गोमती का परिचय
आदि गंगा गोमती, माँ गंगा से प्राचीन नहीं हैं। माँ गंगा को भगीरथ द्वारा पृथ्वी पर लाया गया था, जबकि भूगर्भ जल से पृथ्वी के उद्भव मालखण्ड से सतत सदानीरा पौराणिक नदी गोमती है। गोमती को आदि गंगा कहा गया है। गोमती के जल में तप की प्रकृति है। इसके तट पर आदिपुरुष मनु-सतरूपा ने तपस्या कर पुत्र रूप में भगवान श्रीराम का वरदान पाया और गोमती जल में स्नान करके भरत व भगवान राम द्वारा भातृ व राजधर्म का आदर्श स्थापित हुआ। देवराज इन्द्र ने श्रापमुक्ति हेतु गोमती तट पर एकोत्तर शिवलिंगों की रचना कर सम्पूर्ण गोमती तट पर शिव मन्दिरों की श्रृंखला को स्थापित किया। नैमिषारण्य में ही मनु-शतरूपा को तपस्या का वरदान, महर्षि दधीच द्वारा देवत्व की रक्षा हेतु अस्थिदान, चौरासी कोस परिक्रमा पथ पर सम्पूर्ण भारत के पावन तीर्थों की स्थापना तथा अट्ठासी हजार ऋषियों को सामाजिक, वैदिक सनातन तत्वबोध प्राप्त हुआ।
सामाजिक सहभागिता से लोकभारती एवं अन्य संगठनों के सहयोग से गोमती नदी को प्रदूषण मुक्त रखने हेतु शासन द्वारा कई करोड़ की धनराशि 365 एमएलडी का एसटीपी बनने, उसके माध्यम से 27 नालों को उसमें जोड़ने की सूचनाओं की सत्यता हेतु 18 जुलाई 2010 को सम्यक अध्ययन किया गया। गोमतीयात्रा का शुभारम्भ 27 मार्च 2011 को यात्रा दल ने लखनऊ के तत्कालीन महापौर डॉ0 दिनेश शर्मा की उपस्थिति में खाटूश्याम मन्दिर से माधौटाण्डा पीलीभीत के लिए प्रारंभ किया। गोमती संरक्षण में कार्य के लिए पांच हजार से अधिक गोमती मित्र बनाये गये। यात्रा पूर्ण होने के तत्काल बाद सिंचाई विभाग को नोडल एजेन्सी तथा उसके साथ जल निगम, वन, प्रदूषण नियत्रंण बोर्ड तथा जिलाधिकारियों को दायित्व दिया गया।
पीलीभीत में गोमती का उद्गम
पीलीभीत जिले में भू-अभिलेखों के आधार पर गोमती भूमि की नाप होकर चिन्हांकन, गोमती की खुदाई एवं शेष भूमि पर वृक्षारोपण इसके साथ सिल्ट निकालना गोमती की सहायक नदियों पर जल संरक्षण हेतु चैकडैम का निर्माण, उद्योगों द्वारा गोमती में हो रहे प्रदूषण पर पूर्ण रोक लगे। गोमती संरक्षण अभियान द्वारा घाटों व उसके तटों को स्वच्छता अभियान से निरन्तर जोड़ना होगा। नदियां हमारी प्राकृतिक धरोहर हैं। दुनिया की सभी सभ्यताओं का विकास नदियों के किनारे हुआ तथा नदियों के जल का प्रभाव नदियों के किनारे रह रहे जनजीवन पर अत्यधिक पड़ता है। गोमती का प्रभाव उत्तर प्रदेश के राज चिन्ह से भी प्रकट होता है।
गोमती मैया अब तक अपनी पूर्ण वत्सलता के साथ खेतों को पानी, धरती को हरियाली एवं समृद्धि देती हुई बहती रही है। परन्तु अब भूजल स्रोत सूख रहे हैं, जिससे जल प्रवाह निरंतर घट रहा है और बचा हुआ जल भी नगरीय गन्दे एवं मलयुक्त नालों, उद्योगों के कचरे एवं हानिकारक रसायनों से प्रदूषित हो रहा है। इसके अतिरिक्त इसके तटक्षेत्र में बढ़ती बस्तियाँ, अनियोजित विकास एवं अतिक्रमण के कारण जीव, जंगल समाप्त हो रहे थे, जिस पर नियंत्रण की प्रभावी कार्यवाही होने लगी है। गोमती के स्वभाव के अनुसार हम बिना किसी छेड़छाड़ के उसे सहेजते चले व उसकी सिकुड़ती सहायक नदियों के पुनरुद्धार के प्रयास में आदिगंगा अलख यात्रा-2015 का आयोजन हुआ था, जिसमें हमने संयोजक धार्मिक निर्माण किया था।
