बावड़ी या बावली उन सीढ़ीदार कुओं या तालाब को कहते हैं। जिनके जल तक सीढ़ियों के सहारे आसानी से पहुंचा जा सकता है। भारत में बावड़ियों के निर्माण और उपभोग का लंबा इतिहास है। कन्नड़ में बावड़ियों को कल्याणी या पुष्करणी। मराठी में ‘बारव’ और गुजरात में ‘बाव’ कहते हैं। संस्कृत के प्राचीन साहित्य में इसके कई नाम हैं।
पानी जिसके बिना जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। बुंदेलखंड में यह एक बड़ा और अहम सवाल बन गया है। बुंदेलखंड में पानी के महत्व को सदियों पहले पहचान लिया गया था। इसी कारण बुंदेलखंड के गांव-गांव में जल संरचनाओं का विकास और विस्तार किया गया। यहां परंपरागत जल संरचनाओं में निर्मल बहती नदी, तालाब, कुएं और बावड़ी ही थे। इसके अलावा प्राकृतिक जल स्रोत आज भी रहस्मय हैं। बावड़ी या बावली उन सीढ़ीदार कुओं या तालाब को कहते हैं। जिनके जल तक सीढ़ियों के सहारे आसानी से पहुंचा जा सकता है। भारत में बावड़ियों के निर्माण और उपभोग का लंबा इतिहास है। कन्नड़ में बावड़ियों को कल्याणी या पुष्करणी। मराठी में ‘बारव’ और गुजरात में ‘बाव’ कहते हैं। संस्कृत के प्राचीन साहित्य में इसके कई नाम हैं। जिसमें से एक नाम है- ‘वादी’। इनका एक प्राचीन नाम ‘दीर्घा’ भी था जो बाद में गौलरी के अर्थ में प्रयुक्त होने लगा।
बुंदेलखंड की प्राचीन जल प्रबंधन प्रणाली देश में अनोखी मानी जाती थी। तभी तो इसको देखने और समझने के लिए देश के जल प्रबंधन से जुड़े लोग आते रहते हैं। यह अलग बात है कि हम अपने स्वार्थ के चलते प्राचीन जल स्रोत का संरक्षण नहीं कर पाये। यदि संबंधित विभाग अब भी नहीं चेता तो हम अपनी प्राचीन जल प्रबंधन की प्रतिष्ठा भी गवा देंगे।
वापिका, फर्कन्धु, शकन्धु आदि भी इसी के संस्कृत नाम हैं। बुंदेलखंड में प्राचीनकाल, पूर्व मध्यकाल और मध्यकाल सभी में बावड़ियों के बनाने की जानकारी मिलती है। दूर से देखने पर है यह तलघर के रूप में बनी किसी बहुमंजिला हवेली जैसी दिखती है। बुंदेलखंड में बावड़ी या चौघडा कोष्ठक लघु जलाशय के नाम से प्रचलित ऐसी प्राचीन जल संरचनाओं की संख्या 64 है और 360 बीहर हैं। इस तरह की बावड़ियां प्रसिद्ध कालिंजर दुर्ग, चित्रकूट के गणेशबाग और चित्रकूट में कामतानाथ के परिक्रमा मार्ग में, बांदा के भूरागढ़ दुर्ग और झांसी के बड़ागांव गेट स्थित गोपाल की बगिया में दो मंजिला बावड़ी देखने लायक है।
जल प्रबंधन की परंपरा प्राचीन काल से है। पौराणिक ग्रंथों, जैन, बौद्ध साहित्य में नहरों, तालाबों, बांधों, कुंओं, बावड़ियों और झीलों का विवरण मिलता है। वैसे तो सर्वाधिक झील व बावड़ियां राजस्थान में पाई जाती हैं लेकिन इस मामले में बुंदेलखंड भी पीछे नहीं रहा। यह अलग बात है कि संरक्षण के अभाव में बावड़ियां, बीहर और परंपरागत जल स्रोत सूख रहे हैं। बुंदेलखंड में बावड़ी निर्माण की परंपरा बहुत पुरानी है। जहां एक ओर यह जनउपयोगी कला के रूप में देखी जाती थी वहीं दूसरी ओर इनका सांस्कृतिक महत्व भी है। यह बावड़ियां केवल जलउपयोग की चीज नहीं बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन का लगभग केन्द्र भी होती थीं। यहां पूजा-अर्चना भी की जा सकती है।
