गौला नदी की 'हत्या'

खनन से बेजार गौला नदी, प्रतीकात्मक तस्वीर
खनन से बेजार गौला नदी, प्रतीकात्मक तस्वीर

मानसून आ चुका है। एक्सट्रीम बारिश हर साल नियमित होती जा रही है। लोगों में बहुत समय से उत्तराखंड की नदियों को तहस-नहस कर रखा है। उनमें पानी कम रहता है और वे अचानक आने वाली बाढ़ के जरिये अपना विरोध जताती हैं। प्रकृति के इस कोप से लोगों को सुरक्षित करने के लिए राज्य सरकार को स्वभावत: चिंतित होना चाहिए। पर यहाँ तो चिंता ही किसी और बात की है। उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी 18 फरवरी को नई दिल्ली में केंद्रीय पर्यावरण और वन मंत्री भूपेन्द्र यादव से मिले। धामी राज्य के पहाड़ों और जंगलों से गुजरने वाली नदियों में खनन करने की अति आवश्यक अनुमति चाहते थे, क्योंकि खनन के लिए अनुमति की अवधि जनवरी में ही खत्म हो गई थी और अस्थायी विस्तार भी फरवरी के अंत में खत्म हो जाने वाली थी। 

लेकिन धामी जो चाहते थे वह था - राज्य की पहाड़ियों और जंगलों से बहने वाली चार नदियों में खनन जारी रखने की तत्काल अनुमति, क्योंकि खनन की अनुमति समाप्त होने वाली थी। उत्तराखंड सरकार को जो चीज चकाचौंध करती है, वह खोदे गए खनिजों, रेत और पत्थरों की बिक्री से होने वाला मुनाफा है, भले ही इसकी पर्यावरणीय लागत कोई भी हो। 2016 के आधिकारिक रिकॉर्ड के अनुसार, राज्य ने इनमें से एक नदी के ही खनन से सालाना 100 करोड़ रुपये कमाए। सात साल बाद यह राशि संभवतः बहुत ज्यादा हो।

रिपोर्टर्स कलेक्टिव को मिले दस्तावेज बताते हैं कि भाजपा के दो नेताओं के बीच व्यक्तिगत बैठक के पांच दिन बाद, वनों के संरक्षण और नदियों को सुरक्षा से संबंधित महत्वपूर्ण कानूनी अपेक्षाओं को दरकिनार कर बैठक के पांच दिनों बाद राज्य सरकार को खनन अनुमति दे दी गई। 

चार नदियों में से एक गौला है, जो राज्य के घनी आबादी वाले और व्यावसायिक रूप से समृद्ध शहर हल्द्वानी के लिए जीवन रेखा है। नदी मर रही है। बारिश के बाद वैसे जंगलों के काटे जाने, बहुत अधिक खनन और प्रदूषण की वजह से आम दिनों में अधिकतर दूरी तक इसको पतली सी रेखा बहती है और कई बार नाले-जैसी बहती है। दिसंबर 2020 से मार्च 2022 के बीच गौला नदी में खनन के गड्ढों में डूबने से 3 लोगों की मौत हो गई। अक्टूबर 2021 में नदी में बाढ़ आ गई, जिससे एक पुल ढह गया और किसानों की कृषि भूमि का नुकसान हुआ।

दस्तावेज़ दिखाते हैं कि पर्यावरण की रक्षा की शर्तों का पालन करने में राज्य सरकार की विफलता के बावजूद केंद्र सरकार ने गौला में खनन को बार-बार मंजूरी दी।

इसके अलावा, पिछले एक दशक से नदियों से बोल्डर, रेत, बजरी और अन्य खनिज खोदने के दोषी खननकर्ता के कई मानदंडों का उल्लंघन करने के इतिहास को नजरअंदाज करते हुए खनन की अनुमति दी गई।

