चूल्हे से निकलने वाला काला कार्बन अब पर्यावरणवादियों की चिंता में आ चुका है। तरह-तरह के नये चूल्हे बनाये जा रहे हैं जिनसे कम कार्बन निकले और खाना बनाने वाले की सेहत भी ठीक रहे। एक समय था जब यह धारणा फैलाई गई कि गरीब लोग खाना बनाने के लिए लकड़ी जलाते हैं और इसी से जंगलों का नुकसान हो रहा है। साथ ही चूल्हे से जो धुआँ और कालिख उठती है उससे महिलाओं में कैंसर का खतरा बढ़ता है। अमीर लोगों द्वारा किया जा रहा प्रदूषण और गरीब लोगों के प्रदूषण के बीच अंतर का कारण अंतरराष्ट्रीय बिरादरी नहीं समझना चाहती। ग़रीबों का चूल्हा और अमीरों का प्रदूषण के बीच अंतर, सियासत और शक्ति संतुलन के बारे में बता रही हैं सुनीता नारायण।
कार्बन डाइऑक्साइड के विपरीत यह कुछ ही सप्ताह में खत्म हो जाता है। हमें इन ग़रीबों के तरीके को खत्म करने के बजाय ऐसा रास्ता निकालना चाहिए कि हम भी उनके रास्ते को अपना सकें। यह आसान नहीं होगा, यह सस्ता भी नहीं होगा। विज्ञान को ऐसे चूल्हे को ईजाद करना ही होगा, जो जैव उत्पादों का इस्तेमाल करके हर तरह के घरों में इस्तेमाल हो सके। क्या हम इस चुनौती के लिए तैयार हैं।तकरीबन 24 साल पहले की बात है। मैं राजस्थान के शहर उदयपुर के एक गांव में थी। एक सरकारी कर्मचारी मुझे समझा रहा था कि सुधारा गया चूल्हा कैसे काम करता है। इसे एक रसोई में लगाया गया था। यह वह समय था जब भारत में जंगलों की बर्बादी को लेकर जागरूकता आने लगी थी। तब एक धारणा यह थी कि गरीब लोग खाना पकाने के लिए लकड़ी जलाते हैं और इसी से जंगलों को नुकसान पहुँचता है। यह भी माना जाता था कि चूल्हे से धुआँ उठता है, जो कैंसर जैसे रोगों का कारण होता है, इसी वजह से औरतें इस रोग की सबसे बड़ी शिकार बनती हैं। हल यह निकाला गया कि ऐसा चूल्हा बनाया जाए, जिसमें जलने का अच्छा प्रावधान हो और एक चिमनी हो, जिससे खाना पकाने वाली औरतों को नुकसान न हो।
इस नए चूल्हें में एक औरत खाना पका रही थी। मैंने उससे पूछा कि क्या सरकार ने उसे जो चूल्हा दिया है, उससे वह खुश है। उसका जवाब था, ‘यह देखने में अच्छा है, पर काम नहीं करता, मैंने इसमें बदलाव किया है’। उसकी समस्या यह थी कि घर का खाना बड़े बर्तनों में ही बन सकता था। नया चूल्हा छोटा था, आग के लिए थोड़ी सी ही जगह थी, इसलिए वह उसके किसी काम का नहीं था।
जब चूल्हे का डिज़ाइन तैयार किया गया तो किसी ने उससे नहीं पूछा कि उसकी जरूरत क्या है। किसी ने उसे थर्मोडायनमिक का सिद्धांत नहीं बताया, जिससे वह जान पाती कि चूल्हा कैसे जलता है। कोई चूल्हे को ठीक करने या उसकी जरूरत के मुताबिक बनाने के लिए उसके पास नहीं आया। उसने बस चूल्हे का अगला हिस्सा तोड़ा और जरूरत के मुताबिक जलावन डालने की जगह बना ली। स्थानीय विश्वविद्यालय की प्रयोगशाला में थर्मोडायनामिक की कई गणनाओं के बाद सरकार के कार्यक्रम के तहत उस चूल्हे को बनाया गया होगा, लेकिन सब बेकार साबित हो गया। उस दिन मैंने अपनी जिंदगी का यह सबसे बड़ा सबक सीखा कि लोगों की तरह-तरह की ज़रूरतों और उनकी क्रय क्षमता के हिसाब से चीजों को डिज़ाइन करना, इंसान को चांद पर भेजने से भी ज्यादा जटिल काम है।
