गुच्छुपानी


गुच्छुपानी कुदरत का एक सुन्दर खेल है। मैं सन् 1937 में देहरादून गया था, तब एक दिन की फुरसत थी। कई साथियों ने कहा, ‘चलो हम ‘गुच्छुपानी’ देखने के लिए चलें।’ अन्य साथियों ने ‘सहस्त्रधारा’ देखने का आग्रह किया। गुच्छुपानी नाम तो अच्छा लगा, लेकिन विस्मृति के आवारण के नीचे दबे हुए पुराने संकल्प ने अपना मत सहस्त्रधारा के पक्ष में दिया इसलिए उस समय गुच्छुपानी देखना रह गया।

आम तौर पर बिना पानी की नदी पसन्द नहीं करते। लेकिन जब दोनों ओर ऊंची-ऊंची टेकरियां होती हैं और सारा प्रदेश निर्जन-रम्य होता है, तो सूखी हुई नदी भी भीषण-रमणीय रूप धारण करती है। पानी का प्रवाह भले न हो, लेकिन हरे-हरे जंगल में से होकर सफेद धवल पत्थरों की पट्टी जब पहाड़ों के बीच से अपना रास्ता निकालती आगे बढ़ती है, 1939 में कन्या-गुरुकुल के उत्सव के निमित्त से देहरादून जाना पड़ा। इस वक्त गुच्छुपानी मुझे बुलाए बगैर थोड़ा ही रहने वाला था? देहरादून से गुच्छुपानी आराम से जाने के लिए दो-तीन घंटे काफी हैं। मोटर तो क्या, पैदल आने-जाने में भी तीन साढ़े-तीन घटें से ज्यादा समय नहीं लगता। पहले तो, करीब डेढ़ मील तक मोटर के लिए बनाया हुआ आसफाल्ट का वज्रलेप रास्ता हमें धीरे-धीरे ऊंचे-ऊंचे पेड़ों के बीच से ऊंचे चढ़ाता है; और सामने के पहाड़ पर चमकती मसूरी की गंधर्व नगरी का दर्शन करवाता है। वहां के बंगलों की टेढ़ी-मेंढ़ी कतार जब संध्या-किरणों में चमकने लगती है तो ऐसा आभास होता है मानों चकमक के चौरस टुकड़े बिखरे पड़े हों।

रास्ता छोड़कर हम बायीं ओर के खेत में उतरे, तो सामने साल के बाल-वृक्षों की एक घटा दिखाई देने लगी। इस घटा के बीच से होकर पहाड़ की एक लड़की पत्थरों के साथ खेलती दक्षिणी की ओर दौड़ती जाती है उसका दर्शन हुआ। इस समय उसके पात्र में पानी नहीं था। सिर्फ टेढ़े-मेढ़े लेकिन चमकीले सफेद पत्थर ही वहां बिखरे हुए थे। आम तौर पर बिना पानी की नदी पसन्द नहीं करते। लेकिन जब दोनों ओर ऊंची-ऊंची टेकरियां होती हैं और सारा प्रदेश निर्जन-रम्य होता है, तो सूखी हुई नदी भी भीषण-रमणीय रूप धारण करती है। पानी का प्रवाह भले न हो, लेकिन हरे-हरे जंगल में से होकर सफेद धवल पत्थरों की पट्टी जब पहाड़ों के बीच से अपना रास्ता निकालती आगे बढ़ती है, तो मन में सहज ही खयाल आता है कि ये पत्थर स्कूल के बच्चों की तरह खेल में दौड़ते-दौड़ते यकायक रुक गये हैं।

हम आगे बढ़े, फिर चढ़े, फिर उतरे, खाइओं से होकर गुजरना था, इसलिए दूर-दूर देखने के बजाय आसमान की ओर देखकर ही संतोष मानना पड़ता था। बीच-बीच में पीले और सफेद फूलों का उड़ाऊपन देखकर लगता था कि यहां किसी का बंगला होगा; लेकिन दूसरे ही क्षण यकीन हो जाता था कि ऐसे दृश्य देखकर ही शहर के बंगले वालों को अपने बंगले के इर्द–गिर्द फुल के पौधे लगाने का ख्याल आया होगा। बंगले की चार दीवारें तो कुदरत की गोद से बिछुड़े हुए मानव के लिए ही हैं। यहां तो कुदरत का विशाल महल है। चार दिशाएं उसकी चार दिवारें हैं और आसमान का कटाह उसका गुंबद। रात होने के पहले ही इस गुंबद में चांद-तारों का चंदोवा नियमपूर्वक ताना जाता है। हवा के बिगड़ने पर चंदोवा मैला न हो इस दृष्टि से कभी-कभी उसके ऊपर बादल का पर्दा ढक दिया जाता है।

