6,48,750 हेक्टेयर नोगो जोन वाले घने जंगल में से 71 प्रतिशत या 4,62,939 हेक्टेयर सघन वनक्षेत्र में खनन की मंजूरी
गौरतलब है कि भारत की वर्तमान बिजली उत्पादन क्षमता का करीब 54 फीसदी हिस्सा पत्थर कोयले पर निर्भर है। यह सेक्टर देश में कार्बन उत्सर्जन का सबसे बड़ा स्रोत भी बन गया है। यह भारत के कुल ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन का करीब 38 फीसदी हिस्सा (6480 लाख टन CO2 ) पैदा करता है। हाल ही में विकास व बिजली उत्पादन के नाम पर प्रधानमंत्री कार्यालय के दबाव के चलते वन सरंक्षण अधिनियम की अनदेखी करते हुए वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने 6,48,750 हेक्टेयर नोगो जोन वाले घने जंगल में से 71 प्रतिशत या 4,62,939 हेक्टेयर सघन वनक्षेत्र में खनन की मंजूरी दे दी है।
दरअसल सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) और औद्योगिक लाभ को अधिकतम बढाने के लालच में अब उन नियम-कानूनों को निशाना बनाया जा रहा है जो पर्यावरण और वन क्षेत्र को इस्तेमाल करने की अनुमति देने, भू-अधिग्रहण, राहत व पुनर्वास जैसे संवेदनशील विषयों से जुड़े हैं। ऐसी परिस्थितियों में पर्यावरणीय और सामाजिक मूल्यों को सुनिश्चित करने के लिए त्वरित गति से सुविधाएं मुहैया कराने, अनुमोदन संबंधी बाधाएं जल्दी हटाने, समग्र और दीर्घकालीन योजनाओं की जरूरत को किसी भी तरह से नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। महत्वपूर्ण निर्णय लेते वक्त अदूरदर्शी सोच नहीं अपनायी जा सकती क्योंकि इसका लोगों और वनक्षेत्र पर गंभीर प्रभाव होता है। नोगो फॉरेस्ट वर्गीकरण मसले में प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा 71 प्रतिशत घने जंगलों में बिना किसी रोक टोक के कोयला खनन के लिए खोले जाने से इन घने जंगलों में पनप रही समृद्ध जैव विविधता, उनकी पारिस्थितिकी विशेषता, वन्य जीवन गलियारों का नष्ट होना तय है।
यह वन संरक्षण अधिनियम, पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, पंचायत (श्रेणीबद्ध क्षेत्र का विस्तार) अधिनियम, वनाधिकार कानून जैसे विभिन्न रक्षात्मक कानूनों को कमजोर करने का पहला प्रयास है। क्योंकि ये कानून इस समय औद्योगिक विकास प्रक्रिया की राह में अवरोध बनते नजर आ रहे हैं।
अब अगर कोयला उत्पादन की असलियत पर नजर डालें तो कोयला खनन का अब तक का रिकार्ड काफी खतरनाक है। वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के दस्तावेजों के हिसाब से दो तिहाई कोयला खदाने किसी न किसी पर्यावरण अधिनियम की धज्जियां उड़ाती नजर आयेंगी। आज तक पिछले 45 वर्ष में किसी भी राज्य सरकार को कोयला खनन के लिए अधिग्रहित की हुई जंगल की कोई भी जमीन वापस नहीं दी गयी है। न ही कोयला मंत्रालय ने कभी खनन किये जा रहे किसी जंगल के पुनरुद्धार के लिए कोई निश्चित समय सीमा बनाया है। इसके चलते खनन को दिये जाने वाला जंगल हमेशा के लिए लुप्त हो जाता है। छत्तीसगढ, झारखंड, मध्यप्रदेश, उड़ीसा, महाराष्ट्र में कोयले की खदाने इसका जीता जागता उदाहरण है।
