजल का स्रोत अविरल गति से प्रवाहित होता रहे। यह चक्र सदैव चलता रहता है। वर्षा का जल सभी नदियों में, जलाशयों में इकट्ठा होता है तथा नदियाँ उदार होकर समुद्र को उस जल का दान कर देती हैं।
समुद्र में वही जल पहुँचकर वाष्पीकरण की प्रक्रिया के द्वारा आकाश में बादल को पहुँच जाता है। बादल भी जब अधिक मात्रा में उस जल को सम्भाल नहीं पाते तो उदार होकर पृथ्वी पर भारी वर्षा के रूप में वर्षा देते हैं। सभी प्राकृतिक तत्त्वों में नियंत्रण है, आत्म संयम है, उदारता की वृत्ति एवं सहिष्णुता की प्रवृत्ति है- जो उन्हें 'परोपकायसतां विभूतय' का संदेश और उपदेश देते हैं। भारतभूमि पुण्य भूमि है, धर्मभूमि है, भारतवासियों की कर्मस्थली और कर्मभूमि है। इसलिए हम सभी को अपना पुनीत कर्तव्य, कर्म, धर्म एवं दायित्वबोध समझना होगा तथा तदनुसार आचरण करना होगा कि जल जैसे मूल्यवान तत्त्व जो जीवन का वाचक है, अपर नाम है उसका दुरुपयोग रोकें तथा आवश्यकतानुसार ही प्रयोग करें और औरों को भी जल संचयन के लिए, वृक्षारोपण के लिए प्रेरित करें, प्रोत्साहित करें- यही लोक धर्म है, यही राजधर्म है और राष्ट्र धर्म भी। आइए हम सभी आज संकल्प लें कि राज्यहित और राष्ट्रहित में भूगर्भ जल - भूजल के दोहन से राष्ट्र को बचाने का मनसा, वाचा एवं कर्मणा से सार्थक प्रयत्न करेंगे।
संपर्क करें: डॉ० पशुपतिनाथ उपाध्याय
8/29 ए, शिवपुरी, अलीगढ़
202001, उ0प्र0
मो० 9897452431
स्रोत - जल चेतना 0 2जुलाई 2021
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