राजस्थान के विशेष संदर्भ में
भारतीय लोकतांत्रिक संरचना में शासन के तीसरे स्थानीय स्तर पर विद्यमान पंचायती राज प्रणाली में ग्रामसभा प्रत्यक्ष लोकतंत्र का प्रतीक है जिसमें अपेक्षा की गई थी कि स्थानीय जनसहभागिता से गांवों का विकास किया जाएगा। ग्राम पंचायतों और ग्रामसभा के मध्य वही संबंध होगा जो मंत्रीमंडल और विधानसभा के मध्य होता है। इस संशोधन ने ग्रामसभा को सशक्त और सार्थक स्थिति प्रदान की जिससे विकास योजनाओं मुख्यतः गरीबी उन्मूलन कार्यक्रमों में जनसाधारण की सहभागिता हो सके तथा ग्रामीण विकास के अंतिम लक्ष्य को प्राप्त किया जा सके। भारतीय राज्य संकल्पना में जनसहभागिता प्रारम्भ से ही राज्य व्यवस्था का महत्वपूर्ण आधार रही है। मनुष्य केसामाजिक विकास की प्रारंभिक अवस्था में जब कबीलाई शासन व्यवस्था उद्भूत हुई तो उसमें लिए जाने वाले सभी निर्णयों में कबीले के सदस्यों की सहमति एवं सहभागिता महत्वपूर्ण थी एवं प्रत्यक्ष रूप से संभव थी।
जब मानव जीवन की गतिविधियों के विस्तार एवं कार्य विभाजन से उद्भूत विशेषीकरण से सामाजिक जीवन भौगोलिक रूप से विस्तृत एवं जटिल हुआ तथा व्यापार वितरण की गतिविधियां बढ़ी तब संसाधनों के प्रचुर उत्पादन के साथ ही ग्रामसभा में जनसहभागिता: एक विश्लेषण राजस्थान के विशेष संदर्भ में डाॅ. निमिषा गौड़ भारतीय लोकतांत्रिक संरचना में शासन के तीसरे स्थानीय स्तर पर विद्यमान पंचायती राज प्रणाली में ग्रामसभा प्रत्यक्ष लोकतंत्र का प्रतीक है जिसमें अपेक्षा की गई थी कि स्थानीय जनसहभागिता से गांवों का विकास किया जाएगा। ग्राम पंचायतों और ग्रामसभा के मध्य वही संबंध होगा जो मंत्रीमंडल और विधानसभा के मध्य होता है। इस संशोधन ने ग्रामसभा को सशक्त और सार्थक स्थिति प्रदान की जिससे विकास योजनाओं मुख्यतः गरीबी उन्मूलन कार्यक्रमों में जनसाधारण की सहभागिता हो सके तथा ग्रामीण विकास के अंतिम लक्ष्य को प्राप्त किया जा सके। सामान्य प्रवृत्ति के मुख्यतः नियमन एवं निर्माण विकास कार्य भी करता था। परन्तु ऐसे बड़े पैमाने के राज्यतंत्र में प्रत्यक्ष जनसहभागिता ना तो सम्भव थी और ना ही वांछनीय। तब राज्यतंत्र को जन-इच्छा एवं जन-आवश्यकता के प्रति उत्तरदायी बनाने हेतु अनेक सामाजिक संस्थाएं यथा श्रेणी-व्यापार संगठन एवं ऋषि परम्परा के शिक्षण समूह आदि सामने आए जो परोक्ष जन सहभागिता की भूमिका अदा करते थे।
ऐसे में ही कबीलाई व्यवस्था का विकसित रूप ग्राम पंचायत के रूप में उभरा। दैनन्दिन कार्यों एवं आवश्यकताओंबड़ी राज व्यवस्थाएं विकसित हुई जिसमें राजतन्त्र बड़े क्षेत्र में की दृष्टि से आत्मनिर्भर ग्राम निकटवर्ती नगरों से प्राथमिक उपजों के विपणन एवं शहरी उत्पादों की प्राप्ति हेतु सम्पर्क भी रखते थे। ग्राम पंचायत एक ऐसी संस्था के रूप में उभरी जो ग्राम के सभी वर्गों के गणमान्य व्यक्तियों से निर्मित होती थी एवं स्थानीय मुद्दों पर ग्रामीणों से विचार-विनिमय द्वारा निर्णय करती थी। इस प्रकार प्रत्यक्ष जन सहभागिता कार्य सम्पन्न करने के अलावा ग्राम पंचायत ’लिंकिंग पिन माॅडल’ के रूप में भी कार्य करती थी और ग्राम पंचायत का मुखिया राजदरबार का प्रतिनिधि भी होने के नाते समय-समय पर ग्रामीणों की आवश्यकताओं, समस्याओं एवं गतिविधियों से वृहद् राज्यतंत्र को अवगत करा, आवश्यकतानुसार सहयोग सुनिश्चित कर परोक्ष जनसहभागिता की भूमिका अदा करता था।
