आर्थिक विकास एवं सकल घरेलु उत्पादन (जीडीपी) में वृद्धि प्राकृतिक संसाधनों पर भी आधारित है। आर्थिक मंदी से निजात तो सम्भव है परंतु प्राकृतिक संसाधनों की कमी या मंदी बहुत ही हानिकारक है। देश में प्राकृतिक संसाधनों की हो रही कमी पर न केवल गम्भीर विचार होना चाहिए अपितु वर्तमान में जो संसाधन है उन्हें संरक्षण प्रदान कर उन्हें बढ़ाने के भी प्रयास किये जाने चाहिए। प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण से ही हमारा भविष्य सुरक्षित है।
अमेरिका जैसे विकसित देश वर्तमान में आर्थिक मंदी के दौर से गुजर रहे हैं। हमारा देश भी आर्थिक मंदी से प्रभावित है परंतु यहां पर प्राकृतिक संसाधनों की मंदी या कमी जारी है। आर्थिक विकास सामान्यतः प्राकृतिक संसाधनों पर ही निर्भर रहता है अतः इनकी कमी आर्थिक विकास को प्रभावित कर सकती है। भूमि, जल, वन व वन्यजीव आदि प्रमुख प्राकृतिक संसाधन हैं। हमारा देश कृषि प्रधान है और कृषि में भूमि की अहम भूमिका होती है। वर्तमान में देश में भूमि की हालत खतरनाक है। पर्यावरण एवं वन मंत्रालय द्वारा जारी ‘स्टेट ऑफ एन्वायरमेंट’ रिपोर्ट के अनुसार 14.7 करोड़ हेक्टेयर यानि लगभग 45 प्रतिशत भूमि जलभराव, अम्लीयता व कटाव आदि कारणों से बेकार हो गई है। भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान द्वारा अपनी रिपोर्ट विजन - 2030 में दी गई जानकारी के अनुसार देश की कुल 15 करोड़ हेक्टेयर खेती योग्य भूमि से 12 करोड़ हेक्टेयर की उत्पादकता काफी घट गई है। 84 लाख हेक्टेयर भूमि जल भराव व खारेपन की समस्या से ग्रसित है। पिछले दो दशक में ही देश की कुल खेती योग्य भूमि में विभिन्न कारणों से 28 लाख हेक्टेयर की कमी आंकी गई है। खनन, उद्योग, ऊर्जा उत्पादन एवं शहरीकरण भी तेजी से भूमि लील रहे हैं।भूमि की समस्या द्विआयामी है। एक तो कृषि भूमि का क्षेत्र घटता जा रहा है एवं दूसरे उत्पादन में लगातार कमी होती जा रही है। अहमदाबाद के स्पेस एप्लीकेशन सेंटर के अध्ययन के अनुसार देश के कुल भौगोलिक भूभाग का लगभग चौथाई हिस्सा रेगिस्तान में बदल गया है। राजस्थान का 21.77 जम्मू कश्मीर का 12.78 एवं गुजरात का 12.72 फीसदी क्षेत्र रेगिस्तान में बदल गया है। राजस्थान का रेगिस्तान एक ओर दिल्ली तथा दूसरी ओर मध्यप्रदेश में मालवा की तरफ फैल रहा है। उपजाऊ भूमि किसी भी राष्ट्र की सबसे बड़ी धरोहर होती है, जिसके आधार पर बड़ी से बड़ी मंदी का भी सामना किया जा सकता है। कृषि हेतु पशुधन भी आवश्यक है परंतु देश में इस पर भी संकट है। देश के लगभग छः लाख गांवों में बीस करोड़ गाय बैल थे एवं आजादी के समय प्रति हजार की आबादी पर सात सौ गाय बैल थे। अब यह संख्या घटकर दो सौ की रह गई है। मांस निर्यात हेतु देश के कत्लखानों में 1300 लाख पशु एवं 3000 लाख पक्षी प्रतिवर्ष काटे जाते हैं। कृषि से जुड़े लोग पशुधन को खेती की रीढ़ बताते हैं, जो अब टूटती जा रही है।
