दरअसल, प्राकृतिक संसाधनों का व्यवसायीकरण रोकना, अंधाधुंध कारपोरेट मुनाफे पर लगाम लगाना है। अतः इसमें किसी पार्टी की रुचि नहीं। आम आदमी पार्टी ने व्यवसायिक उपयोग की स्थिति में मुनाफे में स्थानीय समुदाय के हिस्से की जो बात कही है, वह भी एक तरह से व्यावसायीकरण की गारंटी ही है। भाजपा ने तीन पी में लोगों को जोड़कर पीपुल-पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप का पासा फेंककर भी गारंटी यही दी है। एनसीपी पानी के निजीकरण को रोकने की बात करती है। सीपीएम भी निजीकरण के हक में नहीं। कहने को आप घोषणापत्र को आप एक ऐसी चूहेदानी कह सकते हैं जिसमें वोटरों को शिकंजे में लेने के लिए वायदों का ऐसा करारा पापड़ लगाया जाता है, जो चखने से पहले ही टूट जाता है और चूहेदानी से बाहर निकलने के रास्ते बंद हो जाते हैं। सच है कि आजकल पार्टियों के घोषणापत्र नेता नहीं, कुछ किराए के विशेषज्ञ बनाते हैं। वोटर तो दूर, स्वयं पार्टियों के उम्मीदवार भी इन्हें ठीक से नहीं पढ़ते। कई बार पार्टिंयों के दिग्गज नेताओं तक को घोषणापत्रों में शामिल वायदों और उनके प्रभावों को लेकर पूरी-पूरी जानकारी नहीं होती।
वे नहीं जानते कि किए गए वायदे कैसे पूरे होंगे? धन कहां से आएगा? व्यवस्था क्या बनेगी? इसीलिए ऐसा होता है कि सत्ता में आने पर दल घोषणापत्रों में शामिल कई वायदों से कन्नी काट जाते हैं और कई ऐसे बेहद महत्वपूर्ण निर्णय कर डालते हैं, जो घोषणापत्र में होते ही नहीं। घोषणापत्रों में किए वायदों की पूर्ति की बाध्यता की कोई कानूनी छड़ी अभी भी वोटर के हाथ नहीं हैं। किंतु इन बातों का मतलब यह कतई नहीं कि घोषणापत्र बेमतलब है।
घोषणापत्र अगली पांच साला कार्ययोजना का दस्तावेज हों, न हों; ये पार्टियों के दृष्टिपत्र तो हैं ही। इन्हें देखकर यह तो समझा ही जा सकता है कि पार्टियां सोचती क्या हैं। भाजपा का घोषणापत्र भी देर से सही, पर अब आ चुका था। इसकी देरी को लेकर जो वजहें बताई जा रही थीं, उनकी स्पष्टता भी हो चुकी है।
कहा जा रहा था कि संघ छोटी-छोटी पूंजी वाले कारोबार आधारित स्वदेशी और स्वावलंबी उस माॅडल को प्रश्रय देने के पक्ष में है, जिसकी हिमायत स्वयं महात्मा गांधी ने भी की थी। मोदी की मुश्किल यह है कि उनका गुजरात माॅडल बड़ी पूंजी झोंककर खुद कमाने और दूसरों की कमाई कराने का माॅडल है। यह संघ के स्वदेशी मिजाज को बढ़ावा नहीं देता। मोदी के पक्षधर बड़े कारपोरेट घरानों की रुचि भी गुजरात माॅडल में ही है।
मोदी इस रुचि से अलग कैसे जाएं? सिर्फ मल्टी ब्रांड फुटकर कारोबार को छोड़कर बाकी के लिए एफडीआई खुली रहेगी। मूल्यवान संसाधनों की ‘ई-नीलामी’ और ‘ग्लोबल मार्केट हब’ जैसे कई शब्द और औद्योगिक खंड में दर्ज कई बातें बताती हैं कि मेगा निवेश आधारित आर्थिकी की मोदी मंशा संघ पर भारी रही है। खाद्य प्रसंस्करण और ग्राम हाट जैसे पहले से चले आ रहे कुछ शब्दों को बनाए रखने का मतलब भारतीय की अर्थनीति को स्वदेशी और स्वावलंबी बनाना कतई नहीं कह सकते।