ग्रामसभा नामक संस्था का अस्तित्व भारत के लिए नया नहीं था। ऋग्वेद ग्रंथ में ग्रामणी शब्द आता है जो पंच का पर्याय है। रामायण, महाभारत काल में ग्राम शासन की सबसे छोटी इकाई थी। गांव के पंच लोगों द्वारा स्थानीय जन से कर वसूल कर राजा का सहयोग करना वर्णित है। मनुस्मृति में भी मनु ग्राम के प्रशासन में स्वशासन का उल्लेख करता है तो कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी राजा को कम से कम 100 परिवार तथा अधिक से अधिक 500 परिवार के एक गांव की रचना का उल्लेख किया गया है। इसी तरह मौर्यकाल, गुप्तकाल, सल्तनतकाल, मध्यकाल तथा ब्रिटिशकाल तक गांव के शासन में केन्द्र का हस्तक्षेप कम से कम था। इन संस्थाओं के पास प्रशासनिक एवं न्यायिक दोनों शक्तियां थी क्योंकि आम स्थानीय जन की आवश्यकता व समस्या का समाधान उसी क्षेत्र में गांव की पंचायत से हो जाता था। इस उत्साह से पर्याप्त जन सहभागिता गांवों की पंचायतों में देखी जा सकती थी।
1947 में स्वतंत्रता से पूर्व सैंकड़ों वर्षों के विदेशी शासन में यह तानाबाना बिखर गया। यद्यपि ग्रामीण स्वशासन की व्यवस्था अक्षुण्ण रही। शासन की प्रवृत्ति विजातीय एवं सीमित शासक वर्ग की हितपूर्ति के उद्देश्य से संचालित होने से शासन का स्वरूप नियामकीय एवं एकपक्षीय गैरजवाबदेह प्रकृति का रहा जिसमें जनसहभागिता ना तो संभव थी और ना ही वांछनीय।
स्वतंत्रता के उपरांत भी भारतीय गणराज्य में राज व्यवस्था का स्वरूप तय करते समय पंच परमेश्वर की परम्परा को कायम रखते हुए भारतीय संविधान में राज्य सरकारों को ग्राम पंचायतों को सशक्त बनाने के निर्देश दिए गए और प्रथम पंचवर्षीय योजना में भी सामुदायिक विकास कार्यक्रम बड़े पैमाने पर जनकल्याण की भावना से प्रारंभ किए गए। परन्तु जनसहभागिता के अभाव एवं सरकारी कार्यों से जनता के अलगाव के कारण अपेक्षित परिणाम नहीं मिलने पर समस्या के निदान हेतु गठित बलवन्त राय मेहता समिति की सिफारिशों पर सरकारी एवं विकास कार्यों में जनसहभागिता को संस्थागत स्वरूप देने तथा जनसामान्य के सरकार से अलगाव को समाप्त कर सच्चे लोकतंत्र की संकल्पना के अनुरूप सरकार को जनता के प्रति सीधेतौर पर जवाबदेह बनाने हेतु त्रिस्तरीय पंचायतीराज व्यवस्था के रूप में पंडित जवाहरलाल नेहरू ने गांधीजी के 90वें जन्म दिवस पर 2 अक्तूबर, 1959 को राजस्थान के नागौर में पंचायती राज व्यवस्था का विधिवत् उदघाटन किया किन्तु इसे संवैधानिक स्वरूप 1993 में 73वें संविधान संशोधन में दिया गया जिसके तहत समूचे भारत में समान रूप से पंचायती राज व्यवस्था लागू हो गई।
ग्रामीण विकास में सक्रिय जनभागीदारी व स्थानीय समस्याओं के समुदाय द्वारा स्थानीय स्तर पर ही समाधान के उद्देश्य से पंचायतों को स्थानीय स्वायत्तशासी संस्था के रूप में स्थापित करने हेतु संविधान में भाग ;पगद्ध के अनुच्छेद-243(डी) में ’पंचायत’ को ग्रामीण अंचल की स्वशासन की संस्था के रूप में माना गया। इसी संशोधन की धारा 243 (जी) में पंचायतों की शक्ति, अधिकार एवं दायित्वों को रेखांकित किया जिसके अनुसरण में राज्य की विधायिका द्वारा कानूनन पंचायतों को ऐसी शक्तियां व अधिकार सौंपे जा सकेंगे, जोकि उन्हें स्वशासी संस्थाओं के रूप में कार्य करने में सक्षम बनाएं। इस कानून में पंचायतों को मुख्यतः निम्न भूमिका से जोड़ा गया -