इसलिए गोमती अलख यात्रा के आँखों देखे यात्रा वृतान्त में गोमती की 22 सहायक नदियों की दशा और विकास की दिशा में पर्यावरण की चुनौतियां प्रासंगिक हैं। यह जनजागरण यात्रा का सकारात्मक परिणाम रहा कि गोमती के उद्गमस्थल माधौटांडा से पीलीभीत 47 किमी तक तथा शाहजहांपुर में 16 किमी गोमती की नाप व चिन्हांकन कर खुदाई कार्य किया गया, जिससे गोमती नदी की बाधित धारा पुनः चल पड़ी। उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा भी प्रयास शुरू किये गये। जल स्रोत संरक्षण कार्यशाला प्रारम्भ हो गयी। यात्रा में जनसमर्थन बहुत अधिक रहा। समाज द्वारा यात्रियों के आवास और योजन की व्यवस्था की गयी थी। यात्रा में मुख्य उद्देश्य रहे कि गोमती के किनारे अपने जलस्रोत स्वच्छ रखें।
तालाब, कुआँ, सुरक्षित करें व पवित्र गोमती तालाब बनायें। वर्षा जल संचयन और वृक्षारोपण को करायें। विसर्जन के लिए गोमती के निकट विसर्जन कुण्ड बनाये। शून्य लागत प्राकृतिक खेती को बढ़ावा दें। कम पानी की फसलें लिया जाय। घर का कूड़ा कचरा, प्लास्टिक न गलने वाली सामग्री व हानिकारक रसायन नाली में न बहायें। इनके निस्तारण की उचित व्यवस्था की जाए। कृष्ण अमावस्या, गंगा दशहरा, ज्येष्ठ मास एवं कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर घाटों की स्वच्छता में जनभागीदार के जागरूकता कार्यक्रम आयोजित होने लगे।
नैमिषारण्य महत्वपूर्ण पड़ाव
गोमती यात्रा नैमिषारण्य क्षेत्र के प्रमुख स्थल मिश्रिख में महर्षि दधीचि आश्रम पर पहुंची तो कार्यकर्ताओं के मन में एक विचार आया कि नैमिषारण्य में महत्वपूर्ण चक्रतीर्थ है। चौरासी कोसी परिक्रमा क्षेत्र है, जहाँ आज भी महर्षि दधीचि के अस्थिदान के समय सम्पूर्ण देश से आये हुए तीर्थ स्थापित हैं, जिनकी आज भी परिक्रमा की जाती है। हालांकि आज वहाँ केवल नैमिष बचा है और अरण्य (वन) समाप्त हो गये हैं और चक्रतीर्थ में चक्र तो है, लेकिन भूगर्भ जल स्तर नीचे गिरने के कारण उससे तीर्थ गायब हो रहा है। यात्रा में चल रही टीम ने विचार किया कि क्यों न प्रयास करके इस क्षेत्र के नैमिषारण्य शब्द को सार्थक किया जाए, जिसके प्रभाव से कालान्तर में चक्र का तीर्थ पुनः प्रवाहित हो उठेगा।
यात्रा के पड़ाव में महर्षि आमोदधौम्य का जनपद हरदोई जिले ग्राम धोनिया के पास धौम्य ऋषि का आश्रम है, यहाँ भूगर्भ जल आश्रम के पास निकल रहा है, जिसकी धारा गोमती में जाकर मिलती है। धौम्य के शिष्य उपमन्यु थे, जिनको भगवान शिव ने अपना तीसरे पुत्र का स्थान दिया था। केपिट धौम्य के कठिन परीक्षा में उत्तीर्ण होने के बाद धन्वतिरि के पुत्र अश्विनी कुमार की ऋग्वेद के मंत्रों से प्रार्थना करने पर प्रसन्न होकर बिना अध्ययन किये समस्त शास्त्रों के मर्मज्ञ होने का आशीर्वाद दिया।