एक नजर डालते हैं सरकारी आंकड़ों पर। 1994 तक देश भर में 1.5 करोड़ नए चूल्हे बांटे गए। नेशनल काउंसिल ऑफ एप्लाइड इकॉनमिक रिसर्च के एक सर्वे में पाया गया कि चूल्हे का डिज़ाइन ठीक नहीं था और ज्यादातर मामलों में वह टूट गया। 62 फीसदी लोगों ने कहा कि उन्हें नहीं पता कि इसे ठीक कराने के लिए किसके पास जाना होगा। कोई हैरत की बात नहीं। गरीबों तक तकनीक पहुंचाना एक ऐसा काम है, जिसे बाजार ठीक से नहीं कर पाता।
लेकिन मैं इस इतिहास का जिक्र अब क्यों कर रही हूं? चूल्हे फिर वापस आ गए हैं। इस बार विश्व स्तर पर। विज्ञान ने काले कार्बन को कटघरे में खड़ा किया है, कहा जा रहा है कि यह पर्यावरण परिवर्तन का बड़ा गुनहगार है। यह हवा को गर्म करता है, वह जब ग्लेशियरों पर पहुँचता है तो वे पिघलने लगते हैं। यानी अब फिर से ग़रीबों के घर के चूल्हे से निकलने वाली कालिख, जलाए जानी वाली लकड़ियों, टहनियों और उपलों पर बतंगड़ खड़ा हो गया है। अमेरिकी कांग्रेस में एक बिल पेश हुआ है, जिसमें ब्लैक कार्बन को कम करने की बात कही गई है। इसके विदेशों में मदद का भी प्रावधान है, साथ ही दो करोड़ घरों को आधुनिक चूल्हे देने का भी।
ब्लैक कार्बन के विज्ञान से मुझे कोई एतराज़ नहीं है। और यह तर्क भी नहीं दिया जा सकता कि ग़रीबों के चूल्हे में सुधार की कोई जरूरत ही नहीं है। समस्या नीयत की भी नहीं है। समस्या यह है कि इसके लिए ‘क्या’ और ‘कैसे’ किया जाना चाहिए। आज अंतरराष्ट्रीय बिरादरी इस चूल्हे को आसान समाधान माने बैठी है। यह कहा जा रहा है कि 18 फीसदी समस्या इसी से पैदा होती है, सो इसी को हटा दो। इस सीधे समाधान की दिक्कत यह है कि यह कारों और विद्युत संयंत्रों से प्रदूषण जारी रखने की रियायत दे रहा है। अंतरराष्ट्रीय बिरादरी उन गरीब लोगों के उत्सर्जन की बात कर रहे हैं, जो जलाऊ लकड़ियां और सूखी पत्तियां ढूंढने के लिए मीलों घूमने को मजबूर हैं। जो सूखे गोबर को सिर्फ इसलिए तलाशते हैं, ताकि वे अपना खाना पका सकें।
उसके सामने हमारे और आपके द्वारा फैलाया गया उत्सर्जन है, जो कार से दफ्तर जाते हैं और एयरकंडीशन कमरे में दिन गुज़ारते हैं। नीति बनाने और उसे लागू करने के लिए यह फर्क करना बहुत जरूरी है। वर्ना हम भविष्य में उत्सर्जन को कम करने का वह अवसर खो देंगे जो हमें ये गरीब उपलब्ध कराते हैं। इस अंतरराष्ट्रीय बिरादरी को पता नहीं है कि ये गरीब कैसे जिंदा रहते हैं और सबसे ज्यादा प्रदूषण करने वालों में कितना ज्यादा घमंड है। ये गरीब लोग चूल्हा इसलिए जलाते हैं क्योंकि उनके पास इतने पैसे नहीं हैं कि वे व्यावसायिक ईंधन को ख़रीद सकें। पर्यावरण के बदलावों को रोकने की कुंजी भी उन्हीं के पास है।
अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी के 2006 के आंकड़े बताते हैं कि दुनिया की 13 फीसदी ऊर्जा ऐसी है, जिसे हम रिन्यूएबल यानी फिर से इस्तेमाल लायक मानते हैं। और इस ऊर्जा में भी चार फीसदी हिस्सा सौर्य और पवन ऊर्जा के स्रोतों से आता है। पनबिजली बस 16 फीसदी ही है। बाकी लगभग 80 फीसदी हिस्सा बायोमॉस या जैव उत्पादों से आता है, यानी उन्हीं चूल्हों से जिन्हें दुनिया भर के गरीब जलाते हैं। इसलिए ये लोग समस्या का कारण नहीं हैं, ये लोग तो समाधान का रास्ता हैं। ऊर्जा का यह सारा चक्र ऐसा है कि जब ये लोग अपनी गरीबी से मुक्ति पाते हैं तो वे इन चूल्हों से मुक्ति पा लेते हैं और रसोई गैस जैसे फॉसिल्स ईंधन को अपना लेते हैं।
हर बार जब ऐसा होता है तो रिन्यूएबल ऊर्जा इस्तेमाल करने वाला एक परिवार कम हो जाता है। और फिर वह हमारी तरह ही ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन करने लगता है। काले धुंए का प्रदूषण स्थानीय होता है, यह खाना बनाने वाली औरत के लिए सबसे बड़ी समस्या खड़ी करता है। कार्बन डाइऑक्साइड के विपरीत यह कुछ ही सप्ताह में खत्म हो जाता है। हमें इन ग़रीबों के तरीके को खत्म करने के बजाय ऐसा रास्ता निकालना चाहिए कि हम भी उनके रास्ते को अपना सकें। यह आसान नहीं होगा, यह सस्ता भी नहीं होगा। विज्ञान को ऐसे चूल्हे को इजाद करना ही होगा, जो जैव उत्पादों का इस्तेमाल करके हर तरह के घरों में इस्तेमाल हो सके। क्या हम इस चुनौती के लिए तैयार हैं।
लेखिका सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट की निदेशक हैं।
कार्बन डाइऑक्साइड के विपरीत यह कुछ ही सप्ताह में खत्म हो जाता है। हमें इन ग़रीबों के तरीके को खत्म करने के बजाय ऐसा रास्ता निकालना चाहिए कि हम भी उनके रास्ते को अपना सकें। यह आसान नहीं होगा, यह सस्ता भी नहीं होगा। विज्ञान को ऐसे चूल्हे को ईजाद करना ही होगा, जो जैव उत्पादों का इस्तेमाल करके हर तरह के घरों में इस्तेमाल हो सके। क्या हम इस चुनौती के लिए तैयार हैं।तकरीबन 24 साल पहले की बात है। मैं राजस्थान के शहर उदयपुर के एक गांव में थी। एक सरकारी कर्मचारी मुझे समझा रहा था कि सुधारा गया चूल्हा कैसे काम करता है। इसे एक रसोई में लगाया गया था। यह वह समय था जब भारत में जंगलों की बर्बादी को लेकर जागरूकता आने लगी थी। तब एक धारणा यह थी कि गरीब लोग खाना पकाने के लिए लकड़ी जलाते हैं और इसी से जंगलों को नुकसान पहुँचता है। यह भी माना जाता था कि चूल्हे से धुआँ उठता है, जो कैंसर जैसे रोगों का कारण होता है, इसी वजह से औरतें इस रोग की सबसे बड़ी शिकार बनती हैं। हल यह निकाला गया कि ऐसा चूल्हा बनाया जाए, जिसमें जलने का अच्छा प्रावधान हो और एक चिमनी हो, जिससे खाना पकाने वाली औरतों को नुकसान न हो।