1. आर्थिक विकास एवं सामाजिक न्यायलय की आयोजना तैयार करना (प्लान बनाना), एवं
2. आर्थिक विकास एवं सामाजिक न्याय संबंधी ऐसी योजनाओं का क्रियान्वयन करना, जोकि उन्हें सौंपी गई हो व जिनमें ग्याहरवीं अनुसूची में शामिल 29 विषय भी सम्मिलित किए जा सकेंगे।
सामूहिक निर्णय पर आधारित इस पंचायती राज व्यवस्था में ’पंचायती राज’ है, ’सरपंच राज’ नहीं। यद्यपि राजस्थान में 73वें संविधान संशोधन से पूर्व पंचायत अधिनियम 1953 में कहा गया था कि प्रत्येक पंचायत द्वारा निर्धारित तरीके, निर्धारित समय और निर्धारित अंतर के साथ पंचायत क्षेत्र के समस्त व्यस्क नागरिकों की एक सभा बुलाई जाएगी किंतु उक्त अधिनियम में ग्रामसभा की प्रकृति एवं कार्यों की अस्पष्टता थी।
तत्पश्चात् राजस्थान में नवीन पंचायती राज अधिनियम 1994 में स्वशासन के शीर्ष पर ग्रामसभा का स्पष्ट विवरण दिया गया जिसके अनुसार प्रत्येक पंचायत क्षेत्र के लिए एक ग्रामसभा होगी जिसमें पंचायत क्षेत्र के सभी गांवों के रजिस्ट्रीकृत व्यक्ति शामिल होंगे। प्रत्येक वर्ष में चार अनिवार्य बैठक का स्थान गणपूर्ति, सतर्कता, समिति की कार्यप्रणाली, कार्यों का वितरण तथा ग्राम सेवक की भूमिका स्पष्ट की गई। इसका मुख्य उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्र में जनभागीदारी के सहयोग से समग्र विकास सुनिश्चित करना था।
वस्तुतः यह महसूस किया गया कि पंचायती राज की निम्नतम संस्था ग्राम पंचायत स्तर पर कार्यरत ग्रामसभा एक बड़ी संस्था है जो संबंधित ग्राम पंचायत के समस्त मतदाताओं की वह सभा है जो गांव की विकास योजनाओं के निर्धारण, सम्पन्न हुए कार्यों का अनुमोदन तथा ग्राम पंचायत के बजट सहित सामाजिक अंकेक्षण का दायित्व निर्वाह करती है किंतु इस संस्था को संवैधानिक मान्यता देने के उपरान्त भी ग्रामीण जनता की पंचायती राज में वांछित भागीदारी नहीं हुई।
इसलिए पंचायती राज सशक्तिकरण हेतु राजस्थान पंचायती राज (संशोधन) विधेयक 2000 में सर्वप्रथम वार्डसभा का गठन किया जिसमें पंचायत क्षेत्र को वार्डों में विभक्त कर उस क्षेत्र के समस्त व्यस्क लोगों को शामिल कर लिया। इसकी संस्था की सदस्य संख्या सौ सदस्यों की होगी जो ग्राम पंचायत के पंच का निर्वाचन करते हैं। प्रत्येक वर्ष में वार्डसभा की अनिवार्य दो बैठकें होगी तथा ग्रामीण विकास से संबंधित समस्त प्रस्ताव प्रथमता वार्ड सभाओं में लिए जाएंगे तत्पश्चात् उन्हें ग्रामसभा में अनुमोदनार्थ रखा जाएगा। इस व्यवस्था से ग्रामीण विकास में वार्ड पंच की निर्णायक भूमिका हो गई तथा ऐसे व्यस्क व्यक्ति जिनका नाम मतदाता सूची में नहीं है, वे भी वार्डसभा में अपनी बात रखकर लोकतांत्रिक मूल्यों की स्थापना कर सकते हैं। यह प्रयास भी गांवों के संतुलित विकास में आम जनता की भागीदारी बढ़ाने के लिए किया गया था क्योंकि लोकतंत्र की मूल प्रवृति सत्ता के विकेन्द्रीकरण तथा जनसहभागिता के इर्द-गिर्द ही सिमटी है।
