घटते जल संसाधनों में फसलोत्पादन में वृद्धि के लिए वाषोत्सर्जन आधारित जल प्रबंधन एक उचित प्रौद्योगिकी

घटते जल संसाधनों में फसलोत्पादन,PC-JAGARN
घटते जल संसाधनों में फसलोत्पादन,PC-JAGARN

पानी सबसे कीमती प्राकृतिक संसाधन है जो धीरे-धीरे दुनिया भर में सीमित संसाधन बनता जा रहा है। दुनिया की एक तिहाई से अधिक आबादी को वर्ष 2025 तक पूर्ण रूप से पानी की कमी का सामना करना पड़ेगा। दुनिया के वर्षावन क्षेत्र सबसे अधिक प्रभावित होते हैं जो पहले से ही जनसंख्या का भारी सकेंद्रण कर रहे हैं। भारत में भी स्थिति गंभीर है, जहां पानी की कमी पहले से ही अधिकांश आबादी को प्रभावित कर रही है। कृषि, भारत में पानी का सबसे बड़ा (81 प्रतिशत) उपभोक्ता है।

कृषि में पानी के कुशल और विवेकपूर्ण प्रबंधन के लिए सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए। कृषि को 2050 तक विश्व स्तर पर 60 प्रतिशत अधिक खाद्यान्न उत्पादन की आवश्यकता है और समान जल संसाधनों का उपयोग करके विकासशील देशों में 100 प्रतिशत अधिक उत्पादन करना है। एशिया में एक  अनुमान के अनुसार औद्योगिक जल उपयोग में 65 प्रतिशत वृद्धि घरेलू उपयोग में 30 प्रतिशत वृद्धि और 2030 तक कृषि उपयोग में पांच प्रतिशत वृद्धि की संभावना है।

सिंचाई सबसे अधिक पानी की खपत करने वाला क्षेत्र है जो कुल निकासी का 80 प्रतिशत से अधिक है। कृषि और अन्य क्षेत्रों में पानी की बढ़ती माँग और पिछले कुछ दशकों में इसकी घटती मात्रा के कारण इस सीमित संसाधन के उपयोग के प्रबंधन की आवश्यकता है। कुशल कृषि जल प्रबंधन के लिए फसल में पानी की आवश्यकता का विश्वसनीय आंकलन आवश्यक है। फसल प्रबंधन में वापीकरण- वाष्पोत्सर्जन को महत्वपूर्ण माना जाता है। यह फसल की कुल पानी की आवश्यकता को निर्धारित करता है। इसलिए वास्तविक समय मौसम टिप्पणियों का उपयोग करके वापीकरण वाष्पोत्सर्जन के आकलन के लिए कार्यप्रणाली को नियोजित करना,फसल के लिए पानी की आवश्यकता को मॉडलिंग करने की आवश्यकता है। वर्तमान में वास्तविक समय मौसम डेटाबेस की उपलब्धता बढ़ी है और यहां तक कि स्थानिक डेटा भी अंतिम उपयोगकर्ताओं के लिए सुलभ है। इसलिए, अध्ययन, मुख्य रूप से वास्तविक समय मौसम आंकड़ों के आधार पर फसल पानी की आवश्कता और सिंचाई शेड्यूलिंग से अधिक पानी की बचत की जा सकती है और यह आज के समय की मांग भी हैं।

फसल जल मांग

फसल जल मांग फसल की अवस्था,मौसम और मिट्टी प्रकार पर निर्भर करती है। फसल जल मांग प्रारंभिक फसल अवस्था में कम होती है और वृद्धि के साथ बढ़ती जाती है। वाष्पन वाष्पोत्सर्जन के आंकड़ों से और फसल सूचकांक से फसल वाष्पन - वाष्पोत्सर्जन को आसानी से ज्ञात किया जाता है और फसल वापन- वाष्पोत्सर्जन फसल की जलमांग का 99 प्रतिशत से ज्यादा होता है। पौधे में लगभग 1 प्रतिशत पानी ही कार्यकीय प्रक्रियाओं के लिए लगता है। इसलिए एक किलो गेहूं को पालमपुर क्षेत्र में पैदा करने के लिए वर्षा और सिंचाई को मिलाकर 1200-1500 लीटर पानी की आवश्यकता होती है। यह मांग तापमान वृद्धि से और बढ़ने की संभावना होती है। अधिकतर फसल जल मांग को पैन इवापोरेशन से तय किया जाता है। परन्तु फसल वाष्पन - वाष्पोत्सर्जन विधि से तय की गई फसल जल मांग कम होती है और इस विधि द्वारा फसल सिंचाई सारणी से फसल की पैदावार भी ज्यादा होती है। और पानी भी कम लगता है