फूल खुशी से हंस रहे थे। क्या मालूम किसको देखकर हंस रहे थे! अपने आने की सूचना तो हमने दी नहीं थी और दी भी होती तो अपने शिकारियों का आगमन उनको भाता या नहीं यह भी एक सवाल है।

बीच-बीच में छोटी झोंपड़ियां और इन झोपड़ियों को अपमानित करने वाले चूने मिट्टी के घर भी आते रहते थे। रास्ते और म्युनिसिपैलिटी की सुविधा से महरूम घर वन श्री के साथ अच्छी तरह से हिलमिल गये थे और वहां के देहाती जीवन की शान बढ़ाते थे। गोरों की फौजी नौकरी से निवृत्त हुए गुरखे सैनिक यहां कुदरत की गोद में निवृत्ति का आनंद महसूस करते हैं और अपनी वृद्ध पहाड़ी हड्डियों को आराम देते हैं।

हम आगे बढ़े। आगे यानी सीधा आगे नहीं। पहाड़ी पगडंडियों के चक्रव्यूह में तो जैसा रास्ता मिलता जाता है, वैसे आगे बढ़ना पड़ता है। बायीं ओर जाना हो तो भी कभी-कभी दाहिनी ओर का रास्ता लेकर उसकी खुशामद करते-करते आगे बढ़ना पड़ता है। चि. चंदन ने कहा, “आसपास का सुन्दर दृश्य और आसमान के पल-पल में बदलते दृश्य हमारा ध्यान अपनी ओर खींचते हैं, लेकिन एक पल के लिए भी पैर की ओर से असावधान हुए तो इस पहाड़ी नदी के पत्थरों की तरह लुढ़कना पड़ेगा।” उसकी बात सच थी। बड़े-बड़े पत्थरों पर पैर रखकर चलने में खास मजा आता है। लेकिन वे समानांतर थोड़े ही होते हैं? इसलिए कौन सा पत्थर कहां है, मनुष्य के पांव का बोझ सिर पर आने पर भी अपने स्थान से डिगे नहीं ऐसा धीरोदात्त पत्थर कौन है? इस तरह रास्ते का ‘सर्वे’ करते-करते जहां आगे बढ़ना होता है, वहां हरेक कदम में अपना चित्त लगाना पड़ता है। हाथ में पूनी लेकर सूत कातते समय जैसे तसू-तसू में हमारा ध्यान भी कतता है, वैसे ही इस तरह की पहाड़ी यात्रा में कदम-कदम पर हमारा चित्त यात्रा के साथ ओतप्रोत होता है और इससे ही यात्रा का आनंद गहरा होता है।

अब तो एक लंबी-चौड़ी नदी नीचे दिखाई देने लगी। दाहिनी ओर की दरी से आकर बाईं ओर की शाखाओं में वह विभक्त हो जाती थी। सामने की टेकरी पर से तारघर के खंभों ने पांच-सात तारों की कतारे शुरू करके इस पार दूर तलहटी में इस तरह झेली थीं, मानों किसी बच्चे ने अपने हाथ और अपनी आंखें यथा संभव तान कर नदी की चौड़ाई बताने की कोशिश की हो।

उस नदी के तट पर होकर दो छोटे प्रवाह, किसी राजा के अस्त हुए वैभव की तरह धीमे-धीमे जा रहे थे। पानी तो बच्चों के हास्य और रिस जैसा ही निर्मल था। इच्छा हुई कि थोड़ा पानी पेट में पहुंचा दूं। लेकिन धर्मदेव जी की रसिकता बीच में आयी। उन्होंने कहा, “देखिए, सामने झरना दिखाई देता है। एक समय था जब मैं उसका पानी यहां आकर रोज पीता था। चलिए वहीं चलें।”

हम गये। वहां एक छोटी पहाड़ी की कमर पर एक छोटा-सा ताक था। अमृत जैसे झरने को उसमें से निकलने का सूझा। किसी परोपकारी आदमी को उस ताक के नजदीक एक लकड़ी की परनाली लगाने की इच्छा हुई, इसलिए हम लोगों को जल दान स्वीकारने में आसानी हुई। पानी पीने के पहले पश्चिम की ओर ढलते सूर्य को एक मनोमय अर्घ्य देना मैं न भूला।

अब तो जिस दिशा में सूर्य-किरणें फैल रही थीं, उस ओर धीरे-धीरे नदी के पट में हम चढ़ने लगे। आगे क्या दिखाई देगा उसकी निश्चित कल्पना नहीं हो सकती थी। नदी का मूल होगा? या ऊपर से पानी गिरता होगा? या सहस्त्रधारा की तरह पानी में गंधक होगा? ऐसी अनेक कल्पनाएं मन में उठती थीं। इस झरने के नाम के मुताबिक उसका रहस्य भी हमारे लिए गुह्य था। माना जाता है कि गुच्छु शब्द गुह्य पर से आया है।