एक मई, 2000 को राजस्थान में पारित नागरिक को सूचना के अधिकार ने ग्रामसभा को अधिक सतर्कता के अवसर दिए। जवाबदेहिता निर्धारण के कार्य में जनसुनवाई की संकल्पना का समावेश सामाजिक अंकेक्षण की महत्वपूर्ण व्यवस्था के रूप में प्रकट हुआ जो ग्रामसभा में जन-सहभागिता को गुणात्मक रूप से उन्नत एवं निर्णायक बनाकर इस व्यवस्था का महत्व स्थापित करती है।
प्रत्यक्ष जनसहभागिता की सबसे महत्वपूर्ण संस्थागत व्यवस्था ग्रामसभा में जनसहभागिता कार्यों के प्रमुख दो प्रकार हैं - प्रस्तावक एवं अनुमोदनात्मक तथा 2. फीडबैक (प्रतिपुष्टि) एवं जवाबदेहिता निर्धारण।
ग्रामसभा के प्रथम प्रकार के कार्यों में विभिन्न विकास योजनाओं के स्थान व स्वरूप के निर्धारण के साथ-साथ लाभार्थी चयन के प्रस्ताव लेना एवं उनका अनुमोदन करना महत्वपूर्ण कार्य है। विभिन्न विकास एवं रोजगार योजनाओं के तहत प्रत्येक गतिविधि की कार्ययोजना का विवरण एवं काम की जरूरतों के बारे में बताने हेतु संभावित लाभार्थियों के साथ ग्रामसभा के सभी सदस्यों की भागीदारी युक्त एक खुली ’परियोजना बैठक’ बुलाने का प्रावधान, ग्रामसभा की ऐसी बैठक में ही सदस्यों द्वारा उस कार्य हेतु ’चैकसी एवं निगरानी समिति’ के सदस्यों का भी चुनाव किया जाता है जिसमें कमजोर वर्गों का भी उचित प्रतिनिधित्व हो। यह समिति क्रियान्वयन के दौरान कार्यों की प्रगति एवं गुणवत्ता पर नजर रखती है।
योजनाओं का प्रभावी क्रियान्वयन लाभार्थी ग्रामीणजन को सक्षम, सशक्त एवं क्रियाशील बना कर ही सम्भव है। वर्तमान युग में ज्ञान ही शक्ति है। विभिन्न योजनाओं एवं उनके क्रियान्वयन से जुड़ी जानकारियां एवं सूचनाएं पाकर ही आम जनता सवाल पूछने में और जवाबदेही तय करने में सक्षम हो सकती है।
सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 के प्रावधानों की मदद से प्राप्त सूचना एवं जानकारी से सम्पन्न स्थानीय ग्रामीण जनता द्वारा जन सुनवाई जैसे तरीकों से सरकारी योजनाओं के क्रियान्वयन का भौतिक सत्यापन एवं जांच-पड़ताल की संकल्पना ही अपने संस्थागत स्वरूप में ’सामाजिक अंकेक्षण’ (सोशियल आॅडिट) के नाम से उभर कर सामने आई है।
सामाजिक अंकेक्षण की अवधारणा ’ग्रामसभा’ के माध्यम से ही मूर्त रूप लेती है। ग्राम पंचायत स्तर पर ग्रामसभा द्वारा विभिन्न विकास योजनाओं की समीक्षा एवं संपरीक्षा करने के प्रावधान किए गए हैं। ग्रामसभा ही ग्राम पंचायत एवं स्थानीय सरकारी कर्मियों से स्थानीय स्तर पर क्रियान्वित योजनाओं एवं किए गए व्यय के बारे में खुले रूप में हिसाब लेकर उसकी तुलना में वास्तविक रूप से हुए व्यय का परीक्षण एवं निष्पादित कार्यों का भौतिक सत्यापन करती है।
मनरेगा एवं विभिन्न अन्य विकास एवं स्वरोजगार योजनाओं के कार्य एवं समयबद्ध लक्ष्य पूरे होने पर भी ग्रामसभा के सदस्यों एवं लाभार्थियों की एक खुली परियोजना बैठक बुलाने का प्रावधान है जिसमें परिपूर्णता आंकड़ों को प्रस्तुत कर उससे सम्बन्धित उभरे प्रश्नों के निदान के बाद ही परिपूर्णता प्रमाणपत्र जारी किया जाता है जिसके साथ ही ’चौकसी और निगरानी समिति’ की अंतिम रिपोर्ट भी नत्थी कर आगामी ग्रामसभा की बैठक में प्रस्तुत की जाती है।