विभिन्न नियमों के उल्लंघन और अवैध खनन इतिहास की अनदेखी करते हुए खनन की अनुमति दी गई। पिछले दशक में खनिकों ने बोल्डरों की कटाई की और इनमें गहरे तक खुदाई की, नदियों से रेत, बजरी और अन्य खनिज निकाले। नदी से ज्यादा आय जुटाने के राज्य के लोभ को पूरा करने के लिए केन्द्र सरकार भी बहुत सारे दिशानिर्देशों और न्यायालयों के आदेशों के खिलाफ थी। राज्य ने गौला नदी में जून में खनन की अनुमति मांगी- यह मानसून का महीना है। जिस वक्त अनवरत खनन की वजह से गहरे आघातों से नदियों को संभलने के ख्याल से खनन प्रतिबंधित है। पर इसके लिए भी उसे अनुमति मिल गई।

कानून को तोड़ने-मरोड़ने और नियमों की मनमानी व्याख्या के जरिये अनुमति देने में कुछ नया नहीं है, फिर भी किसी मुख्यमंत्री का पर्यावरण कानूनों को मोड़ देने के लिए प्रभाव का इस्तेमाल करने में अपनी भूमिका के इस्तेमाल का छाती ठोककर दावा करना नई बात थी। अंतिम समय में हासिल यह अनुमति पर्यावरण मंत्रालय के अंदर निर्णय लेने में खास तौर से संबद्ध लंबी उत्पादन पूर्व अवधि के मद्देनजर ज्यादा ध्यान देने योग्य है। 

फरवरी की बैठक के तुरंत बाद धामी ने फेसबुक पर लिखा, "मेरे अनुरोध पर शीघ्र कार्रवाई का आश्वासन देने के लिए मैं माननीय केंद्रीय मंत्री को धन्यवाद देता हूं।" पांच दिन बाद, धामी ने एक फेसबुक पोस्ट में प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय मंत्री को धन्यवाद दिया: "डबल इंजन सरकार' के नेतृत्व में, हम हमेशा क्षेत्र के विकास और समृद्धि की दिशा में काम कर रहे हैं।"

गौला या किच्छा उन कई नदियों में है जिनका पानी गंगा में जाता है। इस बीच नदी पहाड़ों से जमीन को तरफ जाती हुई कई पत्थरों, बोल्डरों और अन्य खनन खनिजों से गुजरती है। जनवरी, 2013 में राज्य की वैधानिक संस्था उत्तराखंड वन विकास निगम (यूएएफडीसी) को नैनीताल जिले को वन भूमि से गुजरने वाली गौला नदी के पाट से पहाड़ों के मलबे को जमा करने की अनुमति दे दी गई। हालांकि यह आदेश बाढ़ से वन भूमि की सुरक्षा के लिए जंगलों में नदी तलों के उचित खनन द्वारा संरक्षण करने के लिए है, राज्य सरकार की कंपनी काफी ज्यादा खनन के जरिये लाभ कमाने के लोभ में झुक गई। मुख्यमंत्री ने भी अप्रत्याशित लाभ की इच्छा जताई ताकि राज्य सरकार प्रतिबंधित जून के मानसून महीने में खनन से आप जुटा सके। लेकिन खनिकों ने टनों बोल्डरों, बजरी और रेल अवैज्ञानिक तरीके से निकाल लिए। उन लोगों ने पानी के गृह में खड़े पत्थरों को हटा दिया जिससे वर्षा के दौरान नदी बाड़मुक्त होकर बहने लगी। उसने नए रास्ते अख्तियार कर लिए। खेतों में पानी चला गया। पूलों को तोड़ दिया और हाहाकार मचा दिया।

पिछले विधानसभा चुनावों से पहले राज्य सरकार ने निजी जमीन पर खनन पर पर्यावरणीय प्रभाव की जांच की जरूरत में छूट दे दी और अवैध स्थानों पर ज्यादा समय तक पत्थर तोड़ने की मशीनों को चलाने की अनुमति दे दी।