मुगल शासकों और अंग्रेजों की नीतियों के कारण शाहजहाँपुर, लखनऊ में गोमती को गन्दा करने के विभिन्न तरीके अपनाये गये, लेकिन माँ गोमती से सनातन में आस्था रखने वालों की भावना और प्रबल होती चली गयी। हिन्दुओं के मन में माँ गंगा और उनकी बहनें सहायक नदियों के लिए परम्परागत आस्था बलवती होती गयी। लोक भारती कार्यकर्ताओं द्वारा भागीरची प्रयास से गोमती की सहायक नदी भैंसी और कठिना नदी में पर्याप्त जल संरक्षित हो गया है, जिसके कारण अन्य सहायक नदियों के लिए दृष्टान्त प्रेरणा का कार्य हुआ है।
इसी तरह सई की सहायक नदीं श्री रामरज (चमरौरा) नदी जनपद-प्रतापगढ़, उप्र में भरत जी ने श्रीराम जी से प्राप्त खड़ाऊं को धोया था। बहुत पौराणिक नहीं पर भागीरथ प्रयास से निर्मल किया गया। लोक भारती के स्थानीय कार्यकर्ताओं ने तन-मन-धन समर्पित किया। वहाँ पत्थर स्मारक और एक प्राचीन मन्दिर है, जिस पर दो चौपाई अंकित हैं "सई उतरि गोमती नहाए, उतरि खड़ाऊ सुरसरि धोये, राम राम कहि सिर धरि रोये। जे राम रज तट दर्शन करिहै, सो बुनि श्रम भव सागर तरिहैं।।" सुल्तानपुर जनपद में गोमती तट पर एक स्थान है, जहाँ भगवान श्रीराम गुरू वषिष्ठ की आज्ञानुसार रावण के वध के प्रायश्चित के लिए स्नान किया। तब से रामनवमी व गंगा दशहरा पर श्रद्धालु यहाँ स्नान करने आते हैं, यह स्थान सुल्तानपुर से दक्षिण-पूर्व 32 कि0मी0 पर गोमती तट पर स्थित है।
गोमती सम्पूर्णता
भागवत पुराण के अनुसार गोमती पाँच पवित्र नदियों में से एक है। मारकण्डेय महादेव मन्दिर वाराणसी-गाजीपुर राजमार्ग, वाराणसी से 30 किमी दूर गंगा-गोमती के संगम तट पर महाशिवरात्रि को बड़ा मेला लगता है। गोमती अपनी बड़ी बहन माँ गंगा में यहीं पर समाहित हो जाती है, कैथी घाट-संगम कहते हैं। गोमती की अलख यात्रा ने नये संरक्षण अभियान जो समाज को जल बचाने के लिए अलख जगाया। तालाब, कुएँ, झीलों का संरक्षण और वृक्षारोपण ही पर्यावरण संतुलन का उपाय है। विचार कीजिए कि इजराइल के पास न नदियाँ हैं, न मीठे जल स्रोत हैं, फिर भी उन्होंने सिंचाई तथा पीने के अन्य स्रोत व व्यवस्थाएं विकसित की हैं और कृषि क्षेत्र में कीर्तिमान स्थापित किया। बिजली के विभिन्न साधन खोजे गये। प्राकृतिक संसाधनों के अभाव में भी विकास की ऊँचाइयों को छुआ और आज विश्व के देशों में स्थान बनाने में समर्थ हुआ।