अब प्रत्येक छः माही अन्तराल पर समावेशी जन सुनवाई के लिए ग्रामसभा की विशेष बैठक, जिसे ’सामाजिक अंकेक्षण फोरम’ का नाम दिया गया है, का आयोजन कार्यक्रम अधिकारी सुनिश्चित करता है जिसका एक अनिवार्य एजेंडा भी कानूनन तय किया गया है। इस बैठक में क्रियान्वयन निकाय से जुड़े अधिकारी प्रतिनिधि की उपस्थिति आवश्यक है परन्तु फोरम का अध्यक्ष, सचिव एवं कार्यवाही संचालक स्वतंत्र व्यक्ति होता है जो किसी भी क्रियान्वयन निकाय से जुड़ा नहीं हो।
ग्रामसभा के इस फोरम में सभी सूचनाएं जोर-जोर से पढ़कर सुनाने, व्यक्तियों द्वारा क्रियान्वयन अधिकारियों से सवाल पूछने, जानकारियां हासिल करने, खर्चों की जांच करने के प्रावधान हैं। इस तरह ग्रामवासियों को अपने अधिकारों की पड़ताल करने, जिन कार्यों का चुनाव किया गया था उनके बारे में चर्चा करने तथा कार्य की गुणवत्ता व कार्यक्रम से जुड़े कर्मचारियों के व्यवहार का आलोचनात्मक ढंग से मूल्यांकन करने का मौका दिया जाता है।
ग्रामसभा के सामाजिक अंकेक्षण फोरम की रिपोर्ट कार्यक्रम अधिकारी द्वारा जिला कलेक्टर को भेजी जाती है जिससे आवश्यक विभागीय, अनुशासनात्मक एवं कानूनी कार्यवाही सुनिश्चित की जा सके।
इस प्रकार ग्राम विकास एवं रोजगार से जुड़े विभिन्न कार्यक्रमों में ग्रामसभा के माध्यम से जनसहभागिता के विभिन्न प्रकारों यथा ग्रामसभा बैठकें, परियोजना बैठकें, जन सुनवाई एवं सामाजिक अंकेक्षण के माध्यम से सार्वजनिक निगरानी की एक ऐसी सतत् चलायमान प्रक्रिया की संकल्पना फलीभूत हो सकती है जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि लाभान्वितों की प्राथमिकताओं और अपेक्षाओं का पर्याप्त रूप से समावेश करते हुए और जनहित को दृष्टिगत रखते हुए प्रत्येक गतिविधि की रूपरेखा, निर्माण एवं क्रियान्वयन की प्रक्रिया स्थानीय परिस्थितियों के सबसे ज्यादा अनुकूल ढंग से संचालित हो।
इन सभी संस्थागत व्यवस्थाओं के साथ ही ग्रामीण जनता में शिक्षा; जानकारी एवं जागरुकता बढ़ाकर उन्हें ’शासित’ वर्ग की मनोवृत्ति से उबारना आवश्यक है जिससे वे अपने हक एवं अधिकारों को पहचान कर तथा कार्यों-प्रावधानों की जानकारी के साथ प्रभावी जनसहभागिता हेतु सक्षम हो। क्रियान्वयन तंत्र के साथ सभी स्तरों पर अन्तर्क्रिया एवं अपनी अधिकारपूर्ण मांगों से प्रभावी जनसहभागिता क्रियान्वयन तन्त्र को भी पारदर्शी, जवाबदेह एवं संवेदनशील बनाकर उसे ’शासक’ की बजाय ’लोकसेवक’ वाली मानसिकता वाला वर्ग बनाने में सक्षम है।
इस प्रकार ग्रामसभा के माध्यम से प्रभावी जनसहभागिता ही लोकतंत्र को सच्चे अर्थों में प्रत्यक्ष स्वरूप के साथ धरातल पर स्थापित कर सकती है जिससे समाज में पारदर्शिता एवं जवाबदेहिता की संस्कृति विकसित होगी और ग्रामीण पिछड़ा, दलित जन भी सक्षम बनकर राष्ट्र के सामाजिक-आर्थिक विकास में तुल्य सहभागी बन सकता है।
(लेखिका कनोड़िया महिला महाविद्यालय, जयपुर के लोक प्रशासन विभाग में व्याख्याता हैं)
ई-मेल: nimishagaurkite@gmail.com
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