गौरतलब है कि भारत में कुल संभावित कोयला खनन क्षेत्र का मात्र आठ फीसदी ही अब इस क्षेत्र में आता है। साफ जाहिर है कि इस पूरी रस्साकशी का असल मकसद विकास व बिजली के नाम पर कोयला उत्पादन में गिरावट का डर दिखाकर ज्यादा से ज्यादा घने जंगलों में खनन की पूरी छूट हासिल करना है। वहीं पर्यावरण प्रेमियों का दावा है कि प्राकृतिक वनों का विनाश करके उसकी भरपाई वनरोपण के प्रयासों से नहीं की जा सकती। एक जंगल को बनने में हजारों साल का वक्त लगता है और उजड़ने में बस चंद दिन। वनक्षेत्रों में कोयला खनन रोकने के समर्थन में इस पृष्ठभूमि के खिलाफ, 27 प्रमुख स्वयं सेवी संगठनों जिनमें डब्लू डब्लू एफ, ग्रीनपीस, नेशनल बोर्ड फॉर वाइल्ड लाइफ, वाइल्ड लाइफ र्पोटेक्शन सोसायटी ऑफ इंडिया, कन्जरवेशन एक्शन ट्रस्ट आदि शामिल है ने खुलकर अपना विरोध जताया।
भारतीय वन सर्वेक्षण विभाग के आंकड़ों के हिसाब से भारत का कुल वन आवरण कुल भू-क्षेत्र का 21. 02 प्रतिशत है जो 69.09 मिलियन हैक्टेयर में फैला है। इनमें 2.54% सघन वन का कोर वाला हिस्सा है, 9.71%, औसत घना जंगल है और 8.77% खुला जंगल या जंगल के बाहरी छोर (फ्रिंज) वाला क्षेत्र है। वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के आंकड़ों में 1950 से वर्ष 1980 के बीच चालीस लाख हेक्टेयर जंगल विकास की भेंट चढ़ गया। पर वर्ष 1980 में पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा लाए गए वन संरक्षण कानून के चलते वर्ष 1980 से 2010 के बीच यह घटकर दस लाख हेक्टेयर ही रह गया।
जून 2009 में मंत्रालय और वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के बीच कोयला खनन को लेकर हुई कोयला पहली बैठक में कोल इंडिया के अध्यक्ष, ने कोयला खनन के लिए पर्यावरण मंजूरी प्रक्रिया को सरल बनाने के लिए “गो-नो गो” विभाजन का सुझाव दिया। कोल इंडिया का प्रस्तायव था कि गो का मतलब खनन के लिए जल्दी मंजूरी और किसी क्षेत्रीय आंकलन की जरूरत नहीं। “नो गो” का मतलब खनन नहीं।
इस हिसाब से वन आवरण को 10% से अधिक हरित घनत्व को “नो गो” जंगल के रूप में परिभाषित किया गया। यदि किसी कोयला ब्लॉक का 30% या अधिक क्षेत्र वाले ब्लॉक वन आवरण है तो वह “नो गो” होगा।
इस लिहाज से पर्यावरण मंत्रालय के दस्तावेजों में देश के कुल 602 कोयला ब्लॉंक वाला 6,48,750 हेक्टेयर वनक्षेत्र है। इसमें से 396 ब्लॉक का 3,44,800 हेक्टेयर वनक्षेत्र आक्षुण्ण् या नो गो जोन वाला घना जंगल है जो कुल वनक्षेत्र का 53 प्रतिशत है। इनमें तल्चर में 82 कोयला ब्लॉकों वाला 80400 हेक्टेयर वनक्षेत्र शामिल है। इसके 68 ब्लॉक का 64000 हेक्टेयर वनक्षेत्र नो गो जोन है। ई बी वैली में 49 कोयला ब्लॉकों का 51,600 हेक्टेयर वनक्षेत्र है। इसमें से 26 ब्लॉक का 23600 हेक्टेयर वनक्षेत्र नो