गौरतलब है कि स्वदेशी और स्वावलंबी माॅडल के पक्षधर मानते हैं कि बड़ी पूंजी निवेश के बूते आर्थिक इकाइयों तथा नीतियों का लाभ तत्काल दिखाई अवश्य देता है, किंतु इसके नतीजे बाद में व्यापक असमानता के रूप में सामने आते हैं। आर्थिक उदारवाद और वैश्विक आर्थिकी के नाम पर वर्ष 1991 में भारत में इसी की शुरुआत की गई थी। मात्र 20 साल बीतते-बीतते वर्ष 2010 से ही इसके दुष्प्रभाव दिखाई देने लगे थे।
भारत में आज एक ओर अरबपतियों की संख्या बढ़ी है तो दूसरी ओर बुनियादी जरूरतों की पूर्ति के लिए जूझती आबादी की भी। एक ओर रियल ईस्टेट और उद्योगपति नए जमींदार के रूप में उभरे हैं तो दूसरी ओर देश में लाखों की आबादी भूमिहीन के रूप अभी भी भूमिधर होने के लिए किसी कानून की बाट जोह रही है। एक ओर शुद्ध पानी की कमी से सूखते होठों की संख्या बढ़ रही है तो दूसरी ओर बोतलबंद पानी आज प्रतिवर्ष 100 फीसदी से भी तेजी से बढ़ता कारोबार है।
यह विभेद फुटकर कारोबार में उतरी कंपनियों तथा अस्तित्व के लिए जूझते छोटे कारोबारियों के बीच स्पष्ट दिखाई दे रहा है। घटिया, किंतु सस्ता होने के कारण चीनी उत्पादों ने भारत के स्थानीय कल-पुर्जा निर्माण इकाइयों को ताला लगाने को मजबूर कर दिया है। निंदनीय है कि इस तमाम असमानता व विभेद के बावजूद जल-जंगल-जमीन-जीवन के शोषण पर रोक लगाने की ललक इस बार भी पार्टियों के घोषणापत्रों में देखने को नहीं मिल रही है। ऐसा लगता है कि पार्टियों को भारत के प्राकृतिक संसाधनों की कतई परवाह नहीं हैं। वे सिर्फ और सिर्फ कुछ कारपोरेट एजेंडों को पूरा करने में जुटी हैं।
कांग्रेस का पूरा जोर कानूनी कवायद और संस्थागत ढांचे बढ़ाने पर है। वह पर्यावरणीय नुकसान से होने वाले आर्थिक-सामाजिक-सांस्कृतिक नुकसान के लिए ‘नेशनल एकाउंट’ की बात कर रही है, लेकिन विभिन्न परियोजनाओं के कारण हुए पर्यावरणीय नुकसान की भरपाई की उसने कितनी परवाह की है; इसे उत्तराखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, बुंदेलखंड, उड़ीसा व अन्य पश्चिमी घाटों में जाकर समझा जा सकता है।समयबद्ध पर्यावरणीय मंजूरी के लिए घोषणापत्र में प्रस्तावित राष्ट्रीय पर्यावरणीय मूल्याकंन तथा निगरानी प्राधिकरण का वायदा कितना पर्यावरण के हक में होगा और कितना कंपनी जगत के; इसे समझना हो तो प्रधानमंत्री जी द्वारा स्वयं बनाए राष्ट्रीय नदी गंगा बेसिन प्राधिकरण की अनदेखी से समझ लेना चाहिए।