इस नए चूल्हें में एक औरत खाना पका रही थी। मैंने उससे पूछा कि क्या सरकार ने उसे जो चूल्हा दिया है, उससे वह खुश है। उसका जवाब था, ‘यह देखने में अच्छा है, पर काम नहीं करता, मैंने इसमें बदलाव किया है’। उसकी समस्या यह थी कि घर का खाना बड़े बर्तनों में ही बन सकता था। नया चूल्हा छोटा था, आग के लिए थोड़ी सी ही जगह थी, इसलिए वह उसके किसी काम का नहीं था।
जब चूल्हे का डिज़ाइन तैयार किया गया तो किसी ने उससे नहीं पूछा कि उसकी जरूरत क्या है। किसी ने उसे थर्मोडायनमिक का सिद्धांत नहीं बताया, जिससे वह जान पाती कि चूल्हा कैसे जलता है। कोई चूल्हे को ठीक करने या उसकी जरूरत के मुताबिक बनाने के लिए उसके पास नहीं आया। उसने बस चूल्हे का अगला हिस्सा तोड़ा और जरूरत के मुताबिक जलावन डालने की जगह बना ली। स्थानीय विश्वविद्यालय की प्रयोगशाला में थर्मोडायनामिक की कई गणनाओं के बाद सरकार के कार्यक्रम के तहत उस चूल्हे को बनाया गया होगा, लेकिन सब बेकार साबित हो गया। उस दिन मैंने अपनी जिंदगी का यह सबसे बड़ा सबक सीखा कि लोगों की तरह-तरह की ज़रूरतों और उनकी क्रय क्षमता के हिसाब से चीजों को डिज़ाइन करना, इंसान को चांद पर भेजने से भी ज्यादा जटिल काम है।
एक नजर डालते हैं सरकारी आंकड़ों पर। 1994 तक देश भर में 1.5 करोड़ नए चूल्हे बांटे गए। नेशनल काउंसिल ऑफ एप्लाइड इकॉनमिक रिसर्च के एक सर्वे में पाया गया कि चूल्हे का डिज़ाइन ठीक नहीं था और ज्यादातर मामलों में वह टूट गया। 62 फीसदी लोगों ने कहा कि उन्हें नहीं पता कि इसे ठीक कराने के लिए किसके पास जाना होगा। कोई हैरत की बात नहीं। गरीबों तक तकनीक पहुंचाना एक ऐसा काम है, जिसे बाजार ठीक से नहीं कर पाता।
लेकिन मैं इस इतिहास का जिक्र अब क्यों कर रही हूं? चूल्हे फिर वापस आ गए हैं। इस बार विश्व स्तर पर। विज्ञान ने काले कार्बन को कटघरे में खड़ा किया है, कहा जा रहा है कि यह पर्यावरण परिवर्तन का बड़ा गुनहगार है। यह हवा को गर्म करता है, वह जब ग्लेशियरों पर पहुँचता है तो वे पिघलने लगते हैं। यानी अब फिर से ग़रीबों के घर के चूल्हे से निकलने वाली कालिख, जलाए जानी वाली लकड़ियों, टहनियों और उपलों पर बतंगड़ खड़ा हो गया है। अमेरिकी कांग्रेस में एक बिल पेश हुआ है, जिसमें ब्लैक कार्बन को कम करने की बात कही गई है। इसके विदेशों में मदद का भी प्रावधान है, साथ ही दो करोड़ घरों को आधुनिक चूल्हे देने का भी।