गो जोन है। मंदरियागढ़ में 80 कोयला ब्लॉकों का 118200 हेक्टेयर वनक्षेत्र शामिल है। इसमें से 29 ब्लॉक का 37400 हेक्टेयर वनक्षेत्र नो गो जोन है। सोहागपुर में 110 कोयला ब्लॉकों का 127550 हेक्टेयर वनक्षेत्र शामिल है। इसमें से 88 ब्लॉक का 98800 हेक्टेयर वनक्षेत्र नो गो जोन है। वर्धा में 113 कोयला ब्लॉक वाला 82900 हेक्टेयर वनक्षेत्र में से 98 कोयला ब्लॉक का 45000 हेक्टेयर वनक्षेत्र नो गो जोन है।
सिंगरौली में 46 कायेला ब्लॉक वाले 66800 हेक्टेयर वनक्षेत्र में से 20 कोयला ब्लॉक का 31600 हेक्टेयर वनक्षेत्र नो गो जोन है। उत्तरी कनपुरा में 63 कायेला ब्लॉक वाले 60600 हेक्टेयर वनक्षेत्र में से 39 कोयला ब्लॉक का 33500 हेक्टेयर वनक्षेत्र नो गो जोन है। पश्चिम बोकारो में 39 कोयला ब्लॉक वाले 14800 हेक्टेयर वनक्षेत्र में से 28 कोयला ब्लॉक का 10900 हेक्टेयर वनक्षेत्र नो गो जोन है।
साफ जाहिर है कि इस पूरी रस्साकशी का असल मकसद विकास व बिजली के नाम पर कोयला उत्पादन में गिरावट का डर दिखाकर ज्यादा से ज्यादा घने जंगलों में खनन की पूरी छूट हासिल करना है। वहीं पर्यावरण प्रेमियों का दावा है कि प्राकृतिक वनों का विनाश करके उसकी भरपाई वनरोपण के प्रयासों से नहीं की जा सकती। एक जंगल को बनने में हजारों साल का वक्त लगता है और उजड़ने में बस चंद दिन।
विकास के तेज रथ पर सवार मौजूदा सदी जंगलों के विनाश की प्रयोगशाला साबित हो रही है। विकास की भेंट चढ रहे जंगलों से देश में बाघ संरक्षित गलियारों, हाथियों के गलियारे उजड़ रहे हैं। शेर का राज्य लुप्त हो रहा है । तेंदुओं पर मंडरा रहे संकट को विशेषज्ञ स्वीकार रहे हैं। जिस तेजी से हम आबोहवा में कार्बन डाई ऑक्साइड छोड़ रहे हैं उसका असर अब धरती पर दिखने लगा है। ये मुद्दा अब धरती की बर्बादी और हमारी - आपकी जिंदगी से जुड़ गया है। ऐसे में जलवायु परिवर्तन पर जारी रस्साकशी के बीच भारत के लिए वातावरण की कार्बन डाई ऑक्साइड को अपने अंदर सोखने और संजोने वाले कार्बन सिंक रूपी जंगलों को बचाना एक बड़ी चुनौती बनकर सामने आ रहा है।गौरतलब है कि भारत की वर्तमान बिजली उत्पादन क्षमता का करीब 54 फीसदी हिस्सा पत्थर कोयले पर निर्भर है। यह सेक्टर देश में कार्बन उत्सर्जन का सबसे बड़ा स्रोत भी बन गया है। यह भारत के कुल ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन का करीब 38 फीसदी हिस्सा (6480 लाख टन CO2 ) पैदा करता है। हाल ही में विकास व बिजली उत्पादन के नाम पर प्रधानमंत्री कार्यालय के दबाव के चलते वन सरंक्षण अधिनियम की अनदेखी करते हुए वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने 6,48,750 हेक्टेयर नोगो जोन वाले घने जंगल में से 71 प्रतिशत या 4,62,939 हेक्टेयर सघन वनक्षेत्र में खनन की मंजूरी दे दी है।