कांग्रेस घोषणापत्र में पवन ऊर्जा के लिए एक मिशन की बात है, तो भाजपा में सौर ऊर्जा मिशन की। कांग्रेंस पंचायती राज मिशन की राज्य इकाइयों की बात है। एक अकुशल मजदूर से भी कम मानदेय पा रही आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं को लुभाने की कोशिश है। 125 आबादी तक के गांव को सड़क से जोड़ने का वादा है। गांवों को पेयजल और नदियों को साफ करने को कांग्रेस ने अपनी प्राथमिकता जरूर बताया है; किंतु नदियां गंदी ही न हों और ग्रामीणों को अपने पेयजल के लिए सरकारों की ओर ताकना ही न पड़े; हकीकत यह है कि यह अनुकूल विचार कभी किसी भी पार्टी या सरकार की प्राथमिकता बना ही नहीं। हर घर को पाइप के जरिए पानी की गारंटी के भाजपाई वायदे में यदि गांव भी शामिल है तो यह प्राथमिकता और भी बुरी होने जा रही है; क्योंकि गांवों को पाइप से नहीं, अपने कुएं-पोखर से पानी चाहिए।
दरअसल, प्राकृतिक संसाधनों का व्यवसायीकरण रोकना, अंधाधुंध कारपोरेट मुनाफे पर लगाम लगाना है। अतः इसमें किसी पार्टी की रुचि नहीं। आम आदमी पार्टी ने व्यवसायिक उपयोग की स्थिति में मुनाफे में स्थानीय समुदाय के हिस्से की जो बात कही है, वह भी एक तरह से व्यावसायीकरण की गारंटी ही है। भाजपा ने तीन पी में लोगों को जोड़कर पीपुल-पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप का पासा फेंककर भी गारंटी यही दी है। एनसीपी पानी के निजीकरण को रोकने की बात करती है। सीपीएम भी निजीकरण के हक में नहीं। ’आप’ ने प्राकृतिक संसाधनों को सूक्ष्म और वृहद में वर्गीकृत किया है। वह वर्षाजल, वनोपज तथा सामान्य खनिज जैसे सूक्ष्म संसाधनों का हक स्थानीय समुदाय को और वृहद का हक राज्य के अधीन रखे जाने की पक्षधर है। वह प्राकृतिक संसाधनों को बनाए रखते हुए आर्थिक विकास की बात भी करती है।
कृषि लागत का ड्योढ़ा बिक्री मूल्य दिलाने का वायदा कांग्रेस, भाजपा, सपा और आप तीनों का है। जी डी पी में कृषि क्षेत्र की हिस्सेदारी एक तिहाई तक पहुंचाने की बात ‘आप’ और मोदी..दोनों के मुंह से सुनाई दी है, पर इसका जिक्र भाजपा घोषणापत्र में नहीं है। हां, क्षेत्रीय कृषि चैनल,कृषि रेलमार्ग, कृषि में मनरेगा, इलाका आधारित भंडारण व्यवस्था, भारतीय खाद्य निगम में आमूल मूल सुधार, स्थानीय भोजन आदतों के मुताबिक खेती को बढ़ावा, हर खेत को पानी और जी एम फूड को वैज्ञानिक सत्यापन के बाद ही मंजूरी का वादा कर कृषि के मामले में भाजपा औरों से आगे अवश्य दिखाई देती है। भूमि अधिग्रहण का जिक्र सभी ने किया है। किंतु इस बाबत् किए दलीय वायदे भूमि बचाने नहीं, सिर्फ मुआवजा बढ़ाने के पक्षधर हैं। ऊसर सुधार कर उसे सुधारने वाले मजदूरों को सौंप देना अवश्य समाजवादी पार्टी का भिन्न एजेंडा है। भूमिहीनों को भूमि की बात सिर्फ बसपा सुप्रीमों ने ही कही।