बुंदेलखंड के प्राचीन किले और धार्मिक स्थलों में बनी ये बावड़ियां है यह दर्शाती हैं कि प्राचीन भारत में जल प्रबंधन की व्यवस्था कितनी बेहतरीन थी। यहां आकर लोग मुंडन और विवाद से जुड़े अनेक संस्कार संपन्न कराते थे। बावड़ी निर्माण परोपकार की भावना का एक उत्कृष्ट नमूना है। बावड़ी बनवाना जहां राजा द्वारा जनसुविधा के लिए किए जाने वाला जरूरी काम था वही संपन्न परिवारों द्वारा भी बावड़ियां बनवाई जातीं थीं। उस समय राजा की भांति सामंत परिवार की परंपरागत जल संरचनाओं का महत्व है जो आज भी रहस्मय बने हुए हैं। छतरपुर जिले का भीम कुंड, अर्जुन कुंड, जोगीटेड, पन्ना पन्ना जिलों का बृहस्पति कुंड, टाइगर रिजर्व के अंदर का झालरिया महादेव और कालिंजर दुर्ग का स्वर्गाह रहस्यमय जल स्रोत है।
यहां पानी कहां से आता है, आज भी रहस्य बना हुआ है। छतरपुर जिले में नौगांव ब्लॉक का गांव जोरन है। इस गांव के बारे में कहा जाता है कि इस गांव में कभी 84 कुएं और 52 बावड़ी हुआ करती थी। आज यह गांव जल संकट से जूझ रहा है। इसी तरह बुंदेलखंड में पहाड़ों में बने तालाब और कुंड यहां के लोगों के लिए किवदंतियों का मानो एक बड़ा खजाना हो, चाहे वह अजयगढ़ के पहाड़ पर बने तालाब और कुंड हो या कालिंजर के पहाड़ पर बने तालाब। चित्रकूट की गुप्त गोदावरी, हनुमान धारा, देवांगना, अनुसूइया जी, बांके सिद्धसेना आदि रहस्मय जलस्रोतों के केन्द्र हैं। इन जलस्रोतों के अमृत समान पानी को लोग बारह महीनों उपयोग करते हैं लेकिन अब धीरे-धीरे जलाशयों में पानी कम होता जा रहा है। वहीं बावड़ियों में कूड़ा-कचरा डालने से कभी लोगों के लिए जीवनदायिनी जलस्रोत रहे यह बावड़ियां अब मात्र दर्शन लायक बन कर रह गई हैं।
बुंदेलखंड में अपना ‘तालाब परियोजना’ से जुड़े समाजसेवी पुष्पेंद्र भाई का कहना है कि बुंदेलखंड की प्राचीन जल प्रबंधन प्रणाली देश में अनोखी मानी जाती थी। तभी तो इसको देखने और समझने के लिए देश के जल प्रबंधन से जुड़े लोग आते रहते हैं। यह अलग बात है कि हम अपने स्वार्थ के चलते प्राचीन जल स्रोत का संरक्षण नहीं कर पाये। यदि संबंधित विभाग अब भी नहीं चेता तो हम अपनी प्राचीन जल प्रबंधन की प्रतिष्ठा भी गवा देंगे। यदि ऐसा हुआ तो निश्चित ही बुंदेलखंड और यहां के लोग विनाश की ओर बढ़ेंगे। यह सच है कि हमें अपनी प्राचीन जल प्रबंधन की व्यवस्था को सहेजकर रखना होगा, जिसके लिए जल संरक्षण जरूरी है। जल है तो कल है कि यथार्थ को जीवन पर उतारते हुए नई और पुरानी जल संरचनाओं को बचाने के लिए अभियान चलाने की जरूरत है। बावड़िया हमारी प्राचीन जल संरक्षण प्रणाली का आधार रही हैं। पूर्वजों के इस अनमोल खजाने की रक्षा की जरूरत है इसके लिए लोगों को आगे बढ़कर आना होगा।
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