दरअसल सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) और औद्योगिक लाभ को अधिकतम बढाने के लालच में अब उन नियम-कानूनों को निशाना बनाया जा रहा है जो पर्यावरण और वन क्षेत्र को इस्तेमाल करने की अनुमति देने, भू-अधिग्रहण, राहत व पुनर्वास जैसे संवेदनशील विषयों से जुड़े हैं। ऐसी परिस्थितियों में पर्यावरणीय और सामाजिक मूल्यों को सुनिश्चित करने के लिए त्वरित गति से सुविधाएं मुहैया कराने, अनुमोदन संबंधी बाधाएं जल्दी हटाने, समग्र और दीर्घकालीन योजनाओं की जरूरत को किसी भी तरह से नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। महत्वपूर्ण निर्णय लेते वक्त अदूरदर्शी सोच नहीं अपनायी जा सकती क्योंकि इसका लोगों और वनक्षेत्र पर गंभीर प्रभाव होता है। नोगो फॉरेस्ट वर्गीकरण मसले में प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा 71 प्रतिशत घने जंगलों में बिना किसी रोक टोक के कोयला खनन के लिए खोले जाने से इन घने जंगलों में पनप रही समृद्ध जैव विविधता, उनकी पारिस्थितिकी विशेषता, वन्य जीवन गलियारों का नष्ट होना तय है।
यह वन संरक्षण अधिनियम, पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, पंचायत (श्रेणीबद्ध क्षेत्र का विस्तार) अधिनियम, वनाधिकार कानून जैसे विभिन्न रक्षात्मक कानूनों को कमजोर करने का पहला प्रयास है। क्योंकि ये कानून इस समय औद्योगिक विकास प्रक्रिया की राह में अवरोध बनते नजर आ रहे हैं।
अब अगर कोयला उत्पादन की असलियत पर नजर डालें तो कोयला खनन का अब तक का रिकार्ड काफी खतरनाक है। वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के दस्तावेजों के हिसाब से दो तिहाई कोयला खदाने किसी न किसी पर्यावरण अधिनियम की धज्जियां उड़ाती नजर आयेंगी। आज तक पिछले 45 वर्ष में किसी भी राज्य सरकार को कोयला खनन के लिए अधिग्रहित की हुई जंगल की कोई भी जमीन वापस नहीं दी गयी है। न ही कोयला मंत्रालय ने कभी खनन किये जा रहे किसी जंगल के पुनरुद्धार के लिए कोई निश्चित समय सीमा बनाया है। इसके चलते खनन को दिये जाने वाला जंगल हमेशा के लिए लुप्त हो जाता है। छत्तीसगढ, झारखंड, मध्यप्रदेश, उड़ीसा, महाराष्ट्र में कोयले की खदाने इसका जीता जागता उदाहरण है।
गौरतलब है कि भारत में कुल संभावित कोयला खनन क्षेत्र का मात्र आठ फीसदी ही अब इस क्षेत्र में आता है। साफ जाहिर है कि इस पूरी रस्साकशी का असल मकसद विकास व बिजली के नाम पर कोयला उत्पादन में गिरावट का डर दिखाकर ज्यादा से ज्यादा घने जंगलों में खनन की पूरी छूट हासिल करना है। वहीं पर्यावरण प्रेमियों का दावा है कि प्राकृतिक वनों का विनाश करके उसकी भरपाई वनरोपण के प्रयासों से नहीं की जा सकती। एक जंगल को बनने में हजारों साल का वक्त लगता है और उजड़ने में बस चंद दिन। वनक्षेत्रों में कोयला खनन रोकने के समर्थन में इस पृष्ठभूमि के खिलाफ, 27 प्रमुख स्वयं सेवी संगठनों जिनमें डब्लू डब्लू एफ, ग्रीनपीस, नेशनल बोर्ड फॉर वाइल्ड लाइफ, वाइल्ड लाइफ र्पोटेक्शन सोसायटी ऑफ इंडिया, कन्जरवेशन एक्शन ट्रस्ट आदि शामिल है ने खुलकर अपना विरोध जताया।
