गरजता हुआ शोणभद्र

‘अयं शोणः शुभ जलोSगाधः पुलिन-मण्डितः’।
‘कतरेण पथा ब्रह्मन् संतरिष्यामहे वयम्?’।।

एवम् उक्तस् तु रामेण विश्वामित्रोSब्रवीद् इदम्।
‘एष पन्था मयोद्दिष्टो येन यान्ति महर्षयः’।।


आसेतु-हिमाचल भारतवर्ष के बारे में एक ही साथ विचार करने वाले क्षत्रिय गुरू-शिष्य की इस जोड़ी के मन में शोणनद पार करते समय क्या-क्या विचार आये होंगे? प्रकृति के कवी वाल्मीकि ने विश्वमित्र और राम, दोनों के प्रकृति-प्रेम का मुक्तकंठ से वर्णन किया है। तीनों जनगण हितकारी मूर्तियां। उनकी भावनाओं का स्रोत भी शोणभद्र की तरह ही बहता होगा, और आसपास की भूमि को मुखरित करता होगा।

अमरकंटक के आसपास की उन्नत भूमि भारतवर्ष के लगभग मध्य में खड़ी हैं। वहां से तीन दिशाओं की ओर अपने अपनी करुणा का स्तन्य छोड़ दिया है। भौगोलिक रचना की दृष्टि से जिनके बीच काफी साम्य है, किन्तु दूसरी दृष्टि से संपूर्ण वैषम्य है, ऐसे दो प्रांतों को उसने दो नदियां दी हैं। नर्मदा गुजरात के हिस्से आयी, और महानदी उत्कल को मिली।

अमरकंटक का तीसरा स्रोत है पीवरकाय शोणभद्र। नर्मदा सुदीर्घा है, महानदी अष्टावक्रा है और शोणभद्र सुघोष है। करीब पांच सौ मील का पराक्रम पूरा करके वह पटना के पास गंगा से मिलता है। शोण के कारण ही शोणपुर का स्थान मशहूर है। कहते हैं कि ग्राह के साथ गजेंद्र की लड़ाई गंगा-शोण के संगम के समीपस्थ दह में ही हुई थी। मानो इसी प्रसंग को चिरस्मरणीय करने के लिए अब भी शोणपुर में लाखों लोगों का मेला होता है, और उसमें सैकडों हाथी बेचे जाते हैं।

सिन्धु और ब्रह्मपुत्र के साथ शोणभद्र को नर नाम देकर प्राचीन ऋषियों ने उसका समुचित आदर किया है। बनारस से गया जाते समय इस महाकाय और महानाद नद के दर्शन हुए थे। गाड़ी बड़े पुल पर से जाती है और शोणभद्र का पुलिन मंडित महापट दिखता रहता है। संकरी घाटी में अपना विकास रुकने के कारण अधीरता के साथ जब दौड़ता हुआ वह यकायक विशाल क्षेत्र में पहुंचता है, तब कहां जाऊं और कहां न जाऊं यह भाव उसके चेहरे पर स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। ‘नाल्पे सुखम् अस्ति; यो वै भूमा तत् सुखम्’ – यह मानने वाले महर्षिगण शोण के किनारे अच्छा उतार खोजते हुए जब घुमते होंगे, तब उनके मन में क्या-क्या विचार आते होंगे? यह तो विश्वामित्र या उनके मखत्राता प्रभु श्री रामचंद्र जी ही जानें।

1926-27

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