भारत में 100 नए शहर, जुड़वा शहर और उपग्रह शहरों का सपना भी मोदी जी का ही बताया जा रहा है। यदि यह सपना सच है तो पक्का मानिए कि रियल ईस्टेट कंपनियों की पौ बारह होगी, लेकिन मोदी के सपनों का एक शहर कम से कम पांच सौ गांवों की जमीन व गंवईपन को लील जाएगा। संकटग्रस्त प्राकृतिक संसाधनों पर राष्ट्रीय नीति, छोटी जल परियोजना, कार्बन क्रेडिट व ग्रीन बिल्डिंग जैसे सजावटी शब्द जमीन पर किस रूप में उतरेंगे; इससे उनकी सकरात्मकता तय होगी।
गौरतलब है कि भाजपा घोषणापत्र जारी न होने के पीछे असहमति के जो अन्य बिंदु बताए गये थे, उनमें कारेपोरेट खेती, नदी जोड़, धारा 370, राममंदिर, समान नागरिक संहिता प्रमुख हैं। शुक्र है कि कारपोरेट खेती का लक्ष्य मोदी के जेहन में भले ही हो, फिलहाल घोषणापत्र में नहीं है। हां, हिमालय तकनीकी से संबद्ध केन्द्रीय विश्वविद्यालय, हिमालय पर राष्ट्रीय मिशन व कोष स्थापित करने के भाजपा वायदे से हिमवासी खुश हो सकते हैं।
निर्मल-अविरल गंगा के वादा खुश होने की बात है। गौरतलब है कि यह जानते हुए कि नदी जोड़ का सपना नदी ही नहीं, समाज और भूगोल को भी तोड़ने वाला साबित होगा; किसी का किसी दल ने इसकी चर्चा तक नहीं की। फिर भी मोदी इसे लागू करने पर अड़ गए हैं। क्यों? यह बात नाराज होने की है।
नाराज होने की बात यह भी है कि भ्रष्टाचार पर रोक का मुद्दा जनता की प्राथमिकता पर नंबर वन जरूर है, लेकिन लगता है कि पार्टियों की प्राथमिकता पायदान पर यह खिसककर नीचे आ गया है। धर्म व जातीय विभेद पैदा करने की कोशिश ने अपनी जगह ऊंची कर ली है। मुसलिमों को लुभाने की कोशिश सभी प्रमुख दलों ने की है।
मुझे यह पढ़कर ताज्जुब हुआ कि एक अखबार ने जनता की 12 प्राथमिकताओं में पानी और पर्यावरण जैसे बुनियादी संसाधनों की संरक्षा व समृद्धि जनता की प्राथमिकता दिखाया ही नहीं। किंतु कारपोरेट और राजनीतिक प्राथमिकता में पर्यावरण के प्रति संजीदगी की हकीकत यही है। अपनी प्राथमिकता तय करने का काम दूसरों के हाथ सौंपकर सोई जनता इस चुनाव में जागेगी या अगले पांच साल भी सोई ही रहेगी? इस प्रश्न के उत्तर का घोषणापत्र कब जारी होगा? यह घोषणा भी हम जनता को ही करनी है। आइये! करें।
वे नहीं जानते कि किए गए वायदे कैसे पूरे होंगे? धन कहां से आएगा? व्यवस्था क्या बनेगी? इसीलिए ऐसा होता है कि सत्ता में आने पर दल घोषणापत्रों में शामिल कई वायदों से कन्नी काट जाते हैं और कई ऐसे बेहद महत्वपूर्ण निर्णय कर डालते हैं, जो घोषणापत्र में होते ही नहीं। घोषणापत्रों में किए वायदों की पूर्ति की बाध्यता की कोई कानूनी छड़ी अभी भी वोटर के हाथ नहीं हैं। किंतु इन बातों का मतलब यह कतई नहीं कि घोषणापत्र बेमतलब है।
घोषणापत्र अगली पांच साला कार्ययोजना का दस्तावेज हों, न हों; ये पार्टियों के दृष्टिपत्र तो हैं ही। इन्हें देखकर यह तो समझा ही जा सकता है कि पार्टियां सोचती क्या हैं। भाजपा का घोषणापत्र भी देर से सही, पर अब आ चुका था। इसकी देरी को लेकर जो वजहें बताई जा रही थीं, उनकी स्पष्टता भी हो चुकी है।