यह भी विचार कीजिए कि क्या विश्व में गंगा जल जैसा कोई जल स्रोत, कोई जल प्रवाह है, जिसमें गंगत्व जैसा अमृत्व हो, जो वहाँ के समाज को प्रतिक्षण स्पंदित करता हो? विश्व के किसी देश या समाज को यह सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ, जो भारत को सहज उपलब्ध है। हमने उस गंगत्व का मूल्य केवल पानी, नदी, बिजली या सिंचाई ही समझा और अपने इन दुष्कृत्यों के लिए सदैव विकास की दुहाई दी गयी। आज विज्ञान के युग में सम्भावनाओं का खुला आकाश है। गंगा का गंगत्व किसी प्रयोगशाला में तैयार किया हुआ कोई तत्व नहीं है, वह तो प्रकृति का वरदान है जो हमें, हमारे देशवासियों को मिला है।
हमारे समाज ने गंगा के इस गंगत्व को और भी अधिक समाजव्यापी बनाया है, जहाँ उसने हिमालय क्षेत्र की अनेक धाराओं को गंगा के रूप में देखा, वहीं उसने देश की सभी नदियों और पवित्र जल स्रोतों को गंगा की संज्ञा दी। भारत के मध्य बहने वाली नर्मदा और दक्षिण में बहने वाली कृष्णा, कावेरी को वहाँ गंगा के रूप में ही देखा जाता है। अभी पिछले दिनों महाराष्ट्र सांगली के कुछ लोग बता रहे थे कि हम सब अपने क्षेत्र में बहने वाली "तिल गंगा" के पुनर्जीवन के लिए कार्य कर रहे हैं।
भारत के हर व्यक्ति के मन में गंगा के वर्तमान स्वरूप के लिए पीड़ा है और वह उसके लिए अपने कर्तव्य का निर्वहन भी करना चाहता है। सामान्य व्यक्ति न तो हिमालय पर जाकर कार्य कर सकता है और न ही शासन-प्रशासन तक जाकर गुहार लगा सकता है। पर वह जहाँ पर भी है, जैसी भी स्थिति में है, वहाँ गंगा और गंगा की बहिनें जो सहायक नदियाँ हैं, उनके लिए अनेक कार्य कर सकता है, जिससे गंगा अविरल व निर्मल होकर निरन्तर बहती रहे।
भारत सरकार के उपक्रम 'नमामि गंगे' ने भी गंगा प्रवाह के जिलों को गंगा जिला व गंगा के निकटस्थ ग्रामों को केन्द्र बिन्दु बनाया गया और उन्हें 'गंगा ग्राम' नाम दिया गया। गौ आधारित प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने के लिए जनवरी 2020 से कार्य योजना प्रारम्भ कर दिया गया है। गौ-आधारित प्राकृतिक कृषि के लिए क्या भूमिका होगी? पानी की बचत होने से परिणामतः भूगर्भ से जल दोहन में भारी कमी आयेगी और भूगर्भ जल स्तर बढ़ेगा, जिससे बंद हो गये जल स्रोत पुनः प्रवाहमान होंगे। गंगा और गोमती की सूख चुकी सहायक नदियाँ पुनः प्रवाहमान होकर गंगा को जल देने में सहायक हो सकेंगी। गौ आधारित खेती से किसान का मित्र केंचुआ जो रासायनिक खादों और कीटनाशकों के प्रयोग के कारण नष्ट हो गया था, वह खेत में वापस आकर अपने नित्य कर्म से धरती में लाखों करोड़ों छेद करेगा, जिससे वर्षा जल स्वाभाविक गति से धरती की कोख में जाकर जल स्तर बढ़ाने में सहायक होगा। वर्षा जल का प्रदूषण रुकेगा। किसान का उत्पादन बढ़ेगा। प्रकृति ने भूमि की उर्वरता, किसान और गाय को अभिन्न बनायेगा।