इसने आपदा प्रबंधन और बाढ़ सुरक्षा के नाम पर नदियों के प्रवाह को नियंत्रित करने के ख्याल से कुछ ज्यादा ही खनन की अनुमति दे दी। विशेषज्ञों ने कई बार चेतावनी दी है कि कम समय वाले आर्थिक लाभों के लिए बहुत अधिक और अनियंत्रित खनन नाजुक हिमालयीन क्षेत्र के जीवन पारिस्थितिकी और संपत्ति को दीर्घ अवधि वाला नुकसान पहुंचाती है। किसी भी पर्यावरण मंत्रालय के लिए ये दो चेतावनी वाले चिन्ह हैं, खराब ट्रैक रिकॉर्ड और इस किस्म के नाजुक इलाके में काम; फिर भी, निगम को अनुमति दे दी गई।

भारत में वन भूमि उपयोग के लिए पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय से पूर्व अनुमति या क्लीयरेंस की जरूरत होती है। यह अनुमति पर्यावरणीय प्रभाव को न्यूनतम करने की परिस्थितियों पर निर्भर है। 2013 में गौला नदी में खनन के लिए वन भूमि के उपयोग की अनुमति (फॉरेस्ट क्लीयरेंस) दस साल जनवरी, 2023 तक के लिए दे दी गई। खनन अनुमति समाप्ति की तिथि जब आने लगी तो राज्य सरकार ने फस्ट क्लीयरेंस की इच्छा जताते हुए अप्रैल 2022 में पर्यावरण मंत्रालय को प्रस्ताव भेजा। चुंकि इसमें कमियां थीं,  इसलिए यह प्रस्ताव आगे नहीं बढ़ पाया। इस बीच राज्य सरकार की अनुमति का समय 23 जनवरी को समाप्त हो गया। फिर भी, पर्यावरण मंत्रालय ने अस्थायी कामकाज अनुमति (टेम्पररी वर्किंग परमिशन टीडब्ल्यूपी) जारी कर 28 फरवरी तक नदी में खनन की अनुमति दे दी। ऐसी अनुमति तब दी जाती है जब कोई राज्य सरकार फॉरेस्ट क्लीयरेंस समाप्त होने से पहले आवेदन देने में विफल रहती है। इस मामले में राज्य सरकार ने तीन दिन देर से 26 जनवरी को पूरा प्रस्ताव जमा किया था।

लेकिन केन्द्र सरकार ने उत्तराखंड सरकार को कामचलाऊ कामकाजी अनुमति देने में नियमों का उल्लंघन किया। अस्थाई अनुमति देने से पहले केन्द्र सरकार को इसकी जांच करनी चाहिए थी कि एक दशक की अवधि के काम के दौरान आवेदक का वन संरक्षण नियमों को तोड़ने का इतिहास है या नहीं। मंत्रालय इससे अनभिज्ञ था, क्योंकि राज्य सरकार ने अपूर्ण अनुपालन रिपोर्ट दायर की थी। अस्थाई कामकाजी अनुमति में केंद्र ने राज्य को नवीनतम अनुपालन स्थिति को दायर करने को कहा। मंत्रालय आगे बढ़ गया और यह अच्छी तरह से जानते हुए भी उसने अस्थायी विस्तार दिया कि प्रक्रिया का सबसे कठिन हिस्सा पर्यावरणीय सुरक्षाओं का अनुपालन सुनिश्चित करना होता है।

वस्तुतः मंत्रालय ने पर्यावरणीय परिस्थितियों का उल्लंघन पाया था। उन्होंने पाया कि प्रतिपूरक वनीकरण (जंगल काटने से होने वाले नुकसान की भरपाई के लिए) पौधरोपण में राज्य पिछड़ा हुआ है। जबकि यह वन-संरक्षण कानून का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह कहता है कि गैर वनीकरण उद्देश्य की वजह से वन की क्षति समायोजित की जानी चाहिए या गैर वन क्षेत्र में समान क्षेत्र में या अक्रमित (डीग्रेडेड) वन भूमि के दोगुने क्षेत्र में पौधे लगाए जाने चाहिए। मंत्रालय ने यह भी पाया कि ऐसे इलाकों में निर्माण थे, जहां प्रतिपूरक वनीकरण किए जाने चाहिए थे। यह भी इस स्थिति के विपरीत था कि प्रतिपूरक वनीकरण के लिए रखी गई जमीन पौधे उगाने के लिए ही उपयोग की जानी चाहिए। अपने पत्रों में केन्द्र ने इस बात को रेखांकित  किया कि राज्य सरकार ने समय पर प्रतिपूरक वनीकरण पूरा नहीं किया। 