कहा जा रहा था कि संघ छोटी-छोटी पूंजी वाले कारोबार आधारित स्वदेशी और स्वावलंबी उस माॅडल को प्रश्रय देने के पक्ष में है, जिसकी हिमायत स्वयं महात्मा गांधी ने भी की थी। मोदी की मुश्किल यह है कि उनका गुजरात माॅडल बड़ी पूंजी झोंककर खुद कमाने और दूसरों की कमाई कराने का माॅडल है। यह संघ के स्वदेशी मिजाज को बढ़ावा नहीं देता। मोदी के पक्षधर बड़े कारपोरेट घरानों की रुचि भी गुजरात माॅडल में ही है।
मोदी इस रुचि से अलग कैसे जाएं? सिर्फ मल्टी ब्रांड फुटकर कारोबार को छोड़कर बाकी के लिए एफडीआई खुली रहेगी। मूल्यवान संसाधनों की ‘ई-नीलामी’ और ‘ग्लोबल मार्केट हब’ जैसे कई शब्द और औद्योगिक खंड में दर्ज कई बातें बताती हैं कि मेगा निवेश आधारित आर्थिकी की मोदी मंशा संघ पर भारी रही है। खाद्य प्रसंस्करण और ग्राम हाट जैसे पहले से चले आ रहे कुछ शब्दों को बनाए रखने का मतलब भारतीय की अर्थनीति को स्वदेशी और स्वावलंबी बनाना कतई नहीं कह सकते।
गौरतलब है कि स्वदेशी और स्वावलंबी माॅडल के पक्षधर मानते हैं कि बड़ी पूंजी निवेश के बूते आर्थिक इकाइयों तथा नीतियों का लाभ तत्काल दिखाई अवश्य देता है, किंतु इसके नतीजे बाद में व्यापक असमानता के रूप में सामने आते हैं। आर्थिक उदारवाद और वैश्विक आर्थिकी के नाम पर वर्ष 1991 में भारत में इसी की शुरुआत की गई थी। मात्र 20 साल बीतते-बीतते वर्ष 2010 से ही इसके दुष्प्रभाव दिखाई देने लगे थे।
भारत में आज एक ओर अरबपतियों की संख्या बढ़ी है तो दूसरी ओर बुनियादी जरूरतों की पूर्ति के लिए जूझती आबादी की भी। एक ओर रियल ईस्टेट और उद्योगपति नए जमींदार के रूप में उभरे हैं तो दूसरी ओर देश में लाखों की आबादी भूमिहीन के रूप अभी भी भूमिधर होने के लिए किसी कानून की बाट जोह रही है। एक ओर शुद्ध पानी की कमी से सूखते होठों की संख्या बढ़ रही है तो दूसरी ओर बोतलबंद पानी आज प्रतिवर्ष 100 फीसदी से भी तेजी से बढ़ता कारोबार है।
यह विभेद फुटकर कारोबार में उतरी कंपनियों तथा अस्तित्व के लिए जूझते छोटे कारोबारियों के बीच स्पष्ट दिखाई दे रहा है। घटिया, किंतु सस्ता होने के कारण चीनी उत्पादों ने भारत के स्थानीय कल-पुर्जा निर्माण इकाइयों को ताला लगाने को मजबूर कर दिया है। निंदनीय है कि इस तमाम असमानता व विभेद के बावजूद जल-जंगल-जमीन-जीवन के शोषण पर रोक लगाने की ललक इस बार भी पार्टियों के घोषणापत्रों में देखने को नहीं मिल रही है। ऐसा लगता है कि पार्टियों को भारत के प्राकृतिक संसाधनों की कतई परवाह नहीं हैं। वे सिर्फ और सिर्फ कुछ कारपोरेट एजेंडों को पूरा करने में जुटी हैं।