गर्मियों में लगने वाली फसलों (खरीफ) की पानी की आवश्यकता ज्यादा होती है। यह भूमि से वाष्पन एवं पौधों से वाष्पोत्सर्जन के अधिक होने से होती है। वाष्पन मुख्यतः वायुमंडल के तापमान व हवाओं की स्थिति पर निर्भर करता है। भिन्न फसलों की जल आवश्यकता अलग-अलग होती है। यह जल मांग बीज से बीज तक की अवस्था के समय पर निर्भर करती है। शुरूआत में जल की कम आवश्यकता होती है जबकि फसल वृद्धिकाल में इस की आवश्यकता अधिक हो जाती है। यह आवश्यकता पैन वाष्पन का आंकलन कर किसी भी जगह के लिए और फसल के लिए निकाली जा सकती है।

विभिन्न प्रमुख फसलों की जल मांग

सिंचाई प्रणाली में बदलाव लाना एक महंगा कदम है क्योंकि इसके लिए अधिक संसाधनों की आवश्यकता होती है। उपयुक्त सिंचाई विधियों के अलावा हम मौसमीय अवयवों व अंतरिक्षीय उपग्रहों के आधार पर फसल की जल मांग को उस स्तर तक कम कर सकते है जहां तक उत्पाद की उत्पादकता में कमी न हो।

वाष्पन वाष्पोत्सर्जन विधि

इस विधि से हम फसल की उपयुक्त जल मांग व सिंचाई की समय सारणी का निर्धारण कर सकते हैं। इस विधि में प्रतिदिन फसल क्षेत्र के जल में कमी को पौध द्वारा तथा भूमि द्वारा अंकित कर लिया जाता है। जिसे मुख्यतः उस फसली क्षेत्र का वाष्पन वाष्पोत्सर्जन कहा जाता है। पालमपुर क्षेत्र में सर्दियों में वाष्पन - वाष्पोत्सर्जन की दर 1.5 से 3 मिली लीटर तथा गर्मियों में यह 8 से 10 मिलीलीटर के लगभग होती है। वाष्पन- वाष्पोत्सर्जन की दर हवा की गति, आर्द्रता, तापमान, वर्षा, पत्ती सूचकांक, फसल की अवस्था, मिट्टी के प्रकार व फसल के प्रकार आदि घटकों पर निर्भर करती है। इस विधि के उपयोग से सिंचाई के पानी के अपव्यय से बचा जा सकता है क्योंकि इस विधि में फसल की सिंचाई उस फसल क्षेत्र में उपलब्ध नमी के आधार पर दी जाती है।

वाष्पन वाष्पोत्सर्जन विधि

इस विधि से सिंचाई जल की मांग तथा सिंचाई की संख्या में कमी कर सकते हैं। एक शोध के दौरान पाया गया कि गेहूं की फसल से उच्चतम उत्पादन के लिए वाष्पन वाष्पोत्सर्जन विधि से 237 मिलीलीटर व 267 मिलीलीटर कुल जल की आवश्यकता हुई जो कि सामान्य दी हुई जल मांग (450-650 मिली लीटर) से बहुत कम है। सामान्य विधि की अपेक्षा इस विधि में 25 लाख लीटर से 65 लाख लीटर पानी की बचत की जा सकती है। इसी विषय के संदर्भ में एक अन्य शोध के दौरान पाया गया कि वाष्पन वाष्पोसर्जन विधि में ज्वार की जल मांग 187.5 मिलीलीटर ज्ञात हुई जबकि यह ज्वार की घोषित की हुई जल मांग से बहुत कम है।

इसमें एक से दो सिंचाई की कमी होती है तथा 25 लाख से 65 लाख लीटर पानी की बचत होती है। आलू की फसल के लिए अनुसंधान में पाया गया है कि फसल वाष्पन वाष्पोत्सर्जन अलग अलग विधियों द्वारा ज्ञात कर 60-120 मिलीलीटर पानी बचाया जा सकता है। सामान्य मौसम में और फसल की उत्पादकता पर भी कोई फर्क नहीं पड़ता। आजकल मौसम विज्ञान विभाग वाष्पन वाष्पोत्सर्जन आकड़ों को प्रतिदिन दिखाता है। उसको आधार मान कर फसलों में पानी की सलाह दी जा सकती है साथ में  भारतीय मौसम विभाग का पूर्वानुमान जो पांच दिन पहले आता है उसका भी आंकलन कर और वाष्पन वाष्पोत्सर्जन के आंकड़ों के संग्रहण से सही समय पर फसल सिंचाई से फसल सिंचाई उपयोगिता को बढ़ा सकते हैं। आजकल के बदलते मौसम के संदर्भ में जहाँ तापमान की वृद्धि दर्ज की जा रही है वहीं पानी का सही और कम प्रयोग करना एक उचित फसल प्रबंधन का मुख्य हिस्सा है