कृषि हेतु जल भी आवश्यक है, परंतु वर्तमान में जल की उपलब्धता घटती जा रही है एवं वह प्रदूषित भी हो रहा है। सतही (नदी, तालाब, झील) एवं भूमिगत दोनों प्रकार के जल अच्छी स्थिति में नहीं हैं। वर्ष 1951 में देश में प्रति व्यक्ति 5236 घनमीटर पानी उपलब्ध था, जो 1991 में 2227 हो गया एवं 2013 तक 1555 घनमीटर ही रह जाएगा। केन्द्रीय जल संसाधन मंत्रालय के अनुसार देश की 20 में से 8 नदी घाटी क्षेत्रों में जल की कमी है। देश में लगभग डेढ़ सौ नदियां न केवल प्रदूषित हैं अपितु वे गंदे नालों में बदल गई हैं। शहरों का 70 प्रतिशत गंदा पानी नदियों में मिलाया जाता है। संयुक्त राष्ट्र द्वारा जारी विश्व जल विकास रिपोर्ट में देश को सबसे प्रदूषित पेयजल की आपूर्ति वाला देश बताया गया है। भूजल का उपयोग 115 गुना बढ़ा गया है एवं देश के 360 जिलों में भूजल स्तर में खतरनाक गिरावट आई है। लगभग आठ करोड़ ट्यूबवेल भूमिगत जल को उलीच कर खाली कर रहे हैं। भूजल में प्रदूषण भी बढ़ रहा है। नाईट्रेट, फ्लोराइड व आर्सेनिक की मात्रा बढ़ने से देश के 2.17 लाख गांवों में पेयजल जनित रोग फैल रहे हैं।
हिमालय से निकलने वाली नदियों को ग्लेशियर्स से जल प्राप्त होता है परंतु भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) द्वारा सेटेलाइट से किए गए अध्ययन अनुसार हिमालय के लगभग 75 फीसदी ग्लेशियर पिघल रहे हैं। 1985 से 2005 के मध्य ग्लेशियर औसतन 3.75 कि.मी. पीछे खिसक गए हैं। भूमि संरक्षण एवं जल उपलब्धता में वनों का अपना योगदान होता है परंतु वनों का क्षेत्र भी लगातार घटता जा रहा है। मैदानी भागों में 33 फीसदी भूभाग पर वन होना चाहिए परंतु हैं केवल 21 फीसदी पर ही। इसमें भी केवल 2 फीसदी सघन वन, 10 फीसदी मध्यम स्तर के एवं 9 फीसदी छितरे वन हैं।
मध्यप्रदेश में 20.7 प्रतिशत एवं सात उत्तरपूर्वी राज्यों में 25.7 प्रतिशत का वन विनाश आंकलन किया गया है। वर्ष 2003 से 2005 के मध्य एवं वर्ष 2009 एवं 2010 में क्रमश 1245 एवं 367 वर्ग किलोमीटर के जंगल समाप्त हुए। विश्व अनुपात प्रति व्यक्ति 0.80 हेक्टेयर वन क्षेत्र की तुलना में हमारे यहां केवल 0.11 का क्षेत्र ही है। भारत उन 12 देशों में से एक है जहां भरपूर जैव विविधता है परंतु वन विनाश से जैव विविधता पर भी संकट है। वनों में 80 प्रतिशत जैव विविधता पाई जाती है। 20 प्रतिशत से अधिक जंगली पादप व जीव विलुप्ति के कगार पर हैं। आर्थिक विकास एवं सकल घरेलु उत्पादन (जीडीपी) में वृद्धि प्राकृतिक संसाधनों पर भी आधारित है। आर्थिक मंदी से निजात तो सम्भव है परंतु प्राकृतिक संसाधनों की कमी या मंदी बहुत ही हानिकारक है। देश में प्राकृतिक संसाधनों की हो रही कमी पर न केवल गम्भीर विचार होना चाहिए अपितु वर्तमान में जो संसाधन है उन्हें संरक्षण प्रदान कर उन्हें बढ़ाने के भी प्रयास किये जाने चाहिए। प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण से ही हमारा भविष्य सुरक्षित है।
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