कांग्रेस का पूरा जोर कानूनी कवायद और संस्थागत ढांचे बढ़ाने पर है। वह पर्यावरणीय नुकसान से होने वाले आर्थिक-सामाजिक-सांस्कृतिक नुकसान के लिए ‘नेशनल एकाउंट’ की बात कर रही है, लेकिन विभिन्न परियोजनाओं के कारण हुए पर्यावरणीय नुकसान की भरपाई की उसने कितनी परवाह की है; इसे उत्तराखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, बुंदेलखंड, उड़ीसा व अन्य पश्चिमी घाटों में जाकर समझा जा सकता है।समयबद्ध पर्यावरणीय मंजूरी के लिए घोषणापत्र में प्रस्तावित राष्ट्रीय पर्यावरणीय मूल्याकंन तथा निगरानी प्राधिकरण का वायदा कितना पर्यावरण के हक में होगा और कितना कंपनी जगत के; इसे समझना हो तो प्रधानमंत्री जी द्वारा स्वयं बनाए राष्ट्रीय नदी गंगा बेसिन प्राधिकरण की अनदेखी से समझ लेना चाहिए।
कांग्रेस घोषणापत्र में पवन ऊर्जा के लिए एक मिशन की बात है, तो भाजपा में सौर ऊर्जा मिशन की। कांग्रेंस पंचायती राज मिशन की राज्य इकाइयों की बात है। एक अकुशल मजदूर से भी कम मानदेय पा रही आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं को लुभाने की कोशिश है। 125 आबादी तक के गांव को सड़क से जोड़ने का वादा है। गांवों को पेयजल और नदियों को साफ करने को कांग्रेस ने अपनी प्राथमिकता जरूर बताया है; किंतु नदियां गंदी ही न हों और ग्रामीणों को अपने पेयजल के लिए सरकारों की ओर ताकना ही न पड़े; हकीकत यह है कि यह अनुकूल विचार कभी किसी भी पार्टी या सरकार की प्राथमिकता बना ही नहीं। हर घर को पाइप के जरिए पानी की गारंटी के भाजपाई वायदे में यदि गांव भी शामिल है तो यह प्राथमिकता और भी बुरी होने जा रही है; क्योंकि गांवों को पाइप से नहीं, अपने कुएं-पोखर से पानी चाहिए।
दरअसल, प्राकृतिक संसाधनों का व्यवसायीकरण रोकना, अंधाधुंध कारपोरेट मुनाफे पर लगाम लगाना है। अतः इसमें किसी पार्टी की रुचि नहीं। आम आदमी पार्टी ने व्यवसायिक उपयोग की स्थिति में मुनाफे में स्थानीय समुदाय के हिस्से की जो बात कही है, वह भी एक तरह से व्यावसायीकरण की गारंटी ही है। भाजपा ने तीन पी में लोगों को जोड़कर पीपुल-पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप का पासा फेंककर भी गारंटी यही दी है। एनसीपी पानी के निजीकरण को रोकने की बात करती है। सीपीएम भी निजीकरण के हक में नहीं। ’आप’ ने प्राकृतिक संसाधनों को सूक्ष्म और वृहद में वर्गीकृत किया है। वह वर्षाजल, वनोपज तथा सामान्य खनिज जैसे सूक्ष्म संसाधनों का हक स्थानीय समुदाय को और वृहद का हक राज्य के अधीन रखे जाने की पक्षधर है। वह प्राकृतिक संसाधनों को बनाए रखते हुए आर्थिक विकास की बात भी करती है।
कृषि लागत का ड्योढ़ा बिक्री मूल्य दिलाने का वायदा कांग्रेस, भाजपा, सपा और आप तीनों का है। जी डी पी में कृषि क्षेत्र की हिस्सेदारी एक तिहाई तक पहुंचाने की बात ‘आप’ और मोदी..