सुदूर संवेदन विधि से प्राप्त आंकड़ों द्वारा सिंचाई प्रबंधन -

जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में और वर्तमान परिस्थितियों में हिमाचल प्रदेश में पिछले दस सालों के मौसम आंकड़ों से रबी फसलों में अक्टूबर से जनवरी तक सूखे का सामना होता है। सिंचाई प्रबंधन के लिए व्यवस्थित आधार पर फसल जल आवश्यकता का अनुमान लगाने के लिए सूदूर संवेदन तकनीक के उपयोग से काफी सटीक परिणाम मिले हैं। सुदूर संवेदन तथा भौगौलिक सूचना तंत्र प्रणाली का उपयोग पिछले कुछ वर्षों में एक आधुनिक पद्धति के रूप में किया जा रहा है। सुदूर संवेदन प्रणाली द्वारा एक बड़े क्षेत्र के जलवायु संबंधी तथा भौगोलिक संबंधित आंकड़े बहुत कम समय में प्राप्त किये जाते हैं। इन जलवायुवीय व भौगौलिकीय आंकड़ों का सॉफ्टवेयर द्वारा विश्लेषण करके भूमि से संबंधित तथा जलवायु और मौसम से संबंधित अनेक मानचित्र बनाए जा सकते हैं। इस विधि में अंतरिक्ष में सैटेलाइट उपकरणों का उपयोग फसल क्षेत्र के मौसम संबंधी आंकड़ों को प्राप्त करने के लिए किया जाता है। इन आंकड़ों के विश्लेषण के आधार पर हम फसलों की सिंचाई की संख्या व फसल जल मांग का निर्धारण कर सकते हैं। कुछ वैज्ञानिकों ने शोध के दौरान पाया कि फसल जल मांग को हम अंतरिक्षीय उपकरणों द्वारा भी ज्ञात कर सकते हैं

सस्यन क्रियाओं व तकनीकों द्वारा मृदा नमी का संरक्षण

  1. खरपतवार नियंत्रण
  2. गहरी जुताई
  3. वाष्पीकरण को कम करने हेतु पलवार का प्रयोग
  4. संरक्षण जुताई
  5. फसल चक्र
  6.  हरी खाद डालना
  7. मिश्रित फसल और अंतरसस्यन
  8. वाष्पोत्सर्जनरोधी रसायनों जैसे की ओलिन 16 प्रतिशत व साइकोसेल (0.03 प्रतिशत फसल की उचित अवस्था में छिड़काव ।
  9.  धान में श्री विधि यह धान को उगाने की विधि है। इसमें हम धान की पौध का निश्चित दूरी पर तथा केवल एक ही पौधा लगाते हैं। एक साथ कई पौधे नहीं लगाए जाते हैं। यद्यपि धान अधिक  जल मांग वाली फसल है। लेकिन श्री विधि के द्वारा 15 से 20 प्रतिशत जल को बचा सकते हैं।
  10.  सूक्ष्म सिंचाई विधियों:
फव्वारा सिंचाई प्रणाली

फव्वारा सिंचाई विधि एक सूक्ष्म सिंचाई प्रणाली है जिसमें पानी की बचत की जा सकती है। यह विधि विभिन्न फसलों में अपनाई जा सकती है। इस विधि से गेहूं की फसल में सिंचाई करने पर 40 से 50 प्रतिशत पानी की बचत की जा सकती है। इस विधि से गेहूं में सिंचाई करने पर 25 से 30 लाख लीटर पानी कम लगता है। इसी
तरह जौ की फसल में इस विधि के उपयोग से 50 से 60 प्रतिशत तथा 35 से 40 लाख लीटर पानी की बचत की जा सकती है। कपास की फसल में इस विधि के उपयोग से 35 से 40 प्रतिशत पानी तथा 40 से 45 लाख लीटर पानी की बचत की जा सकती है। मुख्यतः  इस सिंचाई प्रणाली को अपनाने से फसलों में 55 से 65 प्रतिशत जल की मात्रा को बचाया जा सकता है।