सुदूर एक कोटर दिखाई देता था। वहां पहुंचे तो कुछ और ही निकला। वहां हमें मालूम हुआ कि गुच्छुपानी के मानी क्या है।

रेलवे लाइन डालने के लिए जिस तरह पहाड़ तोड़कर सुरंग या टनल खोदी जाती है, उसी तरह एक आग्रही झरने ने सारी टेकरी को आर-पार बींधकर अपना रास्ता निकाला था। नहीं, नहीं, यह तो गलत उपमा दे दी। जिस तरह फौलाद की करवत लकड़ी या ‘पोरबंदरी’ पत्थर को काटती-काटती नीचे उतरती जाती है, उसी तरह इस झरने ने एक टेकरी सीधी काट डाली है। इसमें किसी तरकीब से काम नहीं लिया गया। वज्रकाय पाषाणों को बींधकर पानी जब आर-पार निकल जाता है, तो आश्चर्यचकित मन सवाल पूछ बैठता है कि समर्थ कौन है? अडिग पहाड़ और उसके प्राचीन पत्थरों की अभेद्य दीवारें या पल भर का भी विचार किए बगैर अपना बलिदान देने को तैयार चंचल और तरल नीर?

उस विवर या गुफा में घुसने की कोशिश करते-करते दिल थोडा-सा कांप उठे तो उसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं, इतना अद्भुत था वह दृश्य। वह मौत के मुंह में प्रवेश करने जैसा साहस था। अंदर दाखिल होते ही मुझे तो गीता के ग्यारहवें अध्याय के श्लोक याद आने लगे। फिर भी पहाड़ और जल की शक्ति के द्वारा अपना सामर्थ्य व्यक्त करने वाली प्रकृतिमाता के स्वभाव पर विश्वास रखकर हम लोग अंदर दाखिल हुए।

जिस तरह फौलाद की करवत लकड़ी या ‘पोरबंदरी’ पत्थर को काटती-काटती नीचे उतरती जाती है, उसी तरह इस झरने ने एक टेकरी सीधी काट डाली है। इसमें किसी तरकीब से काम नहीं लिया गया। वज्रकाय पाषाणों को बींधकर पानी जब आर-पार निकल जाता है, तो आश्चर्यचकित मन सवाल पूछ बैठता है कि समर्थ कौन है? अडिग पहाड़ और उसके प्राचीन पत्थरों की अभेद्य दीवारें या पल भर का भी विचार किए बगैर अपना बलिदान देने को तैयार चंचल और तरल नीर? उस टेकरी के कुदरती वज्रलेप में चुने हुए, काले, धौले और लाल गोल पत्थर जैसे दिखाई देते थे मानों सीमेंट से चुने गये हों। और जल का नम्र प्रवाह पैर के नीचे छोटे-छोटे पत्थरों पर से अपनी विजय-गाथा गाता हुआ दौड़ता चला जा रहा था। सिर ऊंचा करके देखा तो पानी द्वारा टेकरी को काटकर बनाई हुई खासी बीस-तीस फुट की दो दीवारे अपने लाखों बरसों के इतिहास की गवाही दे रही थीं। मेरे बजाय कोई भूस्तरशास्त्री यहां आया होता तो पहले वह यह देखता कि यह पत्थर ग्रेनाईट के हैं या सेंडस्टोन के? फिर दीवार की ऊंचाई क्या है, पानी की ढाल कितना है, हर दसवें साल पानी कितना गहरा जाता है, इन सब का हिसाब लगाकर वह इस कुदरती सुरंग की उम्र निश्चित करके कहता, “इस पहाड़ी प्रवाह का खेल पचास हजार या दो लाख सालों से चला आ रहा है।” पास की दीवार में फंसे हुए रंग बिरंगे पत्थरों को देखकर वह उनकी उम्र पूछता और उनको जकड़कर बैठी हुई मिट्टी को वज्रलेप सीमेंट होते कितने साल बीते होंगे उसका हिसाब लगाकर टेकरी- की उम्र भी (हमारे लिए) निश्चित कर देता। और यदि उसको यहां हुए भूकंप का इतिहास किसी से मालूम हो जाता तो अपने गणित में उसके मुताबिक परिवर्तन करके उसने नये निर्णय भी दिये होते। इस वज्रलेप सीमेंट के बीच में चमड़े या बारीक जाल जैसी डिज़ाईन कैसे बनी और उसमें से पानी के बारीक फुहारे क्यों निकलते हैं, यह भी बताया होता। सचमुच नक्षत्र-विद्या के समान यह भूस्तर-विद्या भी अद्भुत-रम्य है। मनोविज्ञान से उनकी खोज कम अटपटी नहीं है। ये तीन विद्याएं मानव-बुद्धि-बल का अद्भुत-रम्य विलास हैं।