दोनों के मुंह से सुनाई दी है, पर इसका जिक्र भाजपा घोषणापत्र में नहीं है। हां, क्षेत्रीय कृषि चैनल,कृषि रेलमार्ग, कृषि में मनरेगा, इलाका आधारित भंडारण व्यवस्था, भारतीय खाद्य निगम में आमूल मूल सुधार, स्थानीय भोजन आदतों के मुताबिक खेती को बढ़ावा, हर खेत को पानी और जी एम फूड को वैज्ञानिक सत्यापन के बाद ही मंजूरी का वादा कर कृषि के मामले में भाजपा औरों से आगे अवश्य दिखाई देती है। भूमि अधिग्रहण का जिक्र सभी ने किया है। किंतु इस बाबत् किए दलीय वायदे भूमि बचाने नहीं, सिर्फ मुआवजा बढ़ाने के पक्षधर हैं। ऊसर सुधार कर उसे सुधारने वाले मजदूरों को सौंप देना अवश्य समाजवादी पार्टी का भिन्न एजेंडा है। भूमिहीनों को भूमि की बात सिर्फ बसपा सुप्रीमों ने ही कही।
भारत में 100 नए शहर, जुड़वा शहर और उपग्रह शहरों का सपना भी मोदी जी का ही बताया जा रहा है। यदि यह सपना सच है तो पक्का मानिए कि रियल ईस्टेट कंपनियों की पौ बारह होगी, लेकिन मोदी के सपनों का एक शहर कम से कम पांच सौ गांवों की जमीन व गंवईपन को लील जाएगा। संकटग्रस्त प्राकृतिक संसाधनों पर राष्ट्रीय नीति, छोटी जल परियोजना, कार्बन क्रेडिट व ग्रीन बिल्डिंग जैसे सजावटी शब्द जमीन पर किस रूप में उतरेंगे; इससे उनकी सकरात्मकता तय होगी।
गौरतलब है कि भाजपा घोषणापत्र जारी न होने के पीछे असहमति के जो अन्य बिंदु बताए गये थे, उनमें कारेपोरेट खेती, नदी जोड़, धारा 370, राममंदिर, समान नागरिक संहिता प्रमुख हैं। शुक्र है कि कारपोरेट खेती का लक्ष्य मोदी के जेहन में भले ही हो, फिलहाल घोषणापत्र में नहीं है। हां, हिमालय तकनीकी से संबद्ध केन्द्रीय विश्वविद्यालय, हिमालय पर राष्ट्रीय मिशन व कोष स्थापित करने के भाजपा वायदे से हिमवासी खुश हो सकते हैं।
निर्मल-अविरल गंगा के वादा खुश होने की बात है। गौरतलब है कि यह जानते हुए कि नदी जोड़ का सपना नदी ही नहीं, समाज और भूगोल को भी तोड़ने वाला साबित होगा; किसी का किसी दल ने इसकी चर्चा तक नहीं की। फिर भी मोदी इसे लागू करने पर अड़ गए हैं। क्यों? यह बात नाराज होने की है।
नाराज होने की बात यह भी है कि भ्रष्टाचार पर रोक का मुद्दा जनता की प्राथमिकता पर नंबर वन जरूर है, लेकिन लगता है कि पार्टियों की प्राथमिकता पायदान पर यह खिसककर नीचे आ गया है। धर्म व जातीय विभेद पैदा करने की कोशिश ने अपनी जगह ऊंची कर ली है। मुसलिमों को लुभाने की कोशिश सभी प्रमुख दलों ने की है।
मुझे यह पढ़कर ताज्जुब हुआ कि एक अखबार ने जनता की 12 प्राथमिकताओं में पानी और पर्यावरण जैसे बुनियादी संसाधनों की संरक्षा व समृद्धि जनता की प्राथमिकता दिखाया ही नहीं। किंतु कारपोरेट और राजनीतिक प्राथमिकता में पर्यावरण के प्रति संजीदगी की हकीकत यही है। अपनी प्राथमिकता तय करने का काम दूसरों के हाथ सौंपकर सोई जनता इस चुनाव में जागेगी या अगले पांच साल भी सोई ही रहेगी? इस प्रश्न के उत्तर का घोषणापत्र कब जारी होगा? यह घोषणा भी हम जनता को ही करनी है। आइये! करें।
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