टपक सिंचाई प्रणाली यह सिंचाई प्रणाली - यह सिंचाई  प्रणाली इजराइल द्वारा विकसित की गई है। इस सिंचाई प्रणाली में हम 70% से 85 प्रतिशत पानी की बचत कर सकते हैं। यह सिंचाई प्रणाली मुख्यतः सब्जी वर्गीय फसलों तथा फल वाली फसलों के लिए उपयुक्त है। इस विधि द्वारा गन्ना में सिंचाई करने पर 55 से 65 प्रतिशत तथा 75 लाख से 1 करोड पचास लाख लीटर पानी की बचत की जा सकती है। इसी प्रकार कपास में इस सिंचाई प्रणाली का उपयोग करने पर 55 प्रतिशत से 65 प्रतिशत तथा 65 लाख लीटर पानी की बचत की जा सकती है। इस विधि में हम सिंचाई जल के साथ उर्वरकों को भी दे सकते हैं। यह सिंचाई प्रणाली बागवानी क्षेत्र तथा सब्जी उत्पादन वाले क्षेत्रों में अधिक कारगर साबित हुई है।

 पाइप सिस्टम –

विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा पाइप सिस्टम पर किसानों को अनुदान स्वरूप सुविधाएं प्रदान कराई जाती हैं जिससे उंची-नीची भूमि पर भी आसानी से सिंचाई की जा सकती है। इस विधि से सिंचाई करने पर 10 से 15 प्रतिशत जल की बचत होती है ।

गेहूं में फर्ब विधि से सिंचाई

इस विधि से गेहूं में सिंचाई करने पर कम मात्रा में सिंचाई जल का नुकसान होता है। अर्थात् लगभग 30 से 40 प्रतिशत सिंचाई जल को इस विधि से बचा सकते हैं। इस विधि द्वारा कूडों में गेहूं की बुवाई करते हैं तथा उसी में ही सिंचाई जल का प्रवाह करते हैं जिससे अतिरिक्त जल बर्बाद होने से बच जाता है।लंबे समय तक सूखा, बढ़ती आबादी, शहरी मांग में वृद्धि और जलवायु प्रवृतियों में बदलाव के कारण दुनिया भर में पानी की कमी हो रही है। 2050 तक दुनिया की आबादी 10 बिलियन तक पहुंचने का अनुमान है और खाद्य, ईंधन और फाइबर की मांग के साथ-साथ पहले से ही दुर्लन ताजे पानी की मांग बढ़ जाएगी । इस समस्या से उबरने के लिए कम पानी के संसाधनों का उपयोग करते हुए कृषि उत्पादन को बढ़ाने की आवश्यकता है। अतः उल्लेख की हुई विधियां जैसे वाष्पन - वाष्पोत्सर्जन विधि, सूदूर संवेदन विधि द्वारा प्राप्त उस क्षेत्र के प्रतिदिन मौसमीय आंकडों द्वारा विभिन्न फसलों में पानी की बचत की जा सकती है।

विभिन्न प्रयोगों द्वारा ज्ञात हुआ है कि गेहूं में इन विधियों के प्रयोग से 25 से 30 प्रतिशत पानी की बचत की जा सकती है। इस प्रकार यह तकनीक वर्तमान स्थिति के लिए कारगर साबित हो सकती है। इसके अलावा विभिन्न प्रकार की सस्य तकनीकों को अपनाकर जैसे पलवार, गहरी जुताई, खरपतवार नियंत्रण, हरी खाद, संरक्षण जुताई, फसल चक्र, धान में श्री विधि का प्रयोग तथा सूक्ष्म सिंचाई की तकनीकों जैसे टपक विधि, फव्वारा विधि को अपनाकर भविष्य में बढ़ती हुई जनसंख्या की खाद्य मांग को पूरा किया जा सकता है तथा ताजे पानी की उपलब्धता को संरक्षित किया जा सकता है।

भीम पारीक, स्नातकोत्तर छात्र सस्य विज्ञान विभाग,रणवीर सिंह राणा भूगोलिक सूचना अनुसंधान एवं प्रशिक्षण केन्द्र, तनूजा राणा, मृदा विज्ञान विभाग और संजीव कुमार संदल, मृदा विज्ञान विभाग, हिमाचल प्रदेश, चौ० स० कु० हिमाचल प्रदेश कृषि विश्वविद्यालय, पालमपुर हिमाचल प्रदेश

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Post By: Shivendra
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