समय से पहले पसीने से तरबतर कर देने वाली गर्मी में सैलानियों का पहाड़ो की तरफ रूख करने का सिलसिला अब शुरू होने ही वाला है और इस बार भी लाखों पर्यटक हिमालय की वादियों में कलकल बहती गंगा के दामन में हजारों टन गंदगी छोड़ जाएंगे। करोड़ो लोगों की आस्था की प्रतीक गंगा अपने उद्गम स्थल गोमुख से 2510 किलोमीटर का सफर तय करके बंगाल की खाड़ी में गिरती है और इस दौरान देश की आधी आबादी के जीने का आवश्यक साजो सामान उपलब्ध कराती है। गोमुख से करीब 300 किलोमीटर का पहाड़ी रास्ता तय कर हिंदू मान्यताओं के अनुसार धरती में ईश्वर के प्रवेश द्वार माने जाने वाले नगर हरिद्वार तक आते आते गंगा के निर्मल जल में तकरीबन 89 मिलियन लीटर सीवर का मैल घुल जाता है।
उत्तराखंड पर्यावरण संरक्षण एवं प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के आकड़ों की माने तो हर वर्ष मई से अक्टूबर के मध्य 20 लाख से अधिक सैलानियों के जमावड़े के चलते गंगा में प्रदूषण के स्तर में भारी बढ़ोत्तरी होती है। बोर्ड के सूत्रों के अनुसार अकेले हरिद्वार में हर रोज 37 मिलियन लीटर मैला जल बिना शोधन के गंगा में घुल जाता है। हालांकि, गंगा को प्रदूषण मुक्त करने के लिए उत्तराखंड सरकार ने हाल ही में 400 करोड़ रूपए गंगा एक्शन कमेटी को दिए थे।
सरकारी दावे को यदि माने तो हरिद्वार में सात नालों और ऋषिकेश के चार नालों से निकलने वाले उत्प्रवाह को शोधन यंत्रो के उपचार के बाद गंगा मे छोड़ा जा रहा है जिससे यहां का पानी पीने योग्य है। जल में शुद्धता का पैमाना कालीफार्म होता है। कालीफार्म के स्तर के आधार पर पानी के प्रति 100 मिली में घुलित बायोकेमिकल आक्सीजन डिमांड(बीओडी) के अध्य्यन के लिए इसे चार स्तरों में बांटा गया है। पेयजल के लिए कालीफार्म की मात्रा 50 मोस्ट प्राब्बल नम्बर (एमपीएन) से कम होनी चाहिए जबकि स्नान युक्त पानी के लिए यह स्तर 500 एमपीएन से अधिक नही होना चाहिए। इसके अलावा कृषि के उपयोग के लिये यह मात्रा अधिकतम 5000 एमपीएन हो सकती है।
सूत्रों के अनुसार हरिद्वार में ही गंगा में कालीफार्म का स्तर 5500 एमपीएन से करीब रहता है। जल संरक्षण के लिए काम करने वाले संगठन एवरीथिंग एबाउट वाटर प्राइवेट लिमिटेड के अनुसार गंगा नदी में प्रति वर्ष करीब 1.3 अरब लीटर गंदा पानी और 25 करोड़ लीटर औद्योगिक कचरा बहा दिया जाता है। गंदे पानी का 90 प्रतिशत हिस्सा बिना किसी उपचार या शुद्धीकरण के नदी में बहा दिया जाता हैं। देश के विभिन्न शहर प्रति वर्ष करीब दो करोड़ घनमीटर गंदा पानी छोडते हैं लेकिन अधिकतर उद्योगों को इस्तेमाल करने वाले और छोड़े गए पानी के उपचार के बारे में या तो पता नहीं है या इसमें कोई रूचि नहीं है।
हरिद्वार के बाद ठेठ मैदानी भागों से गुजरती हुई गंगा का औद्योगिक नगर कानपुर में चमड़े की विशाल टेनरियों से निकल रहे विषाक्त जल से स्वागत होता है। औद्योगिक नगरी मे कुकरमुत्तों की तरह फैली छोटी बड़ी टेनरियों और सीवर का मैला जल 10 किलोमीटर के दायरे में गंगा के जल को 250 गुना अधिक प्रदूषित कर देता है।
धार्मिक नगरी वाराणसी के घाटों पर हर रोज दो लाख से अधिक श्रद्धालु डुबकी लगाते है। केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से प्राप्त आकड़ों के अनुसार यहां के जल में कालीफार्म की मात्रा बहुत अधिक मापी गयी है जो स्नानयुक्त जल के लिए उपयुक्त मानको से 120 गुना अधिक है। धार्मिक नगरी के चार मील के दायरे में 24 सीवर लाइनों से प्रदूषण युक्त जल और 60 हजार से अधिक पर्यटकों के कारण इसके स्तर में तीन हजार गुने से अधिक का इजाफा होता है।
गंगा को प्रदूषण मुक्त करने के प्रयासों के तहत तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने वर्ष 1985 को गंगा एक्शन प्लान की शुरूआत की थी। 14 जून 1986 से लेकर 31 मार्च 2000 तक चले पहले चरण के काम में 1500 करोड़ रूपए से अधिक खर्च आया था। अकेले कानपुर में इस दौरान 150 करोड़ रूपए व्यय किए गए। केंद्र सरकार गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित कर चुकी है और प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में इस नदी को प्रदूषण मुक्त करने के लिए गंगा बेसिन प्राधिकरण का गठन भी किया जा चुका है। गंगा को बचाने के लिये सरकार ने अपने बजट में भारी भरकम रकम का भी ऎलान किया है लेकिन दृढ़ इच्छाशक्ति के अभाव में यह सब जल्द संभव होता नहीं दिखता।
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