ब्लैक कार्बन के विज्ञान से मुझे कोई एतराज़ नहीं है। और यह तर्क भी नहीं दिया जा सकता कि ग़रीबों के चूल्हे में सुधार की कोई जरूरत ही नहीं है। समस्या नीयत की भी नहीं है। समस्या यह है कि इसके लिए ‘क्या’ और ‘कैसे’ किया जाना चाहिए। आज अंतरराष्ट्रीय बिरादरी इस चूल्हे को आसान समाधान माने बैठी है। यह कहा जा रहा है कि 18 फीसदी समस्या इसी से पैदा होती है, सो इसी को हटा दो। इस सीधे समाधान की दिक्कत यह है कि यह कारों और विद्युत संयंत्रों से प्रदूषण जारी रखने की रियायत दे रहा है। अंतरराष्ट्रीय बिरादरी उन गरीब लोगों के उत्सर्जन की बात कर रहे हैं, जो जलाऊ लकड़ियां और सूखी पत्तियां ढूंढने के लिए मीलों घूमने को मजबूर हैं। जो सूखे गोबर को सिर्फ इसलिए तलाशते हैं, ताकि वे अपना खाना पका सकें।
उसके सामने हमारे और आपके द्वारा फैलाया गया उत्सर्जन है, जो कार से दफ्तर जाते हैं और एयरकंडीशन कमरे में दिन गुज़ारते हैं। नीति बनाने और उसे लागू करने के लिए यह फर्क करना बहुत जरूरी है। वर्ना हम भविष्य में उत्सर्जन को कम करने का वह अवसर खो देंगे जो हमें ये गरीब उपलब्ध कराते हैं। इस अंतरराष्ट्रीय बिरादरी को पता नहीं है कि ये गरीब कैसे जिंदा रहते हैं और सबसे ज्यादा प्रदूषण करने वालों में कितना ज्यादा घमंड है। ये गरीब लोग चूल्हा इसलिए जलाते हैं क्योंकि उनके पास इतने पैसे नहीं हैं कि वे व्यावसायिक ईंधन को ख़रीद सकें। पर्यावरण के बदलावों को रोकने की कुंजी भी उन्हीं के पास है।
अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी के 2006 के आंकड़े बताते हैं कि दुनिया की 13 फीसदी ऊर्जा ऐसी है, जिसे हम रिन्यूएबल यानी फिर से इस्तेमाल लायक मानते हैं। और इस ऊर्जा में भी चार फीसदी हिस्सा सौर्य और पवन ऊर्जा के स्रोतों से आता है। पनबिजली बस 16 फीसदी ही है। बाकी लगभग 80 फीसदी हिस्सा बायोमॉस या जैव उत्पादों से आता है, यानी उन्हीं चूल्हों से जिन्हें दुनिया भर के गरीब जलाते हैं। इसलिए ये लोग समस्या का कारण नहीं हैं, ये लोग तो समाधान का रास्ता हैं। ऊर्जा का यह सारा चक्र ऐसा है कि जब ये लोग अपनी गरीबी से मुक्ति पाते हैं तो वे इन चूल्हों से मुक्ति पा लेते हैं और रसोई गैस जैसे फॉसिल्स ईंधन को अपना लेते हैं।
हर बार जब ऐसा होता है तो रिन्यूएबल ऊर्जा इस्तेमाल करने वाला एक परिवार कम हो जाता है। और फिर वह हमारी तरह ही ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन करने लगता है। काले धुंए का प्रदूषण स्थानीय होता है, यह खाना बनाने वाली औरत के लिए सबसे बड़ी समस्या खड़ी करता है। कार्बन डाइऑक्साइड के विपरीत यह कुछ ही सप्ताह में खत्म हो जाता है। हमें इन ग़रीबों के तरीके को खत्म करने के बजाय ऐसा रास्ता निकालना चाहिए कि हम भी उनके रास्ते को अपना सकें। यह आसान नहीं होगा, यह सस्ता भी नहीं होगा। विज्ञान को ऐसे चूल्हे को इजाद करना ही होगा, जो जैव उत्पादों का इस्तेमाल करके हर तरह के घरों में इस्तेमाल हो सके। क्या हम इस चुनौती के लिए तैयार हैं।
लेखिका सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट की निदेशक हैं।
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