पर्यावरणीय कानून और नीति पर सीनियर रिसर्चर काँची कोहली कहती हैं कि अनुमति पर निर्भर बातचीत के औजार बन जाती हैं कि दूसरी तरफ कौन-सी कंपनी है। तब ये छोटी या लंबी अवधि के लिए विवेकाधीन अनुमोदन की अनुमति दे दी जाती है और ये संरक्षण औजार नहीं बल्कि राजनीतिक या आर्थिक सौदे बन जाते हैं।

खनन विभाग भी संभालने वाले मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी अस्थायी अनुमति समाप्त होने से दस दिनों पहले 18 फरवरी को केंद्रीय पर्यावरण और वन मंत्री से मिले। पहले की स्थितियों में खराब अनुपालन स्वीकार करने के बावजूद व सलाहकार समिति ने पहले की लीज को बढ़ाने के राज्य के प्रस्ताव की सिफारिश की। यह समिति जांच-परख करती है और वन भूमि के गैर वन उपयोग से संबंधित प्रस्तावों पर पर्यावरण मंत्रालय को सलाह देती है। जैसे ये सिफारिशें मानने को केन्द्र सरकार बाध्य नहीं है।

इसने राज्य सरकार को गौला नदी के खनन के लिए आगे बढ़ने को कहा, पर समिति ने अधूरे प्रतिपूरक वनीकरण प्रयासों और जिला सर्वे रिपोर्ट तैयार करने में राज्य की कम रूचि को रेखांकित किया, हालंकि यह खनन लीज हासिल करने की पूर्व शर्त है, राज्य सरकार ने इसे तैयार करने की जहमत नहीं उठाई। समिति ने यह भी ध्यान दिलाया कि वन संरक्षण नियमों के खराब अनुपालन के कारण अनुमति सिर्फ पांच साल के लिए बढ़ाई जा रही है, हालांकि राज्य सरकार ने 10 साल की अवधि तक इसे करने की मांग की थी। इसने राज्य के खनन अनुरोध की सिफारिश की। पर वन सलाहकार समिति ने वन कानून के तहत स्थितियों के अनुपालन की ओर भी ध्यान दिलाया।  लीगल इनिशिएटिव फार फॉरेस्ट्स एंड इनारोनमेंट के पर्यावरणीय अधिवक्ता राहुल चौधरी ने कहा कि 'वन संरक्षण कानून के अंतर्गत अनुपालन स्थिति का उल्लंघन अपने आप कानून के उल्लंघन हो जाता है। अगर इसका खुलेआम उल्लंघन हो तो कानून का उद्देश्य क्या है? चौधरी ने कहा, 'अगर संसाधनों का दोहन कर उनके खिलाफ यह सब चलने दिया जाता है और उसके लिए छूट दी जाती है, तो वन संरक्षण और पर्यावरण संरक्षण कानूनों का कोई मायने नहीं रह जाता है।"

पांच साल की अवधि का विस्तार देते हुए समिति ने माना कि राज्य से नदी प्रशिक्षण गतिविधियों और वन संरक्षण के लिए अपने कुल लाभ का 50 प्रतिशत उपयोग करने की अपेक्षा थी, लेकिन इसके अनुपालन को भी पुष्टि नहीं की गई है। इस तरह की कमियों के बावजूद राज्य को खनन जारी रखने की अनुमति और अनुपालन रिपोर्ट दायर करने के लिए तीन महीने का वक्त दिया गया।