प्रत्येक गांव में पहले देव वन (गंगा वन) की व्यवस्था थी जो हमारे स्वार्थ या लापरवाही के कारण नष्ट हुई है या सिमट गयी है, उसे पुनः जागृत करना होगा। प्रत्येक गांव का ऐसा संरक्षित जंगल होता है, जिसमें किसी प्रकार की कोई भी मानवीय छेड़छाड़ वर्जित थी, जिससे वन्य जीवों के लिए आवास, भोजन, सुरक्षा एवं प्रजनन सुविधा उपलब्ध रहती थी तथा उसके साथ ही उसमें वे पेड़ पौधे रहते थे, जो पर्यावरण तथा वर्षा जल संरक्षण के लिए सहायक होते हैं। पर्यावरण के अनुकूल वह पौधे जल संरक्षण, जैव विविधता एवं मानव के लिए हितकारी हो जैसे पंचपल्लव-पीपल, बरगद, बेलपत्र, आंवला और अशोक। औशधीय पौधे-जैसे नीम, जामुन, सहजन इन सभी को मंगल वाटिका के नाम से जाना जाता है। इन पौधों से जल संरक्षण नदियों को जल प्लावित करती है।
स्कन्द पुराण में वर्णित है कि त्रिभुजाकार की स्थित में पीपल, पाकड़, बरगद को एक थाले में एक मीटर के त्रिभुज दूरी पर एक साथ रोपड़ करने से तीन पुण्य एक साथ प्राप्त होते हैं पहला, जल कलश-वर्षा जलधारण, दूसरा धर्मशाला-वन्य जीव-जन्तुओं के लिए आवास और मानव जाति के लिए छायादार विश्राम स्थल एवं तीसरा भण्डरा वन्य जीवों के हर समय भोजन की उपलब्धता और पितरों का तर्पण का पुण्य लाभ प्राप्त होता है। गंगा-चुनरी-गंगा गोमती के किनारे खाली भूभाग पर वृक्षावली हरित पट्टी का विकास। गंगा वाटिका, गंगासरोवर- गंगा-गोमती के ग्रामों में वर्षा जल का संचयन तालाब, पोखरों में किया जा रहा है। सरोवर परिसर शौच आदि से पूर्णतः मुक्त होकर सुव्यवस्थित बने। इस हेतु कॉवड़ यात्रा द्वारा विधि विधान से गंगा में जल को लाकर उस तालाब में समर्पित करके उसे गंगा सरोवर घोषित करना। गंगा ग्राम के सभी कुओं, हैण्डपम्प, बावड़ी आदि को स्वच्छ करने का अभ्यास करना, जिससे सभी जल स्रोत स्वच्छ रहने पर तटीय नदियाँ स्वच्छ रहेंगी, जिससे गंगा भी प्रदूषित नहीं होगी।
गांव के देव स्थान की स्वच्छता हरितिमा और पवित्रता बनाये रखते हुए अमावास्या, पूर्णिमा या अन्य विशेष अवसर पर गांव समूहों द्वारा गंगा स्नान और वहाँ से गंगा जल लाकर देवस्थान में अर्पित करना, प्रत्येक घर में पहले भी पवित्र गंगाजली अवश्य रहती थी। परन्तु वर्तमान में उसका स्थान प्लास्टिक की केन या बोतल ने ले लिया है। उसके स्थान पर सुन्दर पवित्रता का भाव व्यक्त करने वाली गंगाजली प्रत्येक परिवार में पूजन द्वारा स्थापित की जाय, जिससे नई पीढ़ी भी गंगत्व में जुड़ सके। गाँव का श्मशान स्वच्छ, सुन्दर हरियाली से युक्त विकसित किया जाय, जिससे शवदाह के लिए गंगा तट पर न जाना पड़े। प्रत्येक परिवार के लिए यह न्यूनतम बातें उस गाँव में सुनिश्चित हों, जैसे-स्वच्छता, जल प्रबन्धन, गृह/रसोई वाटिका, गौ आधारित उत्पादों का उपयोग, परिवारभाव का वातावरण, संस्कार एवं गंगा सेवा भाव का परिवेश बन सके, जिनके व्यवहार से उस परिवार एवं गांव समाज व सम्पूर्ण परिवेश का मंगल हो। इस प्रकार हर गांव व गांव के हर व्यक्ति के संस्कार में गंगा ऐसी रच बस जाय कि वह भूलवश भी कोई ऐसा कार्य नहीं करें, जिससे गंगा या गंगा की सहायक नदियां प्रदूषित होती हों।
-लेखक कैप्टन सुभाष ओझा, लोकभारती के नदी संरक्षण अभियान के संयोजक हैं।
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