भारतीय वन सर्वेक्षण विभाग के आंकड़ों के हिसाब से भारत का कुल वन आवरण कुल भू-क्षेत्र का 21. 02 प्रतिशत है जो 69.09 मिलियन हैक्टेयर में फैला है। इनमें 2.54% सघन वन का कोर वाला हिस्सा है, 9.71%, औसत घना जंगल है और 8.77% खुला जंगल या जंगल के बाहरी छोर (फ्रिंज) वाला क्षेत्र है। वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के आंकड़ों में 1950 से वर्ष 1980 के बीच चालीस लाख हेक्टेयर जंगल विकास की भेंट चढ़ गया। पर वर्ष 1980 में पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा लाए गए वन संरक्षण कानून के चलते वर्ष 1980 से 2010 के बीच यह घटकर दस लाख हेक्टेयर ही रह गया।
जून 2009 में मंत्रालय और वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के बीच कोयला खनन को लेकर हुई कोयला पहली बैठक में कोल इंडिया के अध्यक्ष, ने कोयला खनन के लिए पर्यावरण मंजूरी प्रक्रिया को सरल बनाने के लिए “गो-नो गो” विभाजन का सुझाव दिया। कोल इंडिया का प्रस्तायव था कि गो का मतलब खनन के लिए जल्दी मंजूरी और किसी क्षेत्रीय आंकलन की जरूरत नहीं। “नो गो” का मतलब खनन नहीं।
इस हिसाब से वन आवरण को 10% से अधिक हरित घनत्व को “नो गो” जंगल के रूप में परिभाषित किया गया। यदि किसी कोयला ब्लॉक का 30% या अधिक क्षेत्र वाले ब्लॉक वन आवरण है तो वह “नो गो” होगा।
इस लिहाज से पर्यावरण मंत्रालय के दस्तावेजों में देश के कुल 602 कोयला ब्लॉंक वाला 6,48,750 हेक्टेयर वनक्षेत्र है। इसमें से 396 ब्लॉक का 3,44,800 हेक्टेयर वनक्षेत्र आक्षुण्ण् या नो गो जोन वाला घना जंगल है जो कुल वनक्षेत्र का 53 प्रतिशत है। इनमें तल्चर में 82 कोयला ब्लॉकों वाला 80400 हेक्टेयर वनक्षेत्र शामिल है। इसके 68 ब्लॉक का 64000 हेक्टेयर वनक्षेत्र नो गो जोन है। ई बी वैली में 49 कोयला ब्लॉकों का 51,600 हेक्टेयर वनक्षेत्र है। इसमें से 26 ब्लॉक का 23600 हेक्टेयर वनक्षेत्र नो गो जोन है। मंदरियागढ़ में 80 कोयला ब्लॉकों का 118200 हेक्टेयर वनक्षेत्र शामिल है। इसमें से 29 ब्लॉक का 37400 हेक्टेयर वनक्षेत्र नो गो जोन है। सोहागपुर में 110 कोयला ब्लॉकों का 127550 हेक्टेयर वनक्षेत्र शामिल है। इसमें से 88 ब्लॉक का 98800 हेक्टेयर वनक्षेत्र नो गो जोन है। वर्धा में 113 कोयला ब्लॉक वाला 82900 हेक्टेयर वनक्षेत्र में से 98 कोयला ब्लॉक का 45000 हेक्टेयर वनक्षेत्र नो गो जोन है।
सिंगरौली में 46 कायेला ब्लॉक वाले 66800 हेक्टेयर वनक्षेत्र में से 20 कोयला ब्लॉक का 31600 हेक्टेयर वनक्षेत्र नो गो जोन है। उत्तरी कनपुरा में 63 कायेला ब्लॉक वाले 60600 हेक्टेयर वनक्षेत्र में से 39 कोयला ब्लॉक का 33500 हेक्टेयर वनक्षेत्र नो गो जोन है। पश्चिम बोकारो में 39 कोयला ब्लॉक वाले 14800 हेक्टेयर वनक्षेत्र में से 28 कोयला ब्लॉक का 10900 हेक्टेयर वनक्षेत्र नो गो जोन है।
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