दी गई छूटों में सबसे विनाशकारी बात जून के महीने में गौला नदी के तल में खनन की अनुमति है, हालांकि इसे दी गई फॉरेस्ट क्लीयरेंस के अनुसार राज्य को 1 अक्टूबर से 31 मई तक ही खनन की अनुमति दी गई है। साउथ एशिया नेटवर्क ऑन डैम्स, रीवर्स एंड पीपुल के एसोसिएट कोऑर्डिनेटर भीम सिंह रावत ने कहा कि मानसून के दौरान नदी की धारा तेज हो जाती है और इसमें एक खास गति होती है। लेकिन अगर खनन हो रहा है और इस गति में व्यवधान होता है, तो नदी अपना रास्ता बदल सकती है और रास्ते में कहर बरपा सकती है।'

पर्यावरण मंत्रालय ने अपने दिशानिर्देशों और समय-समय पर न्यायालयों ने भी मानसून में नदी के तल तक खनन पर प्रतिबंध की बातें दोहराई हैं। दीर्घकालिक रेत खनन गाइडलाइन -2016 और रेत खनन के लिए प्रवर्तन और निगरानी गाइडलाइंस-2020 के अनुसार नदी तल खनन की अनुमति बारिश के मौसम में नहीं दी जा सकती। उत्तराखंड के लिए 2016 में मानसून की अवधि 15 जून से 1 अक्टूबर तक चिन्हित की गई है। लेकिन राज्य खनन कैलेंडर में अधिक महीनों को शामिल करना चाहता है, क्योंकि उसके अपने ही शब्दों में जून में खनन से 50 करोड़ लाभ कमाया। 

सितंबर, 2015 में राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण ने निर्देश दिया था कि बारिश के मौसम में उत्तर भारत की नदियों में खनन की अनुमति नहीं दी जाएगी। अनुमति देने के क्रम में इसने इस स्थिति को शामिल करने का पर्यावरण और वन मंत्रालय के निर्देश दिया था। मई, 2021 में भी कर्नाटक हाईकोर्ट ने मानसून के दौरान नदी तल में खनन की अनुमति नहीं देने के लिए 2016 रेत खनन गाइडलाइंस को उद्धृत किया था।

जब इसने नदी खनन शुरू किया, उत्तराखंड को हर साल नदी से 11.7 मिलियन गौण (माइनर) खनिजों के संग्रह की अनुमति दी गई। शुरुआत में 'हर किनारे के पास एक चौथाई नदी के तल' के संरक्षण के लिए राज्य को आधी नदी तक ही अनुमति दी गई। वन भूमि पर खनन लीज के विस्तार के लिए नए प्रस्ताव में राज्य सरकार ने 70 प्रतिशत नदी तल को चौड़ाई तक खनन की योजनाओं का संकेत दिया।

राज्य का नदी के केन्द्र से अधिकतम तीन मीटर गहराई की सीमा तक खनन का निर्देश दिया गया है। यह गहराई क्रमशः घटती जाएगी क्योंकि नदी के मध्य दूर होगा, लेकिन खबरें बताती हैं कि इसमें लगे श्रमिक इस नियम से अनजान हैं।

जनवरी, 2016 में एनजीटी ने अपने एक पूर्ववर्ती आदेश में गौला में खनन पर रोक लगा दी थी। इस आदेश में गंगा नदी और उसकी सहायक नदियों के 100 मीटर दायरे में खनन पर प्रतिबंध लगाया गया था। कई महीने बाद एनजीटी ने रोक का उल्लंघन करते हुए नदी में अवैध खनन के लिए मानहानि के मामले में उत्तराखंड वन विकास निगम पर 10 करोड़ दंड लगा। भीम सिंह रावत कहते हैं, 'गौला की हालत, पारिस्थितिकी, मछली जीवन चाहे आप जो कहना चाहें, पूरी तरह बर्बाद कर दी गई है। श्रमिकों के श्रम अधिकारों का उल्लंघन हो रहा है। नदी का बहुत अधिक खनन हुआ है और यह ऐसे राज्य के लिए सिर्फ सोने की खान मानी जाती है जिसने नदी संरक्षण को पूरी तरह छोड़ दिया है।' उन्होंने कहा कि ‘गौला नदी नहीं रह गई है, अब वह सिर्फ माइनिंग साइट है।’
 

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