हम उस गुफा में दूर तक चले गये। एक जगह ऊंचे भी चढ़ना पड़ा। पास में ही पानी का छोटा-सा प्रपात गिर रहा था। थोड़ा आगे बढ़े तो पत्थर और चूने से बंधी हुई दो दीवारें देखकर कोशिश करने पर भी मैं अपना हंसना रोक न सका। मानव ने सोचा कि पहाड़ का हृदय बींधकर आरपार निकलने वाले पानी को हम दो दीवारों से रोक सकेंगे! मेरी भावना को समझते ही वह विजयी प्रपात मुझसे कहने लगा, “और मैं भी उसी कारण हंसता हूं।” पहाड़ को चीरा हुआ हृदय भग्न होने पर भी भव्य दिखाई देता था। लेकिन मानव की टूटी हुई दीवारें उसके मनोरथ की तरह तिरस्कार और हास्य के भाव पैदा करती थीं। किसी उद्दाम आदमी को तमाचा पड़े और उसका मुंह मुरझाया हुआ दिखाई दे, इस तरह इन दीवारों को अधिक समय तक देखने की इच्छा भी नहीं होती थी। लंबे अर्से तक किसी की फजीहत के साक्षी भी हम कैसे रह सकते हैं?

अंदर आगे बढ़ने के साथ उस विवर की शोभा बढ़ती ही जाती थी। इतने में उन दो दीवारों के बीच एक बड़ा पत्थर गिरता-गिरता अटका हुआ दिखाई दिया। ऊपर से कूदा होगा। और पास की स्नेहमयी दीवारों ने उससे कहा होगा, “अरे भाई ठहर जा, पानी के खेल में खलल न पहुंचा।” बेचारा क्या करे! लटका हुआ वहीं खड़ा है। उलटे सिर लटकते हुए पानी का खेल मजबूरन देखना उसकी किस्मत में लिखा था। उस पर तरस खाते हुए हम आगे बढ़े तो एक दूसरा पत्थर उसी तरह लटकता हुआ और अपनी पीठ पर अपने से तीन गुने बड़े पत्थर का बोझ लादे रूका हुआ दिखाई दिया। हम उसके नीचे से भी गुजरे। अगर पास की दीवारें जरा (धंसकर) चौड़ी हो जातीं, तो हमारी हड्डियां चकनाचूर हो जातीं और दो-चार क्षण के लिए पानी का रंग लाल-लाल हो जाता। फिर कुदरत कहती की मुझे कुछ भी मालूम नहीं हैं। दो-चार मानव यहां आये होंगे और उन्होंने अपनी निर्थक जिज्ञासा की कीमत चुकाई होगी। यह बात ध्यान में रखने योग्य थोड़ी ही है! उनके जैसे दूसरे मानव जब कभी यहां आ पहुंचेगे तब पत्थरों में दबे हुए कई अवशेष उनको मिलेंगे। और सच्ची-झूठी कल्पनाओं पर सवार होकर एकाध प्रकरण खड़ा करेंगे। बस और क्या?

चलते-चलते हम थके तो नहीं, लेकिन ठंडे पानी में नुकीले पत्थरों पर नंगे पैर चलते-चलते पैर दुखने लगे इसका इनकार नहीं सकता। लेकिन उस गुफा प्रवेश की अद्भुतता का अनुभव करते-करते हम अघा गये। अंदर आगे बढ़ते-बढ़ते भला कितना बढ़ सकते थे? आखिर आगे बढ़ने का हौसला मंद हो गया। लेकिन मन कहने लगा, हारकर वापस कैसे जायं? यहां तक आये हैं तो आर-पार जाना ही चाहिये। जो दूसरा सिरा न देखे वह मानवी मन नहीं है।

आगे बढ़ते ही पाट थोड़ा चौड़ा हुआ और पानी के भीषणता कम हो गयी। इसलिए सयाने बनकर हमने मान लिया कि अब आगे का दृश्य नीरस ही होगा। वहां न गये तो चलेगा। हम वापस लौटे। फिर वहीं दृश्य, वहीं डर! वहीं जिज्ञासा और वहीं भावनाए!!

उस गुफा से बाहर निकलते-निकलते पूरे सोलह मिनट लगे!!! मैंने अपनी आदत के मुताबिक इस यात्रा के स्मारक के तौर पर दो सुन्दर मुलायम पत्थर ले लिये। और अंधेरे में तेज कदम बढ़ाते-बढ़ाते घर लौटे। मन में एक ही सवाल उठ रहा थाः कौन समर्थ हैं? ये वज्रकाय पुराने पहाड़ या यह नम्र किन्तु आग्रही जीवनधर्मी सत्याग्रही नीर?

Path Alias

/articles/gaucachaupaanai

Post By: Hindi
×